सोमवार, 18 नवंबर 2013

मोदी के पटेल और नीतीश के राम


अभी हाल में गुजरात में लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की दुनिया में सबसे ऊंची प्रतीमा का शिलान्यास कर भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार व गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीति की नई बिसात बिछाई थी, और इस बिसात पर जहां भाजपा ने कांग्रेस दिग्गज महापुरुष को एक झटके में छिन लिया, वहीं कांग्रेस खिसायी बिल्ली की तरह खंभा नोचती नजर आई. वास्तव में नरेंद्र मोदी ने जिस भारतीय गर्व की भावना को उभारा, उसे रोक पाने कांग्रेसी रणनीतिकार चारो खाने चित्त हो गए और इस एक सियासी चाल ने सांप्रदायिकता को लेकर चल रहे राजनीतिक विलाप को नई दिशा दे दी. वर्तमान राजनीतिक बैरोमीटर की रीडिंग यहीं संकेत देती है कि मिशन 2014 के तहत ना तो कांग्रेस को और ना ही भाजपा को केंद्र में सरकार बनाने लायक स्पष्ट बहुमत मिलना है और ये दोनों बड़े दल भी इस सच्चाई से भलीभांति अवगत भी है. ऐसे में तीसरे मोर्चे या किसी वैकल्पिक मोर्चे की आस सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने जगा दी है, फिर भी बीते दिनों मुजफ्फर नगर में हुए दंगे की वजह से उनके संभावित प्रधानमंत्री पद के सपने में कील तो ठुक ही गई है. वहीं दूसरी ओर विकास के गुजरात मॉडल की काट के रूप में बिहार विकास मॉडल लेकर नीतीश वैसी स्थिति में संभावित प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे साख वाले व्यक्ति के रूप में उभरते नजर आ रहे हैं. सिर्फ नरेंद्र मोदी के मुद्दे को लेकर जदयू ने राजग के साथ अपने 17 साल के गठबंधन को तोड़ कर बिहार में मुसलमानों को अपने हक में करने की कोशिश की और नीतीश कुमार को लग रहा है कि वे अपने इस सियासी चाल में सफल भी हुए है. ऐसे में अब उनकी नजर बहुसंख्यक वोट बैंक पर भी है. इसी के मद्देनजर औऱ अपने चीर प्रतिद्वंदी नरेंद्र मोदी के ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के जवाब में उन्होंने बिहार में रामायण मंदिर बनवाने की घोषणा कर दी उल्लेखनी है कि घोषणा के अनुसार इस विराट रामायण मंदिर का निर्माण पाँच साल के भीतर- पूरा कर लेने की योजना है. पूर्वी चम्पारण ज़िले के केसरिया में बनने जा रहे इस मंदिर का परिसर 190 एकड़ के इलाके में फैला होगा. इस मंदिर की ऊँचाई 405 फ़ुट यानी क़रीब 123 मीटर होगी. इसका मतलब यह है कि यह मंदिर कम्बोडिया में बने सबसे बड़े हिन्दू मंदिर 'अंकोरवाट मंदिर' से दोगुना ऊँचा होगा. इस मंदिर परिसर में एक साथ 25 हज़ार लोग प्रार्थना कर सकेंगे. मंदिर को बनाने पर 5 अरब रुपए खर्च होने का अनुमान है. रेडियो रूस के विशेषज्ञ और रूस के सामरिक अध्ययन संस्थान के बरीस वलख़ोन्स्की ने रेडियो रूस से कहा है कि इतने विशाल मंदिर का निर्माण करने की इस परियोजना को देखकर ही कुछ सवाल उठते हैं. पहला सवाल तो यही है कि आज की परिस्थितियों में जब देश की अर्थव्यवस्था के सामने गम्भीर संकट खड़ा हुआ है और जब करोड़ों लोग ग़रीबी रेखा से भी नीचे जीवन बिताने को मज़बूर हैं, इस तरह की परियोजना को पूरा करना कितना उचित होगा. इस सिलसिले में दूसरी महत्त्वाकांक्षी योजनाओं की भी बात की जा सकती है, जैसे मंगलयान को अन्तरिक्ष में भेजने पर अरबों रुपए खर्च कर दिए गए और ऐसा करते हुए देश की आर्थिक ज़रूरतों को दरकिनार करके देश की प्रतिष्ठा बढ़ाने के तर्क को ज़्यादा महत्व दिया गया. लेकिन विराट रामायण मंदिर की योजना बनाते हुए दुनिया भर में देश की प्रतिष्ठा बढ़ाने का ख़याल नितीश कुमार के मन में नहीं है, बल्कि उनकी दिलचस्पी तो उस राजनीतिक फ़ायदे में है, जो इस मंदिर का निर्माण करके उन्हें होगा. दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर बनाने की परियोजना के बारे में जानकारी देते हुए दुनिया के मीडिया ने उस विशाल परियोजना की भी जानकारी दी, जिसकी घोषणा गुजरात के मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी की ओर से भारत के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी ने की है. अभी कुछ दिन पहले ही उन्होंने भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के एक नेता वल्लभ भाई पटेल के स्मारक का शिलान्यास किया है. वल्लभ भाई पटेल की यह मूर्त्ति दुनिया की सबसे ऊँची मूर्त्ति होगी. अभी कुछ समय पहले तक नितीश कुमार और उनकी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्त्व वाले राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन का ही एक हिस्सा थी. और इसमें कोई सन्देह नहीं है कि नितीश कुमार ख़ुद इस मोर्चे की तरफ़ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे. बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में उनकी सफलताएँ भी नरेन्द्र मोदी को गुजरात में मिली सफलताओं से कम नहीं हैं और उनके ऊपर मुस्लिम नरसंहार के वैसे आरोप भी नहीं हैं, जैसे नरेन्द्र मोदी के ऊपर लगाए जाते हैं. इस सिलसिले में यह बात भी समझ में आ रही है कि क्यों उन्होने विराट रामायण मंदिर का निर्माण करने की घोषणा अभी की है. अभी तक यह साफ़ नहीं हुआ है कि नितीश कुमार आगे ख़ुद को किस रूप में पेश करेंगे. वे कोई तीसरा मोर्चा बनाने की घोषणा करेंगे या काँग्रेस के साथ मिलकर आनेवाला अगला चुनाव लड़ेंगे. लेकिन यह बात तो साफ़ हो चुकी है कि वे राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने की तैयारियाँ कर रहे हैं.

