सोमवार, 27 जुलाई 2009

बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ब्राह्मणवादी


- श्रीराजेश-
साम्यविदयों ने अपने दर्शन के मुताबिक यह प्रचारित किया कि उनके यहां जाति, धर्म और साम्प्रदाय के आधार पर समाज को विकसित करने की कोई अवधारणा नहीं है. बंगाल, केरल और त्रिपुरा में उपरी तौर पर यह नजर भी आता है लेकिन यदि थोड़ी पड़ताल की जाय तो साम्यवादियों की कलई बड़ी आसानी से खुल जाती है. पत्रकार पलाश विश्वास ने इस पर विशेष तौर प अध्ययन किया और उन्होंने कुछ आंकड़े जुटाये जो कम्युनिस्टो के ब्राह्मणवादी सोंच को रेखांकित करती है.पश्चिम बंगाल में ब्रह्मणों की कुल जनसंख्या 22.45 राज्य की जनसंख्या का महज 2.8 प्रतिशत है. पर विधानसभा में 64 ब्राह्मण हैं.राज्य में सोलह केबिनेट मंत्री ब्राह्मण हैं. दो राज्य मंत्री भी ब्राह्मण हैं. राज्य में सवर्ण कायस्थ और वैद्य की जनसंख्या 30.46 लाख है, जो कुल जनसंख्या का महज 3.4 प्रतिशत हैं. इनके 61 विधायक हैं. इनके केबिनेट मंत्री सात और राज्य मंत्री दो हैं. अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 189 लाख है, जो कुल जनसंख्या का 23.6 प्रतिशत है. इन्हें राजनीतिक आरक्षण हासिल है. इनके विधायक 58 है. 2.8 प्रतिशत ब्राह्मणों के 64 विधायक और 23.6 फीसद अनुसूचितों के 58 विधायक. अनुसूचितो को आरक्षण के बावजूद सिर्फ चार केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री, कुल जमा छह मंत्री अनुसूचित. इसी तरह आरक्षित 44.90 लाख अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या , कुल जनसंख्या का 5.6 प्रतिशत, के कुल सत्रह विधायक और दो राज्य मंत्री हैं. राज्य में 189.20 लाख मुसलमान हैं. जो जनसंख्या का 15.56 प्रतिशत है. इनकी माली हालत सच्चर कमिटी की रपट से उजागर हो गयी है. वाममोर्चा को तीस साल तक लगातार सत्ता में बनाये रखते हुए मुसलमानों की औकात एक मुश्त वोटबैंक में सिमट गयी है. मुसलमान इस राज्य में सबसे पिछड़े हैं. इनके कुल चालीस विधायक हैं , तीन केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री. मंडल कमीशन की रपट लागू करने के पक्ष में सबसे ज्यादा मुखर वामपंथियों के राज्य में ओबीसी की हालत सबसे खस्ता है. राज्य में अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 328.73लाख है, जो कुल जनसंख्या का 41 प्रतिशत है. पर इनके महज 54 विधायक और एक केबिनेट मंत्री हैं. 41 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व सिर्फ एक मंत्री करता है.
यह तो बंगाल सरकार का चेहरा है जो एक साम्यवादी समाज को पिछले 32 वर्षों में विकसित किया है और उस समाज की बागडोर संगठित रूप से ब्राह्मणों के हाथों सौंप दी है. यह 32 वर्षों के अथम श्रम का प्रतिफल है. सिर्फ एससी और एसटी के एमएलए और एमपी के आधार पर नहीं समझा जा सकता, इसके लिए कम्युनिस्टों के नीतिगत मामलो और विधायी कार्यवाहियों से समझा जा सकता है. सिर्फ माकपा ही नहीं बल्कि समान विचारधारा के अन्य वामदल भी आंख बंद कर इसका लंबे अर्से से समर्थन करते आ रहे हैं. ऐसा नहीं है कि वे माकपा की इस कारगुजारी से वाकिफ नहीं है, बल्कि इसका विरोध करने की स्थित में नहीं है. बंगाल के सभी सरकारी विभागों के प्रमुख ब्राह्मण या फिर कायस्थ है (एक्का-दुक्का विभागों को छोड़ कर). बंगाल में अनुसूचित जाति के केवल चार मंत्री है और उनके मंत्रालयों का नाम अधिकांश विधायकों तक को मालूम. इससे उनके मंत्रालय का हस्र समझा जा सकता है. उपेन किस्कू और विलासीबाला सहिस के हटाए जाने के बाद आदिवासी कोटे से बने दो राज्यंत्रियों का होना न होना बराबर है. स्थितियां ऐसी बनती जा रही है कि सत्ता पर कोई काबिज हो – सत्ता समीकरण या सामाजिक संरचना में कोई आमूल चूल परिवर्तन नहीं होने वाला है.
उपरी तौर प यह सकून देने वाली बात है कि बंगाल में कोई किसी की जात नहीं पूछता लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि यहां जातिवाद की मानसिकता नहीं है. बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान की तरह असंगठित तौर नहीं बल्कि व्यवस्थित तरीके से बंगाल में जातिवाद ने अपना वर्चस्व जमाया है और इसी का प्रतिफल है कि बंगाल में मूलनिवासी दलित, आदिवासी, ओबीसी और मुसलमान स्वयं को दूसरे दर्जे के नागरिक हैं.इन सबके साथ राज्य में अस्पृश्यता अन्य दूसरे राज्यों से किन्हीं मामलों में कम नहीं है. इसका उदाहरण अक्सर देखने को मिल जाता है. पिछले साल बांकुड़ा में नीची जातियों की महिलाओं का पकाया मिड डे मिल खाने से सवर्णों के बच्चों के इनकार के बाद वाममोर्चा के चेयरमैन और राज्य माकपा के महासचिव विमान बोस ने हस्तक्षेप किया था. इसी तरह का वाकया महानगर कोलकाता में हुआ. आरोप है कि कोलकाता मेडिकल कालेज में अस्पृश्य और नीची जातियों के छात्रो के साथ न सिर्फ छुआछूत चल रहा है, बल्कि ऐसे छात्रों को शारीरिक व मानसिक तौर पर उत्पीड़ित भी किया जाता है. जब खास कोलकाते में ऐसा हो रहा है तो अन्यत्र क्या होगा. कोलकाता मेडिकल कालेज के मेन हास्टल के पहले और दूसरे वर्ष के सत्रह छात्रों ने डीन और सुपर को अस्पृश्यता की लिखित शिकायत की थी लेकिन इतना समय बीतने के बावजूद कोई यह बता पाने की स्थिति में नहीं है कि उस मामले में क्या कार्रवाई हुई. हाल ही में बीते लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ वाममोर्चा को अच्छी शिकस्त मिली है. यह शिकस्त माकपा की गलत नीतियों और कथनी और करनी फर्क की वजह से हुई. करीब डेढ़ साल तक भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर नंदीग्राम में हिंसा के चलते वहां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का जनाधार वहां से लगभग खतम हो गया और सिंगूर में भी लगभग यहीं हुआ. अब लालगढ़ में लाल गुर्ग ढह रहा है
