श्रीराजेश
एक बंधु ने अपने ब्लाग (http://shyamnranga.blogspot.com) पर सूचना दी है कि मूल रूप से बीकानेर के रहने वाले और अब मुंबई प्रवासी श्याम लाल जी दम्माणी को विभिन्न अखबारों में संपादक के नाम पत्र लिखने के लिए उनका नाम लिम्का बुक आफ रिकार्ड में दर्ज किया गया है. वह वर्ष 1991 से 2004 के बीच लगभग साढ़े चार हजार पत्र लिख चुके हैं और ये पत्र विभिन्न विषयों पर सुझाव स्वरूप या प्रतिक्रियात्मक लिखा गया है.
यह भारतीय मीडिया जगत के लिए शुभ सूचना है बावजूद इसके इस सूचनात्मक खबर के संबंध में कहीं किसी अखबार, खबरियां चैनल या फिर समाचार पोर्टल में चर्चा नहीं की. देखा जा रहा है कि इस तरह की चीजें अब अखबारों, खबरियां चैनलों व समाचार पोर्टलों से गायब ही रहते हैं. ऐसा क्यों ? यह प्रश्न भी अनायास नहीं है लेकिन इस संबंध में गंभीरता से विचार आवश्यक है.
पिछले दस वर्षों के दौरान देखा गया है कि भारतीय मीडिया का जनसरोकार से नाता धीरे-धीरे क्षीण होते जा रहा है, लेकिन फिर सवाल उठता है कि ऐसा क्यों ? हम बाजारवाद का हवाला देते हैं, यदि ठीक से देखा जाय तो भारत में बाजारवाद की बयार की 90 के दशक के सरसराहट शुरू हुई और सरकारी नीतियों के पाल के छांव में 90 के दशक के मध्य तक इसने अपना वर्चस्व जमा लिया था. मीडिया में भी बाजारवाद का प्रभाव इसी काल में शुरू हुआ, जब इंटरनेट और इंटरटेनमेंट सेक्टर में विदेशी पूंजी निवेश को 100 फीसदी की छूट दी गयी. जबकि टेलीकाम सेक्टर में 74 फीसदी, समाचारों में 26 फीसदी और एफएम, डीटीएच, केबल औप प्रिंट मीडिया में 49 फीसदी की छूट दी गयी. दरअसल, सरकार की इस नीति से खास कर प्रिंट मीडिया को नई जान तो मिली ही जो प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश से वंचित होने के कारण आर्थिक रूप से बीमार थी, उसे नई संभावनाएं दिखने लगी. बावजूद इसके विदेशी कंपनियों द्वारा इस सेक्टर में भारी पूंजी निवेश ने इस क्षेत्र की प्राथमिकताएं बदल दी और जनसरोकार का नजरियां हांसिये पर चला गया तथा अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की प्रवृति बढ़ती गयी. इसका असर हाल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अखबारों के पाठकों की संख्या में पिछले तीन साल में आयी भारी गिरावट और साथ ही टैम यानी टेलीविजन आडिययंस मेरजरमेंट के आंकड़ों के विश्लेषकों के अनुसार चार साल पहले जहां देश में 210 चैनल थे जो आज बढ़ कर 324 हो गये हैं, दिखता है. जो कार्यक्रम चैनल (खबरिया चैनलों के साथ) को 10 से ज्यादा टीवीआर दे सके, ऐसे चैनल दो एक ही रह गये हैं. इसके बावजूद कुछ छोटे मोटे मीडिया घरानों को छोड़ कर आर्थिक मंदी के दौर में भी देश का मीडिया उद्योग ठीक-ठाक मुनाफा में रहा.