शनिवार, 16 नवंबर 2013

सचिनः साख के प्रतीक


देश में साख का संकट जटिल हो गया है, देशवासियों को जहां साख दिखती है, वहीं वह अपना खूंटा गाड़ देता है। साख की यही मिशाल 15 नवंबर को मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम दिखा, जहां कॉरपोरेट घरानों से लेकर राजनीतिक हस्ती तक और देश के संभ्रांत व समृद्ध कहे जाने वाले लोगों से लेकर मीडिल क्लास तक ‘सचिन-सचिन’ का शोर कर रहा था। लगभग यहीं साख हमें दो साल पहले दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर इंडिया गेट तक अन्ना हजारे के आंदोलन में दिखा था। तब भी अन्ना के साथ कॉरपोरेट, पालिटिशियन, फिल्मी हस्तियों से लेकर मीडिल क्लास तक हाथों में तिरंगा लिए हाजीर हो गया। देश में जब भ्रष्टाचार संस्कार का रूप लेने लगा है, ऐसे में क्रिकेट के सटोरियों के लिए भी चारों तरफ हरियाली पसरी रही। बावजूद इसके 22 गज की पीच पर 24 साल तक बेदाग रहने वाले सचिन में सारे देश ने साख देखा और यहीं साख वानखेड़े में अपनी उपस्थिति दर्ज कराया। इस चौबीस साल में देश ने 8 प्रधानमंत्री भी देखा र लगभग राजनीति की हर धारा ने देश को प्रभावित किया लेकिन सचिन अपनी धारा पर बहते रहे अविरल। और यही अविरल प्रवाह ने रिकार्डों की ऐसी झड़ी लगायी कि क्रिकेट की पूरी एक नई किताब लिख दी गई। इतिहास के पन्नों में किस प्रधानमंत्री को याद किया जायेगा यह तो किसी को नहीं पता लेकिन क्रिकेट का जिक्र जब भी होगा तब सचिन को याद किये बगैर जिक्र पूरा नहीं होगा और यहीं से सचिन के नये मायने शुरु होंगे। गौर करने वाली बात है कि सचिन ने उस वक्त पहला मैच खेला जब हर घर में टीवी दस्तक दे रहा था। सचिन उस दौर में चमके जब भारत बाजार में बदल रहा था। उदारीकरण वाली अर्थव्यवस्था अपना पैर जमा रही थी। धीरे-धीरे टीवी सेट का जाना पहचाना चेहरा होने लगा सचिन और लोग अपने बच्चों का नाम सचिन रख, सचिन के अक्श को अपने बच्चों में देखना शुरू कर दिया। और बाजार ने इसी नब्ज को पहचाना और फिर सचिन धीरे-धीरे ब्रांड में तब्दिल हो गए। लेकिन यह ब्रांड भी बना तो साख की बदौलत, साख बड़ी चीज साबित हुई, फिर एक बार। और जिस वानखेड़े स्टेडियम में सचिन आखिरी मैच खेले, उसे देखने देश के सबसे ज्यादा करोड़पति भी पहुचे। और देश के सबसे लोकप्रिय व्यक्तियों से लेकर सबसे ताकतवर लोगों की कतार भी नजर आई। तो सचिन रिटायरमेंट के बाद 24 बरस पुराने सचिन तेदूलकर नहीं होंगे बल्कि चकाचौंध भारत के नुमाइंदे होंगे, जिनकी परछाई तले अंधेरे में सिमटा भारत खामोशी से सचिन को निहारेगा,खुश होगा और आने वाली पीढ़ियों को बतायेगा कि उसने कभी सचिन को खेलता हुये अपनी आंखों से देखा था। लेकिन भारत में सचिन का जो जुनुन है उसके सामने तो कुछ दूसरे सवाल हैं। क्योंकि मुबंई के वानखेडे स्टेडियम में सचिन की विदाई का जश्न जब खत्म होगा और उसके बाद सचिन तो होंगे लेकिन उनके साथ क्रिकेट नहीं होगा। कैसी होगी उसकी अगली सुबह जब सचिन का हाथ अनायास क्रिकेट के बल्ले को थामने के लिये बढेगा और उन्हे झटके में एहसास होगा कि अब तो 22 गज की पीच को वह पीछे छोड़ आये है । लेकिन सवाल यह अबूझ है कि आखिर जिस सपने को सचिन ने देखा अब वह खुद उसे पूरा मान चुके हैं तो फिर सचिन के रिटायरमेंट को लेकर एक अकुलाहट हर किसी में क्यों है। हर दिल की धड़कन क्यों बढ़ी हुई है। तो सच यही है कि मौजूदा क्रिकेट में सचिन की तरह चाहे हर कोई खेल रहा हो लेकिन सचिन जिस दौर से निकले और मौजूदा दौर जिस सचिन को देख रहा है वह क्रिकेटर से ज्यादा सचिन के जरीये अपनी पहचान पाने की अकुलाहट है। और फिलहाल देश में कोई ऐसा है नहीं जो कई पीढियो में अपनी साख को बरकरार रख सके।