रविवार, 9 जनवरी 2011

राजनीति का सतीत्व

अंग्रेजों के जमाने से एक कहावत प्रचलित है- "बंगाल जो आज सोचता है, शेष देश कल सोचता है." हालांकि यह कहावत अब सिर्फ शब्दों तक सिमट कर रह गई है लेकिन कहावत में प्रयुक्त राज्य बंगाल का स्थान बिहार के लेने की संभावना की आहट दिखने लगी है. बिहार में पांच साल पुरानी सरकार फिर नये तेवर में वापस आई है. कुछ नया, कुछ बेहतर होने की उम्मीदें बलवती हुई हैं. बिहार- एक पिछड़ा, भदेस, हास्य व व्यंग्य जैसे कुछ ऐसे ही भाव के साथ देखा जाने वाला राज्य राजनीतिक के सतीत्व की रक्षा को आगे बढ़ने का साहस जुटाया है ताकि न केवल बिहार में बल्कि देश की राजनीति का एक "मानक” स्थापित हो सके.

सत्ता में वापसी के तुरंत बाद सरकार ने जब भ्रष्टाचार से जंग छेड़ने की घोषणा की तो यह अन्य राजनीतिक घोषणा की तरह ही लगी, लेकिन कुछ दिन बीते, कुछ सप्ताह बीता और सरकार ने विधायक कोष खत्म करने का एलान कर दिया. राजनीतिक घोषणाओं पर बिहारियों के साथ -साथ देश के लोगों को थोड़ा-थोड़ा भरोसा होने लगा. तभी विधायकों को अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने का सरकारी फरमान जारी हुआ. अब लोगों को लगा कि इस फरमान का दूसरे सरकारी आदेशों की तरह उल्लंघन नहीं होगा. और उम्मीदें सही साबित हुईं. अब तो सूबे के शिक्षक व अन्य सरकारियों ने भी संपत्ति का ब्यौरा देने के सरकारी फरमान का स्वागत करते हुए सहमति दे दी है. नई सुबह की रक्ताभ लालिमायुक्त पहली किरण आशा का संचार करने लगी है.

विधायक कोष का खत्म किया जाना भ्रष्टाचार रोकने की दिशा में भले ही शुरुआती कदम हो लेकिन वजनदार है. इस कोष के बारे में बिहार में यह आम धारणा है कि इसका 20 प्रतिशत रकम विधायक को बैठे-बिठाये मिल जाता है. हालांकि ऐसा नहीं है कि सूबे के सभी विधायक ऐसे ही हैं, कुछ अपवाद भी हैं जो कोष का एक पैसा नहीं लेते. लेकिन उनकी संख्या अंगुली पर गिनने जैसी है. सांसद विधायक कोष की शुरुआत भारत में उदारीकरण वाली अर्थव्यवस्था के प्रणेता नरसिंह राव के शासन काल में हुई. वर्ष 1991-96 में कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में गठबंधन सरकार थी, विश्वासमत के दौरान सरकार बचाने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त हुई, लोकतंत्र शर्मशार हुआ लेकिन सरकार बची रह गई. उसी समय सरकार ने सांसदों को खुश करने के लिए सांसद निधि की शुरुआत की. और इसी का अनुसरण करते हुए राज्यों ने विधायक कोष आवंटित करना शुरू कर दिया. अगल-अलग राज्यों ने अलग-अलग राशि निर्धारित की. बिहार में यह राशि दो करोड़ रुपये सालाना थी. राजनीतिक दलों का आकलन था कि इस कोष से विकासमूलक कार्य होंगे और कार्यकर्ता -समर्थकों की भीड़ उनकी पार्टी के साथ जुड़ेगी लेकिन इन डेढ़ दशक में देखा गया कि समर्थक और कार्यकर्ताओं के बजाय पार्टी व पार्टी के सांसद-विधायकों के जरिये ठेकेदारों की जमात जुड़ गई और जुड़ा भ्रष्टाचार का दागदार संस्कार.

बिहार ने शुरुआत की है, चर्चा पूरे देश में चल पड़ी है. जनता भ्रष्टाचार के कोढ़ से ऊब चुकी है, सीने में इसके खिलाफ आग सुलग रही है, बस इसके भड़कने की देर है. बिहार ने आग भड़काने के लिए हवा दे दी है. और राज्यों पर भी इसी तरह के पहल की दबाव बढ़ने की संभावना दिखने लगी है. जनता के सीने में भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ कैसी आग है इसे जानना हो तो बस उनके सामने भ्रष्ट नेताओं की चर्चा भर छेड़ दें, फिर देखे.

भारत में भ्रष्टाचार किस कदर है, इसका अंदाजा स्वीस बैंक के एक निदेशक के इस कथन से हो जाता है कि स्वीस बैंकों में भारतीयों का 280 लाख करोड़ रुपया जमा है. जाहिर है यह सब कालाधन ही है, जिसे भ्रष्ट तरीके से कमाया गया है और स्वीस बैंक में रखा गया है. यह रकम स्वदेश वापस लाने की कई बार आवाज उठी लेकिन आवाज सिर्फ आवाज बन कर रह गई. यह रकम इतनी बड़ी है कि इससे अगले 30 सालों तक कर रहित बजट बन सकता है, 60 करोड़ भारतीयों को नौकरी मिल सकती है और 60 वर्षों तक प्रत्येक भारतीय को प्रतिमाह 2000 रुपये का नकद भुगतान किया जा सकता है, शायद फिर भी इसमें से कुछ रकम बच जाए. देश के इस परिवेश-माहौल में इस कानून का ईमानदार क्रियान्वयन एक नया माहौल बनायेगा. बिहार में ही नहीं, देश में भ्रष्टाचार, छल, कपट और षड्यंत्र की राजनीति का बोलबाला है. दिल्ली पूरी तरह इसके गिरफ्त में है.शासन या सत्ता, चाहे जिसका हो. इस भ्रष्टाचार के खिलाफ़ बिहार की यह पहल, दुनिया की निगाह खींचेगी. भारतीय राजनीति में सुधार अब दिल्ली से संभव नहीं. अगर एक राज्य में सुधार हुए, तो उसके देशव्यापी असर होंगे. बिहार यह प्रयोगस्थली बन सकता है. शर्त यह है कि इस कोशिश का ईमानदारी से क्रियान्वयन हो.

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