मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

लालूः नाम गुमनाम

15वीं लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद से ही राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के सितारे टिमटिमाने लगे. ज्योति धुंधली होती गई. इस बार बिहार विधानसभा के प्रथम चरण के चुनाव के पहले जो रुझान दिख रहे हैं, उससे लगभग यह तय होने लगा है कि लालू के गुमनामी के बादल गहराने लगे हैं. विभिन्न समाचार चैनलों द्वारा किए गए सर्वेक्षण भी आने शुरू हो गये है. स्टार न्यूज व एसी नीलसन द्वारा कराए गए सर्वे में जद (यू) को 120 सीटें, भाजपा को 50, राजद-लोजपा को 34 सीटें और कांग्रेस को 22 सीटें मिलने की बात कही गई है. वहीं द वीक व सी वोटर की सर्वे के अनुसार एनडीए को 111, (भाजपा 49 से 55 सीट और जेडीयू के खाते में 61 से 67 सीटें) तथा आरजेडी को 70 से 76 सीटें मिल सकती है, जब कि कांग्रेस को 23-29 सीट मिल सकती है. कुल मिला कर देखा जाए तो इस चुनाव में राजनीतिक विश्लेषकों के व्यक्त विचारों से लेकर चुनाव पूर्व कराए गए ओपिनियन पोल तक में यह साफ है कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को नुकसान हो रहा है और फायदा नीतीश को.
चाहे नीतीश की सरकार स्पष्ट बहुमत के साथ बने या फिर जोड़-तोड़ के साथ, लेकिन लगभग यह तय हो गया है कि सत्ता की दौड़ से राजद बाहर ही है.
15 वर्षों तक राज्य की सत्ता पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से काबिज रहने वाले व केंद्र में दमदार नेता के रूप में दहाड़ने वाले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक जमीन खिसकती नजर आ रही है.
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि लालू प्रसाद यादव चुनाव पूर्व स्वयं को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश नहीं करते तो शायद इससे अधिक सीटों के प्रति आशान्वित हुआ जा सकता था, इससे यह तय हो जाता है कि राज्य में उनकी विश्वसनीयता कम हुई है और लोग फिर उन्हें अपना मुखिया बनाने के मूड में नहीं है.
राज्य के आम मतदाताओं की बात करें तो उन्हें नीतीश से शिकायतें तो हैं, लेकिन जब वे लालू से उनकी तुलना करते हैं तो नीतीश ही उन्हें बेहतर मुख्यमंत्री के तौर पर नजर आते हैं.
लालू की घटती पकड़ को देखते हुए ही कांग्रेस खुद को बिहार में अपने दम पर फिर से मजबूत करना चाहती है. राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार अब तक जो भी सर्वे आएं हैं उनमें से शायद ही कोई सच हो. क्योंकि ये सर्वे वर्तमान परिदृश्य को दर्शाते हैं.
सारे परिदृश्य पर नजर दौड़ाएं तो यह साफ है कि सर्वे में अनुमानित सीटें दलों को न मिले. इससे ऊपर नीचे होगा ही, जो स्वाभाविक है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि इस चुनाव में सभी दलों को फायदा होगा, नुकसान सिर्फ राजद-लोजपा गठबंधन को ही होने जा रही है.
बिहार में पिछले कई चुनावों में देखा गया है कि मतदाताओं की खामोशी अंतिम समय में कुछ अलग ही गुल खिलाती है, लेकिन इन सब के बावजूद राजद-लोजपा गठबंधन की सत्ता में वापसी के आसार नहीं दिख रहे हैं. वहीं नीतीश के लिए राह कठिन तो नहीं लेकिन आसान भी नहीं है.