दूसरी ओर अखबारों, खबरियां चैनलों व समाचार पोर्टलों से जनसरोकार के मुद्दे गायब होने के साथ पत्रकारिता के स्तर में लगातार गिरावट देखी जा रही है जिसने पाठकों और दर्शकों के आंकड़े कम करने में अहम भूमिका निभाई है. अब यह सुक्त वाक्य सच लगने लगा है कि भारतीय पत्रकारिता अपने संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है. उपरोक्त श्याम लाल जी दम्माणी जैसा संजीदा पाठक संपादक के नाम जब पत्र लिखता है तो सामान्यतः अखबार में प्रकाशित किसी खबर या आलेख को वह पहले गंभीरता से पढ़ता है और वह उसके दिमाग से सीधे दिल तक उतरती है और उसके बाद प्रतिक्रिया स्वरूप विचारों जन्म होता है. ये पत्र अखबारों को अपनी नीतियों के निर्धारण, पत्रकारों को अपनी दृष्टि विकसित करने और विचारों को जनोन्मुखी और मंथन करने के लिए बाध्य करती है. वर्तमान दौर में पाठकों के संपादक के नाम पत्र का महत्व सिर्फ उस कालम को भरने तक ही रह गया है. अब मीडिया जगत में खबरों की परिभाषा बदल गयी है- उपभोक्ता के लिहाज से खबरें. वर्तमान दौर में देखा जा रहा है कि पत्रकार बजट व सरकारी रिपोर्टों का विलशेषण करने की क्षमता खोते जा रहे है. अखबारों में भाषण बाजी और उन्होंने कहा.... टाइप की खबरों की बाढ़ है. इस लिहाज से देखा जाय तो भले मीडिया का व्यापार बढ़ रहा हो, लेकिन पत्रकारिता पीछे छूट रही है. कई विद्वानों का कहना है कि पश्चिमी देशों, खास कर अमेरिका में पत्रकारिता का अवसान देखा जा रहा है. इसके कारण भी गिनाये गये है कि पहले वहां अखबार आये इसके बाद समाचर चैनल और फिर बाद में समाचार वाली वेबसाइटें आयीं. पत्रकारिता को ये सभी माध्यम एक-एक कर मिले और हुआ यह कि जो धार धीरे-धीरे मिलती तकनीक के साथ तेज होनी चाहिए थी वह घीस कर बोथरा गयी और पत्रकारिता पर उपभोक्तावाद हावी हो गया लेकिन भारतीय पत्रकारिता के साथ स्थिति बिलकुल अलग है. भारतीय पत्रकारिता पर केवल खबर परोसने की ही नहीं बल्कि देश व समाज को नई दिशा देने की जिम्मेदारी भी है, जो काफी पहले से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करती आ रही है लेकिन हाल में आर्थिक उदारीकरण ने इसके मायने बदल दिये हैं. भारतीय पत्रकारिता के बुजुर्गों को फिर से पत्रकारिता के पुरानी परिभाषा को लौटाने की पहल ही नहीं कोशिश करने के लिए मार्ग दर्शन करना चाहिए और युवा पत्रकारों की पीढ़ीं को नई सोंच के साथ इस लुभावन चमक-दमक से मुक्त हो कर मिशन से मशीन में तब्दील होती पत्रकारिता को उसकी मंजिल तक पहुंचाने के प्रयास तेज करने होंगे. यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इस प्रयास से पत्रकारों की आर्थिक स्थिति पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका नहीं के बराबर है लेकिन इतना जोखिम तो उठाया ही जा सकता है.
एक बंधु ने अपने ब्लाग (http://shyamnranga.blogspot.com) पर सूचना दी है कि मूल रूप से बीकानेर के रहने वाले और अब मुंबई प्रवासी श्याम लाल जी दम्माणी को विभिन्न अखबारों में संपादक के नाम पत्र लिखने के लिए उनका नाम लिम्का बुक आफ रिकार्ड में दर्ज किया गया है. वह वर्ष 1991 से 2004 के बीच लगभग साढ़े चार हजार पत्र लिख चुके हैं और ये पत्र विभिन्न विषयों पर सुझाव स्वरूप या प्रतिक्रियात्मक लिखा गया है.
यह भारतीय मीडिया जगत के लिए शुभ सूचना है बावजूद इसके इस सूचनात्मक खबर के संबंध में कहीं किसी अखबार, खबरियां चैनल या फिर समाचार पोर्टल में चर्चा नहीं की. देखा जा रहा है कि इस तरह की चीजें अब अखबारों, खबरियां चैनलों व समाचार पोर्टलों से गायब ही रहते हैं. ऐसा क्यों ? यह प्रश्न भी अनायास नहीं है लेकिन इस संबंध में गंभीरता से विचार आवश्यक है.
पिछले दस वर्षों के दौरान देखा गया है कि भारतीय मीडिया का जनसरोकार से नाता धीरे-धीरे क्षीण होते जा रहा है, लेकिन फिर सवाल उठता है कि ऐसा क्यों ? हम बाजारवाद का हवाला देते हैं, यदि ठीक से देखा जाय तो भारत में बाजारवाद की बयार की 90 के दशक के सरसराहट शुरू हुई और सरकारी नीतियों के पाल के छांव में 90 के दशक के मध्य तक इसने अपना वर्चस्व जमा लिया था. मीडिया में भी बाजारवाद का प्रभाव इसी काल में शुरू हुआ, जब इंटरनेट और इंटरटेनमेंट सेक्टर में विदेशी पूंजी निवेश को 100 फीसदी की छूट दी गयी. जबकि टेलीकाम सेक्टर में 74 फीसदी, समाचारों में 26 फीसदी और एफएम, डीटीएच, केबल औप प्रिंट मीडिया में 49 फीसदी की छूट दी गयी. दरअसल, सरकार की इस नीति से खास कर प्रिंट मीडिया को नई जान तो मिली ही जो प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश से वंचित होने के कारण आर्थिक रूप से बीमार थी, उसे नई संभावनाएं दिखने लगी. बावजूद इसके विदेशी कंपनियों द्वारा इस सेक्टर में भारी पूंजी निवेश ने इस क्षेत्र की प्राथमिकताएं बदल दी और जनसरोकार का नजरियां हांसिये पर चला गया तथा अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की प्रवृति बढ़ती गयी. इसका असर हाल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अखबारों के पाठकों की संख्या में पिछले तीन साल में आयी भारी गिरावट और साथ ही टैम यानी टेलीविजन आडिययंस मेरजरमेंट के आंकड़ों के विश्लेषकों के अनुसार चार साल पहले जहां देश में 210 चैनल थे जो आज बढ़ कर 324 हो गये हैं, दिखता है. जो कार्यक्रम चैनल (खबरिया चैनलों के साथ) को 10 से ज्यादा टीवीआर दे सके, ऐसे चैनल दो एक ही रह गये हैं. इसके बावजूद कुछ छोटे मोटे मीडिया घरानों को छोड़ कर आर्थिक मंदी के दौर में भी देश का मीडिया उद्योग ठीक-ठाक मुनाफा में रहा.
