शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

पशुपतिनाथ से तिरुपति तक लाल कारिडोर

पशुपतिनाथ से तिरुपति तक लाल कारिडोर

रूसी क्रांति से प्रेरित नक्सलवादी विचारधारा के लोगों के लिए 'नक्सलवाद' मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओत्सेतुंगवाद के क्रांतिकारी पर्याय के रूप में जाना जाता रहा है। नक्सलवाद के समर्थक मानते हैं कि प्रजातंत्र के विफल होने के कारण नक्सली आंदोलन का जन्म हुआ और मजबूर होकर लोगों ने हथियार उठाए, लेकिन वास्तविकता यह है कि नक्सली आंदोलन अपने रास्ते से भटक गया है इसका तात्कालिक कारण है न व्यवस्था सुधर रही है और न इसके सुधरने के संकेत हैं, इसलिए नक्सली आंदोलन बढ़ रहा है। इसमें होने वाली राजनीति को देख सोचना पड़ता है कि वर्ग संघर्ष बढ़ाने के पीछे राजनीति है या राजनीति के कारण वर्ग संघर्ष बढ़ा है। कुछ समय पहले तक नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या माना जाता रहा है, मगर अब इसने चरमपंथ की शक्ल अख्तियार कर ली है। नक्सलवाद का जन्म पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में नेपाल की सीमा से लगे एक कस्बे नक्सलबाड़ी में गरीब किसानों की कुछ माँगों जैसे कि भूमि सुधार, बड़े खेतीहर किसानों के अत्याचार से मुक्त्ति को लेकर शुरू हुआ था। वर्तमान में नक्सलियों के संगठन पीपुल्स वार ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) दोनों संगठन मुख्यतः बिहार, झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में सक्रिय हैं, जिनका शुमार गरीब राज्यों में होता है। पीडब्लूजी का दक्षिणी राज्य आंध्रप्रदेश के पिछड़े क्षेत्रों में बहुत प्रभाव है। नक्सलवादी नेता का आरोप है कि भारत में भूमि सुधार की रफ्तार बहुत सुस्त है। उन्होंने आँकड़े देकर बताया कि चीन में 45 प्रतिशत जमीनें छोटे किसानों में बाँटी गई हैं तो जापान में 33 प्रतिशत, लेकिन भारत में आजादी के बाद से तो केवल 2 प्रतिशत ही जमीन का आवंटन हुआ है। एमसीसी और पीडब्लूजी संगठनों की हिंसक गतिविधियों के चलते इनसे प्रभावित कई राज्यों ने पहले ही प्रतिबंध लगा रखा है। इनमें बिहार और आंध्रप्रदेश प्रमुख हैं। इन राज्यों के खेतीहर मजदूरों के बीच इन चरम वामपंथी गुटों के लिए भारी समर्थन पाया जाता है। इस खेप में अब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश भी आ चुके है। छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला, जिसकी सीमाएँ आंध्रप्रदेश से लगी हुई हैं, में नक्सलवादी आंदोलन गहरे तक अपनी पैठ जमा चुका है। प.बंगाल से शुरू हुआ नक्सलवाद अब उड़ीसा, झारखंड और कर्नाटक में भी पैर पसार चुका है। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह भी इस पर अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं और इससे निपटने के लिए केन्द्र से हर सम्भव सहायता देने का वादा कर चुके हैं, पर अब तक वाम दल की बैसाखियों पर चल रही सरकार को बचाने में लगे प्रधानमंत्री और सरकार की ढुल-मुल नीतियों से फायदा उठाकर हाल ही में नक्सलवादियों ने पुलिस और विशेष दल के जवानों पर घात लगाकर किए जाने वाले हमले एकाएक बढ़ा दिए हैं।दुनिया के एकमात्र हिन्दु राष्ट्र को खत्म कर इस समय माओवादी तत्व भारत और नेपाल में अपने चरम पर है और चीन की मदद से भूटान और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय उग्र संगठनों से हाथ मिलाकर नेपाल के पशुपतिनाथ से लेकर तमिलनाडु के तिरुपति तक 'लाल गलियारा' (रेड कॉरिडोर) बनाने की जुगत में लगे हैं।