गुरुवार, 10 मार्च 2011

उत्तर-पूर्व में पाक के नापाक इरादे


म्यांमार में उत्तरी अराकान प्रदेश को स्वंतत्र राष्ट्र बनाने के लिए दो दशक से संघर्ष कर रहे सुन्नी मुस्लिम संप्रदाय के रोहिंगा अब भारत के लिए खतरा बनते जा रहे हैं. म्यांमार की सेना की सख्त कार्रवाई से रोहिंगाओं को म्यांमार से पलायन के लिए बाध्य होना पड़ा है. कई रोहिंगा नेता यूरोपिय देशों में तो भारी संख्या में रोहिंगा लड़ाके बांग्लादेश में शरण लिए हुए हैं. बांग्लादेश सरकार ने 'काक्स बाजार' जिले में इन शरणार्थियों के लिए दो शिविर भी लगाए हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन शिविरों में करीब 28 हजार रोहिंगा सपरिवार रह रहे हैं.
हाल में ही संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी किए गए रिपोर्ट में बांग्लादेश में तकरीबन तीन लाख रोहिंगा शरण लिए हुए हैं. अराकान की स्वतंत्रता की लड़ाई में इन्‍हें पाकिस्तान की ओर से भी मदद मिलती रही है. अपनी इस मदद के एवज में अब वह इनसे 'कीमत वसूलने' की तैयारी में है. पाकिस्‍तान अब इन रोहिंगाओं को भारत के खिलाफ इस्‍तेमाल करने में जुट गया है. पाक खूफिया एजेंसी आईएसआई इन छापामारा लड़ाकों को प्रशिक्षण देकर बांग्‍लादेश के रास्‍ते भारतीय सीमा में घुसपैठ करा रही है. ऐसा नहीं है कि भारतीय खूफिया एजेंसियां इस बात की जानकारी नहीं है. खूफिया विभाग ने इस संबंध में पश्चिम बंगाल और असम पुलिस को कई महत्‍वपूर्ण तथ्‍यों की जानकारी दी है.
गत 4 मार्च को त्रिपुरा पुलिस ने राजधानी अगरतला से तीन महिलाओं समेत दस रोहिंगाओं को गिरफ्तार किया. ये सभी लोग गैरकानूनी रूप से भारत में घुसे थे. बाद में इन्‍हें अदालत में पेश किया, जिसने उन्‍हें 14 दिनों के लिए हिरासत में भेज दिया. ये सभी लोग म्‍यांमार के मोंगोला इलाके के रहने वाले हैं.
इसके पहले इस साल 22 जनवरी को अंडमान-निकोबार द्वीप समूह से 700 किलोमीटर दूर समुद्र में थाईलैंड की समुद्री सुरक्षा बल ने भी 91 रोहिंगाओं को गिरफ्तार किया है. इनके पास भी थाई क्षेत्र में प्रवेश के लिए कोई वैध कागजात नहीं थे. 700 किलोमीटर दूर समुद्र में ये बगैर मोटर वाली नाव से सफर कर रहे थे. जबकि अराकान नेशनल रोहिंगा आर्गेनाइजेशन की ओर से 14 फरवरी, 2011 को एक प्रेस विज्ञप्तिजारी कर कहा, 'ये सभी रोहिंगा गलती से थाई जल क्षेत्र में चले गये थे. थाई सुरक्षा बलों को उनकी मजबूरी को समझना चाहिए'.
वास्तव में हाल के कुछ वर्षों में भारत के विभिन्न हिस्सों में रोहिंगाओं की मौजूदगी ने खुफिया विभाग के कान खड़े कर दिए हैं. दरअसल, खुफिया विभाग को रोहिंगाओं पर तब ध्यान गया जब कि वर्ष 2008 को क्रिसमस की पूर्व संध्या को हावड़ा रेलवे स्टेशन से 32 म्‍यांमारी रोहिंगा को बगैर वैध दस्तावेजों के गिरफ्तार किया गया. इनमें महिलाएं व बच्‍चे भी शामिल थे. इसके बाद हिंद महासागर से पांच मई 2010 को भारतीय तट रक्षकों ने 72 छोटी नौकाओं के साथ इन्हें गिरफ्तार किया. इन गिरफ्तार म्‍यांमारी रोहिंगाओं से पूछताछ में खुफिया विभाग को कई चौंकाने वाले तथ्य मिले हैं. खूफिया विभाग को मिली जानकारी के मुताबिक ये रोहिंगा दो मोर्चे पर अपनी लड़ाई एक साथ लड़ रहे हैं. एक तो अराकान को स्वतंत्र कराने के लिए पाकिस्तान से मिलने वाली मदद के लिए वह उसके इशारे पर भारत के खिलाफ गतिविधियों में शामिल हो रहे हैं, वहीं अराकान में म्‍यांमारी जुंटा सैनिकों द्वारा रोहिंगाओं पर किये जा रहे कथित अत्याचारों के खिलाफ लड़ रहे हैं.