लोकसभा चुनाव में वाममोर्चा को मिले झटकों से छोटे घटक दलों के दिन बहुरनें की उम्मीद है. चुनाव से पहले घटक दलों को ताक पर रखने वाली वाममोर्चा की सबसे बड़ी पार्टी माकपा अब उन्हें तरजीह देने लगी है.
डॉ. अम्बेडकर ने साइमन कमीशन के सामने अतिशोषित दलितों की समस्याओं को रखा और उससे प्रभावित होकर अंग्रेजी हुकूमत ने डॉ. अम्बेडकर को अपना पक्ष रखने के लिए लंदन की गोलमेज सभा में आमत्रिंत किया. इंग्लैंड के उस समय के प्रधानमंत्री रैमजे मेग्डोनाल्ड ने मुसलमानों और दलितों को पृथक मताधिकार का अधिकार दिया, जिस पर गांधी जी असहमत हुए और पूना की यरवदा जेल में 22 दिन तक अनशन पर बैठे रहे. उनका मानना था कि दलित हिंदू समाज का हिस्सा हैं इसलिए इनको पृथक मताधिकार देने का मतलब होगा कि समाज से अलग करना. गांधी जी की अहिंसा का हथियार हिंसा से भी ज्यादा मजबूर कर देने वाला होता थी. इन्हीं परिस्थितियों में डॉ. अम्बेडकर ने गांधीजी से पूनापैक्ट किया और आरक्षण पर सहमति बनी. संविंधान समिति बनाते समय गांधीजी ने डॉ. अम्बेडकर का नाम प्रस्तावित किया. डॉ. अम्बेडकर दलितों, शोषितों, महिलाओं एवं अल्पसंख्यकों के लिए तमाम प्रावधान संविधान में रखने में सफल रहे. कुछ और क्रातिंकारी प्रावधान होने चाहिए थे जो न हो सके. दूसरों की सहमति पर भी बहुत बातें आधारित थीं. भारत के सविंधान की धारा-17 में अस्पृश्यता निवारण मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया. इसके स्थान पर यदि जाति उन्मूलन को मौलिक अधिकार बनाया गया होता तो आज जात-पांत का इतना प्रभाव न दिखता. डॉ. अम्बेडकर जब कानून मंत्री थे तो प्रधानमंत्री, जवाहर लाल नेहरू से मशविरा लेकर हिंदू कोड बिल पेश किया जिसमें महिलाओं को घर की संपत्ति में अधिकार सहित तमाम और क्षेत्रों में उनको बराबरी का हक शामिल था. संसद में विधेयक पेश होने पर संसद के अंदर कट्टरवादी सांसद एवं मंत्री इसका विरोध करने लगे.
डॉ. अम्बेडकर को गहरा धक्का लगा और उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देते हुए कहा कि यदि आज भी हिंदू समाज महिलाओं को बराबर का अधिकार देने के लिए तैयार नहीं हैं तो यह बहुत ही ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है. इसके बाद डॉ. अम्बेडकर अपना राजनैतिक दल बनाने में जुट गए और भारत को बौद्धमय भी. 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर की धरती पर लाखों दलितों के साथ बौद्ध धर्म धारण करके विशेष तौर से दलितों के उत्थान, मान-सम्मान एवं समाज में जात-पांत की समाप्ति का मार्ग प्रशस्त किया. इससे महाराष्ट्र में सांस्कृतिक क्रातिं का कारवां आगे बढ़ा और उसके प्रभाव से जितनी जागरुकता और प्रगति महाराष्ट्र के दलितों में आई उतनी अन्य स्थानों पर देखने को नहीं मिलती.
डॉ. अम्बेडकर, डॉ. राम मनोहर लोहिया एवं पेरियार मिलकर एक नई राजनैतिक भूमि की तलाश करने ही वाले थे कि डॉ. अम्बेडकर का 6 दिसम्बर, 1956 को परिनिर्वाण हो गया. इनके आंदोलन की वारिस रिपब्लिक पार्टी ऑफ इडिंया बनी और कुछ हद तक 1960 के दशक में सफलता भी प्राप्त की. गुटबाजी के कारण रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इडिंया कुछ खास कामयाबी नहीं हासिल कर सकी. डॉ. अम्बेडकर को केवल दलितों के मसीहा के रूप में देखना ही जात-पांत है. सविंधान की धारा 25 से लेकर 30 तक जो अधिकार एवं सुविधाएं अल्पसंख्यकों को दी हैं, दुनिया में शायद ही किसी और देश में हों. महिलाओं के बारे में उल्लेख किया जा चुका है. डॉ. अम्बेडकर जमीन का राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे और सरकार का बड़े उद्योगों में एकाधिकार.
भारत के कम्युनिस्टों से आर्थिक मामले में ये कहीं अधिक प्रगतिशील थे. दुर्भाग्य से इनके योगदान को पूरा श्रेय नहीं मिला लेकिन जैसे-जैसे लोग जागृत होते जा रहे हैं, मृत डॉ. अम्बेडकर जिंदा से ज्यादा प्रभावशाली होते जा रहे हैं. रिपब्लिक पार्टी ऑफ इडिंया की गुटबाजी के कारण डॉ. अम्बेडकर के कारवां को धक्का लगा. उसे पूरा करने का वायदा लेकर कांशीराम भारतीय समाज के पटल पर आए. कांशीराम ने हजारों वर्षों से बंटे समाज के अंतर्विरोध को समझा और उसका इस्तेमाल करके राजनैतिक सफलता हासिल करने में सफल रहे. डॉ. अम्बेडकर का मूल सिद्धांत जाति उन्मूलन था. तमिलनाडु से लेकर कश्मीर तक तथा गुजरात से लेकर बंगाल तक डॉ. अम्बेडकर के विचारों पर आधारित तमाम संगठन बने और आज भी हैं. लेकिन ये संगठन वर्तमान संदर्भ में कितने प्रभावशाली है, यह सवाल के घेरे में है. बंगाल का वर्तमान परिदृश्य निराश और हतोत्साहित करने वाला है.
(इस आलेख के तथ्य व आंकड़े पलाश विश्वास के आलेख “वाममोर्चा नहीं, बंगाल में ब्राह्मण मोर्चा का राज ” से लिए गये है.)

