मंगलवार, 26 अगस्त 2014

उत्स स्वतंत्रता का या उन्मुक्तता का?


22 अगस्त, 2014 की आधी रात को एक राष्ट्रीय खबरियां चैनल पर फिल्म अभिनेता धर्मेंद्र का इंटव्यू आ रहा था. वैसे इस 22 अगस्त 2014 और 14-15 अगस्त 1947 की दरम्यानी रात के बीच कोई संबंध ना होते हुए भी धर्मेंद्र के चेहरे पर रह – रह कर उभरती पीड़ा एक अनजाने संबंध की लकीर खींच रही थी. जब उनसे पूछा गया कि आप ने विभाजन भी देखा है और उस दौर के कत्लेआम भी देखी है, पंजाब सबसे ज्यादा पीड़ित था, उन दिनों को कैसे याद करते हैं? धर्मेंद्र के शब्द नहीं उनके चेहरे पर उभरी पीड़ा दर्शकों को इसका जवाब दे रही थी. सच, इसका जवाब शायद शब्द में नहीं व्यक्त किये जा सकते थे. इसी तरह जब उन्होंने बताया कि ब्रितानी हुकुमत में उनके पिता स्कूल मास्टर थे और उनकी मां उन्हें खादी पहना कर हाथ में तिरंगा ले कर स्कूल भेजती थी, तो पिता उनकी मां से कहते कि एक दिन तुम मेरी नौकरी ले लोगी, तब उनकी मां कहती कि आपकी नौकरी जाये तो जाये लेकिन मैं तो इसे इसी तरह स्कूल भेजूंगी. यह बात कहते हुए धर्मेंद्र के चहरे पर जो गर्व था वह गर्व भी शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता. और वहीं धर्मेंद्र जब 2004 में संसद पहुंचते हैं तो तमाम पीड़ाओं के बाद संसद में सवाल उठाने के लिए वह अनुकूल माहौल नहीं पाते और खुद को राजनीति से दूर कर लेते हैं. धर्मेंद्र ने रुपहले पर्दे पर भले ही कई किरदार निभाया हो लेकिन उन सभी किरदारों पर उनका निजी जीवन का किरदार भारी पड़ा और जीया, भोगा, खोया, पाया जीवन स्तब्ध सा रहने को मजबूर दिखा, शायद सच्चे भारतीय का किरदार ऐसा ही हो गया है. समय कतरा-कतरा बीता है, बदला है. आजादी के मायने भी बदले हैं. आम भारतीयों कि निःशब्द आवाज को सुनने में शायद यह संसद अब अपनी सक्षमता खोने लगी है, व्याप्त अराजक राजनीति के उद्घोष के बीच, तभी तो संसद सवालों के घेर में आ रही है, न्यायपालिका पर भी उंगली उठने लगी है. महज 67 साल की आजादी के बाद ही वह सवाल गौण हो चले हैं जो सालों साल तक किसी देश को जिन्दा रखने के लिये काम करते हैं. पहले स्वतंत्रा दिवस पर जब देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने लालकिले के प्राचीर से अपने पहले भाषण में नागरिक का फर्ज सूबा, प्रांत, प्रदेश, भाषा, संप्रदाय, जाति से ऊपर मुल्क रखने की सलाह दी. और जनता को चेताया कि डर से बडा गुनाह कुछ भी नहीं है. वहीं 15 अगस्त 1947 को कोलकत्ता के बेलियाघाट में अंधेरे कमरे में बैठे महात्मा गांधी ने गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को यह कहकर लौटा दिया कि अंधेरे को रोशनी से दूर कर आजादी के जश्न का वक्त अभी नहीं आया है. ठीक 67 साल बाद जब देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी भी लालकिले के प्राचीर से देश को संबोधित करते हैं तो वह भी देश को वहीं सलाह देते है, लेकिन 2014 में कही कोई गांधी नहीं है जो यह कह सके कि जश्न का वक्त अभी नहीं आया है. लेकिन जश्न है- लेकिन कैसा? इन 67 सालों में देश को सामाजिक सांस्कृतिक तौर पर ना सजाया गया, ना संवारा जा सका और ना ही इसे पूर्ण रूप से स्वावलंबी बनाया जा सका, धीरे-धीरे बाजार देश और देशभक्ति पर तारी होता गया. ना 1947 में कांग्रेस के पास देश के लिए स्पष्ट राजनीतिक सोच थी और ना 2013 के कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर कोई राजनीतिक विचार से देश अवगत हो पाया, तो क्या 66 सालों तक यह देश बगैर किसी राजनीतिक दिशा के चलता रहा? यह सोच का विषय है. शायद इसी का नतीजा था कि स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लालकिला के प्राचीर से देश को संबोधित करने वाले प्रधानमंत्रियों पर देश नजरें टिकाये रखता था कि किसी खास राजनीतिक सोच के तहत घोषणाएं होगी, होती भी रही, कितनी घोषणाएं हकीकत में बदली यह अलग बात है, लेकिन इन घोषणाओं के नशे में हम भारतीय घुत्त होने के आदी हो गये, यह जानते हुए कि शायद इसका दसांश भी पूरा हो. नरेंद्र मोदी से भी देश को ऐसी ही अपेक्षाएं थी, फिर नशे की एक और डोज की. मोदी ने अपेक्षाओं को पूरा भी किया लेकिन इस नशे का फ्लेवर कुछ दूसरा था, घोषणाएं कम लेकिन देश का स्वच्छ – सांस्कारिक बनाने का नशा. लेकिन यह संतोषजनक तो है इस नशे से लाभ ना हो तो ना हो लेकिन हानि की गुंजाइश नहीं है. हर राजनीतिक विचारधारा राजनीतिक सत्ता के लिए जद्दोजहद करती है और इससे निकले संदेश उसे अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करती है लेकिन पहली बार ऐसा हुआ है जब कोई प्रधानमंत्री सीधे-सीधे नैतिक जिम्मेवारियों का विकेंद्रिकरण कर रहा है. अब तक ये जिम्मेवारियां सत्ता प्रतिष्ठान तक खींच कर केंद्रित कर दी गई थी. भले ही विरोधियों को सत्तारुढ़ दल पर निशाना साधने का अस्त्र मिल गया हो लेकिन देश को एक कर्णप्रिय भाषण और उनींदी सपनों का सच के करीब होने का आभाष लगने लगा है, यह आभाष और आशा ही तो जीवन की डोर है. आइये एक फिर उम्मीद बांधते हैं, स्वावलंबी होने का, आजादी के सही उत्स को मनाने का, समाज-संस्कृति को बचाये रखने का, आगे बढ़ने और बेहतर भविष्य का, नई पीढ़ी के उन्मुक्त उड़ान का. हो सकता है इसमें त्रुटियां हो और हम फिर संभले. महात्मा गांधी की वह बात याद आ जाती है जब वह कहते हैं कि - ‘यदि ग़लती करने की आज़ादी नहीं है - तो मुझे ऐसी आज़ादी चाहिए ही नहीं.’ हमें बल देता है.

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

‘प्रतिशोध बम’ तो नहीं नटवर की किताब?


- श्रीराजेश- जब गड़े मुर्दे उखड़ते हैं, तो कब्र की मिट्टी में दरार आए बगैर नहीं रह सकती। खांटी कांग्रेसी और इंदिरा गांधी या कहें कि पूरे गांधी परिवार के करीबी रहे नटवर सिंह की किताब 'वन लाइफ इज नॉट इनफ' तो सात अगस्त को लांच होगी, लेकिन इसके पहले ही इसने कांग्रेस के शाही परिवार खासकर सोनिया गांधी की राजनीतिक साख पर बट्टा लगा दिया है। राजनीति में साख से बड़ी कोई चीज नहीं होती, और यही साख औरा बनाता है। कांग्रेस का भी सारा दारोमदार इसी गांधी परिवार के औरा पर टिका है, वर्ना यह किसी क्षेत्रीय दल के समतुल्य होकर कब का सिमट गया होता। बीते दिनों मीडिया में खबरें आई थीं कि सोनिया और प्रियंका नटवर से मिलने गई थीं। इसे बस शिष्टाचार वाली मुलाकात करार दी गई। लेकिन यह समझते देर नहीं लगी कि नटवर की आने वाली किताब कांग्रेस और सोनिया की साख को भरभरा कर गिरने पर मजबूर कर देगा। अभी किताब आई नहीं है, लेकिन इसके पहले मुखर होकर नटवर सिंह द्वारा मीडिया को दिये बयान व साक्षात्कार में जिस तरह के खुलासे किये जा रहे हैं वह बताते हैं कि कांग्रेस में उनके साथ जो हुआ कहीं वह उसका अपनी किताब के जरिये प्रतिशोध तो नहीं ले रहे। वैसे अपनी किताब में नटवर सिंह ने जिस प्रकार सोनिया गांधी के त्याग के पीछे राहुल गांधी को मां की मौत का खौफ होने की बात कही है, उसने गांधी परिवार के उस औरे को भी खत्म किया है जिसके भरोसे कांग्रेस हमेशा से खड़ी रही है और कांग्रेस की उस राजनिति में भी सेंध लगा दी है जो बीते एक दशक से तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं की तुलना में सोनिया गांधी को श्रेष्ठ बताता है। हालांकि नटवर की किताब में लिखी कई बातों पर सोनिया गांधी आपत्ति भी जता चुकी हैं। सोनिया खुद भी सच्चाई सामने लाने के लिए अपनी किताब लिखने की बात कही है। यह दीगर बात है कि सोनिया वास्तव में किताब लिखेंगी या नहीं और लिखेंगी तो कौन-सा रहस्य है जिसे वे किताब के जरिये ही उजागर करेंगी। दरअसल, सवाल यह नहीं है कि सोनिया किन बातों का किताब लिखकर उत्तर देंगी या फिर नए रहस्य पर से पर्दा उठायेंगी? सवाल यह उठता है कि कभी कांग्रेस के वफादारों में गिने जाने वाले नटवर आखिर सोनिया गांधी के खिलाफ इतने सख्त क्यों हो गए और उन्होंने अपनी आत्मकथा जारी करने के लिए यही वक्त क्यों चुना? इसे समझने के लिए कुछ अतीत को टटोलना जरूरी हो जाता है। कभी शरद पवार जैसे नेता सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से नाता तोड़ अलग एनसीपी बना लेते हैं, तो कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए कभी जितेंद्र प्रसाद ताल ठोकते हैं। बावजूद इसके बाद के दिनों में इन सबकी सोनिया या कहे गांधी परिवार से संबंध फिर पटरी पर आ जाते हैं, लेकिन अनाज के बदले तेल घोटाले में विदेशमंत्री के पद से हटाये जाने और फिर पार्टी से बड़ी बेरुखी से किनारा कर दिये जाने वाले नटवर सिंह को गांधी परिवार ने कभी घास नहीं डाला और फिर नटवर की कांग्रेस में वापसी नहीं हो सकी। वर्ष 2005 में बोल्कर कमेटी ने आनाज के बदले तेल घोटाले में जब अपनी रिपोर्ट रखी तो उसमें नटवर सिंह और उनके बेटे का नाम आया। इराक के तत्कालीन शासक सद्दाम हुसैन से नटवर सिंह द्वारा तेल का कूपन लेकर धन कमाने और अपने रिश्तेदारों को कमाने देने का आरोप लगा था और घोटाले का मुख्य सूत्रधार उनके बेटे को ठहराया गया था। इस रिपोर्ट के आने के बाद नटवर सिंह को विदेशमंत्री का पद छोड़ना पड़ा था और फिर तीन साल बाद 2008 में कांग्रेस भी छोड़ना पड़ा। बाद के दिनों में इस घोटाले की जांच करने वाली पाठक समिति ने अपनी रिपोर्ट में नटवर सिंह को क्लीन चिट देते हुए बरी कर दिया, बावजूद इसके कांग्रेस के पुराने वफादार की फिर पार्टी में एंट्री नहीं हो सकी। एक समय था जब सोनिया के वफादारों में पहले नंबर पर गिने जाने वाले नटवर सिंह को गांधी परिवार में कई विशेषाधिकार प्राप्त थे। कांग्रेस नेताओं में वे अकेले थे जो सोनिया का नाम लेकर उनसे बात किया करते थे। 2004 में सोनिया के प्रधानमंत्री न बनने की स्थिति देखते हुए नटवर सिंह खुद को प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार के रूप में देखने लगे थे। इसका खुलासा दस जनपथ के करीबी रहे माखनलाल फोतेदार के सामने पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने भी किया था। तब भी यह मुद्दा मीडिया में आया था, लेकिन यह मुख्य सुर्खियां नहीं बन सकी थी। नटवर मान रहे थे कि सुरक्षा आशंकाओं के चलते और पारिवारिक दबाव के बाद शायद सोनिया गांधी प्रधानमंत्री न बनकर अपने किसी भरोसेमंद को यह जिम्मेदारी भी दे सकती हैं। इस वक्त वफादारों में नटवर सिंह सबसे आगे थे। यह घटना 2004 के लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद की है जब कांग्रेस के नेतृत्व में धर्मनिरपेक्ष दलों की संभावित सरकार के गठन के लिए कांग्रेस के नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह से मदद मांगने गए थे। वहीं नटवर ने ऐसी शंका जताई थी तब माखनलाल फोतेदार ने बाहर आकर नटवर से उनकी इस बात के लिए नाराजगी भी जाहिर की थी। नटवर सिंह की यही बात कांग्रेस के दूसरे वफादारों ने सोनिया गांधी को बता दी थी। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने प्रेस को दिए एक बयान में इसकी पुष्टि की थी। नटवर सिंह की यह इच्छा सोनिया गांधी को परेशान कर गई और इस घटना के बाद ही नटवर सिंह कांग्रेस में हासिए पर आ गए थे। हो सकता है कि नटवर अपनी किताब में ढंके-छिपे रूप में सही इस घटना का उल्लेख किया हो, इस बात का तो सात अगस्त के बाद ही पता लग पाएगा। लेकिन पूरे मामले को इस परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है कि कहीं यह किताब प्रतिशोध की भावना से तो नहीं लिखी गई है। हालांकि एक बात तो तय है कि नटवर के इस बुक बम ने कांग्रेस के आधार को हिला रखा है। जिस कांग्रेस की एक ही धूरी गांधी परिवार पर आश्रित है और जो सोनिया का त्याग और बलिदान का औरा था वह भरभराने के बाद क्या उसे राहुल गांधी किसी तरह लीपपोत कर फिर से कांग्रेस को उस पुरानी स्थिति में ला पाएंगे या फिर कांग्रेसियों की उम्मीद का एकमात्र सहारा प्रियंका होगी? इस तरह के कई सवाल खड़े हो रहे हैं और होंगे लेकिन क्या इनके उत्तर भी इतनी ही आसानी से उपलब्ध हो पाएंगे? (दैनिक ‘अर्ली मॉर्निंग में प्रकाशित’)