शनिवार, 3 दिसंबर 2011

हौसला जुर्म है... बेबसी जुर्म है...

आज भविष्य बांचने का काम ज्योतिषी के बजाय अर्थशास्त्री कर रहे हैं. आर्थिक उतार-चढ़ाव के तामपान को मापते हुए जब अर्थशास्त्रियों ने यह भविष्यवाणी की कि अगली सदी अब एशिया की है, तो चीन और भारत की बांछे खिल गई. अगर सही मायने में आंकलन की जाए तो दुनिया पर बादशाहत का झंडा फहराने वाले अमेरिका के लिए खाड़ी युद्ध बहुत महंगा पड़ा. इसकी परिणती के रूप में 9/11 और फिर घोर आर्थिक मंदी ने उसकी रही सही कसर पूरी. हालांकि 9/11 और आर्थिक मंदी ने दुनिया के अर्थशास्त्र को नया पैरामीटर उपलब्ध कराया और इसी के नतीजे के रूप में अगली सदी एशिया की करार दी गई.
भारत के संबंध में बात की जाए तो यह विचार करना जरुरी हो जाता है कि एक ऐसा देश जहां घोर आर्थिक विषमताएं है, भ्रष्टाचार पूरे जोर पर है, निजी स्वार्थ जब देशहित पर भारी पड़ रहे हैं, ऐसे में वह कौन सा तत्व है जिसके बल पर भारत विश्व महाशक्ति बनने का ख्वाब पाल रहा है? उत्तर एक झटके में आता है कि महाशक्ति बनने का ख्वाब भारत अपनी युवाशक्ति के बल पर देख रहा है. बावजूद इसके अब समय आ गया है कि हम देखे कि हम अपने युवाओं को कौन से सुविधा और संसाधन तक उसकी पहुंच बना रहे हैं जिससे कि वह विश्व फलक पर अपनी खास पहचान बना सके.
सच कहा जाए तो अभी तक हमारे पास युवा संसाधन के इस्तामाल को कोई ठोस रोडमैप भी नहीं है. ऐसी स्थिति में चीन फिलहाल हमारे पर भारी है. हालांकि उसके पास इतनी बड़ी युवाशक्ति नहीं है लेकिन हाल के दशक में उसने खुद को काफी बदला है. यह बदलाव उसे भारत से एक कदम आगे खड़ा करता है. यदि वास्तव में हम आकलन करें तो हमारा निकट प्रतिद्वंदी चीन है, हर क्षेत्र में.
देश की खासी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है. स्वाभाविक है कि युवाओं की ज्यादा आबादी भी गांवों में ही रहती है, लेकिन वहां शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी मूलभूत चीजें अब भी पहुंच से दूर है. इसलिए युवाओं का संघर्ष और पलायन दोनों जारी है. ग्रामीण युवा रोजगार की तलास में शहरों की ओर भागते हैं लेकिन यहां भी उन्हें रोजगार का संकट दिखता है. शहरों में पारंपरिक रोजगार के अवसर जहां सिमटे हैं, वहीं गैरपारंपरिक रोजगार के अवसर बढ़े है. इन दोनों के बीच भारी गैप है. ग्रामीण युवा जो शहर आए हैं उन्हें रोजगार चाहिए लेकिन जहां रोजगार है उसके लिए उनके पास कौशल नहीं है. यह भारी खालीपन युवाओं के उत्साह और उनकी सामग्रिक विकास पर प्रश्नचिन्ह लगाता है तो साथ ही वह गैरपारंपरिक उद्योगों के फलने फूलने में बाधक भी सिद्ध होता है. सत्ता प्रतिष्ठान को गांवों में पारंपरिक व गैर पारंपरिक कार्य कौशल के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए. केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देने के नाम पर भारी भरकम योजनाएं लागू की है, लेकिन क्या सिर्फ योजनाएं वस्तुस्थिति के लिए काफी है. बुनियादी ढांचे के विकास के बगैर और कुशल कामगारों की कमी तथा भ्रष्टाचार की बलिबेदी पर ये सारी योजनाएं दम तोड़ रही है. मनरेगा जैसी सौ दिनी कार्य योजना ग्रामीण व कम शिक्षित या अनपढ़ युवाओं के लिए केवल छुनछुना मात्र इससे न तो उनका विकास हो सकता है और न हीं देश का. अगर यूपीए सरकार इसे अ
अपनी उपलब्धि मानती है तो यह भी कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है. क्योंकि यह युवा सपनों का कत्ल करने जैसा है.
दूसरी ओर शहरी युवाओं की बात करें तो स्थिति और भयावह है. उन्हें हर कदम पर प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है और इसके लिए उन्हें तकनीकी तौर पर ट्रेंड नहीं किया गया, जिससे उनकी मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही है. पेशेवर शिक्षा के पाठ्यक्रम इतने महंगे है कि मध्य आय वर्ग के परिवार वाले युवाओं के लिए यह पहुंच से बाहर है. उनकीे प्रतिभा कुंद हो रही है, जिसके नकारात्मक प्रभाव से देश नहीं बच सकता. आक्रोश का प्रस्फूटन होगा और समय रहते हमने इन आक्रोशों को शांत करने का यत्न नहीं किया तो महाशक्ति बनने के ख्वाब पानी के बुलबुले की तरह फूट जाएंगे.
राजनीति से लेकर विज्ञान और तकनीक तक फिलहाल जिन चमकते युवा चेहरों को सरकार प्रतीक के रूप में पेश कर रही है क्या उनमें से एक भी युवा उस वर्ग से जो रोज की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है? एक भी युवा बस्तर के जंगलों से निकल कर वह सिलीकॉन वेली गया है? नहीं. ये चमकते यूथ आईकॉन वे हैं जो सुविधा संपन्न तबके से ताल्लकुल रखते हैं. अगर कोई मध्य या निम्न मध्यवर्ग का युवा शिखर पर पहुंचा भी है तो उसका श्रेय सरकार या उसकी नीतियों को नहीं दिया जा सकता बल्कि वह अपनी प्रतीभा के बल पर पहुंचा है. सत्ता प्रतिष्ठान को विकसित भारत के महत्वपूर्ण संसाधन के सामग्रिक विकास के प्रति संवेदनशील होना होगा तभी ख्वाब हकीकत में बदलेंगे.

शनिवार, 12 नवंबर 2011

प्रेम और सौंदर्य का दस्तवेज है 'परिजात'


वैभवता का प्रतीक दुबई. संगमरमरी चमचमाहट लिए पालमैन होलट के फर्श पर
प्रतिविंवित होती तुलिकाधारक हेशम मल्लिक की कलाकृति, जयश्री भोसले की कविताओं
को नया अर्थ देती है. भाव और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम काव्य व चित्र
- यह जुगलबंदी काफी कुछ बासी छोड़ कर टटका सोचने पर विवश करती है और मानवीय
मूल्यों के प्रति संवेदनशीलता को प्रेम और सौंदर्य की ठोस जमीन मुहैया कराती
है. जयश्री भोसले की 21 कविताओं का संग्रह ‘परिजात’ खुद में परिपूर्ण है लेकिन
हेशम मल्लिक ने कविताओं के भाव को जैसे कैनवास पर उकेरा है, वह तारीफ-ए-काबिल
है.

हिंदुस्तां से हजारों मील दूर दुबई में 10 नवंबर की शाम जब इस काव्य-चित्र
प्रदर्शनी ‘प्रेरणा का प्रकाश’ का उद्घाटन हुआ तो होटल की वह लॉबी भारतीयता के
सुंगंध से सुवाशित हो उठी.

प्रदर्शनी तो 16 नवंबर तक चलेगी लेकिन काव्य-चित्र प्रदर्शनी का प्रचलन आम तौर
जो कि असाध्य माना जाता है वह लंबे समय तक साहित्य व कला प्रेमियों के स्मरण
में रहेगा.

संग्रह की एक –एक कविताएं प्रेम के बहुआयामी अर्थों को बड़ी दृढ़ता के साथ
परोसती है और इसकी संप्रेषणियता को प्रदर्शनी में लगे चित्र बल प्रदान करते
हैं, इससे यह लोगों तक सीधे-सीधे, बगैर किसी लाग-लपेट के अपने भावों के साथ
पहुंचती है. बड़ौदा में अपनी युवावस्था बीताने वाली जयश्री की यादों में भारत
और भारतीयता किस कदर बसी है और प्रेम की परिभाषा एक साथ कई चीजों को
सिलसिलेवार ढंग से जोड़ कर उसे रोमांस से आध्यात्म तक सफर तय कराती है. यह तो
कविताओं को पढ़ने पर ही जाना जा सकता है.

मल्लिक के अनुसार, किसी के लिपिबद्ध विचार और भाव को कैनवास पर उकेरना
निःसंदेह काफी चुनौतियों से भरा होता है लेकिन यह चुनौती तब आनंद में बदल जाता
है, जब लिपिकार का सक्रिय सहयोग बराबर दस्तक देती हो. वहीं जयश्री कहती हैं, ‘यह
जीये गये अनुभवों का आह्लादित भाव है और उसे मल्लिक ने अपनी पूरी ऊर्जा से
उकेरा है.’

प्रदर्शनी में लगे चित्रों की ओर लोग सहज ही आकर्षित हो रहे हैं क्योंकि लगता
है जैसे भाव कैनवास और रंगों के साथ बस अब छलक पड़ेंगे. यही इसकी खासियत व
सार्थकता भी है. जयश्री की कविताएं इन चित्रों की प्रेरणा और प्रतिरूप है.

गुरुवार, 30 जून 2011

यादों के झरोखे में रहोगी चवन्नी

चवन्नी, आज तुम साथ छोड़ रही हो. अपनी 57 साल की उम्र में से तुमने लगभग 30 साल तक तो मेरा साथ दिया ही. भलेहीं इधर चार -पांच वर्षों से रहने के बावजूद भी तुम कुछ अलग-थलग थी. गलती भी हमारी ही थी कि तुम्हारी पूछ कम कर दी थी, लेकिन क्या कहूं? जमाने के साथ तुम कदमताल नहीं कर पा रही थी.
हालांकि तुम्हारी उम्र कोई बहुत ज्यादा नहीं थी लेकिन बढ़ती महंगाई रूपी प्रदूषण ने तुम्हें 57 साल की उम्र में ही बुजुर्ग बना दिया और तुम लगातार बूढ़ी और कमजोर होती गई. डॉक्टर (रिजर्व बैंक) ने तुम्हारी आयु तय कर दी. आज की. 30 जून की. और आज तुम चल बसी. हमारी जेब में फिलहाल न हो कर भी न जाने क्यों आज तुम मेरे सबसे करीब लगी. बिल्‍कुल उन दिनों की तरह, जब कोलकाता की सड़कों पर सरकती ट्रामों में सफर के लिए बड़े शान से कंडक्टर को तुम्हें थमा दिया करता था.


पुरानी स्मृतियां कभी सुखद तो कभी मन को कचोटने वाली होती है. तुम्हारा जाना मन को कचोट रहा है. स्कूल जाते वक्त पापा एक रुपये का फटा-पुराना नोट या फिर सिक्का दे दिया करते थे. लेकिन तुम्हारा प्रेम ही था जो मुझे पान की गुमटी तक दौड़ा देता था. वहां से मैं चार चवन्नी ले लेता था.
दो चवन्नी के सिक्के ट्राम या बस का किराया देने के लिए तो एक आलू काटा और एक खट्टी बेर के लिए. तुम्हारी बदौलत, ट्राम की खिड़कियों से दौड़ती भागती महानगरीय जिंदगी को निहारना, बसों के दरवाजे पर लटक कर किलोल करना और फिर हुगली नदी के फेरीघाट से उस पार जाना, यादों में बसा है. एक लंबे समय तक तुम साथ-साथ रही.


