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रविवार, 9 जनवरी 2011

राजनीति का सतीत्व

अंग्रेजों के जमाने से एक कहावत प्रचलित है- "बंगाल जो आज सोचता है, शेष देश कल सोचता है." हालांकि यह कहावत अब सिर्फ शब्दों तक सिमट कर रह गई है लेकिन कहावत में प्रयुक्त राज्य बंगाल का स्थान बिहार के लेने की संभावना की आहट दिखने लगी है. बिहार में पांच साल पुरानी सरकार फिर नये तेवर में वापस आई है. कुछ नया, कुछ बेहतर होने की उम्मीदें बलवती हुई हैं. बिहार- एक पिछड़ा, भदेस, हास्य व व्यंग्य जैसे कुछ ऐसे ही भाव के साथ देखा जाने वाला राज्य राजनीतिक के सतीत्व की रक्षा को आगे बढ़ने का साहस जुटाया है ताकि न केवल बिहार में बल्कि देश की राजनीति का एक "मानक” स्थापित हो सके.

सत्ता में वापसी के तुरंत बाद सरकार ने जब भ्रष्टाचार से जंग छेड़ने की घोषणा की तो यह अन्य राजनीतिक घोषणा की तरह ही लगी, लेकिन कुछ दिन बीते, कुछ सप्ताह बीता और सरकार ने विधायक कोष खत्म करने का एलान कर दिया. राजनीतिक घोषणाओं पर बिहारियों के साथ -साथ देश के लोगों को थोड़ा-थोड़ा भरोसा होने लगा. तभी विधायकों को अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने का सरकारी फरमान जारी हुआ. अब लोगों को लगा कि इस फरमान का दूसरे सरकारी आदेशों की तरह उल्लंघन नहीं होगा. और उम्मीदें सही साबित हुईं. अब तो सूबे के शिक्षक व अन्य सरकारियों ने भी संपत्ति का ब्यौरा देने के सरकारी फरमान का स्वागत करते हुए सहमति दे दी है. नई सुबह की रक्ताभ लालिमायुक्त पहली किरण आशा का संचार करने लगी है.

विधायक कोष का खत्म किया जाना भ्रष्टाचार रोकने की दिशा में भले ही शुरुआती कदम हो लेकिन वजनदार है. इस कोष के बारे में बिहार में यह आम धारणा है कि इसका 20 प्रतिशत रकम विधायक को बैठे-बिठाये मिल जाता है. हालांकि ऐसा नहीं है कि सूबे के सभी विधायक ऐसे ही हैं, कुछ अपवाद भी हैं जो कोष का एक पैसा नहीं लेते. लेकिन उनकी संख्या अंगुली पर गिनने जैसी है. सांसद विधायक कोष की शुरुआत भारत में उदारीकरण वाली अर्थव्यवस्था के प्रणेता नरसिंह राव के शासन काल में हुई. वर्ष 1991-96 में कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में गठबंधन सरकार थी, विश्वासमत के दौरान सरकार बचाने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त हुई, लोकतंत्र शर्मशार हुआ लेकिन सरकार बची रह गई. उसी समय सरकार ने सांसदों को खुश करने के लिए सांसद निधि की शुरुआत की. और इसी का अनुसरण करते हुए राज्यों ने विधायक कोष आवंटित करना शुरू कर दिया. अगल-अलग राज्यों ने अलग-अलग राशि निर्धारित की. बिहार में यह राशि दो करोड़ रुपये सालाना थी. राजनीतिक दलों का आकलन था कि इस कोष से विकासमूलक कार्य होंगे और कार्यकर्ता -समर्थकों की भीड़ उनकी पार्टी के साथ जुड़ेगी लेकिन इन डेढ़ दशक में देखा गया कि समर्थक और कार्यकर्ताओं के बजाय पार्टी व पार्टी के सांसद-विधायकों के जरिये ठेकेदारों की जमात जुड़ गई और जुड़ा भ्रष्टाचार का दागदार संस्कार.

बिहार ने शुरुआत की है, चर्चा पूरे देश में चल पड़ी है. जनता भ्रष्टाचार के कोढ़ से ऊब चुकी है, सीने में इसके खिलाफ आग सुलग रही है, बस इसके भड़कने की देर है. बिहार ने आग भड़काने के लिए हवा दे दी है. और राज्यों पर भी इसी तरह के पहल की दबाव बढ़ने की संभावना दिखने लगी है. जनता के सीने में भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ कैसी आग है इसे जानना हो तो बस उनके सामने भ्रष्ट नेताओं की चर्चा भर छेड़ दें, फिर देखे.

भारत में भ्रष्टाचार किस कदर है, इसका अंदाजा स्वीस बैंक के एक निदेशक के इस कथन से हो जाता है कि स्वीस बैंकों में भारतीयों का 280 लाख करोड़ रुपया जमा है. जाहिर है यह सब कालाधन ही है, जिसे भ्रष्ट तरीके से कमाया गया है और स्वीस बैंक में रखा गया है. यह रकम स्वदेश वापस लाने की कई बार आवाज उठी लेकिन आवाज सिर्फ आवाज बन कर रह गई. यह रकम इतनी बड़ी है कि इससे अगले 30 सालों तक कर रहित बजट बन सकता है, 60 करोड़ भारतीयों को नौकरी मिल सकती है और 60 वर्षों तक प्रत्येक भारतीय को प्रतिमाह 2000 रुपये का नकद भुगतान किया जा सकता है, शायद फिर भी इसमें से कुछ रकम बच जाए. देश के इस परिवेश-माहौल में इस कानून का ईमानदार क्रियान्वयन एक नया माहौल बनायेगा. बिहार में ही नहीं, देश में भ्रष्टाचार, छल, कपट और षड्यंत्र की राजनीति का बोलबाला है. दिल्ली पूरी तरह इसके गिरफ्त में है.शासन या सत्ता, चाहे जिसका हो. इस भ्रष्टाचार के खिलाफ़ बिहार की यह पहल, दुनिया की निगाह खींचेगी. भारतीय राजनीति में सुधार अब दिल्ली से संभव नहीं. अगर एक राज्य में सुधार हुए, तो उसके देशव्यापी असर होंगे. बिहार यह प्रयोगस्थली बन सकता है. शर्त यह है कि इस कोशिश का ईमानदारी से क्रियान्वयन हो.

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

बिहार विस चुनावः प्रवासी बिहारियों की कथा-व्यथा

भोजपुरी का एक गीत है, "मत भुलइह परदेसी आपन गांव रे...”
आज यह गीत बिहार गा रहा है. विधानसभा चुनाव के प्रथम चरण का मतदान 21 अक्टूबर को होने वाला है. राजनीतिक दलों का प्रथम चरण के चुनाव के लिए प्रचार थम गया है. अब सारा जोर मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाने पर लगा है. चुनाव आयोग अपने संसाधनों से मतदाताओं को उनके मताधिकार के बारे में बताने में लगा है, तो कुछ गैर सरकारी संगठन भी इस मुहिम में ताल ठोक रहे हैं. लेकिन सबसे बड़ी और चौकाने वाली बात है कि राज्य के लगभग 30 प्रतिशत मतदाता ऐसे हैं जो चाह कर भी अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं. इन मतदाताओं पर ना राजनीतिक दलों की दृष्टि है और ना ही चुनाव आयोग की.
ये वो मतदाता है जो सूबे में रोजगार नहीं मिलने की वजह से दूसरे राज्यों में पलायन किए. खुद परदेस में है और परिवार बिहार के गांवों में बसता है. सांस परदेस में लेते हैं लेकिन दिल की धड़कन के लिए ऊर्जा गांव से मिलती है. इन प्रवासियों में तीन तबके हैं और सब के सब मतदाता ही हैं.
एक तबका वैसे मजदूरों का है जो मेहनतकस हैं और दूसरे राज्यों में जाकर असंगठित क्षेत्रों में जांगर तोड़ रहे. सपने धुंआ हो रहे हैं.
दूसरा तबका उन छात्रों का है, जो बेहतर भविष्य का सपना संजोये उच्च शिक्षा के लिए घर से बाहर छात्रावासों में हैं. मतदान करने की उम्र तो हो गई है लेकिन अभी तक मतदान केंद्र तक नहीं जा सके हैं. प्रदेश में सरकार के चयन में अपनी भूमिका सुनिश्चित करना चाहते हैं लेकिन उनके लिए यह संभव नहीं हो पाता.
और तीसरा तबका उन पढ़े-लिखे लोगों का है जो सरकारी या गैर सरकारी नौकरियों में लगे हैं और जहां है वहीं अस्थाई तौर पर सैटल है.
गांव घर से दूर दिन भर रोजी रोजगार के रोजनामचा से जूझने के बाद घर लौटने पर उनकी निगाहें टीवी स्क्रीन पर टिक जाती है. रिमोट पर उंगलिया टहलने लगती है. बिहार से संबंधित खबरें दिखने वाली चैनलों पर आ कर थम जाती है. चाय की चुस्की और नाटकीय ढंग से एंकर का हाल-ए-बयां बिहार सुन कर थोड़ी सकून जरूर मिलती है.
ऐसे समय में वे अपने गांव-देस लौटना चाहते हैं लेकिन क्या यह संभव है.
सुबह अखबार देने वाले से आज मेरी मुलाकात हो गई. उसका कहना है कि हम जितना कमाते हैं उसके अनुसार देखे तो सिर्फ चुनाव के दौरान मतदान करने के लिए जाना संभव नहीं हैं. हालांकि मन तो बहुत करता है.
दिल्ली के विनोद नगर में रहने वाले शिवशंकर मिश्रा का कहना है कि बिहार अपना घर है वहां कि हलचलों से कैसे अलग रहा जा सकता है, लेकिन रोजी-रोटी की समस्या हमें चुनावों से दूर कर देती है. पिछले कुछ वर्षों में बाढ़ और सूखे ने मजदूरों के पलायन को और तेज किया है.
बिहार के सीवान जिले के निवासी व दिल्ली में मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत धनजीत सिंह का कहना है, “सिर्फ वोट देने के लिए बिहार जाना तो संभव नहीं, लेकिन ई-वोटिंग की व्यवस्था होती तो शायद बिहार में मतदान के प्रतिशत में खासी बढ़ोत्तरी होती. ”
खैर, राजनीतिक दलों का तर्क अलग है. उनका कहना है कि चुनाव की तारीख ऐसी है कि छठ में बहुत सारे प्रवासी बिहार अपने घर आते हैं और वे अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे. लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रवासी बिहारियों के मत के लिए चुनाव की ताऱीख का निर्धारण छठ और होली जैसे त्योहारों को ध्यान में ही रख कर किए जाएंगे.

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

बिहार में करें विहार

'हर हर महादेव', ' बम भोले' का जयकारा लगाते भगवाधारी शिवभक्तों का रेला. मंदिर प्रांगण में धूप व कपूर के जलने और उनसे उठते सुगंधित घुए, घंटों की टन-टन की आवाज. पंडों की व्यस्तता और मंदिर के बाहर दुकानों पर छनती जलेबियां. मंदिर से सटे 52 बीघा के क्षेत्रफल में फैला तालाब और उसके किनारे लगे छायादार पेड़ों के नीचे हंसी ठिठोली करते व गांजा का दम चढ़ाते लोग. मेला परिसर में महिलाओं के सौंदर्य प्रासधनों की सजी फुटपाथी दुकानें. पिजड़े में चहकती रंग-बिरंगी चिड़िया. यह नजारा है, राखी पूर्णिमा के दिन बाबा महेंद्रनाथ मंदिर का.
देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के गृह जिला सीवान के मुख्यालय से 43 किलोमीटर दूर स्थित सिसवन प्रखंड के मेंहदार गांव में स्थित है यह मंदिर. 17 वीं सदी में तत्कालीन नेपाल नरेश महेंद्र द्वारा निर्मित इस मंदिर के बारे में किवंदंती है कि नरेश महेंद्र के सपने में एक दिन भगवान शिव प्रकट हुए और कहा कि यदि वह कुष्ठ रोग से मुक्त होना चाहते हैं तो मेंहदार के कीचड़युक्त तालाब में स्नान करें. नरेश ने सपने में भगवान शिव द्वरा बताये इस तालाब में स्नान कर कुष्ठ रोग से मुक्ति पायी और यही भगवान शिव के मंदिर का निर्माण कराया जिसका नाम नरेश महेंद्र के नाम पर पड़ा. समय बीतते गए और मंदिर की गिरती -ढहती दीवारों की मरम्मत के लिए लोग आस-पास के गांवों से चंदा संग्रह किया करते थे लेकिन अब वह बात नहीं है. अब भगवान शिव का यह आवास बिहार सरकार के पर्यटन मंत्रालय की नजर में आ गया है. मंदिर के गुंबद पर बने पीतल के कलश की चमक अपने बहुरे दिन की कथा बयां कर रहा है. तालाब की सफाई करायी गई है, किनारे कसे गए हैं और तालाब के चारों ओर लगे पेड़ सुदूर खेतों के बीच मनोहारी प्राकृतिक दृश्य सृजित करते हैं. लेकिन ये सब तभी हुआ जब इसे सरकारी संरक्षण की आंच मिली.
दरअसल, हाल में बिहार सरकार ने राज्य के कई ऐसे भूले बिसरे स्थानों की पहचान की है, जिनका धार्मिक व सामाजिक महत्व है और उनसे रोचक किवंदंतियां जुड़ी हैं. ऐसे भूले बिसरे स्थानों को अब सरकार पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर राज्य के पर्यटन को विस्तृत फलक देना चाहती है.
बिहार राज्य पर्यटन निगम के उप महाप्रबंधक नवीन कुमार कहते हैं, 'राज्य के जो विश्व स्तरीय पर्यटन स्थल हैं उन्हें देखने के लिए तो भारी संख्या में देशी विदेशी पर्यटक आते ही हैं लेकिन जब उन्हें इन छोटे-छोटे पर्यटन स्थलों और उनसे जुड़ी किवंदंतियों के बारे पता चलता है तो उनकी रुचि स्वाभाविक तौर पर उन स्थानों पर जाने की होती है. इसको ध्यान में रख कर ऐसे स्थानों की शिनाख्त कर उसे विकसित करने की कवायद शुरू की है.'
उल्लेखनीय है कि बिहार के राजस्व आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा पर्यटन से ही आता है, ऐसे में सरकार अधिक से अधिक संख्या में देशी-विदेशी सैलानियों को राज्य की ओर आकर्षित करना चाहती है जिससे राज्य के आय में बढ़ोत्तरी हो. बिहार पर्टयन निगम ने हाल ही में नदी पर्यटन शुरू किया है. नवीन कुमार फिर कहते हैं, ' निगम ने नदी पर्यटन के तहत क्रूज सेवा शुरू की है. यह क्रूज पूरी तरह से पंच सितारा सुविधाओं से लैस है. इसके लिए पर्यटकों से चार हजार डॉलर लिए जाते हैं. खास कर यह क्रूज सेवा विदेशी सैलानियों को ध्यान में रख कर शुरू किया गया है. पर्यटक कोलकाता से चलेंगे और बिहार के पर्यटन स्थलों का भ्रमण करते हुए वाराणसी तक जायेंगे. '
इसी तरह मुजफ्फरपुर के लीची के बागानों को हरा भरा रखने के लिए सरकार किसानों को आर्थिक मदद देने पर भी विचार कर रही है हालांकि इन्हें अभी बतौर ऋण आर्थिक सहायता दी जाती है. 8वीं सदी में चंद्रवंशी राजा भैरवेंद्र सिंह ने 100 फीट ऊंच्चाई के गुबंद वाले सूर्यदेव मंदिर का निर्माण
औरंगाबाद में कराया था. यहां हर वर्ष फरवरी-मार्च में देव महोत्सव का आयोजन होता है जहां स्थानीय हस्तशिल्प के नमूने देखने योग्य होते हैं. कहा जाए तो एक तरह से यह महोत्सव भक्ति, मौज-मस्ती के साथ ही स्थानीय हस्तशिल्प के लिए बेहतर बाजार भी साबित होता है. सूर्य मंदिर के अलावा यहां का दाउद खान किला भी देखने योग्य है. इस किला का निर्माण 17वीं सदी में मुगल शासक औरंगजेब के शासन काल तात्कालीन बिहार के गवर्नर दाउद खान ने कराया था.
प्रकृति का अनूठा उपहार भी इस राज्य को मिला है. बेगूसराय जिले को पर्यटक बर्ड सेंचुरी की वजह से जानते हैं, हालांकि पिछले कुछ वर्षों में वहां बढ़े प्रदूषण ने इसके अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिया था. कवर झील का पानी दूषित होने लगा था लेकिन सरकार ने सुधि ली और अब यह फिर नवंबर-दिसंबर में प्रवासी पक्षियों के कलरव से भर उठता है और वहां के विहंगम दृश्य को देख पर्यटक भावविभोर हो जाते हैं. इसके अलावा जिले के पंच मंदिर, राघे श्याम मंदिर, हरसराय स्तूप भी दर्शनीय है.
ऐतिहासिक विक्रमशिला विश्वद्यालय के लिए विख्यात भागलपुर को मंदिरों के गढ़ के रूप में माना जाना चाहिए. गंगा नदी के तट पर स्थित कूपा घाट के अलावा जैन मंदिर, महाराज कर्ण द्वारा निर्मित कर्णगढ़, मंदार पर्वत, घूरनपीर बाबा, खानख्वाह-ए-शाहबाजियां, योगिनी धाम और गंगा के बीचो-बीच स्थित बाबा अजगैबीनाथ मंदिर विदेशी पर्यटकों की निगाह से अभी भी ओझल है. सरकार की कोशिश है कि इन पर्यटन स्थलों तक विदेशी पर्यटकों को लाया जाए.
फिरंगियों के खिलाफ 1857 में वीर कुंवर सिंह द्वारा 80 वर्ष की उम्र तलवार उठाने की वजह से भोजपुर इतिहास में विशिष्ट हो गया लेकिन यही नहीं भोजपुर या फिर आरा के नाम से प्रसिद्ध इस जिले में सरकार के हालिया प्रयास से जैन मंदिर, जगदीशपुर किला और अरण्यदेवी मंदिर अब नये पर्यटन स्थल बन कर उभरे हैं, जो कभी उपेक्षित हुआ करते थे.
1764 में लड़ी गई बक्सर की लड़ाई भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में पहली सबसे बड़ी लड़ाई मानी जाती है. यह लड़ाई जिस जगह हुई वह आज भी है और यह पर्यटकों के साथ-साथ इतिहास प्रेमियों के लिए हमेशा पसंदीदा जगह रही. यहां का बक्सर किला अपने समय के गौरव और एतिहासिक घटनाओं का मूक गवाह है. चौसा, बिहारीजी का मंदिर, ब्रह्मेश्वर नाथ मंदिर की राज्य पर्यटन विभाग ने अब जा कर सुध ली है.
मिथिला क्षेत्र के केंद्र स्थल दरभंगा का इतिहास समृद्धी से भरा है. दरभंगा राज की समृद्धी की कथा बयां करता दरभंगा राज किला, रामबाग पैलेश, नरगौना पैलेश मौजूद है. किले की दीवालों की ऊंच्चाई 200 फीट है. बाबा कुशेश्वर धाम, अहिल्या स्थान भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है. मधुश्रावणी और कोजागरा जैसे महोत्सव अपनी सांस्कृतिक विरासत से रूबरू कराते हैं.
बौद्ध और हिंदू धर्मावलंवियों के लिए गया एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है. इसकी वजह से सरकार जिले की तमाम छोटे-बड़े धार्मिक स्थलों को पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया है. बुद्धत्व की प्राप्ती के बाद जब भगवान बुद्ध कुशीनगर की ओर जा रहे थे तो उन्होंने कुछ दिनों तक गोपालगंज में भी विश्राम किया था. गोपालगंज में थावे दुर्गा, भूरी श्रवर आश्रम, घुर्णा कुंड मंदिर भक्तों के आस्था का प्रमुख केंद्र है. थावे में लगने वाला वैशाखी मेला पर्यटकों को खूब आकर्षित करता है.
इसे विरोधाभाष ही कहा जाएगा कि जहानाबाद में स्थित धरउत बौध मठ शांति और अहिंसा का संदेश देता है और वहीं एक दशक पूर्व बाथे जैसे नरसंहार से यह जिला एक बार फिर सुर्खियों में आया था.
प्रसिद्ध लेखक जार्ज आरवेल का जन्म स्थान व महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह की उद्गम स्थली रही मोतीहारी में विश्व का सबसे बड़ा स्तूप केसरिया है जो बरबस ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है.
बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम के निदेशक विनय कुमार कहते हैं, ' पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए हमने हाल में कई नई योजनाएं शुरू की है. इसके तहत ही मौलाना मजहरुल हक, डॉ. राजेंद्र प्रसाद के पैतृक आवास को संग्रहालय के तौर पर नये सिरे से विकसित कर रहे हैं. एशिया के सबसे बड़े पशुमेला सोनपुर मेला में सुविधाएं बढ़ाई गई है. लेकिन हमारा उद्देश्य है कि हम वैसे छोटे-छोटे स्थानों को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करें जिनका एतिहासिक, धार्मिक महत्व रहा है. साथ ही स्थानीय हस्तशिल्प को विश्वफलक पर प्रस्तुत करने के लिए महोत्सव के आयोजन पर भी हमारा ध्यान है. '
पर्यटकों की दृष्टि में कभी अति पिछड़े और असुरक्षित माने जाने वाले राज्य बिहार की फिजा में खामोश बदलाव आया है. इसकी गवाही लगातार बढ़ते विदेशी पर्यटकों की संख्या है. उम्मीद की जा रही है कि आने वाले दिनों में बिहार देश का एक बेहतर टूरिस्ट स्टेट डेस्टीनेशन बन कर उभरेगा.

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

बेतुका एलान

श्रीराजेश
बिहार से आने वाली अधिकांश खबरें सुर्खियां बन जाती है. इन खबरों की सुर्खियां बनने की अलग कहानी है लेकिन एक बार फिर इसकी बानगी जश्न-ए-आज़ादी की 64 वीं वर्षगांठ के अवसर पर भी देखने को मिली. जब सूखे की मार झेल रहे बिहारवासियों को राहत देने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने झंडोत्तोलन समारोह को संबोधित करते हुए पूरे राज्य को सूखाग्रस्त घोषित किया. इसके एक दिन पहले राज्य सरकार ने प्रदेशवासियों के जेहन में देशभक्ति की अलख जगाए रखने के लिए सरकारी वाहनों के रजिस्ट्रेशन नंबर स्वतंत्रता आंदोलन से जु़ड़े वर्षों के अनुसार रखने तथा राजधानी पटना की 112 सड़कों का नामकरण महापुरूषों, शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर करने का फैसला किया है. इन सभी खबरों न केवल राज्य के अख़बारों, खबरियां चैनलों में बल्कि राष्ट्रीय मीडिया में भी अपनी जगह बनायी.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के संबंध में कहा जाता है कि वे कुशल मीडिया प्रबंधक हैं और इसी कुशलता का वे बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं. उनकी हर घोषणाएं राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में हो रहे हैं.
एक तरफ जहां सरकार स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े वर्षों को यादगार बनाने की प्रक्रिया में जुटी है, वहीं दूसरी ओर राज्य के मुंगेर जिले के बहियारपुर थाना क्षेत्र के गोरघट गांव के निवासी व स्वतंत्रता सेनानी गणेश पासवान आज अपने जीवन के उतरार्द्ध में जीवनयापन के लिए बीड़ी बनाने के लिए बाध्य हैं. 91 वर्षीय गणेश पासवान के पास सारे जरूरी कागजात होने के बावजूद उन्हें अब तक पेंशन नहीं मिल रहा. उनकी आंखों में आज भी सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की यादें ताजा हैं. जब गणेश पासवान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से अपनी पेंशन के बावत मिले तो मुख्यमंत्री ने उनकी पेंशन शुरू करने के लिए एक पत्र दिया. भले ही आज तक गणेश पासवान को पेंशन की एक भी किस्त न मिली हो लेकिन मुख्यमंत्री द्वारा उनके पेंशन शुरू किये जाने से संबंधित आदेश भी राज्य की मीडिया में सुर्खियां बनाने में कामयाब रही. लगे हाथों मुख्यमंत्री ने न केवल गणेश पासवान को बल्कि राज्य के तमाम वैसे स्वतंत्रता सेनानी जो किन्हीं कारणों से सरकारी लाभ से वंचित रह गए. उन्हें उनके अधिकारों को दिलाने तथा जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुई संपूर्ण क्रांति के सेनानियों को भी पेंशन देने की घोषणा की थी.
राज्य के राजनीतिक विशलेषकों की माने तो फिलहाल मुख्यमंत्री की सभी घोषणाएं और निर्णय होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर की जा रही है. स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति राज्य सरकार कितनी दायित्वपूर्ण है इसकी बानगी नौ अगस्त को दिल्ली में देखने को मिली, जब राज्य के पांच स्वतंत्रता सेनानियों को स्वंत्रता आंदोलन में उनके संघर्ष के लिए राष्ट्रपति प्रतीभा देवी सिंह पाटील ने नई दिल्ली स्थित बिहार निवास में 'एटहोम समारोह' में सम्मानित किया. समारोह में आए स्वतंत्रता सेनानियों में सीवान के सत्यनारायण साह एवं श्री राम लक्ष्मण सिंह, पूर्वी चम्पारण के युगल सिंह और अरवल के राम एकवाल शर्मा और द्वारिक साव ने बड़े गर्व के साथ अपने संघर्षों की दास्तां सुनायी लेकिन समारोह के बाद राज्य की राजनीतिक व प्रशासनिक दशा-दिशा से दुखी दिखे. उनकी नाराजगी न केवल नीतीश सरकार से थी बल्कि इसके पूर्ववर्ती सरकारों से भी थी. न तो उन्हें यथोचित सरकारी सुविधाएं मिलीं और न हीं उनके सपनों का स्वराज बिहार में अपना मूर्त रूप बना सका.