यूनियन रोहिंगा कम्यूनिटी ऑफ यूरोप के महासचिव हमदान क्याव नैंग का कहना है कि म्यांमार में रोहिंगाओं पर जुंटा सैनिक दमन नीति चला रहे हैं. वहां खुलेआम मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है. मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों की रोकथाम के लिए उन्होंने विश्व समुदाय से खास कर भारत से एमनेस्टी इंटरनेशनल पर दबाव बनाने का आग्रह किया है. उन्होंने तीन सितंबर 2008 को बांग्लादेशी अखबार दैनिक युगांतर, पूर्वकोण में प्रकाशित खबर व फोटो को सभी देशों को भेजा था. इस रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि म्‍यांमार में किस तरह रोहिंगाओं को मस्जिद में नमाज अता करने से जुटां सैनिकों द्वारा रोका जा रहा है. इसी तरह मांगदोव शहर से सटे रियांगचन गांव के मेई मोहमद रेदान नामक युवक को मानवाधिकार की रक्षा से संबंधित एक पत्रिका का प्रकाशन करने के आरोप में गिरतार किया गया. जुंटा सैनिकों की सहयोगी नसाका फोर्स ने उसे देकीबुनिया शिविर से गिरफ्तार किया और टार्चर किया. इस क्रम में उसकी जीभ काट ली गई. इसी तरह यूनियन रोहिंगा कम्यूनिटी ऑफ यूरोप की ओर से जारी एक विज्ञप्ति में बताया गया था कि पिछले दो वर्षों में जुंटा सैनिकों द्वारा 17 रोहिंगा समुदाय के धार्मिक नेताओं को गिरतार किया गया लेकिन अब वह कहां और कैसे है इनकी जानकारी किसी को नहीं है. इन 17 धार्मिक नेताओं में मौलाना मोहमद सोहाब, मौलाना मोहमद नूर हसन, नैमुल हक भी शामिल है.
रोहिंगाओं के स्वतंत्रता संग्राम में पाकिस्तान धन, हथियार व प्रशिक्षण दे कर मदद करता रहा है. भारत में 26/11 की घटना में भारत-पाक सीमा पर चौकसी कड़ी कर दी गई. इसके साथ ही सरहदी इलाके के स्थानीय लोगों का सहयोग भी पाक आतंकियों को नहीं मिल रहा है. इसका तोड़ निकालने के लिए पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने बांग्लादेश के रास्ते छापामार युद्ध की कला में निपुण इन रोहिंगाओं को भारत में आंतक फैलाने के लिए इस्तेमाल कर रहा है. अब जब कि भारतीय खुफिया एजेंसी ने यह खुलासा किया है कि बांग्लादेश सीमा से सटे पश्चिम बंगाल और असम से सीमावर्ती मुस्लिम बहुल इलाकों में तकरीबन डेढ़ हजार रोहिंगा लड़ाके छुपे हैं. खुफिया एजेंसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इनके पास विमान व युद्धपोतों को छोड़ कर लगभग सभी प्रकार के अत्याधुनिक हथियार उपलब्ध है. खुफिया एजेंसी ने पश्चिम बंगाल व असम पुलिस को जो सूचना उपलब्ध कराई है उसके अनुसार पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई इन रोहिंगा छापामारों को पाकिस्तान में छापामार युद्ध का प्रशिक्षण देकर बांग्लादेश के रास्ते भारत में घुसपैठ करा रही है.
वर्ष 1991 से म्यांमार में रोहिंगा और जुंटा सैनिकों के बीच छापामार युद्ध चल रहा है, लेकिन बीते तीन वर्षों से जुंटा सैनिकों ने रोहिंगाओं के आंदोलन को दमन करने का अभियान छेड़ दिया है. सेना के खिलाफ अपने अभियान के लिए वे अब मुस्लिम राष्‍ट्रों की ओर मदद के लिए देख रहे हैं.
बांग्‍लादेश सरकार अपने उस वादे पर भी अमल करती नजर नहीं आ रही जिसमें उसने यह कहा था कि उनके देश की जमीन का इस्‍तेमाल भारत विरोधी कार्यों के लिए नहीं किया जाएगा. जानकारी के अनुसार बांग्‍लोदशी जमीन पर उन्‍हें हर तरह की मदद मुहैया कराई जा रही है, वहीं आईएसआई भी उन्‍हें हथियार चलाने से लेकर अन्‍य सभी तरह के सन्‍य प्रशिक्षण देकर भारत में घुसपैठ कराने में जुटी है. खूफिया अधिकारियों के मुताबिक पश्चिम बंगाल के सुंदरवन के जलमार्ग से बांग्लादेश के खुलना और सतखिरा होकर भारत में घुसपैठ कर रहे हैं. गुप्त सूचना के अनुसार कुछ छापामारों के उत्तर चौबीस परगना के बांग्लादेश सीमा से सटे इलाकों और दक्षिण चौबीस परगना के कैनिन, घुटियारी शरीफ, मगराहाट, संग्र्रामपुर, देउला, मल्लिकपुर और सोनारपुर में बांग्लादेशी घुसपैठियों के बीच छिपे होने की आशंका है. इनमें भारी संख्या में महिलाएं भी शामिल है.