एक बात और याद आती है चवन्नी- कभी गांव जाता तो तुम जरूर मेरे साथ होती, किसी न किसी जेब में. मोकामा का पुल पार करते वक्त या फिर पटना के गांधी सेतु से गंगा के हवाले तुम्हें करने में बड़ा आनंद आता. हालांकि यह मां ने ही सिखाया था. यह सोच कर कि गंगा मईया मेरे अगले जन्म को भी धन्य-धान्य से पूर्ण कर देगी, अगर आज जो तुम्हें उनके हवाले किया तो. इतने साथ-साथ रहे हम, लेकिन सच कहूं तो किसी ने मुझे आज तक चवन्नी छाप नहीं कहा.
हालांकि 'चवन्नी छाप' जुमला तब अस्तित्व में आया जब तुम्हारी कद्र धीरे-धीरे कम हो रही थी. तुम्हारा जाना सच बहुत खल रहा है, बावजूद इसके तुम्हें बचाने की कोई हूक दिल में नहीं उठ रही. आखिर तुम्हें बचा कर भी क्या कर लेंगे. अब तुम स्मृतियों में रह जाओगी. हालांकि एक और रास्ता है यादों में बसे रहने का - मेरा बेटा भी चवनियां मुस्की मारता है. भले ही पापा की तरह अपने बेटे को चवन्नी न दे सकूं लेकिन उसके होठों पर तुम्हारी मेहरबानी बनी रहे. यह आशीष तुम जरूर दे जाना.
अलविदा चवन्नी.

शुक्रवार, 17 जून 2011

जय हो बाबागीरी, जय हो गांधीगीरी की

अपने देश में बाबागीरी को कभी सकारात्मक लहजे में नहीं लिया गया. बाबागीरी की साख हमेशा स्याह पर्दे के भीतर रही, लेकिन भला हो कि बालीवुड के धुरंधर संजू बाबा ने रुपहले पर्दे पर गांधीगीरी दिखा कर 'गीरी' की साख को उबारा. इस पर जनमानस की अवधारणा बदली. दिन बीते, साल बीते, उसके बाद फिर भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ और काला धन को राष्‍रीय संपत्ति घोषित करने को लेकर बाबागीरी शुरु हो गई, बाबा के साथ चेले-चेलियों की जमात भी चिमटा बजाते सड़क पर नुक्कड़ नाटक करती हुई सामने आई.
सरकार के माथे पर पसीना चुहचुहाया, गरमी का जो मौसम था. लेकिन इस गरमी का निदान एयरकंडिशंड कमरे से बाहर था. बाबा के प्रति श्रद्धा से लबालब सरकार ने पहले तो बाबा की अगुआनी, मनुहार और आतिथ्य सत्कार के लिए उड़न खटोला विश्राम स्थल पर अपने चार-चार सिपाहसलार भेजे, मखमली कालीन पर खड़ाऊ चटकाते बाबा सबको आशीर्वाद दिये लेकिन कालाधन वापस लाने की छूट देने से टका सा जवाब दे दिया. यह सुनते ही सांप-संपेरों के देश की जनता और बाबा के चेलो-चेलियों ने चिमटा बजा फिर कहा- जय हो बाबा!
अब बाबा की बाबागीरी और रफ्तार से आगे बढ़ी. दिल्ली के रामलीला मैदान में. शायद भगवान राम इस मैदान में कभी नहीं आएं हो लीला दिखाने लेकिन बाबा हंगामी स्टेज लाइटिंग और साज-सज्जा उपकरणों से लैस अनेकानेक संत, मुनियों और मौलानओं की टोली के साथ अनशन लीला का साक्षात दर्शन कराया. सरकार दसों नख जोड़ कर बाबागीरी और बाबा की लीला देख भजन कीर्तन करती रही लेकिन बाबा ने भजन-कीर्तन में मग्न सरकार को घास नहीं डाली. फिर क्या था. सरकार बाबा को बाबागीरी से बढ़िया पासा खेलने का न्योता दिया, बाबा ने भी पासा फेंका, सरकार ने भी फेंका, बाबा हुए पस्त, बाबा की बाबागीरी भी हुए नष्ट. सरकार ने गिरगिट की तरह रंग बदला, रात … आधी रात को सरकार ने बाबा और बाबा के चेलो-चेलियों को दौड़ा कर दिल्ली से कर दिया तड़ीपार. हांफते, कांपते बाबा पहुंचे हरिद्वार, फिर शुरू की बाबागीरी लेकिन अंजाम के ढाक के तीन पात.
हालांकि बाबा के पहले भ्रष्टाचार पर गांधीवादी अन्ना हजारे ने सरकार के खिलाफ गांधीगीरी दिखाई थी, देश ने सरकार को कोसा था, जनलोकपाल को सराहा था. टीवी चैनलों ने 24*7 अन्ना की गांधीगीरी को कवर किया. देश की नई पीढ़ी अन्ना में गांधी को देखने लगी. मध्यवर्ग सड़कों पर आया. इंटरनेट पर कंमेंटो की झड़ी लगी. सरकार झुकी, जनता रुकी, बातचीत आगे बढ़ी. फिर आई खटास अन्ना के सिपाहसलार पारदर्शी के हिमायती तो सरकार के सिपाहसलार जनहित के लिए सब कुछ सार्वजनिक न करने के पैरोकार. फंस गई पेंच, अन्ना ने फिर दी धमकी शुरू कर देंगे, गांधीगीरी.

सरकार बाबागीरी-गांधीगीरी से सहमी-सकुचाई-भयभीत हो कह रही, चोलबे ना...बाबागीरी-गांधीगीरी, चलेगी तो बस सरकारगीरी. क्या पता कब तक चले 'गिरी सरकार.' देखते रहिए...देखते रहिए.

शुक्रवार, 13 मई 2011

आखिर छलछलाए आंखों को मिला सुकून

नंदीग्राम से सटे शुनिया चार के शुभोजीत मंडल अपनी खुशी नहीं छिपा पाये, 10.30 बजे के लगभग उनका फोन आया. कहने लगे- आखिर पाप का घड़ा फूटने लगा है. हमारे गांव में लोग खुश हैं लेकिन इसलिए नहीं कि ममता बनर्जी जीत रही हैं, उनकी पार्टी जीत रही है, बल्कि इसलिए कि वाममोर्चा अब सत्ता से बेदखल हो रही है. उनके आंखों को सकून मिल रहा है, चार सालों बाद. यहीं आंखें चार साल पहले छलछला रही थीं, यहीं आंखें उनसे अपने बेटे, पति और भाई की जान बख्शने के लिए आग्रह कर रही थीं, लेकिन उन आंखों के दर्द को वामपंथी काडरों ने पुलिस प्रशासन के साथ मिल कर जिस तरह और गहरा किया, वह 13 मई 2011 को इस रूप में सामने आ रहा है कि पश्चिम बंगाल से वामपंथ का लालकिला ढह रहा है, अपने सारे साजो-समान के साथ. शुभोजीत की बातों से ऐसा लग रहा था कि वह खुश होने के साथ ही बेचैन भी हैं. सुबह 10.40 बजे तक कांग्रेस- तृणमूल गठबंधन 203 सीटों पर बढ़त बनाये हुए थी वहीं वाममोर्चा 66 सीटों पर आगे थी.
समय कुछ बीता, तृणमूल कांग्रेस जीत गई, सत्ता की चाबी अब उसके कब्जे में थी. दोपहर 10.30 बजे वामपंथ का जो लालकिला ढह रहा था अब, दोपहर 12.10 बजे ढह गया. दो तिहाई बहुमत के साथ तृणमूल कांग्रेस पहली बार सत्ता में आई. 34 साल के वामशासन का अंत हुआ. अगर ममता मुख्यमंत्री बनती हैं तो राज्य को आजादी के बाद पहली बार कोई महिला मुख्यमंत्री के रूप में मिलेगी. ममता ने कहा है कि यह लोकतंत्र की जीत है. वाकई, वैसा राज्य जहां सुनियोजित तरीके से लोकतांत्रिक मूल्यों को खत्म करने की कोशिशे पिछले कई वर्षों से हो रही थी. उन कोशिशों का खात्मा हुआ. एक इतिहास बना, भविष्य के प्रति अनगिनत सपनों के साथ. भलेहीं इससे माकपा सांसद सलीम सहमत न हो और लालकिला के ढहने के संदर्भ को रुस के कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ व्याख्या कर रहे हो. लेकिन सच – सच के रूप में सामने था हालांकि अवशेष बरकार थे, पुनः किला बनने की उम्मीद के साथ.
अब देखना होगा जिस ममता बनर्जी ने अकेले दम पर वाममोर्चा जैसी सांगठनिक रूप से सशक्त दल को दहाई के आंकड़े पर समेट दिया. उनका कार्यकाल बंगाल को किस दिशा में ले जा रहा है. हालांकि अभी कुछ भी कहना न केवल जल्दबाजी होगी बल्कि अन्याय भी होगा. लेकिन राजनीतिक विश्लेषक यह कहने से नहीं हिचकते कि तृणमूल कांग्रेस वन मैन आर्मी है. ममता के अलावा पार्टी में कोई और नाम ऐसा नहीं है जो कि राज्य की राजनीति में खासी दखल रखता हो. एक जुमला बंगाल में बहुत पहले से प्रसिद्ध है - वाममोर्चा गलत काम भी सिस्टमेटिक ढंग से करता है, जब कि तृणमूल कांग्रेस या फिर ममता का हर सही काम भी अनसिस्टमेटिक होता है. ऐसे में राज्य की सत्ता भले बदल गई लेकिन राज्य की विकास की रफ्तार अचानक बहुत तेज हो जाएगी. इसकी उम्मीद भी नहीं है. हां, वाममोर्चा के हेठपन को एक धक्के की जरुरत थी और वह पूरा हुआ. उसकी निरंकुश प्रवृति स्याह हुई.
वाममोर्चा के हार के बाद नदिया जिले के चकदह और कृष्णनगर में हरा गुलाल खूब उड़ा और हरे रसगुल्ले से लोगों ने मुंह मीठा किया. बंगाल का लाल रंग अब हरा हो गया. जो टहटह लाल था वह अब गहरा हरा हो गया. स्थिति यह है कि न हारने वाले के मुंह से बोल फूट रहे हैं और न ही जीतने वाला कुछ कह पा रहा है. एक अजीब सी स्तब्धता अंदरखाने में पसरी है. इसकी व्याख्या के कई विंदु है. इस जीत के जश्न के साथ ही लोगों के मन में एक भय भी सताने लगा है कि क्या एक बार फिर शस्य श्यामला क्रांति भूमि बंगाल की धरती खून से लथपथ तो नहीं हो जाएगी? एकबारगी इससे असहमत होना संभव नहीं. राजनीतिक हिंसा के लिए कुख्यात रहे इस राज्य का भविष्य सुखद हो, इसकी कामना हर कोई करता है लेकिन फिर से राजनीतिक हिंसा वह भी बड़े पैमाने पर होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. बंगालवासियों को नई सरकार की मुबारकबाद.

शनिवार, 30 अप्रैल 2011

जिसमें दम, उसे नहीं गम

विधायक पर नाबालिग से दुष्कर्म का आरोप/ फिर दिखी विधायक की दबंगई / हत्या के आरोप में विधायक गिरफ्तार / मायावती ने कहा, सब पर होगी कार्रवाई / कोर्ट ने विधायक को हिरासत में भेजा.