आरा के जैन कॉलेज के हिंदी विभाग के प्रोफेसर गुरुचरण सिंह सरकार की इन घोषणाओं को महज दिखावा मानते हैं. वह कहते हैं, 'अब स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस सिर्फ रस्म अदायगी का पर्व बन कर रहा गया है. राजनीतिज्ञों की वादा खिलाफी और जनता के प्रति उनकी जवाबदेही के प्रति उदासीनता ने आम लोगों में राजनीति के प्रति विरक्ति का भाव पैदा हो गया है. हालांकि देशवासियों में अपने महापुरुषों, शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति काफी आदर भाव है. लेकिन उनके सपनों को वर्तमान राजनेता साकार करने की दिशा में कुछ करेंगे, ऐसा भरोसा नहीं है.' प्रोफेसर सिंह का कहना है, 'वास्तव में परिस्थितियां ऐसी बन गईं हैं कि राजनेताओं की हर घोषणाएं राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रख कर होती हैं.' उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों मुख्यमंत्री ने विद्यापति यात्रा भी की थी. इसको भी राजनीतिक विशलेषकों ने माना कि मुख्यमंत्री चुनाव को ध्यान में रख कर मैथिलीभाषियों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जो यात्रा की उसका नामकरण मैथिली कवि विद्यापति के नाम पर कर दी.
बिहार विश्वविद्यालय के भोजपुरी के प्रोफेसर डॉ जयकांत जय का कहना है, 'संपूर्ण क्रांति के दौरान सक्रिय लोगों को सेनानी कहना और फिर उन्हें पेंशन देने की राज्य सरकार की घोषणा बेमतलब की बात है. व्यावस्था में अराजकता के खिलाफ संघर्ष करने की तुलना स्वतंत्रता आंदोलन से नहीं की जा सकती. राज्य में बड़े हाई-फाई तरिके से सरकारी खज़ाने का लाभ लेने वाले गिरोह लंबे अर्से से सक्रिय रहे हैं, केवल नीतीश कुमार के कार्यकाल में ही नहीं इसके पहले की सरकारों ने भी जो असली सुविधाओं का अधिकारी हैं, उसे सुविधाएं नहीं दे पायी और कुछ खास गिने-चुने फर्जी लोग लाभ लूट ले गये.' वह फिर कहते हैं,' इस तरह की घोषणाओं से आम लोगों को कोई खास लेना देना नहीं है. वास्तविकता तो यह है कि इन राजनेताओं की अपेक्षा आम जनता अपने स्वतंत्रता सेनानियों और महापुरुषों के महत्व को ज्यादा समझती है और बगैर किसी लाभ की आकांक्षा लिए वह उनके प्रति श्रद्धा रखते हैं. निसंदेह सरकार की यह घोषणा चुनावी रंग में रंगी हुई है. इन घोषणा कर सरकार लोगों का स्वतंत्रता सेनानियों और देशभक्ति की बात कर भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने की कोशिश कर रही है.'
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय मानते हैं कि ये घोषणा केवल चुनावी हथकंडा है और इसमें कोई नई बात नहीं है. ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े है. राय कहते हैं, - 'बिहार के लिए यह वर्ष चुनावी वर्ष है, इस लिए सरकार अपनी ब्रांडिंग करने में लगी है, इसके लिए तरह-तरह की रणनीति अपना रही है. जहां तक स्वतंत्रता सेनानियों के पेंशन की बात है तो यह नई बात नहीं है. 1971 में इंदिरा गांधी ने जब स्वतंत्रता सेनानियों के लिए पेंशन की घोषणा की तो सत्ता में बैठे रसूखदारों की मदद से अधिकांश कांग्रेसियों ने स्वतंत्रता सेनानी के पेंशन का लाभ उठाया, वहीं चीज बिहार में दोहरायी जा रही है. 1974 के आंदोलन के जेपी सेनानियों को राज्य सरकार पेंशन देने की घोषणा करती है तो इससे ज्यादातर जद यू से जुड़े लोग ही लाभान्वित होंगे. गणेश पासवान को पूछने और उनकी खोज-खबर रखने की फुर्सत सरकार के शायद नहीं है.'
(यह आलेख 'द संडे इंडियन' में प्रकाशित हो चुका है)