सोमवार, 7 मार्च 2011

शिक्षा की नई राह पर दौड़ने को तैयार है बिहार


विकास के प्रति बिहार की अकुलाहट उस राज्य की जीजीविषा को दर्शाती है. पिछड़ेपन के दंश से उबरने की नित नई कोशिशें अब रंग लाने लगी हैं. एक तरफ सूबे के आठवीं कक्षा तक के 70,000 स्कूल ऑनलाइन हो गए हैं, तो वहीं सरकार ने अब सूबे में तीन किलोमीटर के दायरे में एक मिडिल स्कूल खोलने की घोषणा की है. जिससे मद्धिम हो रही शिक्षा की लौ सशक्त हो सके.

हालांकि केंद्र सरकार ने इसके पहले एक प्रस्ताव पारित किया था कि देश के सभी राज्यों में पांच किलोमीटर के दायरे में एक मिडिल स्कूल खोला जाए, ताकि अधिक से अधिक बच्चे शिक्षा के ज्योति से प्रकाशित हो सकें. इस मामले में बिहार ने दायरे को कम करते हुए तीन किलोमीटर कर दिया है. राज्य सरकार ने उम्मीद जताई है कि इससे राज्य में शिक्षा दर बढ़ाने में मदद मिलेगी. इसके पहले सरकार ने स्कूली छात्राओं को साइकिल वर्दी देने की सफलता देख चुकी है. शिक्षा के क्षेत्र में बिहार का अतीत विडंबनाओं से भरा है.