इस तरह के शीर्षक वाली खबरें उत्तर प्रदेश के अखबारों और पाठकों के लिए नई नहीं हैं. इस तरह की खबरें अब कोई हलचल नहीं पैदा करतीं. जनता भी लंबे समय से राजनीतिक संरक्षण में पल रहे अपराध को देखने-सुनने की अभ्यस्त हो गई है. इन सब से बेफिक्र हो कर जनता और राजनेता अपने रुटीन के कामों में मस्त हैं. हां, कभी-कभार कोई जागरूक मतदाता या राजनीतिक दल राजनीति के अपराधीकरण की कड़े शब्दों में भत्र्सना कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं. सूबे में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. चुनावी तैयारियां शुरूहो गई हैं. उम्मीदवारों की सूची बनने लगी है. ऐसे में जिताऊ प्रत्याशियों की तलाश सभी दलों को है. सभी दलों के मुद्दे अलग हैं, सिद्धांत अलग हैं, शैली अलग है, लेकिन जिस चीज की सबमें समानता है, वह है जिताऊ प्रत्याशियों को मैदान में उतारने की होड़. इस कवायद में नैतिकता और आदर्श जैसी चीजें ताक पर रख दी जाती हैं. यह परंपरा दशकों से अपनी जड़ें जमाते-जमाते अब इतनी मजबूत हो गई है कि इससे मुक्ति की कोई उम्मीद नहीं दिखती.
चुनाव के पहले सभी दल, राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर चिंता जताते हुए इससे छुटकारा पाने की कसमें खाते हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में भी इस तरह की चिंता जताई गई थी, लेकिन किसी भी दल ने अपराधी पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों को टिकट देने में कोई कोताही नहीं की. इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि वर्तमान विधानसभा में बसपा के 68, सपा के 47, भाजपा के 18 विधायक ऐसे हैं जिन पर आपराधिक वारदातों को अंजाम देने, कराने या अप्रत्यक्ष रूप से संलिप्त होने के आरोप हैं. इसके अलावा विधानसभा में नौ निर्दलीय विधायक भी इसी तरह की पृष्ठभूमि वालेहैं.
उल्लेखनीय है कि 2007 के विधानसभा चुनाव में विभिन्न दलों के कुल 882 ऐसे उम्मीदवार किस्मत आजमा रहे थेे, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन 882 में उम्मीदवारों में से 142 विधानसभा में पहुंचने में कामयाब भी रहे. उसके पहले विधानसभा में विभिन्न दलों के 206 विधायक निर्वाचित हो कर आए थे, जिन पर हत्या, अपहरण सहित कई अन्य आपराधिक मामले दर्ज थे. इसी तरह 2012 के विधानसभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी ने अभी ही 162 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है. इनमें से 44 उम्मीदवार अपराधी पृष्ठभूमि के बताए जा रहे हैं, जिनमें सूबे के बाहुबली ब्रजेश सिंह के भतीजे सुशील सिंह को चंदौली से टिकट दिया गया है. इन पर कई धाराओं के अंतर्गत आपराधिक मामले दर्ज हैं. इसके अलावा सपा की ओर से प्रदेश के पूर्व मंत्री नंद गोपाल नंदी की हत्या मामले के अभियुक्त विजय मिश्रा को भदोही से टिकट दिया गया है. वहीं बसपा ने भी लगभग सभी सीटों के लिए सूची तैयार कर ली है, लेकिन वह भी ऐसे उम्मीदवारों से अछूती नहीं है. बसपा की उम्मीदवारों की सूची में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के घर आगजनी के मामले में आरोपी विजेंद्र प्रताप सिंह ऊर्फ बबलू का नाम फैजाबाद से तय है. यह तो सिर्फ बानगी भर है.
मायावती के शासनकाल में पार्टी के कई विधायकों ने अपने आपराधिक कृत्य से बसपा को शर्मसार किया है. इनमें पुरुषोत्तम द्विवेदी, योगेंद्र सागर, गुड्डू पंडित, आनंद सेन यादव सहित विजेंद्र प्रताप सिंह शामिल हैं. हालांकि मायावती ने हत्या के एक मामले में यमुना निषाद को न केवल मंत्रिमंडल से बाहर किया, बल्कि पार्टी से निलंबित भी कर दिया, जिनकी बाराबंकी में हुई दुर्घटना में मौत हो गई. इसी तरह मुख्यमंत्री मायावती ने फैजाबाद से विधायक आनंद सेन यादव द्वारा एक दलित समुदाय की लड़की सेदुष्कर्म करने तथा उसकी बाद में हत्या किए जाने के मामले में उन्हें पार्टी से निलंबित किया. वर्तमान में बसपा के आनंद सेन यादव, शेखर तिवारी, पुरुषोत्तम द्विवेदी, योगेंद्र सागर, गुड्डू पंडित, विजेंद्र प्रताप सिंह जेल में विभिन्न अपराधों की सजा काट रहे हैं, वहीं सपा के अमरमणि त्रिपाठी, विजय मिश्रा भी जेल की सलाखों के पीछे हैं. कभी बसपा में अपने बाहुबल के बल पर कद्दावर रहे मुख्तार अंसारी कुछ दिन पहले ही जेल से बाहर आए हैं, लेकिन उन्होंने बसपा से अब दूरी बना ली है और हिंदू-मुस्लिम एकता पार्टी नामक एक दल का गठन किया है.
बनारस में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार बद्री विशाल इसके लिए मतदाता भी उतना ही दोषी मानते हैं. अपनी बात को विस्तार देते हुए वह कहते हैं, ‘सत्ता पर मजबूत पकड़ के लिए एक-एक सीट महत्वपूर्ण होती है, बात चाहे किसी भी दल की हो. इसलिए बाहुबलियों का दामन थामने के लिए वे बाध्य होते हैं. दूसरी तरफ बाहुबली अपने आपराधिक कृत्यों की सजा से बचने के लिए राजनीतिक दलों की शरण में जाते हैं. और इन सबमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मतदाता भी बिरादरी तथा अन्य निजी हितों को ध्यान में रख योग्य उम्मीदवारों की बजाय बाहुबलियों को चुन कर भेजते हैं. यहां सबके लिए निजी हित ही सर्वोपरि हो जाता है.’
बद्री विशाल की बात से इस्तेफाक रखने वाले समाजशास्त्री मानवेंद्र उपाध्याय कहते हैं,  ‘वास्तव में लंबे समय से चली आ रही इस परंपरा की वजह से नई पीढ़ी इसकी अभ्यस्त हो चुकी है. वह मानसिक रूप से इससे छुटकारा पाने के लिए तैयार भी नहीं है, राजनीति के अपराधीकरण से मुक्ति के लिए राजनीतिक पार्टियों या फिर मतदाताओं द्वारा स्वत: पहल की उम्मीद पालना बेमानी है. इसके लिए जरूरी है कि कोई संस्था या संगठन निष्पक्ष रूप से मतदाताओं को इसके नकारात्मक पहलू को सामने रख कर उन्हें जागरूक बनाए और  इसके लिए मानसिक तौर पर उन्हें तैयार करें. तभी कुछ हो सकता है.’
राजनीति का अपराधीकरण प्रदेश को लगातार नुकसान पहुंचा रहा है, जबकि प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती कहती हैं कि जब तक किसी अभियुक्त पर अपराध सिद्ध नहीं हो जाता, उसे सजा नहीं हो जाती, तब तक उसे चुनाव लडऩे से वंचित किया जाना उचित नहीं है. कई ऐसे विधायक हैं, जिनके खिलाफ अपराधिक मामले तो दर्ज नहीं हैं, लेकिन उनकी दबंगई और अपराधियों की शह उनकी विजय में मददगार बनती है. अगर इस गंभीर और जनहितकारी मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया गया तो खतरा यह है कि आगामी विधानसभा में आपराधिक छवि के सदस्यों की संख्या और अधिक हो सकती हैं .
पहले राजनैतिक दल अपनी सोच और नीतियों के साथ जनता के बीच जाते थे. यह राजनीति का सुखद पहलू था. चुनाव सुधारों के बारे में मुख्य निर्वाचन आयुक्त डॉ. एसवाई कुरैशी ने कई बार राजनीति में अपराधीकरण पर अपनी चिंता जाहिर की है.  
1985 के विधानसभा चुनाव में 35 विधायक आपराधिक चरित्र के थे. 1989 के चुनाव में इनकी संख्या बढ़कर 50 हो गई. उसके बाद 1991 में हुए मध्यावधि चुनाव में इनकी संख्या बढ़कर 133 हो गई. और उसके बाद यह संख्या लगातार बढ़ती ही गई. लखनऊ के रह कर चुनाव सुधार के लिए मुहिम चला रहे प्रोफेसर डीपी सिंह कहते हैं, ‘यह राजनीति के पराभव का काल है. पहले जनप्रतिनिधि चुने जाते थे जो वास्तव में जनता की सेवा करते थे. 25 वर्ष पहले के अधिकतर जनप्रतिनिधियों का जीवन सादा होता था. लेकिन आज दिखावे की राजनीति और उसमें बढ़ते धन-बल के प्रभाव तथा अपराधियों की सामाजिक स्वीकार्यता ने स्थिति को खराब किया है. जब तक राजनैतिक दल और जनता दोनों ही इस पर ध्यान नहीं देंगे, बदलाव आसान न होगा.’

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

‘हमारा कोई राजनीतिक मकसद नहीं है’



पत्रकारिता छोड़ कर सूचना अधिकार कानून के लिए संघर्ष करते हुए मनीष सिसोदिया ने आरटीआई कार्यकर्ता के रूप में अपनी पहचान बनाई. उस दौरान उन्होंने महसूस किया कि भ्रष्टाचार को खत्म किए बगैर यह कानून बहुत ज्यादा सार्थक नहीं होगा. उन्होंने भ्रष्टाचार उन्मूलन आंदोलन की नींव रख कर सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. पर्दे के पीछे से इस आंदोलन की जमीन तैयार कर और उसे मंजिल तक पहुंचाने में लगे मनीष सिसोदिया से मेरी हुई बातचीत का अंश:-

देश में कई समस्याएं हैं लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आंदोलन का मन कैसे बना?
हम लोग सूचना के अधिकार कानून के लिए संघर्षरत थे. उसी दौरान यह महसूस किया कि यह कानून तब तक कारगर नहीं हो सकता, जब तक कि भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए कोई सख्त कानून नहीं होगा. इसके बाद हम लोग इस दिशा में बढऩे लगे, तभी लंबित लोकपाल विधेयक का मामला आया, लेकिन इसमें काफी खामियां थी. हमने जन लोकपाल विधेयक तैयार करने की ठानी और लोगों के सुझाव से जन लोकपाल विधेयक तैयार कराया तथा सरकार के समक्ष रखा. स्वाभाविक था सरकार नहीं मानी और हमारा आंदोलन शुरू हुआ. नतीजा सामने है.
 
आखिर इस आंदोलन के नेतृत्व के लिए आप लोगों ने अन्ना हजारे को ही क्यों चुना?
आरटीआई आंदोलन के समय से ही हम अन्ना को जानते थे. उन्होंने महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन किया है. ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति हैं. तो लगा ये हमारे इस आंदोलन को सही नेतृत्व दे सकते हैं. अन्ना ने भी हमारे प्रस्ताव को मान लिया.
 
क्या आपको उम्मीद थी कि आंदोलन जंतर-मंतर तक ही नहीं बल्कि देशव्यापी होगा?
जी हां, उम्मीद जरूर थी कि देश भर से समर्थन मिलेगा, लेकिन यह आंदोलन इतना बड़ा होगा, इसकी उम्मीद नहीं थी.
 
आंदोलन से इतने बड़े पैमाने पर लोगों के जुडऩे का कारण आप क्या मानते हैं?
कई कारण हैं, लोगों के भीतर भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश तो था ही, इसी बीच अरब देशों में हुए जनांदोलनों ने लोगों को मनोवैज्ञानिक रूप से मोटिवेट किया. इसके अलावा सोशल नेटवर्किंग साइट्स और इंटरनेट ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई.
 
किरण बेदी और स्वामी अग्निवेश को समिति में नहीं रखे जाने और दूसरी ओर पिता-पुत्र को समिति में जगह दिए जाने के खिलाफ आवाज उठी है, आपका इस पर विचार....
पहली बात, किरण बेदी और स्वामी अग्निवेश ने स्वयं ही समिति में रहने से मना कर दिया था, उनके पास अन्य दूसरी जिम्मेदारियां हैं और जहां तक शांति भूषण और प्रशांत भूषण जी की बात है तो दोनों ही कानून के विशेषज्ञ है, उन्हें उनकी विशेषज्ञता की वजह से पूरा देश जानता है. विधेयक के प्रारूप को बनाने में शुरू से ही दोनों ने अथक प्रयास किया है. और इस पर किसी तरह का विवाद खड़ा करने को कोई तुक नहीं है.
 