शनिवार, 18 जुलाई 2009

दलितों के लिए खतरा बन रहे दलित नेता

- श्रीराजेश-
वर्तमान समय में दलित आंदोलन एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां उसे अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए एक रास्ता चुनना होगा, सिर्फ एक. इस आंदोलन को जहां एक ओर इस समुदाय के बुद्धिजीवी अपनी ऊर्जा से मुकाम तक पहुंचाने के लिए लगे हैं, वहीं दलित जनता के तथाकथित राजनीतिक मसीहा इनके वोटो को झटक कर दलित आंदोलन और इनके उत्थान की बातें करते अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं. हालांकि ऐसे राजनीतिक दल और नेताओं की कलई खुलने लगी है और दलित जनता इनके झांसे से बाहर आने लगी है. इसका उदाहरण 15 वीं लोकसभा में घटी दलित नेताओं की संख्या है. जहां 14वीं लोकसभा में दलित वर्ग की राजनीतिक पार्टी के रूप में स्वयं को पेश करने वाले दलों के प्रतिनिधियों की संख्या 24 थी, वह इस बार 15 वीं लोकसभा में घट कर 21 तक पहुंच गयी है. हालांकि इस मामले पर लोगों के विचार अलग-अलग है. कुछ लोगों का कहना है कि दलित कार्ड खेल कर संसद तक पहुंचने और फिर इस समुदाय की जनाकांक्षा के साथ खिलवाड़ करने वाले नेता यदि संसद तक नहीं पहुंचे तो यह अच्छी बात है. लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान लंबे समय तक केंद्रीय राजनीति के धुरी रहे और खुद को दलित नेता के रूप में प्रस्तुत करते रहे लेकिन इन्होंने दलितों के लिए क्या किया ? उत्तर ढूंढते रह जायेंगे. इसी तरह उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के बाद बसपा केंद्र में महत्वपूर्ण पारी शुरू करने का मंसूबा बनी रही था जो कामयाब नहीं हुआ. बसपा सुप्रीमो मायावती को चुनाव पूर्व लगा कि वह सिर्फ दलितों के वोट से केंद्र में शक्तिशाली नहीं हो सकती तो उन्होंने सोशल इंजीनियरिंगा फार्मूला निकाला और वह टांय-टांय, फिस्स हो गया. हाल के घटनाक्रम दर्शाते है कि खुद को दलित नेता के रूप में पेश करने वाले नेता अपना वजूद बनाये रखने के लिए संघर्षरत है. इसका ताजा उदाहरण भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती है. वह हजारो करोड़ रुपये खर्च कर अपनी मूर्तियां प्रदेश भर में लगाने की कवायद शुरू कर दी है, हालांकि इस पर काफी बवाल हो चुका है लेकिन मायावती कि इस हास्यासपद कवायद सबसे अधिक नुकसान दलित आंदोलन को पहुंचा रहा है और आश्चर्य है कि इस आंदोलन के कर्ताधर्ताओं की ओर से अब तक इस मुद्दे पर किसी तरह का बयान नहीं है. एक तरफ डा. भीमराम अबेडकर के प्रयास दलितों को राजनीति की मुख्यधारा में लाया, वहीं मायावती ने अंबेडकर के प्रयासों को अपने कृत्यों से शर्मसार और हास्यास्पद बना दिया है. इसके साथ ही किसी भी अन्य व ईमानदार दलित नेतृत्व को उभरने की राह में रोड़े खड़े कर दिये है. अन्य वर्गों की बात छोड़ दी जाय तो देखा यह जाता है कि दलित राजनीति के उभरे नेताओं ने बार-बार दलितों के साथ छल किया है. कोई नया नेतृत्व यदि उभरता भी है तो उसे दलितों का विश्वास अर्जित करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. हाल में ही उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने बलात्कार पीड़ितो को आर्थिक मुआवजा देने की घोषणा की और इसका विरोध भी हुआ. खैर होना भी चाहिए. किसी पीड़िता के जख्मों को महज आर्थिक मुआवजा से नहीं भरा जा सकता, बल्कि बालात्कारी को दंडित कर त्वरित न्याय ही एक मात्र विकल्प है. इस मामले में रिता जोशी बहुगुणा के बयान पर बवाल माचने के बाद राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने लगे हैं, यह अलग बात है लेकिन रिता जोशी के बयान को दूसरे अर्थों में भी समझने की जरुरत है. मायावती द्वारा बलात्कार पीड़िताओं के लिए मुआवजा योजना ने सिर्फ बलात्कार पीड़िता को और दलित वर्ग की महिलाओं को ही नहीं बल्कि पूरी महिलाओं के स्वाभिमान और उनके आत्मसम्मान का निरादर है और इससे उत्पन्न आक्रोश के रूप में रिता जोशी का बयान है.