कभी नकल के लिए यह राज्य कुख्यात था, वहीं आईएएस और आईपीएस के चयन में बिहारी छात्रों का हमेशा से दबदबा रहा है. पिछले कुछ वर्षों में राज्य की शिक्षा व्यवस्था में सुधार हुआ हैं और शिक्षा के लिए होने वाले पलायन पर भी विराम लगा है. उच्च शिक्षा के लिए भी सरकार ने कई विशेष योजनाओं का कार्यान्वयन किया है, इसमें नालंदा विश्वविद्यालय को फिर से विश्वस्तरीय शिक्षा केंद्र के रूप में विकसित करना भी है.

सरकार की ओर से लांच वेबसाइट "डब्लूडब्लूडब्लू डॉट स्कूल रिपोर्ट कार्डर्स डॉट इन" पर सभी ऑनलाइन विद्यालयों के विषय में जानकारियां उपलब्ध हैं. यह व्यवस्था जिला शिक्षा सूचना व्यवस्था (डीआईएसई) नामक योजना के तहत की गई है, जिसके लिए "केन्द्रीय मानव संसाधन विभाग" और "यूनिसेफ" मदद कर रहा है. शिक्षा विभाग के मुताबिक इस योजना के तहत राज्य के सभी प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों को रखा गया है.

तो वहीं सरकार ने मिडिल स्कूलों को खोलने के लिए बजट में से 190 करोड़ रुपए इस मद में आवंटित करने की घोषणा की है. जबकि दूसरी ओर राज्य की शिक्षा व्यवस्था का स्याह पक्ष यह है कि अभी भी 8208 प्राथमिक विद्यालय भवन के अभाव में बगीचे और खेत खलिहानों में चल रहे हैं. वित्तवर्ष 2011-12 के बजट में सरकार ने 9379.72 करोड़ रुपए शिक्षा मद में रखा है. इतनी बड़ी राशि इसके पहले शिक्षा मद के लिए कभी आवंटित नहीं की गई. इससे उम्मीद जगी है कि जिन प्रथामिक विद्यालयों के भवन नहीं है उन विद्यालयों के लिए इस वित्तवर्ष में भवन बन जाएंगे. हालांकि बजट पेश होने के पूर्व ही 4496 स्कूलों के भवन निर्माण के आदेश दिए जा चुके हैं. बिहार में प्राथमिक स्तर पर अध्यापकों के 4,79,219 पद स्वीकृत हैं. शिक्षा के अधिकार कानून के तहत छात्र और अध्यापक के अनुपात संबंधी प्रावधान को पूरा करने के लिए अतिरिक्त 96,534 अध्यापकों की आवश्यकता है. इसके अतिरिक्त प्राथमिक स्तर पर 27,696 अंशकालिक अनुदेशकों (इन्स्ट्रक्टर) की जरूरत है. राज्य के मानव संसाधन विकासमंत्री प्रशांत कुमार शाही ने विधानसभा के बजट 2011-12 पर बहस के दौरान राज्य को भरोसा दिलाया कि इन सभी रिक्त पदों पर शीघ्र ही नियुक्ति की जाएगी और शिक्षा के स्तर को राष्ट्रीय औसत स्तर तक ले जाया जाएगा.