आपकी आगे की रणनीति?
देखिए, हमारा कोई राजनीतिक मकसद नहीं है. हमने सूचना के अधिकार कानून के लिए काम किया, अब भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए प्रयास हो रहा है, इसके आगे राजनीतिक सुधार का मामला है. इसके अतंरगत निर्वाचित सांसदों को वापस बुलाने का अधिकार और मतदाताओं के पास उम्मीदवारों के चुनाव में ‘इनमें  से कोई’ का  वैकल्पिक अधिकार भी शामिल है.
 
आंदोलन की तैयारी के बारे में बताएं?
नवंबर, 2010 से हम लोग इस दिशा में सक्रिय हुए. इसके बाद हमने कई स्तर पर लोगों को अपने साथ जोडऩे और उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ जागरूक करने का प्रयास किया. लोगों को जोडऩे के लिए हम लोगों ने अलग-अलग टीम बना कर देश भर का दौरा किया. साथ ही इंटरनेट के माध्यम से मसलन ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स का भी इस्तेमाल किया.

‘जनहित के लिए बार-बार करुंगा सरकार को ब्लैकमेल’


भ्रष्टाचार के खिलाफ देशभर में हुए आंदोलन से नायक बन कर उभरे 76 वर्षीय गांधीवादी अन्ना हजारे की आंखों में एक पुलकित भारत का सपना है. उनका मानना है कि बगैर संघर्ष के हम गांधी के स्वराज को हासिल नहीं कर सकते और इसमें सबसे बड़ी बाधा भ्रष्टाचार है,  देश में स्वायत्त लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों की जरूरत है. आंदोलन के उपरांत अन्ना हजारे से हुई मेरी बातचीत का मुख्य अंश:-

आंदोलन के समाप्त होते ही कई तरह के विवाद सामने आए हैं. इन विवादों की वजह क्या है?
देखिए, कहीं कोई विवाद नहीं है, लोकतंत्र में विचारों की अभिव्यक्ति की छूट है. हां कुछ बातों पर मतभेद थे, लेकिन वह संवादहीनता की वजह से था और अब वह खत्म हो चुका है.
 
आपके संबंध में कहा जा रहा है कि आपने सरकार पर दबाव डाल कर उसे ब्लैकमेल किया है?
जनहित के लिए मुझे सरकार पर दबाव बनाना पड़ा है और यदि सरकार ब्लैकमेल हुई है तो ऐसे कार्यों के लिए मैं सरकार को बार-बार ब्लैकमेल करना चाहूंगा.
 
आगे की रणनीति?
अभी एक समिति बनानी है. 16 अप्रैल से विधेयक का नया प्रारूप बनना शुरू हो जाएगा.  हालांकि मैं यह साफ कर देना चाहता हूं कि आंदोलन खत्म नहीं हुआ बल्कि अभी तो शुरुआत है. इसके अगले चरण में राजनीतिक सुधार का मामला है, जिसके तरह राइट टू रिकॉल, नेगेटिव वोटिंग शामिल है.
 
ड्रॉफ्ट समिति में पिता-पुत्र को रखे जाने पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं?
देखिए, हमने पिता-पुत्र के नाते प्रशांत भूषण या फिर शांति भूषण जी को नहीं रखा है. ड्राफ्ट बनाने के लिए कानून के विशेषज्ञों की जरूरत है और इन लोगों ने शुरू से ही इसके लिए अथक प्रयास किया है. इनका समिति में होना जरूरी था. इन दोनों को पूरा देश इनकी विशेषज्ञता की वजह से जानता है, न कि पिता-पुत्र होने की वजह से.
आपने नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की किस आधार पर प्रशंसा की?
मैने किसी व्यक्ति विशेष की प्रशंसा नहीं की. गुजरात और बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में हुए विकास कार्यों की प्रशंसा की और हम फिर कहते हैं कि गांवों के विकास के बगैर देश का विकास संभव नहीं. इसलिए दूसरे राज्यों को गुजरात और बिहार के गांवों की तर्ज पर अपने राज्यों के गांवों को विकसित बनाने का काम करना चाहिए.
नरेंद्र मोदी के कार्यों की आप प्रशंसा कर रहे हैं, जब कि उन पर दंगे कराने के आरोप है?
नहीं, मैं किसी भी प्रकार की हिंसा या सांप्रदायिक दंगों का कतई समर्थन नहीं करता. न ही व्यक्ति के तौर पर नरेंद्र मोदी की प्रशंसा कर रहा हूं. मैं पहले ही कह चुका हूं कि गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में हुए विकास कार्यों की सराहना करता हूं.
 
विधेयक के बनने वाले प्रारूप के लिए गठित समिति के कार्यों में कितनी पारदर्शिता होगी?
विधेयक का मसौदा तैयार करने की पूरी प्रक्रिया पारदर्शी होगी और पूरी प्रक्रिया वीडियो कांफ्रेंंसिंग के जरिए देशवासियों को दिखाई जाएगी. मसौदे की प्रति इंटरनेट पर तथा उसकी मुद्रित प्रतियां  गांव-गांव तक भेज कर सुझाव मंगाए जाएंगे.
 
देश में अनगिनत भ्रष्ट नेता और मंत्री हैं, फिर शरद पवार ही आपके निशाने पर क्यों हैं?
नहीं, नहीं. मेरे निशाने पर कोई व्यक्ति विशेष नहीं है. मेरे निशाने पर भ्रष्टाचारी हैं. मेरी लड़ाई भ्रष्टाचार की प्रवृति से है. 20 वर्षों से चल रही मेरी इस लड़ाई की वजह से महाराष्ट्र में कई मंत्री और 400 से अधिक अधिकारी नपे हैं. लेकिन उनसे मेरी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी और न है.
 
क्या महिला आरक्षण बिल का जो हस्र हुआ, वहीं हस्र इसका भी नहीं होगा?
मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसा नहीं होगा, और यदि इस विधेयक के प्रति सरकार कुछ अनपेक्षित कार्य करती है तो 15 अगस्त के बाद फिर आंदोलन शुरू होगा.
 
क्या समिति में दो अध्यक्षों के होने से समस्याएं खड़ी नहीं होगी?
नहीं, ऐसी बात नहीं है. और वैसे भी यह समिति दो महीनों के लिए है, जिसका काम सिर्फ लोकपाल बिल का प्रारूप बनाना भर है. कभी-कभी विषम परिस्थितियों में इस तरह का समझौता करना पड़ता है.    
 
समिति में सरकार द्वारा नामित पांचों सदस्यों की संपत्ति सार्वजिनक होगी और क्या आपके पांचों प्रतिनिधि जिनमें आप स्वयं शामिल है, अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करेंगे?
देखिए, यह जो समिति बनी है और इसके जो सदस्य हैं, वे कोई लाभ के पद पर नहीं है कि संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक किया जाए, लेकिन पारदर्शिता बनाए रखने के लिए सदस्यों की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने में हमें कोई दिक्कत नहीं है.
 
आपको संसद और लोकतंत्र पर कितना विश्वास है?

संसद और लोकतंत्र पर पूरा विश्वास है, लेकिन इस लोकतांत्रिक ढांचे में भ्रष्ट मंत्रियों और अधिकारियों ने सेंध लगा दी है. आजादी के बाद से ही देश संसद से कम और न्याय व्यवस्था से अधिक संचालित हो रहा है जो कि किसी लोकतंत्र के बहुत अच्छी बात नहीं है.
 
क्या आपके मन में कभी यह विचार नहीं आया कि चुनाव लडऩा चाहिए?
मैं एक आम आदमी हूं और चुनाव लडऩा अब आम आदमी के बूते की बात नहीं रह गई है, लोग चंद रुपयों के लिए किसी को भी वोट दे देते हैं. ऐसे में मेरी तो जमानत ही जब्त हो जाएगी. (हंसते हुए)
शायद सांसद या मंत्री बन कर आप ज्यादा लोगों के लिए काम कर सकते थे?
मैं एक आम आदमी के रूप में भी लोगों के लिए अपने स्तर पर बहुत काम कर रहा हूं. लोगों की सेवा के लिए सांसद या मंत्री होना जरूरी नहीं है बल्कि जरूरी है कि उनके दिल में जनहित के लिए जज्बा हो.
 
आंदोलन का स्वरूप इतना बड़ा हो जाएगा, इसकी कितनी उम्मीद थी?
बिलकुल उम्मीद नहीं थी कि आंदोलन इतना बड़ा होगा, लेकिन इस आंदोलन ने साफ कर दिया कि देश अब भ्रष्टाचारियों को बर्दाश्त नहीं करेगा. और यही कारण है कि सरकार की चूलें चार दिन में ही हिल गईं. 
 
नेगेटिव वोटिंग अगर लागू हो जाए तो परिदृश्य में क्या बदलाव आएगा?
बहुत कुछ बदल जाएगा. आज लोगों के पास ‘सांपनाथ’ और ‘नागनाथ’ में से किसी एक को चुनना ही है, विकल्प नहीं है. उम्मीदवार जीत के लिए करोड़ों रुपये खर्च करते हैं. लेकिन जब लोगों को नापंसदगी का अधिकार मिल जाएगा, तो पानी की तरह पैसे बहाने वाले नेताओं के होश ठिकाने आ जाएंगे और इससे भ्रष्टाचार को खत्म करने में भी मदद मिलेगी.
 
 

कैनवास पर राजस्थान की गुलाबी उजास



किरण सोनी गुप्ता प्रशासकीय अधिकारी होने के साथ ही एक उम्दा चित्रकार भी है, वह दोनों कार्यों के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित करती हैं, पढ़ें...

दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय और ताबूतों में बंद ममियां, बेजान आदम कद व आदिम काल की मूर्तियां चुपचाप अपने काल का प्रतिनिधित्व करते हुए सारी बातें करती हैं. संग्रहालय के गलियारों में लगे सोफे उनसे अनदेखे हैं लेकिन वे सोफे थके हारे पर्यटकों और शोधार्थियों को सकून के साथ अतीत को अतीत के संदर्भ में देखने, समझने की गुंजाइश पैदा करते हैं और वहीं सोफे अजंता गैलरी में जाने को प्रेरित भी करते हैं. यह गैलरी वर्षों से आड़ी तिरछी रेखाओं वाले कैनवास से जीवन को बड़े साफगोई से पेश करती आयी है. इसी कड़ी में किरण सोनी गुप्ता की तुलिका से निकले रंग ने जीवन के बहुरंगेपन को आलोकित किया है. किरण बताती हैं उन्होंने बचपन को बड़े मन से जीया है. और इसी मनमौजीपन में उन्होंने पेंसिल और ब्रश अपनी दीदी से छिप कर थामा, कभी रंग कैनवास से छिटक कर फर्स पर गिरे तो कभी कपड़ों पर, डांट भी सुनी और कुछ अच्छी कलाकारी बनने पर दीदी का दुलार भी मिला. दिन बीते, और बीतता गया बहुत कुछ. इसी बीच प्रशासनिक सेवा में आने पर किरण सोनी की व्यस्तता बढ़ी, समय सिमटा लेकिन चित्रकारी के फलक विस्तृत हो गये. गुड्डों-गुडिय़ों की थीम से शुरू हुआ सफर स्त्री विमर्श और जीवन के उन आयामों तक गया जहां आम तौर विरानी छायी रहती है.
संग्रहालय में लगी किरण सोनी की पेंटिंग प्रदर्शनी की थीम रेतीले प्रदेश राजस्थान की गुलाबी उजास पर है. जहां आड़ी तिरछी रेखाओं में महिलाओं के विभिन्न रूप विभिन्न रंगों की जुगलबंदी से एकाकार होते दिखे. ये सभी पेंटिग सिर्फ पारंपरिक तुलिका से ही नहीं उकेरे गये बल्कि गैरमशीनी तकनीक का इसमें बखुबी इस्तेमाल दिखा और यहीं लीक से हट कर की गई पेंटिंग न केवल देश में बल्कि विदेशों की कला दीर्घा में भी किरण की कलाकृति को विशिष्ठता प्रदान करती है.
कलाकार की संवेदना ने राजस्थानी जीवन शैली और इसके पीछे उस शैली को बल प्रदान करने वाले कारकों को रंगों में ढाल कर कैनवास पर दिखाने की कोशिश की है. किरण कहती हैं, ‘निसंदेह पेंटिंग के लिए जरुरी है कि चित्रकार संवेदनशील हो, उसी तरह बैगर संवेदनशीलता के प्रशासकीय कार्यों का भी निष्पादन नहीं हो सकता. इसलिए दोनों कार्य मेरे लिए पृथक-पृथक होने के बजाए एक दूसरे के पूरक बन गये हैं.’ किरण सोनी ने अपनी चित्रकारी की प्रतीभा का लोहा न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी मनवाया है. अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा सहित अन्य कई यूरोपीय देशों में उनकी प्रदर्शनी ने खासी प्रशंसा बटोरी है और कई देशी विदेशी अवार्ड भी अपने नाम किये हैं.