दलितों को नुकसान दलित नेताओं द्वारा कैसे किया जा रहा है इसकी बानगी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी के 13 जुलाई को लिखे ब्लाग से समझा जा सकता है जिसमें में उन्होंने बड़े बेबाक ढंग से कई तथ्यों को उकेरा है. उन्होंने लिखा है – “आंबेडकर से मायावती वाया कांशीराम का यह रास्ता करीब सत्तर साल बाद दलित को उसी मीनार पर बैठाने पर आमादा है, जिस पर हिन्दुओं को बैठा देखकर आंबेडकर संघर्ष की राह पर चल पड़े थे। सत्ता कैसे चमचा बनाती है और कैसे किसे औजार बनाती है, इसे मायावती की सत्ता के अक्स में ही देखने से पहले औजार और चमचा की थ्योरी को समझना भी जरुरी है.....”

आगे और लिखा है- ”मायावती इस सच को ना समझती हो ऐसा हो नहीं सकता. लेकिन बहुजन के संघर्ष से सर्वजन की सोशल इंजिनियरिंग का खेल मायावती की सत्ता कैसे औजार और चमचो में सिमटी है यह समझना जरुरी है. मायावती सत्ता चलाने में दक्ष है इसलिये अपने हर कदम को राज्य के निर्णय से जोड़कर चलती है. बुत या प्रतिमा प्रेम मायावती का नहीं राज्य का निर्णय है, इसलिये सुप्रीम कोर्ट भी मायावती की प्रतिमाओ को लगाने से नहीं रोक सकता. चूंकि आंबेडकर-कांशीराम-मायावती के बुत समूचे राज्य में अभी तक जितने लगे है, अगर उनकी जगहो पर आंबेडकर की शिक्षा पर जोर देने वाले सच के दलित उत्थान को पकड़ा जाता तो संयोग से राज्य में उच्च शिक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तीन यूनिवर्सिटी और राज्य के हर गांव में एक प्राथमिक स्कूल खुल सकता था. लेकिन बुत लगाना कैबिनेट का निर्णय है और कैबिनेट राज्य की जरुरत को सबसे ज्यादा समझती है, क्योंकि जनता ने ही इस सरकार को चुना है, जिसकी कैबिनेट निर्णय ले रही है तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है..”

इस तरह के विचार देश के लेखकों और पत्रकारों द्वारा मायावती के कृत्यों के परिपेक्ष्य में दिये जा रहे है, जो साफ तौर पर दर्शाता है कि राजनीतिक दल और उसके नेता अंबेडकर को आदर्श बताते हुए किस तरह दलितों का और दलित आंदोलनों का नुकसान कर रहे हैं. अब समय की मांग है कि दलित आंदोलन के बुद्धिजीवियों को अब ठोस पहल करनी होगी और उन्हें सड़कों पर उतरना होगा, गांवों और कस्बों का चक्कर लगा तक सबसे पहले ऐसे मुखौटाधारी दलित नेताओं की पोल दलित जनता के सामने खोलनी होगी, उसके बाद आंदोलन को गति देने की प्रक्रिया शुरू करनी होगी. निश्चित तौर प दलित आंदोलन को और तेज करने की जरुरत है ताकि देश में वर्ण समानता का माहौल बन सके, लेकिन यह तभी संभव है जब नेताओं को इस समुदाय के लोगों का शोषण और दोहन करने की इजाजत न दी जाय.

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

मध्य प्रदेश में कौमार्य परीक्षण पर विवाद


श्रीराजेश
मध्यप्रदेश सरकार की ओर से चलाये जा रहे कन्यादान योजना के तहत शहडोल जिले में सरकारी सामूहिक विवाह सम्मलेन के पहले युवतियों का कौमार्य परीक्षण कराए जाने का मामला प्रकाश में आया है. यह घटना शर्मशार करने वाली है. हद तो यह है कि यह पूरी घटना स्थानीय जिलाधिकारी के निर्देश और नेतृत्व में हुआ. इसकी जानकारी मिलने के बाद राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरीजा व्यास ने राज्य सरकार से जवाब तलब किया और मुद्दा मिलते ही राजनेता अपनी राजनीतिक कलाबाजी दिखाने में पीछे नहीं रहे. राज्यसभा में जम कर इस मुद्दे पर हंगामा हुआ लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा. यह खबर सोमवार को प्रकाश में आया इसके बाद बहती गंगा में हाथ धोने के लिए कई तथाकथित महिला संगठनो ने भी पहल शुरू कर दी लेकिन आश्चर्य की बात है कि यह पता लगने के बाद कि इस सरकारी सामूहिक विवाह सम्मेलन का आयोजन जिलाधिकारी के नेतृत्व में हुआ था. और इस कौमार्य परीक्षण का मामला जिलाधिकारी के साथ अन्य प्रशासनिक अधिकारियों के संज्ञान में था, इसके बावजूद अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई. हालांकि प्रशासनिक अधिकारियों का कहना है कि गरीब परिवार जहां अपनी बेटियों की शादी इस योजना के जरिए कराकर सामाजिक दायित्व से मुक्त होना चाहते हैं, वहीं कुछ लोग इन शादियों के जरिए आर्थिक लाभ अर्जित करने में पीछे नहीं है. अभी हाल ही में शहडोल जिले में आयोजित सामूहिक विवाह समारोह में 13 ऐसी युवतियां शादी करने पहुंची जो गर्भवती थी. इस आयोजन में कुल 151 विवाह होना था. मगर 13 युवतियों के गर्भवती पाए जाने पर सिर्फ 138 लड़कियों की शादी कराई गई. अधिकारियों ने यह भी कहा इस समारोह में महिला रोग विशेषज्ञ की भी तैनाती की गई थी, जिन्होंने युवतियों से उनकी निजी समस्याएं पूछी और माहवारी न होने की बात कहे जाने पर उनका चिकित्सकीय परीक्षण कराया गया तो 13 युवतिया गर्भवती निकली.