कुछ समय पहले तक नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या माना जाता रहा है, मगर अब इसने चरमपंथ की शक्ल अख्तियार कर ली है। नक्सलवाद का जन्म पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में नेपाल की सीमा से लगे एक कस्बे नक्सलबाड़ी में गरीब किसानों की कुछ माँगों जैसे कि भूमि सुधार, बड़े खेतीहर किसानों के अत्याचार से मुक्त्ति को लेकर शुरू हुआ था। वर्तमान में नक्सलियों के संगठन पीपुल्स वार ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) दोनों संगठन मुख्यतः बिहार, झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में सक्रिय हैं, जिनका शुमार गरीब राज्यों में होता है। पीडब्लूजी का दक्षिणी राज्य आंध्रप्रदेश के पिछड़े क्षेत्रों में बहुत प्रभाव है। नक्सलवादी नेता का आरोप है कि भारत में भूमि सुधार की रफ्तार बहुत सुस्त है। उन्होंने आँकड़े देकर बताया कि चीन में 45 प्रतिशत जमीनें छोटे किसानों में बाँटी गई हैं तो जापान में 33 प्रतिशत, लेकिन भारत में आजादी के बाद से तो केवल 2 प्रतिशत ही जमीन का आवंटन हुआ है। एमसीसी और पीडब्लूजी संगठनों की हिंसक गतिविधियों के चलते इनसे प्रभावित कई राज्यों ने पहले ही प्रतिबंध लगा रखा है। इनमें बिहार और आंध्रप्रदेश प्रमुख हैं। इन राज्यों के खेतीहर मजदूरों के बीच इन चरम वामपंथी गुटों के लिए भारी समर्थन पाया जाता है। इस खेप में अब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश भी आ चुके है। छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला, जिसकी सीमाएँ आंध्रप्रदेश से लगी हुई हैं, में नक्सलवादी आंदोलन गहरे तक अपनी पैठ जमा चुका है। प.बंगाल से शुरू हुआ नक्सलवाद अब उड़ीसा, झारखंड और कर्नाटक में भी पैर पसार चुका है। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह भी इस पर अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं और इससे निपटने के लिए केन्द्र से हर सम्भव सहायता देने का वादा कर चुके हैं, पर अब तक वाम दल की बैसाखियों पर चल रही सरकार को बचाने में लगे प्रधानमंत्री और सरकार की ढुल-मुल नीतियों से फायदा उठाकर हाल ही में नक्सलवादियों ने पुलिस और विशेष दल के जवानों पर घात लगाकर किए जाने वाले हमले एकाएक बढ़ा दिए हैं।दुनिया के एकमात्र हिन्दु राष्ट्र को खत्म कर इस समय माओवादी तत्व भारत और नेपाल में अपने चरम पर है और चीन की मदद से भूटान और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय उग्र संगठनों से हाथ मिलाकर नेपाल के पशुपतिनाथ से लेकर तमिलनाडु के तिरुपति तक 'लाल गलियारा' (रेड कॉरिडोर) बनाने की जुगत में लगे हैं। इस 'लाल बेल्ट' में उत्तर भारत के बिहार और उत्तरप्रदेश (नेपाल से लगी सीमा) से लेकर प. बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, कर्नाटक तथा तमिलनाडु शामिल हैं। माओवादियों की पूरी कोशिश है कि इस लाल गलियारे को पूरी तरह अस्तित्व में लाकर भारत को विभक्त कर दें। इनकी मंशा है कि दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों को भारत से अलग किया जा सके तथा पूर्वोत्तर राज्यों को भी भारत से अलग किया जा सके, ताकि चीन अपना शिकंजा इन राज्यों पर जमा उन्हें तिब्बत की भाँति हड़प ले। ‘जनताना सरकार’ (जन सरकार) का नारा देकर नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में नक्सलियों ने अपनी समानांतर सरकार और न्याय व्यवस्था शुरू कर दी है। गोरिल्ला लड़ाई में माहिर नक्सलवादी और माओवादी पुलिस और सुरक्षा बलों पर योजनाबद्ध तरीकों से हमले कर उन्हें अपना निशाना बनाते हैं। उनकी रणनीति और युद्ध योजना के आगे अल्प प्रशिक्षित पुलिस बल पुराने हथियारों और तरीकों से चलते बेबस नजर आता है।हाल ही में आंध्रप्रदेश में नक्सलियों से निपटने के लिए बनाए गए 'विशेष ग्रे-हाउंड दस्ते' की नौका पर हाई कैलिबर की मशीन गन से घात लगाकर हमला किया गया। यह हमला इतना सुनियोजित था कि तैरकर बच निकलने की कोशिश करते ग्रे-हाउंड के जवानों को भी किनारे पर बैठे नक्सली शार्प-शूटर्स अपनी गोलियों का निशाना बनाते रहे। इसी तरह उड़ीसा के मलकानगिरी में सुरक्षाबल का एंटी-माइन वाहन भी हाई एक्सप्लोसिव से उड़ा दिया गया और धमाके में बचे जवानों पर घात लगाकर बैठे नक्सलियों ने हमला कर दिया। इसमें 21 जवानों की मौत हो गई। यह चरमपंथी अपनी कार्रवाई करने के बाद दूसरे राज्यों की सीमा में भाग जाते हैं और जब तक उस राज्य की सरकार कुछ कदम उठाए, तब तक नक्सली कानून की पकड़ से काफी दूर निकल जाते हैं। इस तरह की रणनीति अधिकतर दक्षिण-पूर्व एशिया की सेनाएँ बनाती हैं। इनके हथियार, गोलाबारूद के कैलिबर व सैन्य रणनीति इस बात के पुख्ता सबुत है कि इन नक्सलियों को विदेशी ताकत का समर्थन मिल रहा है। अंतरराष्ट्रीय संबंध : भारत के इस सशस्त्र वामपंथी आंदोलन ने पिछले कुछ वर्षों में अंतरराष्ट्रीय संपर्क भी विकसित किए हैं। वर्ष 2001 में दक्षिण एशिया के 11 मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठनों ने मिलकर एक संगठन बनाया सी. कॉम्पोसा यानी कॉर्डिनेशन कमेटी ऑफ माओइस्ट पार्टीज ऑफ साउथ एशिया। इसमें मुख्य भूमिका नेपाल की सीपीएन (माओवादी) की है। यहाँ तक कहा जाता है कि किसी जमाने में एक-दूसरे के कट्टर विरोधी रहे पीपल्सवार और एमसीसीआई को नजदीक लाने में भी सीपीएन (माओवादी) की महत्वपूर्ण भूमिका थी।माओवादी पार्टी का संपर्क और समन्वय नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका के सशस्त्र क्रांतिकारी संगठनों से है। जानकार इसे नेपाल से लेकर आंध्रप्रदेश के समुद्र तट तक 'माओवादी बेस एरिया' बनाने की इस संगठनों की भविष्य की रणनीति के रूप में देखते हैं। विडम्बना यह है कि भारत सरकार नक्सलवाद से निपटने के लिए न तो वैचारिक रूप से तैयार है न ही इसे खत्म करने के लिए दृढ़ मानसिकता बना पा रही है। पुराने कानून और लचर प्रशासनिक ढाँचे के साथ बेमन से लड़ी जा रही इस लड़ाई में सफलता के लिए एक विस्तृत योजना, कारगर रणनीति और प्रशिक्षित बल की आवश्कता है। सबसे ज्यादा आवश्यकता ऐसे नेतृत्व की है, जिसमें इस समस्या को समूल नष्ट करने की इच्छाशक्ति और विश्वास हो। इस समस्या से निपटने का सबसे कारगर तरीका है कि सबसे पहले नक्सली प्रभावित राज्य मिलकर एक टास्क फोर्स का गठन करें, जिसे सभी राज्यों में कार्रवाई की स्वतंत्रता हो। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में शिक्षा और जनहित के कार्यों को प्राथमिकता से कराया जाए। नेपाल से लगी सीमा पर चौकसी बढ़ाई जाए, जिससे हथियारों और गोला-बारूद की आपूर्ति पर रोक लगे। ऐसे स्थानीय तत्वों की पहचान करें, जो नक्सलियों को मदद देते हों। इस समस्या से निजात पाने के लिए सबसे जरूरी है जन-साधारण का समर्थन और विश्वास हासिल किया जाए। बंदूक जिनके लिए राजनीति है और सशस्त्र राजनीतिक संघर्ष के जरिए भारत में नव-जनवादी क्रांति जिनका सपना है, वे हथियार छोड़ेंगे नहीं और उनकी उठाई माँगें पूरा करना फिलहाल सरकार के बस में नहीं दिखता, मगर एक बात ध्यान में रखना चाहिए कि केवल विध्वंस करना ही क्रांति नहीं है, क्रांति निर्माण करने का नाम भी है।

गुरुवार, 17 जुलाई 2008

अब कोलकाता नहीं आते पूरबिया बालम

श्रीराजेश
ज्यादा दिन नहीं हुए। अस्सी के दशक तक बंगाल की पहचान जूट मिलों से थी। लाखों श्रमिक इस उद्योग से जुड़े थे। जूट मिलों की चिमनियों से निकलता धुआं लाखों पाट किसानों को भरोसा देता था। भोजपुरी प्रदेश के लोकगायन में पूरबी की प्रधानता कलकत्ता गये बालमों की संख्या से जोड़ कर देखी जा सकती थी। ''लागल नथुनिया के धक्का बलम पहुंच गइले कलकत्ता '' जैसे गीत ऐसे ही प्रवासी बालम के लिए लिखे गये। बिहार-उत्तर प्रदेश से लाखों लोग कलकत्ता पहुंचते थे। समय के साथ हालात बदले। एक के बाद एक जूट मिलें बंद होती गयीं। प्लास्टिक का जलवा कायम हुआ तो जूट उत्पादों की महत्ता घट गयी। जूट मिलों में तालाबंदी अखबारों की सुर्खियां हुआ करती थीं। बाद में यह सामान्य प्रक्रिया हो गयी। आज ज्यादातर मिलों की हालत खस्ता है और मजदूर बेहाल हैं।बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश व तमिलनाडू के लाखों प्रवासी मजदूर इन मिलों में काम करते हैं। सस्ता श्रम और जल परिवहन की उत्तम व्यवस्था ने यहां के जूट उद्योग को बुलंदी पर पहुंचाया। कोलकाता व इसके उपनगरीय क्षेत्रों में जूट मिलों का इतिहास लगभग दो सौ वर्ष का है। हुगली नदी के दोनों किनारों पर 200 से अधिक जूट मिलें स्थापित हुईं जिनमें से सिर्फ 53 बची हैं।कोलकाता से 27 किलोमीटर दूर उत्तर चौबीस परगना जिले के टीटागढ़ स्थित एंपायर जूट मिल के मजदूर मुरलीधर साव कहते हैं कि वह दिन सुनहरे थे। मिलों में काम कर मजा आता था। हंसी-ठहाकों से डिपार्टमेंट गूंजा करते थे। लेकिन अब सब बदल गया है। अपने बेटे को कमाने के लिए दिल्ली भेजा है। मिल कब बंद हो जाये इसकी कोई गारंटी नहीं है। मुरलीधर बिहार के सीवान जिले से अपने गांव के एक व्यक्ति के साथ 40 साल पहले यहां आये। अब वह रिटायरमेंट का बाट जोह रहे हैं। उसके बाद गांव चले जायेंगे।70 के दशक तक स्थिति अच्छी थी। ड्यूटी का सायरन बजने पर सड़कें मजदूरों की आवाजाही से खचाखच भर जाती थीं। अब वीरानी छायी है। कोलकाता के आसपास के उपनगरों को भोजपुरी समाज ने आबाद किया। इन बस्तियों के माहौल को देखकर बिहार के किसी बाजार की याद बरबस ही आ जाती है।कहा जाता है कि पश्चिम बंगाल के विकास में भोजपुरिया समाज की श्रम शक्ति तथा मारवाड़ियों ने पूंजी का बहुत बड़ा योगदान है। प्रत्यक्ष रूप से जूट मिलें तकरीबन दो लाख मजदूर परिवारों का सहारा थीं। लगातार मिलों के बंद होने से ज़्यादातर प्रवासी मजदूर बोरिया बिस्तर समेटकर अपने गाँव लौट गये। जो बचे हैं वे रिटायर होने के बाद अपनी पीएफ तथा ग्रेच्युटी की रकम प्राप्त करने के इंतजार में हैं।इन मिलों की खस्ता हालत के संबंध में मिल मालिकों का कहना है कि बाजार में अब जूट के बोरियों की मांग पहले जैसी नहीं रह गयी है। मशीनें पुरानी हो गयी हैं। प्लास्टिक से मिल रही चुनौती व बाजार के सिमटने जैसे कारकों से लाभ घटा है। मिलों के आधुनिकीकरण में काफी खर्च है। प्रमोटर के रूप में जूट उद्योग में कदम रखने वाले उद्योगपति घनश्याम सारडा नौ जूट मिलों को चलाते हैं। वे कहते हैं कि हमें भी विभिन्न तरह की दिक्कतें झेलनी पड़ रही हैं। बदहाली की वजह से अब मजदूर पश्चिमी प्रदेशों की ओर पलायन कर रहे हैं। यहां कुशल श्रमिकों का अभाव हो गया है। इसलिए सारडा समूह अपनी मिलों में श्रमिकों को प्रशिक्षण दिलाता। काम सीखने वाले श्रमिकों को प्रतिदिन 40 रुपये बतौर स्टाइपेंड दिया जाता है।पश्चिम बंगाल उद्योग विकास निगम के अनुसार राज्य में 59 जूट मिलें हैं। इनमें से केंद्र सरकार की पांच जूट मिलें व एक निजी कंपनी की मिल बंद है। फिलहाल 53 जूट मिलें चल रही हैं। इनमें से कई मिलें इंडियन जूट मिल्स एसोसिएशन (इज्मा) की सदस्य नहीं हैं लेकिन इऩ मिलों में 39, 733 लूम व 5,07, 960 स्पेंडल के माध्यम से सालाना 6, 24, 000 टन जूट की बोरियों, सैकिंग व हैसियन का उत्पादन होता है। इज्मा के अनुसार यूं तो जूट से निर्मित फैशनेबल उत्पादों का बाजार अच्छा है लेकिन पारंपरिक जूट की बोरियों का बाजार सिमट रहा है। पिछले पांच वर्ष में जूट की बोरियों के व्यवसाय में तकरीबन 4 से 5 फीसदी प्रति वर्ष गिरावट दर्ज की जा रही है। उधर, मजदूर संगठनों का कहना है कि वामपंथी मज़दूर यूनियनों के उग्र आंदोलनों, राज्य व केंद्र सरकार की ग़लत उद्योग नीतियों और मिल मालिकों की फूट डालो मिल चलाओ की नीति ने ज़्यादातर मिलों को बदहाली के कगार पर पहुंचा दिया है। पश्चिम बंगाल प्रदेश इंटक के महासिचव गणेश सरकार का कहना है कि राज्य सरकार औद्योगिक विकास के लिये तमाम तरह के विवाद को जन्म तो दे रही है लेकिन पारंपरिक जूट उद्योग के पुनरोद्धार की फिक्र नहीं है। उनका आरोप है कि वाममोर्चा के शासनकाल में जूट उद्योग चौपट हो गया।श्री सरकार का कहना है कि मजदूरों के भविष्यनिधि व चिकित्सा बीमा के कोष में अपना अशंदान नहीं देने से मार्च 2008 तक भविष्यिनिधि मद में 160 करोड़ व चिकित्सा बीमा का 85 करोड़ से अधिक राशि बकाया है।श्रम मंत्री मृणाल बनर्जी ने कहा कि जूट मजदूर प्रतिदिन दो सौ तक की मजदूरी पाते हैं। वह वाममोर्चा व वामपंथी ट्रेड यूनियनों के आंदोलन की देन है। इसके अलावा केंद्र सरकार की गलत जूट नीति का खामियाजा मजदूरों को भुगतना पड़ रहा है। राज्य सरकार की पहल पर कई मिलें दोबारा खुली हैं। हाल में केंद्र सरकार की नेशनल जूट मैन्यूफैक्चरिंग कॉरपोरेशन की टीटागढ़ इकाई बंद हो गयी। इससे दस हजार मजदूर बेरोजगार हो गये। आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है ?मिलों में ट्रेड यूनियनों के बीच वर्चस्व की लड़ाई और आरोप प्रत्यारोपों के बीच होने वाली द्विपक्षीय या त्रिपक्षीय वार्ताओं से एक मिल खुलती है, तब तक कई अन्य मिलें बंद हो जाती हैं। मिलों की खाली जमीनों पर बिल्डरों की नजरें टिकी रहती है। कई मिलों की जमीन पर अब अपार्टमेंट नजर आते हैं।नेताओं के निजी स्वार्थ की वजह से ट्रेड यूनियनों की विश्वसनीयता कम हो गयी है। इसका फायदा मालिक जम कर उठा रहे हैं। एक तरफ स्थाई मजदूरों की छंटनी की जाती है और दूसरी ओर कम वेतन पर अकुशल व बदली (अस्थाई) मजदूरों को बहाल किया जाता है। मजदूरों के भविष्यनिधि, ग्रेच्युटी और चिकित्सा बीमा के लिए अपना अंशदान भी देना पिछले कई सालों से कुछ मिल मालिकों ने बंद कर दिया है। कुल मिलाकर जूट उद्योग चौपट है।