गुरुवार, 10 मार्च 2011

उत्तर-पूर्व में पाक के नापाक इरादे


म्यांमार में उत्तरी अराकान प्रदेश को स्वंतत्र राष्ट्र बनाने के लिए दो दशक से संघर्ष कर रहे सुन्नी मुस्लिम संप्रदाय के रोहिंगा अब भारत के लिए खतरा बनते जा रहे हैं. म्यांमार की सेना की सख्त कार्रवाई से रोहिंगाओं को म्यांमार से पलायन के लिए बाध्य होना पड़ा है. कई रोहिंगा नेता यूरोपिय देशों में तो भारी संख्या में रोहिंगा लड़ाके बांग्लादेश में शरण लिए हुए हैं. बांग्लादेश सरकार ने 'काक्स बाजार' जिले में इन शरणार्थियों के लिए दो शिविर भी लगाए हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन शिविरों में करीब 28 हजार रोहिंगा सपरिवार रह रहे हैं.
हाल में ही संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी किए गए रिपोर्ट में बांग्लादेश में तकरीबन तीन लाख रोहिंगा शरण लिए हुए हैं. अराकान की स्वतंत्रता की लड़ाई में इन्‍हें पाकिस्तान की ओर से भी मदद मिलती रही है. अपनी इस मदद के एवज में अब वह इनसे 'कीमत वसूलने' की तैयारी में है. पाकिस्‍तान अब इन रोहिंगाओं को भारत के खिलाफ इस्‍तेमाल करने में जुट गया है. पाक खूफिया एजेंसी आईएसआई इन छापामारा लड़ाकों को प्रशिक्षण देकर बांग्‍लादेश के रास्‍ते भारतीय सीमा में घुसपैठ करा रही है. ऐसा नहीं है कि भारतीय खूफिया एजेंसियां इस बात की जानकारी नहीं है. खूफिया विभाग ने इस संबंध में पश्चिम बंगाल और असम पुलिस को कई महत्‍वपूर्ण तथ्‍यों की जानकारी दी है.
गत 4 मार्च को त्रिपुरा पुलिस ने राजधानी अगरतला से तीन महिलाओं समेत दस रोहिंगाओं को गिरफ्तार किया. ये सभी लोग गैरकानूनी रूप से भारत में घुसे थे. बाद में इन्‍हें अदालत में पेश किया, जिसने उन्‍हें 14 दिनों के लिए हिरासत में भेज दिया. ये सभी लोग म्‍यांमार के मोंगोला इलाके के रहने वाले हैं.
इसके पहले इस साल 22 जनवरी को अंडमान-निकोबार द्वीप समूह से 700 किलोमीटर दूर समुद्र में थाईलैंड की समुद्री सुरक्षा बल ने भी 91 रोहिंगाओं को गिरफ्तार किया है. इनके पास भी थाई क्षेत्र में प्रवेश के लिए कोई वैध कागजात नहीं थे. 700 किलोमीटर दूर समुद्र में ये बगैर मोटर वाली नाव से सफर कर रहे थे. जबकि अराकान नेशनल रोहिंगा आर्गेनाइजेशन की ओर से 14 फरवरी, 2011 को एक प्रेस विज्ञप्तिजारी कर कहा, 'ये सभी रोहिंगा गलती से थाई जल क्षेत्र में चले गये थे. थाई सुरक्षा बलों को उनकी मजबूरी को समझना चाहिए'.
वास्तव में हाल के कुछ वर्षों में भारत के विभिन्न हिस्सों में रोहिंगाओं की मौजूदगी ने खुफिया विभाग के कान खड़े कर दिए हैं. दरअसल, खुफिया विभाग को रोहिंगाओं पर तब ध्यान गया जब कि वर्ष 2008 को क्रिसमस की पूर्व संध्या को हावड़ा रेलवे स्टेशन से 32 म्‍यांमारी रोहिंगा को बगैर वैध दस्तावेजों के गिरफ्तार किया गया. इनमें महिलाएं व बच्‍चे भी शामिल थे. इसके बाद हिंद महासागर से पांच मई 2010 को भारतीय तट रक्षकों ने 72 छोटी नौकाओं के साथ इन्हें गिरफ्तार किया. इन गिरफ्तार म्‍यांमारी रोहिंगाओं से पूछताछ में खुफिया विभाग को कई चौंकाने वाले तथ्य मिले हैं. खूफिया विभाग को मिली जानकारी के मुताबिक ये रोहिंगा दो मोर्चे पर अपनी लड़ाई एक साथ लड़ रहे हैं. एक तो अराकान को स्वतंत्र कराने के लिए पाकिस्तान से मिलने वाली मदद के लिए वह उसके इशारे पर भारत के खिलाफ गतिविधियों में शामिल हो रहे हैं, वहीं अराकान में म्‍यांमारी जुंटा सैनिकों द्वारा रोहिंगाओं पर किये जा रहे कथित अत्याचारों के खिलाफ लड़ रहे हैं.
यूनियन रोहिंगा कम्यूनिटी ऑफ यूरोप के महासचिव हमदान क्याव नैंग का कहना है कि म्यांमार में रोहिंगाओं पर जुंटा सैनिक दमन नीति चला रहे हैं. वहां खुलेआम मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है. मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों की रोकथाम के लिए उन्होंने विश्व समुदाय से खास कर भारत से एमनेस्टी इंटरनेशनल पर दबाव बनाने का आग्रह किया है. उन्होंने तीन सितंबर 2008 को बांग्लादेशी अखबार दैनिक युगांतर, पूर्वकोण में प्रकाशित खबर व फोटो को सभी देशों को भेजा था. इस रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि म्‍यांमार में किस तरह रोहिंगाओं को मस्जिद में नमाज अता करने से जुटां सैनिकों द्वारा रोका जा रहा है. इसी तरह मांगदोव शहर से सटे रियांगचन गांव के मेई मोहमद रेदान नामक युवक को मानवाधिकार की रक्षा से संबंधित एक पत्रिका का प्रकाशन करने के आरोप में गिरतार किया गया. जुंटा सैनिकों की सहयोगी नसाका फोर्स ने उसे देकीबुनिया शिविर से गिरफ्तार किया और टार्चर किया. इस क्रम में उसकी जीभ काट ली गई. इसी तरह यूनियन रोहिंगा कम्यूनिटी ऑफ यूरोप की ओर से जारी एक विज्ञप्ति में बताया गया था कि पिछले दो वर्षों में जुंटा सैनिकों द्वारा 17 रोहिंगा समुदाय के धार्मिक नेताओं को गिरतार किया गया लेकिन अब वह कहां और कैसे है इनकी जानकारी किसी को नहीं है. इन 17 धार्मिक नेताओं में मौलाना मोहमद सोहाब, मौलाना मोहमद नूर हसन, नैमुल हक भी शामिल है.
रोहिंगाओं के स्वतंत्रता संग्राम में पाकिस्तान धन, हथियार व प्रशिक्षण दे कर मदद करता रहा है. भारत में 26/11 की घटना में भारत-पाक सीमा पर चौकसी कड़ी कर दी गई. इसके साथ ही सरहदी इलाके के स्थानीय लोगों का सहयोग भी पाक आतंकियों को नहीं मिल रहा है. इसका तोड़ निकालने के लिए पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने बांग्लादेश के रास्ते छापामार युद्ध की कला में निपुण इन रोहिंगाओं को भारत में आंतक फैलाने के लिए इस्तेमाल कर रहा है. अब जब कि भारतीय खुफिया एजेंसी ने यह खुलासा किया है कि बांग्लादेश सीमा से सटे पश्चिम बंगाल और असम से सीमावर्ती मुस्लिम बहुल इलाकों में तकरीबन डेढ़ हजार रोहिंगा लड़ाके छुपे हैं. खुफिया एजेंसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इनके पास विमान व युद्धपोतों को छोड़ कर लगभग सभी प्रकार के अत्याधुनिक हथियार उपलब्ध है. खुफिया एजेंसी ने पश्चिम बंगाल व असम पुलिस को जो सूचना उपलब्ध कराई है उसके अनुसार पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई इन रोहिंगा छापामारों को पाकिस्तान में छापामार युद्ध का प्रशिक्षण देकर बांग्लादेश के रास्ते भारत में घुसपैठ करा रही है.
वर्ष 1991 से म्यांमार में रोहिंगा और जुंटा सैनिकों के बीच छापामार युद्ध चल रहा है, लेकिन बीते तीन वर्षों से जुंटा सैनिकों ने रोहिंगाओं के आंदोलन को दमन करने का अभियान छेड़ दिया है. सेना के खिलाफ अपने अभियान के लिए वे अब मुस्लिम राष्‍ट्रों की ओर मदद के लिए देख रहे हैं.
बांग्‍लादेश सरकार अपने उस वादे पर भी अमल करती नजर नहीं आ रही जिसमें उसने यह कहा था कि उनके देश की जमीन का इस्‍तेमाल भारत विरोधी कार्यों के लिए नहीं किया जाएगा. जानकारी के अनुसार बांग्‍लोदशी जमीन पर उन्‍हें हर तरह की मदद मुहैया कराई जा रही है, वहीं आईएसआई भी उन्‍हें हथियार चलाने से लेकर अन्‍य सभी तरह के सन्‍य प्रशिक्षण देकर भारत में घुसपैठ कराने में जुटी है. खूफिया अधिकारियों के मुताबिक पश्चिम बंगाल के सुंदरवन के जलमार्ग से बांग्लादेश के खुलना और सतखिरा होकर भारत में घुसपैठ कर रहे हैं. गुप्त सूचना के अनुसार कुछ छापामारों के उत्तर चौबीस परगना के बांग्लादेश सीमा से सटे इलाकों और दक्षिण चौबीस परगना के कैनिन, घुटियारी शरीफ, मगराहाट, संग्र्रामपुर, देउला, मल्लिकपुर और सोनारपुर में बांग्लादेशी घुसपैठियों के बीच छिपे होने की आशंका है. इनमें भारी संख्या में महिलाएं भी शामिल है.

सोमवार, 7 मार्च 2011

शिक्षा की नई राह पर दौड़ने को तैयार है बिहार


विकास के प्रति बिहार की अकुलाहट उस राज्य की जीजीविषा को दर्शाती है. पिछड़ेपन के दंश से उबरने की नित नई कोशिशें अब रंग लाने लगी हैं. एक तरफ सूबे के आठवीं कक्षा तक के 70,000 स्कूल ऑनलाइन हो गए हैं, तो वहीं सरकार ने अब सूबे में तीन किलोमीटर के दायरे में एक मिडिल स्कूल खोलने की घोषणा की है. जिससे मद्धिम हो रही शिक्षा की लौ सशक्त हो सके.

हालांकि केंद्र सरकार ने इसके पहले एक प्रस्ताव पारित किया था कि देश के सभी राज्यों में पांच किलोमीटर के दायरे में एक मिडिल स्कूल खोला जाए, ताकि अधिक से अधिक बच्चे शिक्षा के ज्योति से प्रकाशित हो सकें. इस मामले में बिहार ने दायरे को कम करते हुए तीन किलोमीटर कर दिया है. राज्य सरकार ने उम्मीद जताई है कि इससे राज्य में शिक्षा दर बढ़ाने में मदद मिलेगी. इसके पहले सरकार ने स्कूली छात्राओं को साइकिल वर्दी देने की सफलता देख चुकी है. शिक्षा के क्षेत्र में बिहार का अतीत विडंबनाओं से भरा है.

कभी नकल के लिए यह राज्य कुख्यात था, वहीं आईएएस और आईपीएस के चयन में बिहारी छात्रों का हमेशा से दबदबा रहा है. पिछले कुछ वर्षों में राज्य की शिक्षा व्यवस्था में सुधार हुआ हैं और शिक्षा के लिए होने वाले पलायन पर भी विराम लगा है. उच्च शिक्षा के लिए भी सरकार ने कई विशेष योजनाओं का कार्यान्वयन किया है, इसमें नालंदा विश्वविद्यालय को फिर से विश्वस्तरीय शिक्षा केंद्र के रूप में विकसित करना भी है.

सरकार की ओर से लांच वेबसाइट "डब्लूडब्लूडब्लू डॉट स्कूल रिपोर्ट कार्डर्स डॉट इन" पर सभी ऑनलाइन विद्यालयों के विषय में जानकारियां उपलब्ध हैं. यह व्यवस्था जिला शिक्षा सूचना व्यवस्था (डीआईएसई) नामक योजना के तहत की गई है, जिसके लिए "केन्द्रीय मानव संसाधन विभाग" और "यूनिसेफ" मदद कर रहा है. शिक्षा विभाग के मुताबिक इस योजना के तहत राज्य के सभी प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों को रखा गया है.

तो वहीं सरकार ने मिडिल स्कूलों को खोलने के लिए बजट में से 190 करोड़ रुपए इस मद में आवंटित करने की घोषणा की है. जबकि दूसरी ओर राज्य की शिक्षा व्यवस्था का स्याह पक्ष यह है कि अभी भी 8208 प्राथमिक विद्यालय भवन के अभाव में बगीचे और खेत खलिहानों में चल रहे हैं. वित्तवर्ष 2011-12 के बजट में सरकार ने 9379.72 करोड़ रुपए शिक्षा मद में रखा है. इतनी बड़ी राशि इसके पहले शिक्षा मद के लिए कभी आवंटित नहीं की गई. इससे उम्मीद जगी है कि जिन प्रथामिक विद्यालयों के भवन नहीं है उन विद्यालयों के लिए इस वित्तवर्ष में भवन बन जाएंगे. हालांकि बजट पेश होने के पूर्व ही 4496 स्कूलों के भवन निर्माण के आदेश दिए जा चुके हैं. बिहार में प्राथमिक स्तर पर अध्यापकों के 4,79,219 पद स्वीकृत हैं. शिक्षा के अधिकार कानून के तहत छात्र और अध्यापक के अनुपात संबंधी प्रावधान को पूरा करने के लिए अतिरिक्त 96,534 अध्यापकों की आवश्यकता है. इसके अतिरिक्त प्राथमिक स्तर पर 27,696 अंशकालिक अनुदेशकों (इन्स्ट्रक्टर) की जरूरत है. राज्य के मानव संसाधन विकासमंत्री प्रशांत कुमार शाही ने विधानसभा के बजट 2011-12 पर बहस के दौरान राज्य को भरोसा दिलाया कि इन सभी रिक्त पदों पर शीघ्र ही नियुक्ति की जाएगी और शिक्षा के स्तर को राष्ट्रीय औसत स्तर तक ले जाया जाएगा.

मंगलवार, 1 मार्च 2011

पश्चिम बंगालः राजनीतिक धूप-छांव

जनाक्रोश और उससे जन्मी क्रांति ने ट्यूनिशिया और मिस्र में लंबे समय से सत्ता पर काबिज तानाशाहों को विदा कर दिया. लीबिया, यमन, जार्डन सहित कई देशों में लोकतंत्र के लिए क्रांति हो रही है. चीन में भी लोग सड़क पर उतरे. यहां स्थितियां अलग थी, अपनी ही लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ. पश्चिम बंगाल की सत्ता पर भी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार काबिज है. पिछले साढ़े तीन दशक से. यहां भी बदलाव की बयार पिछले कुछ सालों से देखी जा रही है. नजर विधानसभा चुनाव पर है. आखिरकार इंतजार खत्म हुई. हालांकि वैसा कुछ नहीं है कि समय बीत रहा हो या बीत गया हो. सब कुछ अपने वक्त से ही हो रहा है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से पश्चिम बंगाल की राजनीति के धूप-छांव ने लोगों की निगाहें होने वाले विधानसभा चुनाव पर केंद्रीत कर दी है. हालांकि पश्चिम बंगाल के अलावा देश के अन्य चार राज्यों में विधानसभा चुनाव की चुनाव आयोग ने एक मार्च को घोषणा कर दी है. एक तरह से इन राज्यों में चुनावी डुगडुगी बज गई.
आज दुनिया भर में जहां भी सत्ता में कम्युनिस्ट हैं, वहां लोकतंत्र स्याह हुआ है. इसके कई उदाहरण है. भारत में भी दो राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में हैं. पश्चिम बंगाल और केरल. बावजूद इसके पश्चिम बंगाल की स्थितियां केरल के मुकाबले कुछ ज्यादा ही चिंतित करने वाली रही है. शेष असम, पुंडुचेरी, तमिलनाडु की भी अपनी-अपनी समस्याएं हैं लेकिन पश्चिम बंगाल की समस्याएं और स्थितियां जुदा हैं. चुनाव आयोग की घोषणा के अनुसार बंगाल में 294 सीटों के लिए छह चरणों में 18, 23, 27 अप्रैल, 3, 7 और 10 मई चुनाव होने हैं.
यहां होने वाले इस चुनाव के नतीजे क्या होंगे ? अनुमान सबकों है- वाममोर्चा को भी, मुख्य विपक्षी तृणमूल कांग्रेस को भी और बंगाल की जनता को भी. लेकिन क्या ये अनुमान वास्तविकता में बदलेंगे? कयास लगने शुरू हो गये हैं. कभी किसानों, मजदूरों, सर्वहारा वर्ग और बुद्धिजीवियों की के बल पर वाममोर्चा ताल ठोकते हुए साढ़े तीन दशक पूर्व राइटर्स में घुसी थी. कामरेड ज्योति बसु के नेतृत्व में. हालात बदल गये, न ज्योति बसु रहे, न माकपा वह रही. आज वहीं किसान, मजदूर, सर्वहारा वर्ग और बुद्धिजीवी माकपा के विऱोधी हो गये हैं. सड़कों पर भी उतरे हैं. हालांकि बंगाल में सड़क पर उतरने की संस्कृति को माकपा ने ही परवान चढ़ाया, आज वही गले की फांस बनी है.
चुनावी घोषणा होते ही राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई है. यह संयोग ही है कि चुनाव की घोषणा भी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के जन्मदिन के दिन ही हुआ. हालांकि मुख्यमंत्री ने अपना जन्मदिन काफी सादगी से मनाया. चुनाव की तारीख की घोषणा होते ही राजनीतिक विशलेषकों में पश्चिम बंगाल में वर्षों से चली आ रही राजनीतिक हिंसा के और बढ़ने या फिर कहें कि सारे रिकार्ड तोड़ने की आशंका चिंता पैदा कर रही है. इस आशंका को नंदीग्राम में 14 मार्च, 2007 को दिन के ऊजाले में ‘चप्पल पहने पुलिसवालों’ द्वारा की गई कार्रवाई बिना किसी शक के पुष्टि करती हैं. वास्तव में, हिंसा में उबाल की शुरुआत 24 नवंबर, 2010 को उस समय हुई, जब शुनिया चार से खेजुरी-नंदीग्राम पर नाकाम हमला हुआ. करीब दौ सौ हथियारबंद लोगों ने कामारडा गांव में घुस कर बमबारी शुरू कर दी. उनका उद्देश्य तृणमूल समथर्कों को डराना और अपनी खोई जमीन पर नियंत्रण कायम करना था. इसके बाद ममता बनर्जी ने केंद्र पर राज्य की वाममोर्चा सरकार और माकपा के खिलाफ ठोस कदम उठाने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया. वास्तव में बंगाल के वर्तमान राजनीतिक हालात को देखने पर यह साफ लगता है कि माकपा का लाल-दस्ता सलवा जुडूम का माकपाई संस्करण बन गया है. अगर राज्य के जंगल महल और लालगढ़ की ओर ध्यान केंद्रीत करे और वहां के तथ्यों पर नजर दौड़ाये तो स्थित और भयानक नजर आती है. स्थानीय बांग्ला अखबार एक दिन ने अपने 2 सितंबर 2010 के अंक में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इसके अनुसार जंगल महल के झाडग़्राम में 52 शिविर और सात ब्लॉकों में 1620 हथियारबंद कार्यकर्ता जमे हुए हैं. गैर आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार इस इलाके में तकरीबन 90 हर्मद शिविर और 2500 सशस्त्र माकपा के हथियारबंद लाल-दस्ते के सदस्यों के मौजूद होने की सूचना है. हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री पी चिंदबरम के मुताबिक 86 शिविर वहां चल रहे हैं. इसी तरह स्थानीय पत्रकारों के दावों को माने तो लालगढ़ के विद्रोह के पूर्व एक दशक से भी कम समय में 100 से भी अधिक लोगों की माकपाइयों ने हत्या कर दी.
उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, 15 दिसंबर, 2010 तक इन झड़पों में मारे गए और घायल हुए तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं की संख्या क्रमश: 96 एवं 1,237 थी. इसी तरह माकपा के मारे गए एवं घायल कार्यकर्ताओं की संख्या क्रमश: 65 और 773 थी. इन झड़पों में मारे गए एवं घायल कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की संख्या भी क्रमश: 15 एवं 221 थी. ये आंकड़े खतरनाक तस्वीर पेश करते हैं और पश्चिम बंगाल में कानून- व्यवस्था की बिगड़ी हालत की ओर संकेत करते हैं. जंगल महल में संयुक्त बलों की तैनाती की आखिर क्या जरूरत है जब माकपा ने कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए हथियारबंद कार्यकर्ताओं को तैनात कर रखा है? इन हालातों को देखने के बाद यह साफ हो जाता है कि पश्चिम बंगाल देश का इकलौता ऐसा राज्य है जहां पुलिस सत्तारुढ़ दल काडर के रूप में कार्य करती है. हालांकि उपरोक्त तथ्यों की मैंने पहले भी चर्चा की है. अब के परिप्रेक्ष्य के साथ देखना होगा कि क्या पश्चिम बंगाल में निष्पक्ष चुनाव कराना चुनाव आयोग के लिए बड़ी चुनौती नहीं होगी, जब कि स्थानीय पुलिस सत्ताधारी दल के समर्थक के रूप में कार्य करती हो. निसंदेह आम बंगाली (बंगाल में रहने वाले सभी भाषा-भाषी) अपने मताधिकार के प्रति देश के अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा जागरूक है. बावजूद इसके “साइंटिफिक पोलिंग” को ‘मैनेज’ कराने में माकपा को खासा अनुभव है. और इसी अनुभव के बल पर वह पिछले साढ़े तीन दशक से सत्ता में बैठी है. लेकिन अब उसका जनाधार खसकता हुआ दिखता है लेकिन वास्तविक तस्वीर चुनाव के नतीजे साफ कर देंगे. जनता पर कमजोर होती पकड़ से पार्टी के चाणक्य भली-भांति परिचित हैं और दरकते लाल-गढ़ को बचाने के लिए सिवाय बयानबाजी करने के उनके पास कुछ भी नहीं है. कथित नैतिकता, सैद्धांतिक राजनीति के छलावे से छली जनता के सामने अब तस्वीर थोड़ी साफ हुई है.
यहां गौर करने वाली बात है कि बंगाल की सत्ता पर काबिज वाममोर्चा के खिलाफ इससे पहले इतना जनाक्रोश नहीं दिखा था, जो अब है. अर्थात एंटीइंकांबेंसी फैक्टर पूरे जोर पर है. इसका फायदा निश्चित रूप से तृणमूल कांग्रेस को मिलेगा. बाकी चुनावी होने तक और कितनी लाशें गिरेंगी, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती.