खैर इस तरह के मामले के प्रकाश में आने के बाद प्रशासन की ओर से उसके खंडन में लगभग इसी तरह के बयान आते हैं और देश के लोग प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं के रटी-रटाई बात सुनने के आदी हो गये हैं. यहां गौर करने वाली बात है कि सरकार की कन्यादान योजना के साथ वर व वधू पक्ष आपसी रजामंदी से विवाह तय करते है और दोनों एक दूसरे के स्थिति से वाकिफ होतें हैं. सरकार की भूमिका बस इतनी होती है ये गरीब लोग विवाह समारोह का खर्च उठा पाने में अक्षम लोगों को इस समारोह के आयोजन के जरिये मदद करना. मान लिया जाय कि कोई युवती गर्भवती ही है और जो युवक उससे विवाह रचाना चाहता है उससे युवती के गर्भवती होने से कोई फर्क नहीं पड़ता तो क्या प्रशासन को यह अधिकार है कि युवती के गर्भवती होने का हवाला दे कर उन्हें विवाह करने से रोका जाय. इसी तरह ऐसे भी मामले मध्यप्रदेश में पहले आ चुके है जिनमें विवाह पूर्व ही युवक व युवती के बीच शारीरिक संबंध बन गये, बाद में उन्होंने शादी की. यदि ऐसा होता भी है तो गुनाह क्या है. दूसरी ओर राज्य महिला आयोग की सदस्य सुषमा जैन का कहना भी काफी हद तक सही है कि पैसे के लालच में कई गरीब परिवार अपने बच्चों की दोबारा दिखावटी शादी करते है. वस्तुतः वह जोड़ा काफी पहले वैवाहिक बंधन में बंध चुका होता है लेकिन सरकार से मिलने वाली आर्थिक मदद के लालच में वह जोड़ा दोबारा शादी रचाना पहुंचता है. इसमें युवतियों के गर्भवति होने का मामला बड़ा ही समान्य है. मामला भले ही कौमार्य परीक्षण का न रहा हो लेकिन इन युवतियों के किसी भी प्रकार की कोई चिकित्सकीय जांच की उस समय कोई जरुरत नहीं है. शासन व प्रशासन को इस पर विचार करना होगा. इससे न केवल वैवाहिक बंधन में बंधने वाले जोड़े के रिश्ते खत्म होंगे बल्कि सामाजिक ताना-बाना भी छिन्न-भिन्न हो सकता है. सरकार ऐसी कोई ठोस पहल क्यों नहीं करती कि राज्य की जनता की आर्थिक स्थिति इतनी सक्षम हो जाये कि उन्हें सरकारी खैरात की जरुरत न पड़े. सरकार को शहडोल में हुए सामूहिक विवाह समारोह के संबंध में उठे आरोपो की गंभीरता से जांच कराना चाहिए और यदि कौमार्य परीक्षण जैसे अमर्यादित कोई कृत्य हुआ है तो संबंधित दोषियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई करनी चाहिए. सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप और बयानबाजी के माध्यम से इस घटना से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए. महिला संगठन सिर्फ अपनी उपस्थिति दर्ज न कराये बल्कि इस मामले के संच को सामने लाये तभी वे खुद को महिलाओं के हितों के प्रति समर्पित कह पायेंगी, अन्यथा इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी और इसे हमलोग शर्मनाक घटना कह कर इससे अपना पल्ला झाड़ते रहेंगे.

शनिवार, 11 जुलाई 2009

‘कविता द्रव्य होती है, जो स्वतः बह निकलती है’