बिहार विस चुनावः प्रवासी बिहारियों की कथा-व्यथा

भोजपुरी का एक गीत है, "मत भुलइह परदेसी आपन गांव रे...”
आज यह गीत बिहार गा रहा है. विधानसभा चुनाव के प्रथम चरण का मतदान 21 अक्टूबर को होने वाला है. राजनीतिक दलों का प्रथम चरण के चुनाव के लिए प्रचार थम गया है. अब सारा जोर मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाने पर लगा है. चुनाव आयोग अपने संसाधनों से मतदाताओं को उनके मताधिकार के बारे में बताने में लगा है, तो कुछ गैर सरकारी संगठन भी इस मुहिम में ताल ठोक रहे हैं. लेकिन सबसे बड़ी और चौकाने वाली बात है कि राज्य के लगभग 30 प्रतिशत मतदाता ऐसे हैं जो चाह कर भी अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं. इन मतदाताओं पर ना राजनीतिक दलों की दृष्टि है और ना ही चुनाव आयोग की.
ये वो मतदाता है जो सूबे में रोजगार नहीं मिलने की वजह से दूसरे राज्यों में पलायन किए. खुद परदेस में है और परिवार बिहार के गांवों में बसता है. सांस परदेस में लेते हैं लेकिन दिल की धड़कन के लिए ऊर्जा गांव से मिलती है. इन प्रवासियों में तीन तबके हैं और सब के सब मतदाता ही हैं.
एक तबका वैसे मजदूरों का है जो मेहनतकस हैं और दूसरे राज्यों में जाकर असंगठित क्षेत्रों में जांगर तोड़ रहे. सपने धुंआ हो रहे हैं.
दूसरा तबका उन छात्रों का है, जो बेहतर भविष्य का सपना संजोये उच्च शिक्षा के लिए घर से बाहर छात्रावासों में हैं. मतदान करने की उम्र तो हो गई है लेकिन अभी तक मतदान केंद्र तक नहीं जा सके हैं. प्रदेश में सरकार के चयन में अपनी भूमिका सुनिश्चित करना चाहते हैं लेकिन उनके लिए यह संभव नहीं हो पाता.
और तीसरा तबका उन पढ़े-लिखे लोगों का है जो सरकारी या गैर सरकारी नौकरियों में लगे हैं और जहां है वहीं अस्थाई तौर पर सैटल है.
गांव घर से दूर दिन भर रोजी रोजगार के रोजनामचा से जूझने के बाद घर लौटने पर उनकी निगाहें टीवी स्क्रीन पर टिक जाती है. रिमोट पर उंगलिया टहलने लगती है. बिहार से संबंधित खबरें दिखने वाली चैनलों पर आ कर थम जाती है. चाय की चुस्की और नाटकीय ढंग से एंकर का हाल-ए-बयां बिहार सुन कर थोड़ी सकून जरूर मिलती है.
ऐसे समय में वे अपने गांव-देस लौटना चाहते हैं लेकिन क्या यह संभव है.
सुबह अखबार देने वाले से आज मेरी मुलाकात हो गई. उसका कहना है कि हम जितना कमाते हैं उसके अनुसार देखे तो सिर्फ चुनाव के दौरान मतदान करने के लिए जाना संभव नहीं हैं. हालांकि मन तो बहुत करता है.
दिल्ली के विनोद नगर में रहने वाले शिवशंकर मिश्रा का कहना है कि बिहार अपना घर है वहां कि हलचलों से कैसे अलग रहा जा सकता है, लेकिन रोजी-रोटी की समस्या हमें चुनावों से दूर कर देती है. पिछले कुछ वर्षों में बाढ़ और सूखे ने मजदूरों के पलायन को और तेज किया है.
बिहार के सीवान जिले के निवासी व दिल्ली में मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत धनजीत सिंह का कहना है, “सिर्फ वोट देने के लिए बिहार जाना तो संभव नहीं, लेकिन ई-वोटिंग की व्यवस्था होती तो शायद बिहार में मतदान के प्रतिशत में खासी बढ़ोत्तरी होती. ”
खैर, राजनीतिक दलों का तर्क अलग है. उनका कहना है कि चुनाव की तारीख ऐसी है कि छठ में बहुत सारे प्रवासी बिहार अपने घर आते हैं और वे अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे. लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रवासी बिहारियों के मत के लिए चुनाव की ताऱीख का निर्धारण छठ और होली जैसे त्योहारों को ध्यान में ही रख कर किए जाएंगे.