दूसरी ओर अखबारों, खबरियां चैनलों व समाचार पोर्टलों से जनसरोकार के मुद्दे गायब होने के साथ पत्रकारिता के स्तर में लगातार गिरावट देखी जा रही है जिसने पाठकों और दर्शकों के आंकड़े कम करने में अहम भूमिका निभाई है. अब यह सुक्त वाक्य सच लगने लगा है कि भारतीय पत्रकारिता अपने संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है. उपरोक्त श्याम लाल जी दम्माणी जैसा संजीदा पाठक संपादक के नाम जब पत्र लिखता है तो सामान्यतः अखबार में प्रकाशित किसी खबर या आलेख को वह पहले गंभीरता से पढ़ता है और वह उसके दिमाग से सीधे दिल तक उतरती है और उसके बाद प्रतिक्रिया स्वरूप विचारों जन्म होता है. ये पत्र अखबारों को अपनी नीतियों के निर्धारण, पत्रकारों को अपनी दृष्टि विकसित करने और विचारों को जनोन्मुखी और मंथन करने के लिए बाध्य करती है. वर्तमान दौर में पाठकों के संपादक के नाम पत्र का महत्व सिर्फ उस कालम को भरने तक ही रह गया है. अब मीडिया जगत में खबरों की परिभाषा बदल गयी है- उपभोक्ता के लिहाज से खबरें. वर्तमान दौर में देखा जा रहा है कि पत्रकार बजट व सरकारी रिपोर्टों का विलशेषण करने की क्षमता खोते जा रहे है. अखबारों में भाषण बाजी और उन्होंने कहा.... टाइप की खबरों की बाढ़ है. इस लिहाज से देखा जाय तो भले मीडिया का व्यापार बढ़ रहा हो, लेकिन पत्रकारिता पीछे छूट रही है. कई विद्वानों का कहना है कि पश्चिमी देशों, खास कर अमेरिका में पत्रकारिता का अवसान देखा जा रहा है. इसके कारण भी गिनाये गये है कि पहले वहां अखबार आये इसके बाद समाचर चैनल और फिर बाद में समाचार वाली वेबसाइटें आयीं. पत्रकारिता को ये सभी माध्यम एक-एक कर मिले और हुआ यह कि जो धार धीरे-धीरे मिलती तकनीक के साथ तेज होनी चाहिए थी वह घीस कर बोथरा गयी और पत्रकारिता पर उपभोक्तावाद हावी हो गया लेकिन भारतीय पत्रकारिता के साथ स्थिति बिलकुल अलग है. भारतीय पत्रकारिता पर केवल खबर परोसने की ही नहीं बल्कि देश व समाज को नई दिशा देने की जिम्मेदारी भी है, जो काफी पहले से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करती आ रही है लेकिन हाल में आर्थिक उदारीकरण ने इसके मायने बदल दिये हैं. भारतीय पत्रकारिता के बुजुर्गों को फिर से पत्रकारिता के पुरानी परिभाषा को लौटाने की पहल ही नहीं कोशिश करने के लिए मार्ग दर्शन करना चाहिए और युवा पत्रकारों की पीढ़ीं को नई सोंच के साथ इस लुभावन चमक-दमक से मुक्त हो कर मिशन से मशीन में तब्दील होती पत्रकारिता को उसकी मंजिल तक पहुंचाने के प्रयास तेज करने होंगे. यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इस प्रयास से पत्रकारों की आर्थिक स्थिति पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका नहीं के बराबर है लेकिन इतना जोखिम तो उठाया ही जा सकता है.
umda aalekh
जवाब देंहटाएंbahut khoob kaha..........
BADHAAI !
sorry for late
जवाब देंहटाएंmeri najar aaj aapke es article par padi
aapne mere ek article par apna pura aalekh likh diya uska dil se aabhar
or kafi shaandar prastuti di hai aapne eske liye thanks