(त्रिलोचन शास्त्री से पहली और आखिरी मुलाकात)
श्रीराजेश
आज सुबह बिजली फिर गुल हो गयी, रोजाना की तरह, और नींद जल्दी खुल गयी, काम कुछ था नहीं. होता भी कैसे ? दिल्ली या नोएडा आये अभी खींच-तान कर डेढ माह बीते हैं, सोचा कि बैग का सामान अव्यवस्थित हो गया है, सहेज दूं. इसी क्रम में मुझे बाबा (त्रिलोचन शास्त्री) की मैं तुम्हें सौंपता हूं काव्य संग्रह दिख गया, जिसे मैंने कोलकाता से दिल्ली के सफर के दौरान पढ़ने के लिए अपने मित्र से ले कर आया था. संग्रह दिखते ही वह दिन मुझे याद आ गया, जब पहली और आखिरी बार मैं बाबा से मिला था. उस समय मुझे ये अंदाजा नहीं था कि बाबा से ये मुलाकात बार-बार याद करने लायक है. उन्हें मैं बाबा कहता हूं. यह संबोधन खुद उन्हीं द्वारा दिया हुआ है.
बात 1994-95 की रहीं होगी. कोलकाता में मैं जनसत्ता में स्ट्रीगरी की जुगाड़ में था. उस समय वहां के समाचार संपादक अमित प्रकाश सिंह हुआ करते थे. जब जनसत्ता कायार्लय पहुंचता तो अमित जी कवि सम्मेलन, विचार गोष्ठी, किसी राजनीतिक दल के धरना-प्रदर्शन को कवर करने का इसानमेंट दे देते और मेरा दिल बाग-बाग हो जाता. इसी तरह कोलकाता में गैर सरकारी स्कूलों की बढ़ती संख्या पर उन्होंने मुझे एक फीचर तैयार करने को कहा, साथ ही चीफ रिपोर्टर गंगा प्रसाद जी (अभी पटना में है) से इससे संबंधित विंदु लिखवा लेने का निर्देश दिया. गंगा जी के टेबल पर जनसत्ता के उस दिन का अंक पड़ा था और उसमें त्रिलोचन शास्त्री के कोलकाता आने की खबर छपी थी. इसके पहले कवि गोष्ठियों को कवर करते मैं सतही तौर पर त्रिलोचन और नागार्जुन दोनों बड़े कवियों के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था. खबर पर नजर पड़ते ही मैंने गंगा जी से कहा कि त्रिलोचन जी के कार्यक्रम को कवर करने का इसानमेंट मुझे ही दिजिएगा. गंगा जी हंस दिये और कहा कि अमित जी तुम्हें कार्यक्रम देते हैं, उनसे ही ले लेना. मैं उनके पास से अमित जी के पास पहुंचा और वहीं बात कही. तो टालते हुए कहे कि अभी उनके आने में तो देर है, आयेंगे तो देखा जायेगा. बात आयी-गयी हो गयी. त्रिलोचन कोलकाता आये, कई गोष्ठियों में उन्होंने शिरकत की. जनसत्ता में सभी की खबरें भी छपी लेकिन मुझे किसी कार्यक्रम को कवर करने का मौका नहीं मिला. इससे अमित जी के प्रति थोड़ी खींज भी थी. लगभग एक सप्ताह बीते होंगे अमित जी ने मारवाड़ी समुदाय के एक हास्य कवि सम्मेलन की रिपोर्टिंग करने के लिए कहा. अब मेरी खींज और बढ़ गयी और मैंने बगैर सोचे समझे तन से कह दिया कि जितने घटिया कार्यक्रम होते हैं वहीं आप मुझे थमा देते हैं, त्रिलोचन शास्त्री वाली कवि गोष्ठी का इसानमेंट मांगा था तो आपने दिया ही नहीं. भले ही मैं उसकी खबरे ठीक ढंग से नहीं लिख पाता लेकिन जो सीनियर गये थे, उनके साथ ही मुझे भेज देते तो कम से कम मैं उनसे मिल लेता या उन्हें देख लेता. इस पर कोई टिप्पणी करने के बजाय उन्होंने कहा कि अच्छा अब जाओ और अपना काम करो, दिमाग मत खाओ. मैं आ कर अपनी खबरें लिखने लगा. रात के साढ़े नौ के करीब बजे होंगे. घर लौटने की तैयारी कर रहा था. तभी अरविंद (चपरासी) आया और कहा कि अमित जी बुला रहे हैं. मैंने सोचा कल के लिए कुछ निर्देश मिलने वाले होंगे. गया तो उन्होंने बड़े प्यार से बैठाया और पूछा – आखिर तुम क्यों त्रिलोचन जी से मिलना चाहते हो ? मैंने कहा- वे बड़े कवि हैं, स्वाभाविक है कि उनसे मिलने की इच्छा होगी ही. वे हंसने लगे और कहा कि कल तुम्हारा कोई भी इसानमेंट दोपहर दो बजे के बाद ही है, सुबह उनसे जा कर मिल लेना, पता लिख लो. उन्होंने दक्षिण कोलकाता के टालीगंज के रानीकुटी का एक पता लिखा दिया. मैं चला आया.
सियालदह रेलवे स्टेशन पहुंचा तो हमारे कई मित्र पूर्व निर्धारित समय के अनुसार वहां मौजूद थे. इसमें प्रकाश, संजय जायसवाल, और अर्जून सिंह थे. लोकल ट्रेन में बैठे तय हुआ कि प्रकाश भी सुबह मेरे साथ त्रिलोचन जी से मिलने चलेगा. वह अच्छी कविताएं उस समय भी लिखता था, और अब तो लिखता ही है. वह मेरा लंगोटिया मित्र है. अभी वह आगरा में केंद्रीय हिंदी संस्थान की गवेषणा पत्रिका में बतौर सह संपादक कार्यरत है.
अगले दिन प्रकाश मेरे घर अपनी कुछ कविताओं के साथ चलने की तैयारी में आया और साथ हम भी अपनी कविताओं की डायरी लिए चल पड़े. निर्धारित पते पर पहुंचे, कालबेल बजाया, एक महिला निकलीं, हमने अपना आशय बताया. उन्होंने बैठकखाने में बैठा दिया. वहां टेबल पर कई हिंदी –अंग्रेजी के अखबार और कई साहित्यिक पत्रिकाएं रखी थीं. हम दोनों उन पत्रिकाओं को पलटना शुरू किया. ये वैसी पत्रिकाएं थी, जिनका नाम सुना था लेकिन इनमें से कई पत्रिकाओं का कोई अंक देखा नहीं था.तभी वह भद्र महिला बैठकखाने में आयीं और पानी दे कर एक ओर संकेत करते हुए कहा – त्रिलोचन जी उस कमरे में है. वहीं चले जायें.
हमने एक सांस में गिलास का पानी खत्म किया और हिचकते हुए कमरे की ओर बढ़े और दरवाजे पर जा कर टिकक गये. भीतर बढ़ी दाढ़ी, विखरे बाल, आसमानी रंग की लुंगी, हां लुंगी ही थी. पीले रंग की कमीज पहने एक वृद्ध पलंग पर लेटे थे. अखबारों में छपी तस्वीरों को देखा ही था, सो तुरंत पहचान गया, यहीं हैं त्रिलोचन. हम दोनों ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़ प्रणाम किया. प्रणाम की आवाज सुन, उठते हुए उन्होंने हम दोनों को आशीष भी दिया और सामने रखी कुर्सी पर बैठने का संकेत किया. कुर्सी एक ही थी, जिस पर मैं बैठ गया और प्रकाश उनके पलंग पर पायताने बैठा बाबा ने बारी-बारी से नाम पूछा. वह धीरे-धीरे हमारी पढ़ाई लिखाई के साथ घर परिवार के विषय में भी बातें करने लगे और महज दस मिनट बीते होंगे कि उनके बातचीत करने के अंदाज से हमारी सारी हिचकिचाहटें दूर हो गईं और हम दोनों सामान्य हो गये. वहीं एक आलमारी में कई सम्मान पत्र, रखे हुए थे. उन्ही में से एक पर उनकी जन्मतिथि 20 अगस्त 1977 अंकित था. जबकि उनकी जन्मतिथि 20 अगस्त 1917 है. हमने कहा- बाबा इस पर तो आपकी जन्मतिथि 1977 है ? तो उन्होंने तपाक से हंसते हुए कहा- मैं क्या तुमलोगों से ज्यादा उम्र का दिखता हूं ? हमलोग कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे. इसके बाद उन्होंने बताया कि गलती से वहां 1917 की जगह 1977 अंकित हो गया है. और वे इस तरह की गलतियों की पूरी फेहरिस्त सुनाने लगे. हम उनके संस्मरण को बड़ी उत्कंठा से सुनते रहे. तभी प्रकाश ने पूछा कि बाबा, सानेट आप लिखते है और हम लोग सानेट के विषय में सुने तो हैं लेकिन जानते नहीं, यहां तक कि आपकी लिखी सानेट भी नहीं पढ़ी है. बाबा ने तुरंत एक पुरानी पत्रिका प्रकाश को थमा दी. इसमें उनके कुछ सानेट थे और इसके बाद वह सानेट के विषय में विस्तार से बताने लगे.इसके बाद बारी-बारी से हमने अपनी कविताएं भी उन्हें सुनाई. और हमारी नादानी भरी कविताएं बड़ी चांव से सुनते रहे. जब दोनों कि कविताएं खत्म हो गयी. तो उन्होंने कहा – अच्छा लिखते हो, लेकिन पहले साहित्यिक पत्रिकाए पढ़ो. फिर लिखो. कविता द्रव्य होती है, जो स्वतः मन से बह निकलती है. उनके यह शब्द अब भी जेहन में वैसे ही बरकरार है. हम दोनों साहित्य के दंतहीन शावक थे लेकिन यह उनकी सहजता ही थी कि वे हम दोनों से इस तरह बातें कर रहे थे जैसे हम सही मायने में साहित्य के अनुरागी हो. सच तो यह है कि जब वे सानेट के विषय में बताते हुए उस मुद्दे से भटक कर अंग्रेजी साहित्य के विषय में बोलने लगे और अंग्रेजी के कवियों का नाम लेते थे तो उनकी आधी बातें हमरी समझ में हीं नहीं आयी. हालांकि वे बार बार पूछते यह सुना है- उनकी हर बात में हां में सर हिला देते. लेकिन वह ताड़ जाते कि हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ा. उनके पास बैठे तकरीबन एक घंटा हो चुका था. उन्होंने पूछा – कुछ खाओगे ? सुबह जल्दी ही निकल गये थे. खाया कुछ नहीं था. भूख लगी ही थी. हां में सर फिर हिला दिया. वह उठे अंदर गये और एक प्लेट में पहवा ले कर आये. प्लेट में चम्मच नहीं था. पास पड़े अखबार के एक टूकड़े को उन्होंने चम्मच बना कर हमें पकड़ा दिया. हम पहवा खाते रहे और वे साहित्य के विषय में अमृतवर्षा करते रहे, हम भींगे भी लेकिन इसका असर अंदर तक नहीं हुआ. पहवां खतम हुआ तो हम चलने को तैयार हुए. उन्होंने ढ़ेर सारी पत्र-पत्रिकाएं पहली मुलाकात का उपहार स्वरूप दिया और अंत में पूछा कि कैसे आये यहां ? तब हमने बताया कि जनसत्ता के अमित जी ने यहां का पता दिया था. वह हंसने लगे. हम समझ नहीं सके और उनका आशीष ले हम लौट गये.
शाम को दफ्तर पहुंचा तो अमित जी ने देखते ही पूछा – गये थे ?
मैंने कहा – जी.
क्या-क्या बातें हुई?
मैंने वह सब बताना शुरू किया, तभी संपादक जी ने उन्हें अपनी केबिन में बुला लिया और मैं गंगाजी के पास चला गया. मैं त्रिलोचन जी से मिल कर अति प्रसन्न था, चेहरे पर प्रसन्नता के भाव दिख रहे थे, सो गंगा जी बोले – क्या हिरो, क्या हाल है ? मैंने उन्हें भी बताया कि कहां से आ रहा हूं. जब वे सुन लिये तो बोले कि अमित जी तुम लोगों कुछ खिलाया या पानी पिला कर ही टरका दिया. मैंने कहा कि हम अमित जी के यहां थोड़े गये थे, त्रिलोचन जी से मिलने गये थे. वह अपने किसी संबंधी के यहां रानीकुटिर में ठहरे है. गंगा जी हंसने लगे और कहा- अमित जी के पिता है त्रिलोचन शास्त्री और तुम जहां से मिल कर आ रहे हो वह अमित जी का ही घर है, हम यह सुन कर आश्चर्यचकित हुए बगैर नहीं रहे और मेरी नजर में त्रिलोचन जी के साथ अमित जी भी महान हो गये.