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

प्रणव ने लगाया जयकार, विपक्ष ने कहा-बंटाधार


शुक्रवार को केंद्रीय रेल मंत्री ममता बनर्जी ने वित्तवर्ष 2011-12 के लिए रेल बजट पेश कर रही थी, वहीं बिहार विधानसभा में उप मुख्यमंत्री सह वित्तमंत्री सुशील कुमार मोदी राज्य का बजट पेश कर रहे थे. विपक्षी दलों और वित्तविशलेषकों ने अपने -अपने ढंग से दोनों बजट का विशलेषण किया है, लेकिन जो एक बात दोनों में साझा है, वह यह कि आम लोगों को सीधे-सीधे दिखने वाले लाभ को बजट में दर्शाया गया है. एक तरफ ममता दीदी ने पिछले आठ वर्षों से चली आ रही यात्री किराया नहीं बढ़ाने की परंपरा का निर्वाह किया. वहीं सुशील मोदी ने धान, चावल, गेहूं, आटा, मैदा और सूजी को वैटमुक्त करने का प्रस्ताव देकर खाद्यान्न की कीमतों को नियंत्रित रख आम बिहारियों के दिल को जीतने का प्रयास किया. हालांकि सुशील कुमार मोदी ने 13 करोड़ के घाटे का बजट पेश किया. पिछले वर्ष की तुलना में बिहार का बजट घाटा4.76 करोड़ रुपये और बढ़ा है. बजट में पहली बार स्थानीय निकायों के लिए बजट पुस्तिका प्रकाशित करने का प्रावधान किया है, वहीं अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए राशि का भी प्रावधान किया है. मोदी ने कुल 65325.87 करोड़ रुपया वित्तवर्ष 2011-12 के लिए बजट पेश किया.

हालांकि बजट की बारीकियां आम लोगों के समझ के बाहर की चीज है, बावजूद इसके रेल बजट की झलकियों को देखते ही लोग सहज अंदाजा लगा लेते है कि ममता दीदी आखिर अपने बजट से किसे खुश करना चाहती हैं. वास्तव में उनकी नजर बंगाल में अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है और उन्होंने उसे देखते हुए ही यह बजट तैयार किया. इसलिए इसे कहा जा रहा है कि - बंगाल चली ममता की रेल. लेकिन जब हम बिहार की बात करते हैं तो यह बजट भी आम तौर पर जनोन्मुख लगता है, कुछ लीक से हट कर करने की इच्छाशक्ति भी दिखती है. हालांकि भारतीय राजनीति की परंपरा के अनुसार विपक्षी दलों ने इस बजट को निराशाजनक, दिशाहीन, गरीबी बढाने वाला तथा कभी न पूरा होने वाले घोषणाओं का पिटारा बताया है, जो कि नया नहीं है. इस तरह की आलोचना की सत्तापक्ष और आम लोग आदी हो गये हैं. इस बजट की टीका-टिप्पणी से अलग बिहार चैंबर ऑफ कामर्स के अध्यक्ष ओ पी शाह इस बजट की सराहना की है और इससे प्रदेश की आर्थिक स्थिति सुदृढ होने की उम्मीद जता कर विपक्षी दलों की आलोचना की हवा निकाल दी है.

हालांकि एक बात है कि राज्य सरकार ने बजट में अपने कर एवं गैर कर का हिस्सा मात्र 15568 करोड रुपया बताया है, जो राज्य की अपनी आमदनी से आएगा, अर्थात बजट के करीब 50 हजार करोड रुपये के लिए बिहार को केन्द्रीय सहायता, केन्द्रीय हिस्सेदारी और कर्ज पर निर्भर रहना पडेगा.

गुरुवार को सुशील कुमार मोदी द्वारा पेश किये गये आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट पेश करते हुए एक कमी की ओर इंगित किया था कि राज्य की प्रति व्यक्ति सालाना आय देश में सबसे कम है. इस लिहाज पेश बजट में शिक्षा के मद में 9379.72 करोड़ आवंटित किया जाना सरकार की दूरदर्शी नीतियों को दर्शाती है. जबकि राज्य कांग्रेस ने बजट का विरोध किया है, वहीं केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने बिहार बजट को संतुलित व विकासोन्मुख बजट करार देते हुए कहा है- जय बिहार.

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

बिहारः दो कदम आगे, दो कदम पीछे

सदियों से गंगा की अविरल धार अपने साथ बहुतों गर्दो-गुबार को प्रवाहित करती रही है. इस धार ने अपने साथ पाटिल ग्राम से पाटलीपुत्र और पटना तक की स्मृतियों को सहेजा और प्रवाहित किया है. बिहार के कई राजवंशों के उत्थान और पतन की गाथाओं को अपने गर्भ में रखा है. चाहे चंद्रगुप्त की स्मृतियां हो या फिर समाजिक न्याय की झंडाबरदारी करते लालू प्रसाद की राजनीतिक उत्थान या फिर हांसिये पर जाने की घटना हो, गंगा की यह धार सबकी गवाह है. यही गंगा अपनी धार के साथ लायी गई कटान की माटी से बिहार की धरती को ऊपजाऊ बना कर उसे समृद्ध करती रही है, लेकिन आज हालात बदले हैं.

जब अखबारों में "बिहार में विकास" सुर्खियां बटोर रही है लेकिन राज्य के उपमुख्यमंत्री व वित्तमंत्री सुशील कुमार मोदी द्वारा विधानसभा में पेश सालाना आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट कुछ अलग कहानी बयां करती है. इस रिपोर्ट को पढ़ते हुए सुशील मोदी ने कहा, "बिहार में प्रति व्यक्ति आय पूरे देश में सबसे कम है.” कुल 509 पन्नों के इस आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2010-11 को वित्त विभाग और आद्री ने मिलकर तैयार किया है.

अब यदि रिपोर्ट के आंकड़ों पर गौर करें - तो राज्य की प्रति व्यक्ति सालाना आय 17,590 रुपए है. यह राशि राष्ट्रीय औसत का केवल एक तिहाई है. बीते वित्तीय वर्ष 2009-10 में राज्य का सकल घरेलू उत्पाद 1,68,603 करोड़ रुपया था. जबकि हाल ही में प्रकाशित हुई राज्य आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2010-11 के अनुसार राज्य की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान कम हुआ है. फिर सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों? क्या गंगा द्वारा सिंचित जोत जमीन की उर्वरकता कम हुई है या फिर खेती के प्रति बिहारियों में उदासीनता ने ऐसा किया?

उत्तर भी साफ-साफ झलकता है- गंगा जैसे कल थी, आज भी वैसी ही है, उसने कोई भेदभाव नहीं किया है. बावजूद इसके खेती के प्रति लोगों में अब वो लगाव नहीं रहा जो कभी था. अब लोग उत्पादन और निर्माण के द्वितीयक सेक्टर की ओर उन्मुख हुए हैं और यहां बिहारी श्रमजीविता के नतीजे भी दिखे हैं. इस क्षेत्र में वृद्धि 13 प्रतिशत से बढ़कर 17 प्रतिशत दर्ज की गई है. वहीं व्यापार-होटल आदि तृतीयक सेक्टर का योगदान 6 प्रतिशत से बढ़कर 11 प्रतिशत हो गया. जब कि कृषि क्षेत्र को फिर से पटरी पर लाने के लिए 13.4 लाख किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड जारी किया गया है.

अब पांच -छह साल पीछे से आंकड़ों पर नजर दौड़ा जाए. असल में, खाद्यान्न के उत्पादन के मामले में वर्ष 2004-05 के 79.06 लाख टन के मुकाबले 2008-09 में 122.20 लाख टन, फिर 2009-10 में 105.08 लाख टन हो गया. निबंधित वाहनों की संख्या के मामले में वर्ष 2005-06 में 80 हजार के मुकाबले 2009-10 में चार गुणा बढ़ोत्तरी हुई और निबंधित वाहनों की संख्या 3.1 लाख हो गयी. दूरसंचार के क्षेत्र में 2005-06 से अब तक दस गुणा वृद्धि दर्ज की गयी. यह संख्या 42 लाख कनेक्शन से बढ़कर 415 लाख हो गयी. वाणिज्यिक बैंकों की शाखाओं की संख्या के मामले में मामूली वृद्धि हुई और मार्च 2005 के 3648 बैंक शाखाओं की तुलना में मार्च 2010 में शाखाओं की संख्या 4156 हो गयी.

लेकिन यह रिपोर्ट तमाम क्षेत्रों में बढ़त दिखाने के बावजूद राज्य के प्रति व्यक्ति आय के मामले में चुप है. यह बात यदि छह वर्ष पहले होती तो कोई आश्चर्य नहीं होता. फिर छह वर्षों से लगातार चल रही विकास की गाड़ी राज्य के प्रति व्यक्ति आय को और आगे क्यों नहीं ले जा पायी. यह प्रश्न अब विकास के दावे को मुंह चिढ़ा रहा है.

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

बिहार के सौ साल

बिहार के 100 वर्ष पूरे होने पर बनाये गये उपरोक्त कार्टून नेटसर्च के दौरान दिख गई. अच्छी लगी. सभी सातों कार्टूनों को एक साथ जोड़ा और यहां चेप दिया. ये सभी कार्टून पवन के हैं और उनके ब्लॉग नश्तर से बगैर पूछे 'साभार' शब्द का प्रयोग करते हुए ये चेपा है. 22 मार्च 2011 से बिहार अपना 100 वां स्थापना वर्ष मनाने की तैयारी में है. 100 वर्ष की उम्र में बिहार कितना समृद्ध, कितना विकसित हुआ है, इसकी गाथा पवन अपने कार्टूनों के जरिये खांटी भदेसपन के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं, जो बिहार की राजनीतिक रूप से जागरूक जनता को मानसिक खुराक देती है. बिहार की राजनीति के खम-पेंचों के जानकार इन कार्टूनों की अहमियत समझ सकते हैं. राजनीतिक गलियारों के घुमाव में गरिया भी न सकने तक लाचार अवाम पवन के कार्टूनों में अपनी बात देखती रही है. उपरोक्त कार्टूनों के लिए मंजीत ठाकुर और कुमार आलोक को धन्यवाद, जिन्होंने पवन के कार्टूनों के लिए ब्लॉग नश्तर शुरू किया.

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

खो गई लालू की लालिमा!

बिहार और लालू. एक समय में दोनों एक दूसरे के पर्याय माने जाते थे. प्रदेश की राजनीति में बादशाहत कायम करने वाले मसखरे-से भदेस नेता लालू प्रसाद यादव अब खामोश हैं. बीते विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी की हुई जबरदस्त हार ने उन्हें हरिनाम याद दिला दिया है. बड़बोले लालू के मुंह बोल फूटते नहीं सुना जा रहा. इसे बिहारी राजनीति में दंबई के सूरज का डूबना माना जाता है. इस पराजय ने लालू की बड़बोलेपन पर ब्रेक ही नहीं लगाया है बल्कि उनके द्वंद को भी बढ़ा दिया है कि वे अपनी मसखरेपन वाली छवि को त्यागे या फिर "परिपक्व" राजनेता की तरह फिर से उठ खड़े हों. दोराहे पर खड़े लालू की यह सोच रही है कि गंवई अंदाज उन्हें जनता से सीधे जोड़ती है, वहीं उन्हें एक अ-गंभीर नेता के रूप में प्रस्तुत करती है.