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

किसके हिस्से कितना अयोध्या



सुबहे बनारस और शामे अवध की संस्कृति ने पूरे भारतवासियों को जो साहस दिया, अभूतपूर्व था. गुरुवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के लखनऊ बेंच का फैसला आने के पूर्व नि:संदेह पूरे देश में एक खामोश दहशत का माहौल था और टीवी चैनलों पर शांति व संयम की लगातार अपील की जाती रही. देश जब-जब संकट के दौर से गुजरता है, देखा गया कि गांधी आज भी उसे सबल प्रदान करते हैं. गुरुवार को भी यहीं हुआ. महात्मा गांधी की तस्वीरों और – 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान' का दृश्य टीवी पर प्रसारित हो रहा था. लंबे अर्से बाद पहली बार देश की मीडिया को संयमित व परिपक्व स्थिति में देखा गया और फैसला आया... लोगों ने सुना... सहमति-असहमति जतायी गई. जो स्वाभाविक भी था. लेकिन जो सबसे बड़ी बात है वह विश्व मीडिया के रवैये पर जा कर टिक जाती है.

हर भारतीय (हिंदू हो या मुसलमान) को पाकिस्तानी अखबारों में छपी खबरों को पढ़ जरुर ठेस पहुंची होगी. हालांकि ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान से कोई इससे इतर उम्मीद रखता हो. भारत के प्रति पूर्वाग्रह वहां के कण-कण में है. इस फैसले के खिलाफ भारतीय मुसलमान असहमत हो सकते हैं, लेकिन उन्होंने चरमपंथियों को निराश करते हुए शांति और सौहार्द बनाए रखने में जो संयम बरता व काबिले तारिफ है. जब कि वहीं पाकिस्तान में इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किए गए, और पाकिस्तानी चरमपंथी नेताओं ने इसे मुस्लिम जमात के खिलाफ बताया. वहां के अखबारों ने भी लगभग वैसा ही रवैया अपनाया, अयोध्या मामले के फ़ैसले को पाकिस्तान अखबारों ने भी पहले पन्ने पर जगह दी है.
अंग्रेज़ी अख़बार ‘डेली डॉन’ ने शीर्षक दिया कि अदालत ने अयोध्या स्थल को हिंदुओं और मुसलमानों में बांटा. अख़बार ने लिखा है कि फ़ैसले से जहाँ हिंदू ख़ुश हुए हैं तो मुसलमानों को निराशा हुई है क्योंकि जहाँ बाबरी मस्जिद थी उस स्थल को बांटा गया है और अब वहाँ हिंदू मंदिर बनाएंगे.