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

मीडिया का बढ़ता मुनाफा व पत्रकारिता की बदलती परिभाषा


श्रीराजेश
एक बंधु ने अपने ब्लाग (http://shyamnranga.blogspot.com) पर सूचना दी है कि मूल रूप से बीकानेर के रहने वाले और अब मुंबई प्रवासी श्याम लाल जी दम्माणी को विभिन्न अखबारों में संपादक के नाम पत्र लिखने के लिए उनका नाम लिम्का बुक आफ रिकार्ड में दर्ज किया गया है. वह वर्ष 1991 से 2004 के बीच लगभग साढ़े चार हजार पत्र लिख चुके हैं और ये पत्र विभिन्न विषयों पर सुझाव स्वरूप या प्रतिक्रियात्मक लिखा गया है.

यह भारतीय मीडिया जगत के लिए शुभ सूचना है बावजूद इसके इस सूचनात्मक खबर के संबंध में कहीं किसी अखबार, खबरियां चैनल या फिर समाचार पोर्टल में चर्चा नहीं की. देखा जा रहा है कि इस तरह की चीजें अब अखबारों, खबरियां चैनलों व समाचार पोर्टलों से गायब ही रहते हैं. ऐसा क्यों ? यह प्रश्न भी अनायास नहीं है लेकिन इस संबंध में गंभीरता से विचार आवश्यक है.

