मंगलवार, 4 नवंबर 2014

कामरेड, आपको याद हैं ईएमएस नंबूदरीपाद?


देश विरासतों के बदलने के दौर से गुजर रहा है। महात्मा गांधी और सरकार बल्लभ भाई पटेल घोषित तौर से कांग्रेस की विरासत थे। और स्वयं कांग्रेस को ही महात्मा गांधी के विरासत के तौर पर देखा जाता है। लेकिन बीते एक महीने में पूरे देश ने देखा है कि कैसे ये विरासती शख्यितें राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में परिवर्तित हुई है। अब अगला नंबर देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का है। केंद्र की भाजपा सरकार 14 नवंबर को राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान के तौर मनाने जा रही है। अब तक नेहरू की जयंती 14 नवंबर को बालदिवस के रूप में मनाया जाता रहा है। अगर देखें तो भाजपा नीत केंद्र की सरकार को नेपथ्य के पीछे से आरएसएस का समर्थन, मार्गदर्शन और निर्देश मिलता रहा है। और आरएसएस यह अच्छी तरह जानता है कि यह देश प्रतीकों के प्रति समर्पण वाला देश है और वह इसी दिशा में बढ़ रहा है। ठीक, ऐसी स्थिति में जब देश में दक्षिणपंथी राजनीति उभार पर है तो वहीं वामपंथ ढलान की तरफ है, जो स्वाभाविक है। इसके पीछे के कारणों की विवेचना का यह वक्त भी सही है। कभी देश की राजनीति को प्रभावित करने की माद्दा रखने वाली वामपंथी दल अब सिमटते जा रहे हैं और वह भी लगातार। जो भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने प्रतीकों को व्यापकता देने के साथ ही दूसरे के पाले की विरासतों को भी राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में सामने लाने में लगी है, वहीं वामपंथी पार्टियों ने अपने प्रतीकों को ही हाशिये पर डाल रखा है। संभवत: अब किसी को ठीक से याद भी नहीं होगा कि पहली लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार ईएमएस नंबूदरीपाद ने बनाई थी और वह देश के पहले गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री भी थे। इस वर्ष 8 जुलाई को ज्योति बसु जैसे दिग्गज वामपंथी नेता का सौवां जन्मदिन गुजर गया और किसी को ठीक से खबर तक न हुई! इंद्रजीत गुप्त और गीता मुखर्जी जैसे वामपंथी सांसद को भुला ही दिया गया है। क्या कम्युनिस्ट पार्टियों को अपने इन नेताओं को याद नहीं करना चाहिए और उनके योगदान को देश के सामने नहीं लाना चाहिए। देश की आजादी और लोकतंत्र के 68 साल हो गये हैं लेकिन वामपंथी पार्टियां अब तक अपने को भारतीय नहीं बना सकी है। वे भारतीय मानकों के अनुरूप खुद को नहीं ढाल सकी हैं। मार्क्स ने भले ही धर्म को अफीम बताया था, लेकिन भारत में धर्म जीवनशैली का हिस्सा है। धर्म का शिक्षा और ज्ञान से कुछ लेना देना नहीं है। अंध भक्ति, अंधविश्वास, कट्टरता, धर्मांधता आदि से अलग एक उदारवादी भारतीय चेहरा भी है, जो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरिजाघर और सूफी संतों की मजारों में जाता है, व्रत रखता है और सोच में प्रगतिशील है। वह उत्सवधर्मी भी है, जिसकी झलक पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा के समय दिखाई देती रही है, जहां तीन दशक तक माकपा की सरकार रही। ऐसे समय जब धर्म को लेकर संकुचित तरीके से माहौल बनाया जा रहा है, वामपंथी पार्टियां चुप बैठी हैं। उन्हें धर्म को लेकर असमंजस से निकलना पड़ेगा। इस देश को उस धर्म की जरूरत है, जिसकी पैरवी एक अन्य नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) ने सौ साल पहले की थी। वामपंथी दलों को कांग्रेस के साथ अपने रिश्ते को लेकर स्पष्ट होना चाहिए। वे कांग्रेस के साथ रहेंगी, या उसे समर्थन देंगी या उससे अलग चलेंगी? कांग्रेस के साथ अब तक उनकी राजनीति सुविधा की राजनीति थी, लेकिन बदली परिस्थितियों में उन्हें अपना नजरिया बदलना होगा। इसी तरह उन्हें मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, मायावती और अन्नाद्रमुक तथा द्रमुक को लेकर अपना नजरिया स्पष्ट करना चाहिए। मायावती और जयललिता पर लगाए गए उनके दांव सिरे ही नहीं चढ़ सके थे, इसलिए उन्हें संभावित सहयोगियों को लेकर स्पष्ट होना चाहिए।

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