मंगलवार, 1 मार्च 2011

पश्चिम बंगालः राजनीतिक धूप-छांव

जनाक्रोश और उससे जन्मी क्रांति ने ट्यूनिशिया और मिस्र में लंबे समय से सत्ता पर काबिज तानाशाहों को विदा कर दिया. लीबिया, यमन, जार्डन सहित कई देशों में लोकतंत्र के लिए क्रांति हो रही है. चीन में भी लोग सड़क पर उतरे. यहां स्थितियां अलग थी, अपनी ही लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ. पश्चिम बंगाल की सत्ता पर भी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार काबिज है. पिछले साढ़े तीन दशक से. यहां भी बदलाव की बयार पिछले कुछ सालों से देखी जा रही है. नजर विधानसभा चुनाव पर है. आखिरकार इंतजार खत्म हुई. हालांकि वैसा कुछ नहीं है कि समय बीत रहा हो या बीत गया हो. सब कुछ अपने वक्त से ही हो रहा है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से पश्चिम बंगाल की राजनीति के धूप-छांव ने लोगों की निगाहें होने वाले विधानसभा चुनाव पर केंद्रीत कर दी है. हालांकि पश्चिम बंगाल के अलावा देश के अन्य चार राज्यों में विधानसभा चुनाव की चुनाव आयोग ने एक मार्च को घोषणा कर दी है. एक तरह से इन राज्यों में चुनावी डुगडुगी बज गई.
आज दुनिया भर में जहां भी सत्ता में कम्युनिस्ट हैं, वहां लोकतंत्र स्याह हुआ है. इसके कई उदाहरण है. भारत में भी दो राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में हैं. पश्चिम बंगाल और केरल. बावजूद इसके पश्चिम बंगाल की स्थितियां केरल के मुकाबले कुछ ज्यादा ही चिंतित करने वाली रही है. शेष असम, पुंडुचेरी, तमिलनाडु की भी अपनी-अपनी समस्याएं हैं लेकिन पश्चिम बंगाल की समस्याएं और स्थितियां जुदा हैं. चुनाव आयोग की घोषणा के अनुसार बंगाल में 294 सीटों के लिए छह चरणों में 18, 23, 27 अप्रैल, 3, 7 और 10 मई चुनाव होने हैं.
यहां होने वाले इस चुनाव के नतीजे क्या होंगे ? अनुमान सबकों है- वाममोर्चा को भी, मुख्य विपक्षी तृणमूल कांग्रेस को भी और बंगाल की जनता को भी. लेकिन क्या ये अनुमान वास्तविकता में बदलेंगे? कयास लगने शुरू हो गये हैं. कभी किसानों, मजदूरों, सर्वहारा वर्ग और बुद्धिजीवियों की के बल पर वाममोर्चा ताल ठोकते हुए साढ़े तीन दशक पूर्व राइटर्स में घुसी थी. कामरेड ज्योति बसु के नेतृत्व में. हालात बदल गये, न ज्योति बसु रहे, न माकपा वह रही. आज वहीं किसान, मजदूर, सर्वहारा वर्ग और बुद्धिजीवी माकपा के विऱोधी हो गये हैं. सड़कों पर भी उतरे हैं. हालांकि बंगाल में सड़क पर उतरने की संस्कृति को माकपा ने ही परवान चढ़ाया, आज वही गले की फांस बनी है.
चुनावी घोषणा होते ही राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई है. यह संयोग ही है कि चुनाव की घोषणा भी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के जन्मदिन के दिन ही हुआ. हालांकि मुख्यमंत्री ने अपना जन्मदिन काफी सादगी से मनाया. चुनाव की तारीख की घोषणा होते ही राजनीतिक विशलेषकों में पश्चिम बंगाल में वर्षों से चली आ रही राजनीतिक हिंसा के और बढ़ने या फिर कहें कि सारे रिकार्ड तोड़ने की आशंका चिंता पैदा कर रही है. इस आशंका को नंदीग्राम में 14 मार्च, 2007 को दिन के ऊजाले में ‘चप्पल पहने पुलिसवालों’ द्वारा की गई कार्रवाई बिना किसी शक के पुष्टि करती हैं. वास्तव में, हिंसा में उबाल की शुरुआत 24 नवंबर, 2010 को उस समय हुई, जब शुनिया चार से खेजुरी-नंदीग्राम पर नाकाम हमला हुआ. करीब दौ सौ हथियारबंद लोगों ने कामारडा गांव में घुस कर बमबारी शुरू कर दी. उनका उद्देश्य तृणमूल समथर्कों को डराना और अपनी खोई जमीन पर नियंत्रण कायम करना था. इसके बाद ममता बनर्जी ने