पिछले दस वर्षों के दौरान देखा गया है कि भारतीय मीडिया का जनसरोकार से नाता धीरे-धीरे क्षीण होते जा रहा है, लेकिन फिर सवाल उठता है कि ऐसा क्यों ? हम बाजारवाद का हवाला देते हैं, यदि ठीक से देखा जाय तो भारत में बाजारवाद की बयार की 90 के दशक के सरसराहट शुरू हुई और सरकारी नीतियों के पाल के छांव में 90 के दशक के मध्य तक इसने अपना वर्चस्व जमा लिया था. मीडिया में भी बाजारवाद का प्रभाव इसी काल में शुरू हुआ, जब इंटरनेट और इंटरटेनमेंट सेक्टर में विदेशी पूंजी निवेश को 100 फीसदी की छूट दी गयी. जबकि टेलीकाम सेक्टर में 74 फीसदी, समाचारों में 26 फीसदी और एफएम, डीटीएच, केबल औप प्रिंट मीडिया में 49 फीसदी की छूट दी गयी. दरअसल, सरकार की इस नीति से खास कर प्रिंट मीडिया को नई जान तो मिली ही जो प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश से वंचित होने के कारण आर्थिक रूप से बीमार थी, उसे नई संभावनाएं दिखने लगी. बावजूद इसके विदेशी कंपनियों द्वारा इस सेक्टर में भारी पूंजी निवेश ने इस क्षेत्र की प्राथमिकताएं बदल दी और जनसरोकार का नजरियां हांसिये पर चला गया तथा अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की प्रवृति बढ़ती गयी. इसका असर हाल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अखबारों के पाठकों की संख्या में पिछले तीन साल में आयी भारी गिरावट और साथ ही टैम यानी टेलीविजन आडिययंस मेरजरमेंट के आंकड़ों के विश्लेषकों के अनुसार चार साल पहले जहां देश में 210 चैनल थे जो आज बढ़ कर 324 हो गये हैं, दिखता है. जो कार्यक्रम चैनल (खबरिया चैनलों के साथ) को 10 से ज्यादा टीवीआर दे सके, ऐसे चैनल दो एक ही रह गये हैं. इसके बावजूद कुछ छोटे मोटे मीडिया घरानों को छोड़ कर आर्थिक मंदी के दौर में भी देश का मीडिया उद्योग ठीक-ठाक मुनाफा में रहा.

दूसरी ओर अखबारों, खबरियां चैनलों व समाचार पोर्टलों से जनसरोकार के मुद्दे गायब होने के साथ पत्रकारिता के स्तर में लगातार गिरावट देखी जा रही है जिसने पाठकों और दर्शकों के आंकड़े कम करने में अहम भूमिका निभाई है. अब यह सुक्त वाक्य सच लगने लगा है कि भारतीय पत्रकारिता अपने संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है. उपरोक्त श्याम लाल जी दम्माणी जैसा संजीदा पाठक संपादक के नाम जब पत्र लिखता है तो सामान्यतः अखबार में प्रकाशित किसी खबर या आलेख को वह पहले गंभीरता से पढ़ता है और वह उसके दिमाग से सीधे दिल तक उतरती है और उसके बाद प्रतिक्रिया स्वरूप विचारों जन्म होता है. ये पत्र अखबारों को अपनी नीतियों के निर्धारण, पत्रकारों को अपनी दृष्टि विकसित करने और विचारों को जनोन्मुखी और मंथन करने के लिए बाध्य करती है. वर्तमान दौर में पाठकों के संपादक के नाम पत्र का महत्व सिर्फ उस कालम को भरने तक ही रह गया है. अब मीडिया जगत में खबरों की परिभाषा बदल गयी है- उपभोक्ता के लिहाज से खबरें. वर्तमान दौर में देखा जा रहा है कि पत्रकार बजट व सरकारी रिपोर्टों का विलशेषण करने की क्षमता खोते जा रहे है. अखबारों में भाषण बाजी और उन्होंने कहा.... टाइप की खबरों की बाढ़ है. इस लिहाज से देखा जाय तो भले मीडिया का व्यापार बढ़ रहा हो, लेकिन पत्रकारिता पीछे छूट रही है. कई विद्वानों का कहना है कि पश्चिमी देशों, खास कर अमेरिका में पत्रकारिता का अवसान देखा जा रहा है. इसके कारण भी गिनाये गये है कि पहले वहां अखबार आये इसके बाद समाचर चैनल और फिर बाद में समाचार वाली वेबसाइटें आयीं. पत्रकारिता को ये सभी माध्यम एक-एक कर मिले और हुआ यह कि जो धार धीरे-धीरे मिलती तकनीक के साथ तेज होनी चाहिए थी वह घीस कर बोथरा गयी और पत्रकारिता पर उपभोक्तावाद हावी हो गया लेकिन भारतीय पत्रकारिता के साथ स्थिति बिलकुल अलग है. भारतीय पत्रकारिता पर केवल खबर परोसने की ही नहीं बल्कि देश व समाज को नई दिशा देने की जिम्मेदारी भी है, जो काफी पहले से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करती आ रही है लेकिन हाल में आर्थिक उदारीकरण ने इसके मायने बदल दिये हैं. भारतीय पत्रकारिता के बुजुर्गों को फिर से पत्रकारिता के पुरानी परिभाषा को लौटाने की पहल ही नहीं कोशिश करने के लिए मार्ग दर्शन करना चाहिए और युवा पत्रकारों की पीढ़ीं को नई सोंच के साथ इस लुभावन चमक-दमक से मुक्त हो कर मिशन से मशीन में तब्दील होती पत्रकारिता को उसकी मंजिल तक पहुंचाने के प्रयास तेज करने होंगे. यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इस प्रयास से पत्रकारों की आर्थिक स्थिति पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका नहीं के बराबर है लेकिन इतना जोखिम तो उठाया ही जा सकता है.