सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

नमो इंडिया


जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने भारत के 66वें गणतंत्र दिवस के ठीक एक दिन बाद नई दिल्ली में ‘इंडिया एंड अमेरिका: द फ्यूचर वी कैन बिल्ड टुगेदर’ कार्यक्रम में दो हजार लोगों को संबोधित करते हुए कहा, ‘एक वक्त ऐसा था, जब अश्वेत होने के कारण मुझे भेदभाव झेलना पड़ा था, लेकिन आज एक चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री है और एक रसोइये का पोता राष्ट्रपति है, यह लोकतांत्रिक देशों की ही ताकत है.’ तो इस बात को पूरी दुनिया सुन रही थी. इसी संबोधन के क्रम में कहा कि अमेरिका और भारत विश्व के नेता सिर्फ इसी कारण से हैं कि यहां सबके लिए बगैर भेदभाव के समान अवसर है. ओबामा द्वारा भारत को विश्व नेता के रूप में पेश करना कूटनीतिक दृष्टि से पूरी दुनिया में बेहद महत्व रखता है कारण कि कूटनीति में प्रतीकों, भाव भंगिमा और संकेतों का बड़ा महत्व होता है. जब दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र के राष्ट्राध्यक्ष एक साथ हों और दुनिया का सबसे ताकतवर व्यक्ति किसी को विश्वनेता के रूप में पेश करता हो तो इसके कई मायने निकलते हैं, और नि:संदेह के दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र के राष्ट्र प्रमुखों की यह मुलाकात वैश्विक कुटनीति को एक नया आयाम देगा और दिशा भी. बीते आठ महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी विदेश नीति को लेकर कई तरह की जमी आशंकाओं के परत को साफ किया है और अमेरिका, रूस, चीन, जापान और आॅस्ट्रेलिया को भारत का लोहा मनवा कर यह साबित किया है कि उनकी विदेश नीति भारत को ऐसे फलक पर ला खड़ी करने में सक्षम है जहां दुनिया भारत की अनदेखी नहीं कर सकती और शायद ओमाबा ने इसी को देख कर अमेरिका के साथ भारत को भी विश्व नेता के रूप में सामने किया है. मोदी की विदेश नीति की ही खासियत है कि संतुलन बराबर दिखता है, चार महीने पहले अमेरिका यात्रा के ठीक पहले उन्होंने तमाम कयासों और अतीत के अनुभवों के बाद भी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का भी जोरदार स्वागत किया था. प्रधानमंत्री भारतीय हितों को ध्यान में रखते हुए दूसरे देशों के साथ रिश्तों की भूमिका तय करने के माहिर खिलाड़ी के रूप में उभरे हैं. उनके अनुसार अमेरिका से नजदीकी बढ़ाने का मतलब चीन के साथ रिश्तों पर बर्फ जमाना कत्तई नहीं है. वह अमेरिका के सामने चीन कार्ड और चीन के सामने अमेरिकी कार्ड रख कर फायदे उठाना चाहते हैं. हालांकि इसके फायदे और नुकसान दोनों है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि मोदी कैसे इन कार्डों को खेलने में सब्र और संतुलन कायम रखते हैं. सबसे महत्वपूर्ण है कि बीते आठ महीने के कार्यकाल में मोदी ने जिस तरह से दुनिया के सामने खुद को पेश किया है उससे भारत के प्रति विश्वास बढ़ा है. वह यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे हैं कि वह जो कह रहे हैं उसे पूरा करने में समर्थ्य है. अमेरिका के साथ परमाणु करार पर सहमति इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है.
जब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था सुस्त है, वैसे में भारतीय अर्थव्यवस्था गतिशील है. ऐसे में भारत के लिए दो चीजें सबसे अधिक महत्व रखती है और ये चीजें है निवेश और उच्च तकनीक. आज के माहौल में जहां अमेरिका एक घटती हुई अर्थव्यवस्था बनता जा रहा है ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत में संभावनाएं दिखती है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है. और वह भारत के साथ इन दोनों चीजों को साझा करने के प्रति उत्सुक है. अमेरिका में मंदी के बाद लगभग लड़खड़ा चुकी अर्थव्यस्था को पुन: पहले जैसी स्थिति में आने के प्रति अर्थशास्त्री लगभग आश्वस्त थे,लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो पाया, ऐसे में अमेरिका को एक स्थिर और शांत माहौल वाले लोकतांत्रिक साझेदार की जरुरत महसूस हो रही थी और इस साझेदारी की शर्तों को भारत पूरा करता हुआ दिखा. क्योंकि रूस ने जिस तरह अमेरिका विरोध की नीति अपनाया है उससे अमेरिकी साख को बट्टा लगा है, वहीं इराक और अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका पहले से ही हाथ जलाये बैठा है तो आईएस उसे लगातार चुनौती दे रहा है. एशिया में आर्थिक और सैन्य दृष्टि से चीन का कद भी लगातार बढ़ रहा है. ऐसे में अमेरिका को कमजोर पड़ने का भय भी सताने लगा है. इसी क्रम में भारत भी तेजी से विकास कर रहा है. और वैचारिक रूप से भारत अमेरिका के काफी करीब है, दोनों देश धर्म-संप्रदाय निरपेक्ष हैं और लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं. यहां गौर करने वाली बात है कि अमेरिकी राष्ट्रपतियों में से अधिकांश ने अपने दूसरे कार्यकाल में मजबूत फैसले लिये हैं. वे संविधान द्वारा प्रदत्त अपने विशेषाधिकारों का जमकर इस्तेमाल करते हैं. ओबामा भी अपने दूसरे कार्यकाल में हैं और अभी दो साल का समय उनके पास है और वे चाहते हैं कि इस दौरान कई महत्वपूर्ण फैसले लें. भारत के साथ परमाणु करार के बाद पैदा हुए गतिरोध को सुलझाने को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. छह साल पहले भारत-अमेरिका के बीच यह परमाणु करार हुआ था, लेकिन इन छह वर्षों में इसमें कोई प्रगती नहीं हुई. इसका कारण था कि भारतीय कानून अंतरराष्ट्रीय कानूनों के काफी प्रावधानों के खिलाफ हैं और यह संयंत्र स्थापित करने वालों के लिए लगभग असीमित जवाबदेही का प्रावधान करता है,इसलिए दुनिया के तमाम बड़े परमाणु संयंत्र स्थापित करने वाले संस्थान भारत आने से हिचकिचाते रहे हैं. अब जाकर यह गतिरोध खत्म हुआ है. और यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि जब यह परमाणु करार हुआ तो भारत में भाजपा और अमेरिका में डेमोक्रेट्स सबसे ज्यादा विरोध कर रहे थे. यह समझौता तात्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री मनैमोहन सिंह और अमेरिका के रिपब्लिकन राष्टÑपति जार्ज डब्ल्यू बुश के बीच हुआ था. लेकिन इस गतिरोध को भाजपा के कद्दावर नेता और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और डेमोक्रेट्स राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अपने व्यक्तिगत आग्रह से दूर किया. इसी तरह ओबामा ने मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ के प्रति भी आग्रह दिखाया और इसकी प्रशंसा की है. अगर कुल मिला कर देखे तो अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की यह भारत यात्रा न केवल सफल रहा बल्कि इसने भारत-अमेरिका में कई नई संभावनाओं का द्वार भी खोला है.

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