अंग्रेज़ी के दूसरे अख़बार ‘डेली टाईम्स’ ने भी इस ख़बर को पहले पन्ने पर जगह दी है और साथ ही एक तस्वीर भी प्रकाशित की है जिसमें कुछ लोग बैनर उठाए लाहौर की सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. अख़बार का शीर्षक है कि भारतीय अदालत ने बाबरी मस्जिद स्थल को तीन हिस्सों में बाँट दिया. आगे है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ कई पक्षों ने कहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगे जिस का अर्थ यह है कि 60 सालों से चला आ रहा मामला आगे भी जारी रहेगा.
उर्दू अख़बार ‘रोजऩामा जंग’ ने अपनी ख़बर में लिखा है कि अदालत ने बाबरी मस्जिद मुक़दमे में मुसलमानों के पक्ष को रद्द कर दिया और कहा कि विवादित स्थल रामजन्मभूमि है.
गुरुवार को जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अयोध्या मामले में अपना फ़ैसला सुनाया तो पाकिस्तान के सभी टीवी चैनलों ने इसका सीधा प्रसारण किया और पूरे दिन यह ख़बर छाई रही.
वहीं ब्रिटेन के अख़बार 'गार्डियन' ने शीर्षक दिया है- अयोध्या पर फैसले के बाद सुरक्षा कड़ी '. अख़बार लिखता है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद भारत में स्थिति तनावपूर्ण लेकिन शांत बनी हुई है. अमरीकी अख़बार 'न्यूयॉर्क टाइम्स' ने टेलीविजन देखकर कोर्ट के फ़ैसले का इंतजार करते हुए साधुओं की तस्वीर प्रकाशित करते हुए लिखा है कि भारत में जो मामला वहां के धार्मिक इतिहास में सदियों तक छाया रहा और 60 साल तक अदालत में लटका रहा, आखऱिकार भारतीय अदालत ने उस पर अपना ऐतिहासिक फ़ैसला सुना दिया है. अख़बार ने इस फ़ैसले के मद्देनजर भारत भर में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की ख़बर को अहमियत दी है. इसी तरह वाशिंगटन पोस्ट ने भी ढांचे को तोड़ते कारसेवकों की फाइल फोटो लगाई बाद में वहां लखनऊ में बने मीडिया सेंटर की तस्वीर प्रकाशित की है और शीर्षक दिया है- भारत में एक मंदिर, एक मस्जिद और एक कोर्ट का फैसला. कुल मिला कर देखा जाए तो इस फैसले पर पूरी दुनिया की नजर टिकी थी. मुस्लिम देशों की मीडिया खास कर पाकिस्तानी मीडिया ने अपना पूर्वाग्रह प्रदर्शित किया है. वहीं पश्चिमी मीडिया इसे एक आम खबर तरह प्रकाशित किया है. हालांकि इस एतिहासिक फैसले से भारत की लगातार हो रही परिपक्व लोकतांत्रिक ढांचे को विश्व में मजबूती मिली है, जो कि हिंदू या मुसलमान किसी भी संप्रदाय के भारतीय को गर्वान्वित होने का अवसर प्रदान करती है.