सिर्फ राजद ही नहीं बल्कि सूबे में यह फुसफुसाहट स्वर लेने लगी है कि अब लालू युग का अंत हो रहा है. इस युगांत की सुगबुगाहट लालू की लालिमा को धूमिल करने के क्रम में है और इसे वे भी बखूबी समझने लगे हैं. बेटे तेजस्वनी को राजनीति के फलक पर ला कर अगली पीढ़ी में अपनी पहुंच बनाने की योजना पर लालू ने वैसे ही सोच को सामने रखा जैसा कि राबड़ी के समय में सोचा था. लेकिन वो समय और था - अब का समय कुछ और. सूबे की राजनीति आरंभ से ही "क्रानी पॉलिटिक्स” की रही है. इसकी जटिलता की उलझन में लालू ने अपने लिए दो दशक पहले डोर का सिरा ढूंढ़ लिया था. लेकिन डोर आखिर बगैर सुलझाये कितना खींचा जा सकता है, अंततः वह इस विधानसभा चुनाव में टूट गया. यूं तो 15 वीं लोकसभा चुनाव में ही डोर के कमजोर होने का अंदेशा हो गया था लेकिन लालू ने इस चुनावी वैतरणी को भी इसी के सहारे पार लगाने की कोशिश की जो नाकाम रही. उनके बयानों पर गौर करें - लालू ने पहले तो यह कहा कि अब कोई सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बन सकता तो फिर कुछ दिनों बाद सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देने की बात कहकर उन्होंने खुद को हंसी का पात्र बना दिया. इसी तरह छात्रों को साइकिल की जगह मोटरसाइकिल का लॉलीपॉप देकर भी वे खुद को उपहास का पात्र बना रहे थे. इस तरह के बयान उनकी अकुलाहट और अ-गांभीर्यता को परिलक्षित करता है. आजादी के बाद की राजनीति अब अपने परिपक्वता की ओर अग्रसर है और बिहारी जनमानस इस तरह के बयानों को पचा नहीं पा रहा. लालू प्रसाद के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वाकई वे भविष्य में बिहार की राजनीति में अपने को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए ऐसा करने का साहस जुटा पाएंगे? शायद नहीं. दरअसल, लालू को इसका एहसास पहले से ही हो गया था कि इस चुनाव में वे बुरी तरह परास्त होने वाले हैं, इसलिए उन्होंने अपने बेटे तेजस्वी को राजनीति के मैदान में उतार दिया ताकि पांच साल के बाद दूसरी पीढ़ी कमान संभालने के लिए तैयार हो. 1997 में भी लालू प्रसाद ने तब ऐसा ही किया था जब वे चारा घोटाले में नाम आने की वजह से सत्ता छोड़ने वाले थे. तब उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का राजकाज सौंप दिया. फलस्वरूप 1990 में पिछड़ों की राजनीति और सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर उभरा बिहार का सबसे कद्दावर और करिश्माई नेता धीरे-धीरे अपनी चमक खोने लगा.

उनके जीवन में तीन ऐसे पड़ाव आए जहां से लालू की राजनीति का मर्सिया गाया जाने लगा. पहला पड़ाव, जब लालू प्रसाद का नाम चारा घोटाले में आया. फिर दूसरा पड़ाव जब उन्होंने सत्ता राबड़ी देवी को सौंप दी और फिर तीसरी व अंतिम गलती कि 2005 के चुनाव में परास्त होने के बाद भी सबक न ले सके, अपनी असलियत को नकारते रहे. वास्तव में लालू बिहार में सवर्णों की जकड़न से तंग लोगों की आकांक्षा के तौर पर उभरे नेता थे लेकिन बिहार की सत्ता मिलने के बाद पहले तो उन्होंने खुद को सरकार का मुखिया समझा, फिर खुद को सरकार समझने लगे और आखिरी दौर वह भी आया जब लालू खुद को ही बिहार भी समझने लगे. उनके गुरूर ने उन्हें नायक से अधिनायक बना दिया, जो उन्हें विनाश के इस मुहाने तक ले आया. अगर लालू की राजनीतिक के अतीत और वर्तमान पर नजर दौड़ाएं तो उनकी राजनीति ने अचानक ही यू-टर्न नहीं लिया है. लालू की सबसे बड़ी कमजोरी रही कि वे अपने कार्यकर्ताओं से कभी नजदीकी रिश्ता नहीं बना सके. पूरे सूबे की तो बात छोड़िये, अपने गृह जिले गोपालगंज में भी लालू की पकड़ अब इतनी नहीं रही कि वह छह में से एक भी सीट अपनी पार्टी को दिलवा सके. इस चुनाव में उन्हें अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक नुकसान हुआ है. इसका कारण है कि लालू का "माय" यानी मुसलिम-यादव समीकरण तो पहले ही ध्वस्त हो चुका था, इस बार बड़े पैमाने पर इनके खेमे से यादवी आधार भी खिसका है, वरना कोई कारण नहीं कि 12-13 प्रतिशत आबादी वाले यादव जाति का वोट यदि एकमुश्त लालू के खाते में जाता तो इतनी बुरी हार नहीं होती. वास्तव में जातीय राजनीति का यह सिद्धांत है कि अकेले कोई जाति किसी एक नेता के साथ बहुत दिनों तक नहीं रह सकती. यादव लालू प्रसाद के साथ तभी रहेंगे जब और पिछड़ी जातियां उनके साथ हों. दूसरी पिछड़ी जातियों में आधार खिसकेगा तो यादव भी उनके साथ नहीं रह सकते. ताजा राजनीतिक माहौल में लालू के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है. तीन साल के पहले उन्हें खुद को साबित करने का कोई दूसरा अवसर नहीं आने वाला. 2014 में लोकसभा का चुनाव होगा, तब तक लालू को अपनी नीतियों की समीक्षा करने और सूबे के गांव-गांव तक फिर से अपनी पैठ बनानी होगी. बढ़ती उम्र के साथ उनके सामने नीतीश की खामियों को उजागर करने की भी चुनौती होगी, वरना हरिनाम के जाप के अलावा और कोई और विकल्प नहीं है.

रविवार, 9 जनवरी 2011

राजनीति का सतीत्व

अंग्रेजों के जमाने से एक कहावत प्रचलित है- "बंगाल जो आज सोचता है, शेष देश कल सोचता है." हालांकि यह कहावत अब सिर्फ शब्दों तक सिमट कर रह गई है लेकिन कहावत में प्रयुक्त राज्य बंगाल का स्थान बिहार के लेने की संभावना की आहट दिखने लगी है. बिहार में पांच साल पुरानी सरकार फिर नये तेवर में वापस आई है. कुछ नया, कुछ बेहतर होने की उम्मीदें बलवती हुई हैं. बिहार- एक पिछड़ा, भदेस, हास्य व व्यंग्य जैसे कुछ ऐसे ही भाव के साथ देखा जाने वाला राज्य राजनीतिक के सतीत्व की रक्षा को आगे बढ़ने का साहस जुटाया है ताकि न केवल बिहार में बल्कि देश की राजनीति का एक "मानक” स्थापित हो सके.

सत्ता में वापसी के तुरंत बाद सरकार ने जब भ्रष्टाचार से जंग छेड़ने की घोषणा की तो यह अन्य राजनीतिक घोषणा की तरह ही लगी, लेकिन कुछ दिन बीते, कुछ सप्ताह बीता और सरकार ने विधायक कोष खत्म करने का एलान कर दिया. राजनीतिक घोषणाओं पर बिहारियों के साथ -साथ देश के लोगों को थोड़ा-थोड़ा भरोसा होने लगा. तभी विधायकों को अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने का सरकारी फरमान जारी हुआ. अब लोगों को लगा कि इस फरमान का दूसरे सरकारी आदेशों की तरह उल्लंघन नहीं होगा. और उम्मीदें सही साबित हुईं. अब तो सूबे के शिक्षक व अन्य सरकारियों ने भी संपत्ति का ब्यौरा देने के सरकारी फरमान का स्वागत करते हुए सहमति दे दी है. नई सुबह की रक्ताभ लालिमायुक्त पहली किरण आशा का संचार करने लगी है.

विधायक कोष का खत्म किया जाना भ्रष्टाचार रोकने की दिशा में भले ही शुरुआती कदम हो लेकिन वजनदार है. इस कोष के बारे में बिहार में यह आम धारणा है कि इसका 20 प्रतिशत रकम विधायक को बैठे-बिठाये मिल जाता है. हालांकि ऐसा नहीं है कि सूबे के सभी विधायक ऐसे ही हैं, कुछ अपवाद भी हैं जो कोष का एक पैसा नहीं लेते. लेकिन उनकी संख्या अंगुली पर गिनने जैसी है. सांसद विधायक कोष की शुरुआत भारत में उदारीकरण वाली अर्थव्यवस्था के प्रणेता नरसिंह राव के शासन काल में हुई. वर्ष 1991-96 में कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में गठबंधन सरकार थी, विश्वासमत के दौरान सरकार बचाने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त हुई, लोकतंत्र शर्मशार हुआ लेकिन सरकार बची रह गई. उसी समय सरकार ने सांसदों को खुश करने के लिए सांसद निधि की शुरुआत की. और इसी का अनुसरण करते हुए राज्यों ने विधायक कोष आवंटित करना शुरू कर दिया. अगल-अलग राज्यों ने अलग-अलग राशि निर्धारित की. बिहार में यह राशि दो करोड़ रुपये सालाना थी. राजनीतिक दलों का आकलन था कि इस कोष से विकासमूलक कार्य होंगे और कार्यकर्ता -समर्थकों की भीड़ उनकी पार्टी के साथ जुड़ेगी लेकिन इन डेढ़ दशक में देखा गया कि समर्थक और कार्यकर्ताओं के बजाय पार्टी व पार्टी के सांसद-विधायकों के जरिये ठेकेदारों की जमात जुड़ गई और जुड़ा भ्रष्टाचार का दागदार संस्कार.

बिहार ने शुरुआत की है, चर्चा पूरे देश में चल पड़ी है. जनता भ्रष्टाचार के कोढ़ से ऊब चुकी है, सीने में इसके खिलाफ आग सुलग रही है, बस इसके भड़कने की देर है. बिहार ने आग भड़काने के लिए हवा दे दी है. और राज्यों पर भी इसी तरह के पहल की दबाव बढ़ने की संभावना दिखने लगी है. जनता के सीने में भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ कैसी आग है इसे जानना हो तो बस उनके सामने भ्रष्ट नेताओं की चर्चा भर छेड़ दें, फिर देखे.

भारत में भ्रष्टाचार किस कदर है, इसका अंदाजा स्वीस बैंक के एक निदेशक के इस कथन से हो जाता है कि स्वीस बैंकों में भारतीयों का 280 लाख करोड़ रुपया जमा है. जाहिर है यह सब कालाधन ही है, जिसे भ्रष्ट तरीके से कमाया गया है और स्वीस बैंक में रखा गया है. यह रकम स्वदेश वापस लाने की कई बार आवाज उठी लेकिन आवाज सिर्फ आवाज बन कर रह गई. यह रकम इतनी बड़ी है कि इससे अगले 30 सालों तक कर रहित बजट बन सकता है, 60 करोड़ भारतीयों को नौकरी मिल सकती है और 60 वर्षों तक प्रत्येक भारतीय को प्रतिमाह 2000 रुपये का नकद भुगतान किया जा सकता है, शायद फिर भी इसमें से कुछ रकम बच जाए. देश के इस परिवेश-माहौल में इस कानून का ईमानदार क्रियान्वयन एक नया माहौल बनायेगा. बिहार में ही नहीं, देश में भ्रष्टाचार, छल, कपट और षड्यंत्र की राजनीति का बोलबाला है. दिल्ली पूरी तरह इसके गिरफ्त में है.शासन या सत्ता, चाहे जिसका हो. इस भ्रष्टाचार के खिलाफ़ बिहार की यह पहल, दुनिया की निगाह खींचेगी. भारतीय राजनीति में सुधार अब दिल्ली से संभव नहीं. अगर एक राज्य में सुधार हुए, तो उसके देशव्यापी असर होंगे. बिहार यह प्रयोगस्थली बन सकता है. शर्त यह है कि इस कोशिश का ईमानदारी से क्रियान्वयन हो.