डेढ़ महीनें में फिर बंद हुई चार
पिछले डेढ़ महीने के दौरान राज्य की तीन जूट मिलें अलग-अलग कारणों से बंद हुई। हालांकि जगतदल जूट मिल महज एक सप्ताह के बाद फिर खुल गया लेकिन उत्पादन नहीं हो रहा है। शादी-ब्याह का मौसम होने की वजह से भारी संख्या में मजदूर पहले ही गांव चले गये थे। मिल बंद होते ही कुछ और मजदूर गांव की ओर रुख किये। अब मिल तो खुल गया लेकिन पर्याप्त मजदूर नहीं है। मिल के अस्थायी श्रमिक देवेंद्र गुप्ता कहते हैं कि बकाया पीएफ व महंगाई भत्ता की मांग को लेकर प्रबंधन और मजदूरों के बीच टसल चल रहा था। यूनियनों ने इसे सुलझाने की कोशिश की लेकिन बात बनी नहीं और मिल में जून के पहले सप्ताह में प्रबंधन की ओर से तालाबंदी की घोषणा कर दी गयी। हालांकि फिर द्विपक्षीय बैठक के बाद मामला सुलझा और मिल खुला।वहीं टीटागढ़ दो नंबर जूट मिल के नाम से ख्यात लूमटेक्स इंजीनियरिंग लिमिटेड मई के तीसरे सप्ताह में बंद हो गयी। मजदूर अपनी मांगों को लेकर प्रबंधन के सामने विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। देखते –देखते यह प्रदर्शन उग्र हो गया और प्रबंधन पक्ष का एक अधिकारी आंदोलनकारी मजदूरों का कोप भाजन बना। अस्पताल जाने के क्रम में उस अधिकारी की मृत्यु हो गयी। तब से मिल बंद है। आंदोलनकारी मजदूरों में से 16 मजदूरों को पुलिस उक्त अधिकारी की हत्या के आरोप में तलाश कर रही है। मिल बंद होने से साढ़े तीन हजार मजदूरों के सामने बेरोजगारी की समस्या खड़ी हो गयी है। हालांकि इन डेढ़ महीनों में मिल को खुलवाने के लिए तीन बार बैठकें हो चुकी हैं। मजदूरों की बकाया राशि के भुगताने को लेकर 21 जून को कोलकाता से 34 किलोमीटर दूर जगतदल स्थित एलायंस जूट मिल में प्रबंधन व मजदूरों के बीच ठन गयी। आक्रोशित मजदूरों ने मिल में तोड़फोड़ भी की। इसके बाद मिल प्रबंधन की ओर से तालाबंदी की घोषणा कर दी गयी। इसमें कुल 2600 मजदूर काम करते हैं।वहीं हुगली जिले के भद्रेश्वर स्थित नार्थ श्यामनगर जूट मिल में भी मजदूरों के बकाया राशि के भुगतान को लेकर मामला गर्म हुआ है और 20 जून को उसमें भी तालाबंदी की घोषणा कर दी गयी। इसमें तकरीबन 3400 मजदूर काम करते हैं। इस तरह राज्य में लगभग प्रति महीने एक न एक मिल बंद होती है। इनमें कुछ खुलती हैं तो कुछ हमेशा के लिए बंद हो जाती हैं।
हौसला जुर्म है...बेबसी जुर्म है...
अपने गांव देस को बेगाना बना वे बंगाल आये थे। कुछ कमाने की आस में। अपने जांगर के बल पर भाग्य बदलने का सपना लेकर। अब जांगर थक गया। यह बंगाल भी बेगाना हो गया है। यह कहानी जूट मजदूरों की है। जमाना बदला। एक बार फिर इतिहास अपने को दुहरा रहा है। बस डेस्टीनेशन बदल गया है। पहले बयार पूरब की ओर बहती थी। नयी पीढ़ी पछुआ में बह रही है। बंगाल को अपना घर-दुआर मान बैठे जूट श्रमिकों के बच्चे अब गुजरात के सूरत में जरी का काम करने जाते हैं। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब उन्हें बुलाता है। बंगाल में चाकरी की आस खत्म हो गयी है।गोपालगंज के दिघवा-दिघौली के रामाश्रय ठाकुर से पूछिए। मेघना मिल में 47 साल से काम करने वाले ठाकुर ने यहीं जमीन खरीदकर छोटा सा घर बना लिया है। गांव से नाता-रिश्ता शादी-ब्याह के मौके पर जाने भर तक है। सोचा था नयी पीढ़ी को बंगाल में ही सेट कर देंगे। सोच बस सोच में सिमट कर रह गयी। तीन बेटे दिल्ली में सिक्योरिटी गार्ड हैं। काफी दिनों तक यूनियन के नेताओं तथा कंपनी के बाबुओं के पीछे-पीछे घुमे लेकिन एक बेटे को भी नौकरी नहीं दिला पाये। वही बेटा दिल्ली गया तो अपने साथ एक दर्जन युवकों को नौकरी देने के काबिल हो गया है।रामाश्रय कहते हैं कि सुना है टाटा का कारखाना लग रहा है। वहां पता नहीं कौन से लोगों को नौकरी मिलेगी। जूट मिलों में तो लगातार छंटनी हो रही है।अयोध्या प्रसाद सिंह को उनके ममेरे भाई ने बंगाल बुलाया था। वे उन दिनों को याद करते हैं। भाई ने उनके जैसे दर्जनों लोगों को नौकरी दिलाई। अब सच में वे दिन बस कहानियों जैसे लगते हैं।मिलों में अब बदली मजदूर रखे जाते हैं। 70 रुपये की मजदूरी पर। बिहार से, उत्तर प्रदेश से, झारखंड से आकर कोई क्यों इतनी कम मजदूरी पर नौकरी करना चाहेगा। खायेंगे क्या और बचायेंगे क्या ? अयोध्या के बेटे शनिवार को मिल के गेट पर लगने वाले साप्ताहिक बाजार में गमछा-लूंगी बेचते हैं।कोलकाता से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गौरीपुर जूट मिल 17 साल से बंद है। अधिकांश मजदूर गांव लौट गये। जो यहां रह गये उनमें से कुछ फेरी लगाते हैं। कुछ ने साइकिल मरम्मत की दुकान खोल ली है। कुछ गरीबी से हार गये। फिर जिंदगी से भी। मजदूरों की बस्ती में नयी पीढ़ी के कुछ लोग रहते हैं। वे छोटे-मोटे धंधे से जुड़ गये हैं। जूट मिल का मजदूर नहीं बनना चाहते।
आंकड़ा (श्रम संगठनों के अनुसार)
जूट मिलों की संख्या (पूरे देश में) – 73
पश्चिम बंगाल में जूट मिलों की संख्या- 59
बंद मिलों की संख्या- 6
लूम की संख्या- 39,733
स्पेंडल की संख्या- 5,07,960
उत्पादन (वार्षिक)-6,24,000
टन
मजदूरों की संख्या- 2.03 लाख
महिला मजदूरों की संख्या- 13, 700
बकाया भविष्यनिधि की राशि – 160 करोड़
बकाया ईएसआई की राशि – 85 करोड़
(निरुपम सेन- उद्योग मंत्री)
हमारे प्रयासों से ही बचा है जूट उद्योग – निरुपम सेन
उद्योग व वाणिज्य मंत्रीराज्य के उद्योग मंत्री निरुपम सेन कहते हैं कि सरकार राज्य में औद्योगिक विकास के लिए सभी तरह के उपाय कर रही है। ऐसे में परंपरागत जूट उद्योग के प्रति उदासीनता का आरोप बेबुनियाद है। सरकार ने जूट उद्योग की स्थितिसुधारने के लिए नई नीति बनायी है। इसमें श्रमिकों के हित, बाजार की संभावना और मिल मालिकों के हितों को भी ध्यान में रखा गया है। सरकार ने कई जूट मिलों को टैक्स में भारी छूट दी है। इसके अलावा श्रमिकों के बकाया के भुगतान के लिए भी मिल मालिकों के साथ बैठक कर सरकार ने रास्ता निकाला है। इस रुग्ण उद्योग को पटरी पर लाने में वक्त लगेगा लेकिन सरकार ने उद्योग को संरक्षण देने के लिए कई तरह की योजनाएं बनायी है। बंद जूट मिलों को खोलने के लिए कई प्रमोटरों से बातचीत चल रही है। केंद्र सरकार की राज्य में पांच जूट मिले थीं जो बंद हो गयीं। दूसरी ओर हम इस कोशिश में है कि निजी क्षेत्र की जो बंद मिले हैं, उन्हें किसी तरह खुलवाया जाये। सरकार की पहल पर पिछले आठ वर्ष में प्रमोटरों के माध्यम से तीन मिलें खुलवाई गयी हैं।

वामपंथी ट्रेड यूनियनों के प्रयास से बचीं हैं जूट मिलें – मृणाल
श्रम मंत्री