किसके हिस्से कितना अयोध्या


सुबहे बनारस और शामे अवध की संस्कृति ने पूरे भारतवासियों को जो साहस दिया अभूतपूर्व था. गुरुवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के लखनऊ बेंच का फैसला आने के पूर्व नि:संदेह पूरे देश में एक खामोश दहशत का माहौल था और टीवी चैनलों पर शांति व संयम की लगातार अपील की जाती रही. देश जब-जब संकट के दौर से गुजरता है, देखा गया कि गांधी आज भी उसे सबल प्रदान करते है. गुरुवार को भी यहीं हुआ. महात्मा गांधी की तस्वीरों और – ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान – का दृश्य टीवी पर प्रसारित हो रहा था. लंबे अर्से बाद पहली बार देश की मीडिया को संयमित व परिपक्व स्थिति में देखा गया और फैसला आया... लोगों ने सुना... सहमति-असहमति जतायी गई. जो स्वाभाविक भी था. लेकिन जो सबसे बड़ी बात है वह विश्व मीडिया के रवैये पर जा कर टिक जाती है.

हर भारतीय (हिंदू हो या मुसलमान) को पाकिस्तानी अखबारों में छपी खबरों को पढ़ जरुर ठेस पहुंची होगी. हालांकि ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान से कोई इससे इतर उम्मीद रखता हो. भारत के प्रति पूर्वाग्रह वहां के कण-कण में है. इस फैसले के खिलाफ भारतीय मुसलमान असहमत हो सकते हैं, लेकिन उन्होंने चरमपंथियों को निराश करते हुए शांति और सौहार्द बनाए रखने में जो संयम बरता व काबिले तारिफ है. जब कि वहीं पाकिस्तान में इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किए गए, और पाकिस्तानी चरमपंथी नेताओं ने इसे मुस्लिम जमात के खिलाफ बताया. वहां के अखबारों ने भी लगभग वैसा ही रवैया अपनाया, अयोध्या मामले के फ़ैसले को पाकिस्तान अखबारों ने भी पहले पन्ने पर जगह दी है.
अंग्रेज़ी अख़बार ‘डेली डॉन’ ने शीर्षक दिया कि अदालत ने अयोध्या स्थल को हिंदुओं और मुसलमानों में बांटा. अख़बार ने लिखा है कि फ़ैसले से जहाँ हिंदू ख़ुश हुए हैं तो मुसलमानों को निराशा हुई है क्योंकि जहाँ बाबरी मस्जिद थी उस स्थल को बांटा गया है और अब वहाँ हिंदू मंदिर बनाएंगे.
अंग्रेज़ी के दूसरे अख़बार ‘डेली टाईम्स’ ने भी इस ख़बर को पहले पन्ने पर जगह दी है और साथ ही एक तस्वीर भी प्रकाशित की है जिसमें कुछ लोग बैनर उठाए लाहौर की सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. अख़बार का शीर्षक है कि भारतीय अदालत ने बाबरी मस्जिद स्थल को तीन हिस्सों में बाँट दिया. आगे है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ कई पक्षों ने कहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगे जिस का अर्थ यह है कि 60 सालों से चला आ रहा मामला आगे भी जारी रहेगा.
उर्दू अख़बार ‘रोजऩामा जंग’ ने अपनी ख़बर में लिखा है कि अदालत ने बाबरी मस्जिद मुक़दमे में मुसलमानों के पक्ष को रद्द कर दिया और कहा कि विवादित स्थल रामजन्मभूमि है.
गुरुवार को जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अयोध्या मामले में अपना फ़ैसला सुनाया तो पाकिस्तान के सभी टीवी चैनलों ने इसका सीधा प्रसारण किया और पूरे दिन यह ख़बर छाई रही.
वहीं ब्रिटेन के अख़बार 'गार्डियन' ने शीर्षक दिया है- अयोध्या पर फैसले के बाद सुरक्षा कड़ी '. अख़बार लिखता है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद भारत में स्थिति तनावपूर्ण लेकिन शांत बनी हुई है. अमरीकी अख़बार 'न्यूयॉर्क टाइम्स' ने टेलीविजन देखकर कोर्ट के फ़ैसले का इंतजार करते हुए साधुओं की तस्वीर प्रकाशित करते हुए लिखा है कि भारत में जो मामला वहां के धार्मिक इतिहास में सदियों तक छाया रहा और 60 साल तक अदालत में लटका रहा, आखऱिकार भारतीय अदालत ने उस पर अपना ऐतिहासिक फ़ैसला सुना दिया है. अख़बार ने इस फ़ैसले के मद्देनजर भारत भर में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की ख़बर को अहमियत दी है. इसी तरह वाशिंगटन पोस्ट ने भी ढांचे को तोड़ते कारसेवकों की फाइल फोटो लगाई बाद में वहां लखनऊ में बने मीडिया सेंटर की तस्वीर प्रकाशित की है और शीर्षक दिया है- भारत में एक मंदिर, एक मस्जिद और एक कोर्ट का फैसला. कुल मिला कर देखा जाए तो इस फैसले पर पूरी दुनिया की नजर टिकी थी. मुस्लिम देशों की मीडिया खास कर पाकिस्तानी मीडिया ने अपना पूर्वाग्रह प्रदर्शित किया है. वहीं पश्चिमी मीडिया इसे एक आम खबर तरह प्रकाशित किया है. हालांकि इस एतिहासिक फैसले से भारत की लगातार हो रही परिपक्व लोकतांत्रिक ढांचे को विश्व में मजबूती मिली है, जो कि हिंदू या मुसलमान किसी भी संप्रदाय के भारतीय को गर्वान्वित होने का अवसर प्रदान करती है.