केंद्र पर राज्य की वाममोर्चा सरकार और माकपा के खिलाफ ठोस कदम उठाने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया. वास्तव में बंगाल के वर्तमान राजनीतिक हालात को देखने पर यह साफ लगता है कि माकपा का लाल-दस्ता सलवा जुडूम का माकपाई संस्करण बन गया है. अगर राज्य के जंगल महल और लालगढ़ की ओर ध्यान केंद्रीत करे और वहां के तथ्यों पर नजर दौड़ाये तो स्थित और भयानक नजर आती है. स्थानीय बांग्ला अखबार एक दिन ने अपने 2 सितंबर 2010 के अंक में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इसके अनुसार जंगल महल के झाडग़्राम में 52 शिविर और सात ब्लॉकों में 1620 हथियारबंद कार्यकर्ता जमे हुए हैं. गैर आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार इस इलाके में तकरीबन 90 हर्मद शिविर और 2500 सशस्त्र माकपा के हथियारबंद लाल-दस्ते के सदस्यों के मौजूद होने की सूचना है. हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री पी चिंदबरम के मुताबिक 86 शिविर वहां चल रहे हैं. इसी तरह स्थानीय पत्रकारों के दावों को माने तो लालगढ़ के विद्रोह के पूर्व एक दशक से भी कम समय में 100 से भी अधिक लोगों की माकपाइयों ने हत्या कर दी.
उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, 15 दिसंबर, 2010 तक इन झड़पों में मारे गए और घायल हुए तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं की संख्या क्रमश: 96 एवं 1,237 थी. इसी तरह माकपा के मारे गए एवं घायल कार्यकर्ताओं की संख्या क्रमश: 65 और 773 थी. इन झड़पों में मारे गए एवं घायल कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की संख्या भी क्रमश: 15 एवं 221 थी. ये आंकड़े खतरनाक तस्वीर पेश करते हैं और पश्चिम बंगाल में कानून- व्यवस्था की बिगड़ी हालत की ओर संकेत करते हैं. जंगल महल में संयुक्त बलों की तैनाती की आखिर क्या जरूरत है जब माकपा ने कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए हथियारबंद कार्यकर्ताओं को तैनात कर रखा है? इन हालातों को देखने के बाद यह साफ हो जाता है कि पश्चिम बंगाल देश का इकलौता ऐसा राज्य है जहां पुलिस सत्तारुढ़ दल काडर के रूप में कार्य करती है. हालांकि उपरोक्त तथ्यों की मैंने पहले भी चर्चा की है. अब के परिप्रेक्ष्य के साथ देखना होगा कि क्या पश्चिम बंगाल में निष्पक्ष चुनाव कराना चुनाव आयोग के लिए बड़ी चुनौती नहीं होगी, जब कि स्थानीय पुलिस सत्ताधारी दल के समर्थक के रूप में कार्य करती हो. निसंदेह आम बंगाली (बंगाल में रहने वाले सभी भाषा-भाषी) अपने मताधिकार के प्रति देश के अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा जागरूक है. बावजूद इसके “साइंटिफिक पोलिंग” को ‘मैनेज’ कराने में माकपा को खासा अनुभव है. और इसी अनुभव के बल पर वह पिछले साढ़े तीन दशक से सत्ता में बैठी है. लेकिन अब उसका जनाधार खसकता हुआ दिखता है लेकिन वास्तविक तस्वीर चुनाव के नतीजे साफ कर देंगे. जनता पर कमजोर होती पकड़ से पार्टी के चाणक्य भली-भांति परिचित हैं और दरकते लाल-गढ़ को बचाने के लिए सिवाय बयानबाजी करने के उनके पास कुछ भी नहीं है. कथित नैतिकता, सैद्धांतिक राजनीति के छलावे से छली जनता के सामने अब तस्वीर थोड़ी साफ हुई है.
यहां गौर करने वाली बात है कि बंगाल की सत्ता पर काबिज वाममोर्चा के खिलाफ इससे पहले इतना जनाक्रोश नहीं दिखा था, जो अब है. अर्थात एंटीइंकांबेंसी फैक्टर पूरे जोर पर है. इसका फायदा निश्चित रूप से तृणमूल कांग्रेस को मिलेगा. बाकी चुनावी होने तक और कितनी लाशें गिरेंगी, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती.