शुक्रवार, 8 मार्च 2013

वामपंथी राजनीति का लाल सलाम!

स्वाभाविक तौर पर हम भारतीय अपने अतीत, इतिहास, रुढ़ीवादी परंपराओं के संरक्षण के प्रति ज्यादा भावुक होते हैं और ये हमारे लिए गर्व का विषय भी बनते हैं. लेकिन जब कोई अतीत की सड़-गल चुकी पद्धतियों को नकारने, इतिहास के अब तक चले आ रहे तथ्यों की सच्चाई को जांचने और लगभग अप्रासंगिक हो चुकी मान्यताओं को नकारने की कोशिश करता दिखता है तो उसे हम प्रतिगामी या वामपंथी की संज्ञा से विभूषित करते हैं. इस तरह स्वाभाविक तौर पर आम भारतीय दक्षिणपंथी ही होता है. यही वजह है कि पढ़ा-लिखा तबका खास कर कला और साहित्य के क्षेत्र का व्यक्ति अपने को वामपंथी कहलाने में गर्वान्वित महसूस करता है. उसके विचार में सर्वहारा वर्ग के कल्याण की बातें मेनस्ट्रिम न हो कर वह बाई-प्रोडक्ट के रूप में जुड़ जाती है और वह इसी के सहारे अपने आगे का रास्ता तय करता है. भारत में वामपंथ की राजनीति कभी परवान तो नहीं चढ़ी लेकिन सत्ता केंद्र को प्रभावित जरुर किया. एक समय ऐसा भी आया कि देश के तीन राज्यों की सत्ता पर कब्जा जमाया और केंद्र की सत्ता पर पहुंचते-पहुंचते रह गई. 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद आड़े-तिरछे चुनाव परिणाम ने भाजपा को अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में मात्र 13 दिनों के लिए सरकार बनाने की मोहलत दी, तब दिवंगत ज्योति बसु को प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर गैर कांग्रेस और गैर भाजपा सरकार बनाने की एक पहल हुई लेकिन भाकपा के बड़े नेताओं ने इसे नहीं होने दिया और ज्योति बसु प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए. कई पार्टी के नेताओं ने इसे एतिहासिक भूल तक कहा था. संभवत: यह पहला और अब तक आखिरी मौका था जब कोई मार्क्सवादी प्रधानमंत्री पद के इतने करीब पहुंचा था. हालांकि केंद्रीय राजनीति में वामपंथियों का प्रभाव 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु करार के समय भी दिखा और 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान वामपंथ के दो चेहरे सीताराम येचुरी और प्रकाश करात एकदम से छाये दिखे. यह कयास भी लगाये जाने लगे थे कि इस बार तीसरे मोर्च की सरकार केंद्र में आएगी ही, लेकिन ये कयास फुस्स हो गए. कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए दोबारा सत्ता में आई, फर्क बस इतना था कि इस यूपीए को वामदलों का समर्थन इस बार नहीं था. चार वर्ष बाद स्थिति काफी बदली हुई है. पहले राज्यों से बात शुरू करे. पश्चिम बंगाल में 34 वर्षों तक लगातार सत्ता में रहने वाले वामदलों को सत्ताच्यूत होना पड़ा, वहीं केरल में सत्ता का स्वाद दूर हो गया. फिलहाल त्रिपुरा में चौथी बार माणिक सरकार के नेतृत्व में वाममोर्चा सरकार में वापस आई है. अब केंद्रीय राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो वामदलों की सुगबुगाहट कहीं नहीं है. लोकसभा चुनाव के लिए माहौल बनने लगे हैं. यूं तो अभी एक साल का समय बाकी है लेकिन कुछ नेता समय से पहले चुनाव होने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं. ऐसे माहौल में तमाम विरोध और समर्थन के एक नाम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उभर रहा है- नरेंद्र मोदी. हालांकि अभी भाजपा में ही इस नाम पर पूरी तरह एकजुटता नहीं है लेकिन कयास है कि थमने का नाम नहीं ले रहा. वही सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव चौथे मोर्चे की बात कर एक नई राजनीतिक चर्चा के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं. लेकिन प्रकाश कारत और सीताराम येचुरी के बारे में कौन चर्चा कर रहा है? कोई नहीं, मीडिया भी नहीं. वास्तव में इस बार के चुनाव में वाममोर्चा को कोई खिलाड़ी के रूप में देख ही नहीं रहा. यदि पूरे वाम राजनीति पर नजर दौड़ाए तो 1996 का समय वाममोर्चा के लिए स्वर्णिम रहा. उसके बाद उसका प्रभाव कम होता गया. 2008 के परमाणु करार ने इसे एक मौका दिया लेकिन हरकिशन सिंह सुरजीत और ज्योति बसु जैसे कद्दावर नेताओं की कमी महसूस हुई. सीताराम येचुरी और प्रकाश करात की जोड़ी वाम राजनीति के प्रभाव को चमक दे पाने में विफल रहा और 2009 के लोकसभा चुनाव में माकपा ने 27 और भाकपा छह सीटें खो दी. जिस वाममोर्चा के सदस्यों की संख्या संसद में 60 के करीब थी वह अब तीस पर आ कर सिमट गया. रही सही कसर केरल और पश्चिम बंगाल की सत्ता से बेदखली ने पूरा कर दिया. ट्रेड यूनियन आंदोलन के जरिए भारतीय राजनीति में आगाज करने वाले वामदलों की ट्रेड यूनियनों का एक समय महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के औद्योगिक गढ़ पर कब्जा था, अब महाराष्ट्र के ट्रेड यूनियन आंदोलन को शिव सेना ने हथिया लिया है तो पूरे देश में अब भाजपा से संबंद्ध भारतीय मजदूर संघ के पास वामपंथी ट्रेड यूनियनों से ज्यादा सदस्य और काडर हैं. अब सवाल उठता है कि आखिर अब क्या बचा है? सबसे पहली चीज, वाम दलों को भारत जैसे गरीब देश में गरीबों और श्रमिक वर्ग के साथ प्रतिबद्धता का एक स्वाभाविक लाभ उठाना चाहिए था. कांग्रेस पार्टी के लिए भी यह तभी से एक स्वाभाविक विकल्प होना चाहिए था जब ज्यादातर भारतीय मतदाता शायद ही जनसंघ जैसे दक्षिणपंथी हिंदू दलों को पसंद कर रहे थे. वास्तव में, भाकपा जनसंघ की तुलना में कहीं अधिक ‘राष्ट्रीय’ पार्टी थी. इसका प्रभाव पड़ा और बंगाल से आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पंजाब, केरल, उड़ीसा और तमिलनाडु राज्यों तक उसका चुनावी रसूख कायम होता गया. यह पहली गैर कांग्रेस पार्टी थी जिसने केरल में सरकार बनाई थी. पहली बात ध्यान देने वाली है यह कि सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया भर में वाम दलों के लिए विश्वसनीयता का एक सार्वभौमिक संकट आया. यह सच है कि जितने समय तक सोवियत संघ रहा अपनी चाल से संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए एक दुर्जेय विरोधी दिखाई दिया और वामपंथ हमेशा लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा. लेकिन सोवियत संघ के पतन से साम्यवाद और मार्क्सवाद की ऐसी मौलिक खामियां खुल कर दुनिया के सामने आ गर्ईं, जिसे नारे और प्रचार द्वारा प्रदर्शित नहीं किया जा सकता है. हालांकि भारत में वाम राजनीति में गिरावट सोवियत संघ के पतन के पहले से ही शुरू हो गया था. इसके मुख्य कारणों में से एक वाम दलों का आत्मघाती विखंडन और भारत भर में आंदोलन था. 1960 के दशक तक भाकपा का प्रभुत्व था जो वामपंथी आंदोलन और भारत में चुनावी राजनीति की धुरी बनी रही. लेकिन 1962 में चीनी सेना द्वारा भारत के अपमान के बाद भारत वामपंथियों की चाल को समझ गया. आखिरकार, भाकपा विभाजित हुई और दो दलों कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया (भाकपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी), जिसे आजकल माकपा के रूप में जाना जाता है, का गठन हुआ. 1970 के दशक के बाद से माकपा देश में प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टी बनी रही और भाकपा उसकी पिछलग्गू बनी रही. यह केवल विभाजन नहीं था. वे संगठित नहीं रह सके और वैचारिक आक्रामक गुटों ने मार्क्सवादी - लेनिनवादी पार्टियों का गठन किया. बड़ी संख्या में मार्क्सवादी सशस्त्र क्रांतिकारी बन गए और नक्सलवादी आंदोलन की शुरूआत की. आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड और उड़ीसा जैसे राज्यों में नक्सली आंदोलनों और संगठन को निखारा है. वास्तव में मध्य और पूर्वी भारत के कई भागों में ये सशस्त्र वामपंथी वस्तुत: स्वयंभू समानांतर सरकारों को चलाते हैं. विडंबना यह है कि जहां मुख्यधारा के वाम ने वैचारिक प्रभाव और चुनावी रसूख खो दिया है, वहीं नक्सलियों ने अपने को अधिक शक्तिशाली, अधिक लचीला और अधिक टिकाऊ होना सिद्ध कर दिया है. वाम दलों की किस्मत को दूसरा बड़ा झटका लगभग तीन दशक पहले मिला था जब घटनाओं और नीतियों की शृंखला ने भारत में सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देना शुरू किया. साल 1986 को इस प्रक्रिया को परिभाषित करने वाला शुरूआती वर्ष कहा जा सकता है. उस बरस सत्ता में स्वर्गीय राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार थी, जिसने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर बवाल मचा कर उसे पलटने की कोशिश की जिसके अनुसार मुस्लिम पुरुषों के लिए तलाकशुदा पत्नियों के लिए रखरखाव भत्ता देना अनिवार्य बताया गया था. आज यह कुख्यात शाहबानो मामला है. तब यह फैसला उदार मुसलमानों की जबरदस्त मुखालफत के बावजूद घोर कट्टरपंथी मुस्लिम निकायों के प्रति आत्मसमर्पण के रूप में देखा और लिया गया था. यह वही साल था जब सरकार कट्टरवादी हिंदू संगठनों के उस दावे को जिसके अनुसार तत्कालीन विवादित ढांचा बाबरी मस्जिद भगवान राम का जन्मस्थान है, को अपनी सहमति और अनुमति दे दी. यह निर्णय भी एक प्रकार से चरमपंथी हिंदू तत्वों के समक्ष आत्मसमर्पण के रूप में देखा गया था और उदार हिंदुओं की ओर से जबरदस्त आपत्तियों के बावजूद लिया गया था. इन दो फैसलों ने तमाम ऐसी घटनाओं के सिलसिले को जन्म दिया कि जिसका फलित 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस और सत्ता के लिए एक गंभीर दावेदार के रूप में भारतीय जनता पार्टी के उद्भव के रूप में सामने आया. सन् 1984 में जहां भाजपा ने लोकसभा में मात्र 4 सीटें जीतने में कामयाब हुई थी. 1996 तक, यह आंकड़ा 100 से पार चला गया था और सच तो यह है कि पार्टी इतनी सबल हुई कि बेहद कम समय तक यानी महज 13 दिनों तक के लिए ही सही वह केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब हुई. अब वाम के पास घुन लगी कांग्रेस का एक स्वभाविक विकल्प बनने के सिवा कोई चारा न था. भाजपा ने इस अवसर को उस भूमिका के लिए भी भुनाया, उसने अपनी उपस्थिति का विस्तार समूचे भारत भर में करने का प्रयास किया. 2009 के लोकसभा चुनाव के नतीजों से वामपंथियों और भाजपा के बीच बढ़ती खाई जब साफ दिखने लगी जब मतदाताओं द्वारा दोनों को अस्वीकार कर दिया गया. हालांकि भाजपा का वोट प्रतिशत 19 के करीब रहा जबकि माकपा महज 5 फीसदी से थोड़ा ऊपर रह कर सिमट गया. पश्चिम बंगाल के पूर्व मंत्री व माकपा नेता क्षिति गोस्वामी कहते हैं, ‘लेकिन जमीनी हकीकत बिल्कुल ऐसी हो ऐसा भी नहीं है. बल्कि सच तो यह है कि वाम दल हों या फिर कांग्रेस अथवा भाजपा, कम से कम गठबंधन के इस दौर में तो कोई भी ऐसा नहीं है कि जिसके पास अपने दम पर राजनीतिक नियंत्रण की क्षमता है. कुछ समय के लिए, कांग्रेस या भाजपा को देश की प्रमुख पार्टी के रूप में देखा जा सकता है लेकिन राज्य स्तर पर समीकरण हमेशा से अलग रहे हैं.’ वामपंथियों की तेजी से गिरावट का तीसरा सबसे स्पष्ट कारण देश भर में क्षेत्रीय दलों की लगातार होने वाली भरमार भी है. जिन राज्यों में भाजपा कमजोर है, वहां क्षेत्रीय पार्टियों ने कांग्रेस के विकल्प का रूप ले लिया है. बिहार, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और यहां तक कि केरल ने भी क्षेत्रीय दलों के विकास में निरंतर वृद्धि देखी है. इन सभी राज्यों में वामपंथी वैचारिक प्रभाव, एक ठोस वोट बैंक और एक मजबूत चुनावी आधार मौजूद था. इतना ही नहीं वाम भी आंतरिक खींचतान और आपस में ही एक-दूसरे को निबटाने की राजनीति का एक बड़ा केंद्र बनता जा रहा है. इस का सबसे विनाशकारी उदाहरण केरल में दिखा जहां दो विरोधी गुटों की आपसी फूट ने माकपा को लगभग बर्बाद कर के रख दिया है. एक गुट के अगुवा हैं पूर्व मुख्यमंत्री और लोकप्रिय नेता वी.एस. अच्युतानंदन, जो हैं तो चिड़चिड़े, पर उन्हें एक एकजुट रखने वाला निष्ठावान आदमी माना जाता है. दूसरा गुट पिन्नारी विजयन के नेतृत्व में लगातार इन कोशिशों में लगा रहता है कि किस तरह से वी.एस. अच्युतानंदन के चुनावी आकर्षण और लोकप्रियता को कमजोर किया जाए. वास्तव में, अपने इस आत्महंता नाटक में, जहां अपनी ही पार्टी के नेता, पार्टी के दूसरे नेताओं की चुनावी अपील या आकर्षण के खात्मे के लिए उनके खिलाफ युद्ध छेड़ने में ठीक भाजपा सरीखे ही दिखते हैं. इस तरह का मामला सिर्फ भाकपा या माकपा में ही नहीं अन्य वामदल जैसे फारवर्ड ब्लॉक, आरएसपी सरीखी पार्टियों में भी अपना जड़ जमाने लगी है. आम तौर पर वाम राजनीति में आने वाला व्यक्ति पदलोलुपता से दूर और अनुशासित मानसिकता का होता था, जिससे यहां गुटबाजी जैसे मामले कम दिखते थे, लेकिन अब यह भी इससे अछूता नहीं रहा. बदलते समय के साथ काडर तो बदल रहे हैं, अब पार्टी को भी बदलना पड़ेगा, ठीक चीनी कम्युनिस्ट की तरह. वैसे भी भारतीय कम्युनिस्ट चीन का बड़े फक्र के साथ अनुशरण करते ही हैं. अब देश में कम्युनिज्म का झंडा उठाये नक्सली संगठनों की बात की जाए तो ये चुनावी राजनीति से दूर रह कर भी चुनाव को बड़े गहरे तक प्रभावित करते हैं. हालांकि इन्होंने भी समय के साथ अपने रुख में लचीलापन ला कर कुछ उदार कम्युनिस्ट का चोला ओढ़ने की कोशिश की है. सवाल फिर भी वहीं है. आखिर कब तक?