एक एक कर लगातार बंद हो रही जूट मिलों के संबंध में राज्य के श्रम मंत्री मृणाल बनर्जी का कहना है कि वर्तमान में जो मिलें चल रही है वह वामपंथी ट्रेड यूनियनों की ही देन है। अन्यथा बंगाल से जूट मिलों का अस्तित्व की खत्म हो गया होता। यूनियनों के लगातार आंदोलनों की वजह से मजदूरों को प्रतिदिन दो सौ रुपये तक की मजदूरी मिल रही है। केंद्र सरकार की गलत जूट नीति का खामियाजा मजदूरों को भुगतना पड़ रहा है। हाल में केंद्र सरकार की नेशनल जूट मैन्यूफैक्चरिंग कॉरपोरेशन की टीटागढ़ व खड़दह इकाई बंद हो गयी। इससे 15 हजार से अधिक मजदूर बेरोजगार हो गये। आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? राज्य सरकार की पहल पर कई मिलें दोबारा खुली हैं।

भरोसा खोतीं यूनियनें – गोरखनाथ मिश्र
वरिष्ठ श्रमिक नेता
जूट मिल के श्रमिकों के साथ पांच दशक गुजारने वाले प्रो. गोरखनाथ मिश्र जूट उद्योग के बदहाल होने के तीन कारण बताते हैं। पहला वामपंथी दलों का उग्र आंदोलन, दूसरा केंद्र सरकार की ओर से प्लास्टिक लाबी को जरुरत से ज्यादा प्रोत्साहन देना और तीसरा केंद्र व राज्य सरकार की ओर से जूट मिलों के प्रति उदासीन रवैया।श्री मिश्र कहते हैं कि स्थिति ऐसी है प्रवासी मजदूर यूनियनों के लंबे चौड़े वादों से ऊब गये हैं। प्रबंधन से भला होने की कोई आस नहीं है। ऐसे में वे मजबूर महसूस करते हैं। अधिकांश प्रवासी श्रमिकों में लगभग सभी उम्र के 50 वें वर्ष को पार कर चुके हैं। कहीं अन्यत्र रोजगार के लिए जाना और जोखिम भरा है। इस स्थिति में वे दिन गिन रहे हैं कि कब रिटायर होंगे। श्रमिकों की नई पीढ़ी बेराजगारी की मार झेलने से बेहतर कम दिहाड़ी में ही सही कुछ कमा लेने की उम्मीद से जुड़ी है। वाउचर पद्धति शुरू की गयी है। जहां स्थाई श्रमिकों को प्रतिदिन 272 रुपये की दिहाड़ी मिलती है वहीं नये श्रमिकों को सिर्फ सौ रुपये। इसके अलावा उन्हें और कोई सुविधाएं भी नहीं मिलतीं। सरकार के उदासीन रवैये से ट्रेड यूनियनें कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। श्रमिक व श्रमिक संगठन सब स्वयं को मजबूर महसूस करते हैं और इससे उबरने का रास्ता नहीं दिखता।
घोर संकट से गुजर रहा भोजपुरी समाज – नारायण दूबे
पटकथा लेखक
कई भोजपुरी फिल्मों के लिए पटकथा लिखने वाले नारायण दूबे की कहानियों में पुरबिया पात्रों की धाकड़ उपस्थिति दिखती थी। जूट मिल के श्रमिकों के जीवन को मार्मिक तरीके से उन्होंने पेश किया है। बिहार, उत्तर प्रदेश के दर्शकों ने इन फिल्मों को सराहा। उन्हें लगता था कि फिल्म का नायक कोई उनका अपना ही है। नाराय़ण दूबे कहते हैं कि अब भोजपुरी फिल्मों का नायक कैरियर की तलाश में मुंबई व लंदन जाता है। कोई फिल्म निर्माता या पटकथा लेखक नायक को कलकत्ता में रहते दिखाने का रिस्क नहीं लेना चाहता। उनका कहना है कि हालात तेजी से करवटें ले रहा है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में लोग पश्चिम की ओर से देख रहे हैं। नारायण दूबे महसूस करते हैं कि इन जूट मिल के श्रमिकों के जीवन का शीत-बंसत उन्हें पात्र गढ़ने के लिए रा मेटेरियल व ऊर्जा उपलब्ध कराता था। उनका कहना है कि 80 के दशक में एक के बाद एक मिलें रुग्ण अवस्था में जाने लगीं। उस समय ही राज्य सरकार को चेत जाना चाहिए था लेकिन सत्ताधारी दल की ट्रेड यूनियनें सर्वहारा वर्ग की मसीहा बनने की फिराक में लगी रहीं। मिल मालिकों पर श्रमिक हितों के नाम पर दबाव बनाया गया। पूरे परिदृश्य को समझें तो साफ होता है कि वामपंथी ट्रेड यूनियनों के उग्र आंदोलन से श्रमिकों को तात्कालिक तौर पर कुछ फायदा हुआ लेकिन जूट उद्योग के भविष्य को ग्रहण लग गया। लेबोरियस मैन का डेस्टीनेशन बदल गया। कलकतिया बालम मुंबईया बाबू हो गये....।