रविवार, 9 जनवरी 2011

शीत संत्रास की जद में लालदुर्ग

बात 1977 के शुरुआती महीने की है. आम चुनाव हो रहे थे और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने थे. माकपा ने तात्कालीन राज्य की कांग्रेस सरकार को तानाशाह के प्रतिनिधि का शासन बताया था. इसके पीछे माकपा का आरोप था कि सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ता विधानसभा चुनाव में माकपा कार्यकर्ताओं के मनोबल को तोड़ने के लिए हिंसा का सहारा ले रहे हैं. कांग्रेस राज्य में राजनीतिक हिंसा को बढ़ावा दे रही है. उल्लेखनीय है कि यह वह दौर था जब इंदिरा गांधी और कांग्रेस के खिलाफ पूरे देश में जनाक्रोश था. चुनावी माहौल था. इंदिरा गांधी द्वारा लगाये गये आपातकाल और उसके बाद लोगों के बीच कांग्रेस के खिलाफ जनाक्रोश ने लगभग यह तय कर दिया था कि सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व वाली कांग्रेस बंगाल की सत्ता से रुख्सत होने जा रही है. कांग्रेसी कार्यकर्ता हाताश थे. इसी हाताशा के क्रम में महानगर कोलकाता के दमदम इलाके में माकपा के जुलूस पर कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने हमला कर दिया. इस हमले ने रही-सही कसर पूरी कर दी. हालांकि कांग्रेस ने इस हमले को स्थानीय "मस्तानों” द्वारा किया गया हमला बताया था. यह जानना जरूरी है कि ये स्थानीय "मस्तान” कांग्रेसी संरक्षण में फल-फूल रहे असमाजिक तत्व थे. इन्हीं हालातों में ेहुए लोकसभा चुनाव में पूरे देश से कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस की शर्मनाक हार हुई और पश्चिम बंगाल में वाम शासन का आगाज हुआ.


आज 35 साल बाद इतिहास खुद को दोहरा रहा है. आज वहीं आरोप माकपा पर लग रहे हैं जो उसने सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए कांग्रेस पर लगाया था. वर्तमान में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की स्थित लचर है. कांग्रेस की जगह उससे अलग हो कर ममता बनर्जी के नेतृत्व बनी तृणमूल कांग्रेस ने ले ली है. ममता का आरोप है कि 35 सालों के शासन में वाममोर्चा ने विपक्ष को पूरी तरह खत्म करने के लिए सुव्यवस्थित ढंग से राजनीतिक हिंसा का संचालन करती रही और अबतक तृणमूल कांग्रेस के 55 हजार कार्यकर्ता राजनीतिक हिंसा के शिकार हुए हैं. वहीं वाममोर्चा के चेयरमैन विमान बोस ने बकायदा कोलकाता में प्रेस कांफ्रेस कर तृणमूल कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए कहा कि 22 हजार माकपा कार्यकर्ता राजनीतिक हिंसा के शिकार हुए हैं और बीते लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक 357 माकपा कार्यकर्ता मारे गये हैं. खैर आरोप-प्रत्यारोपों में दोनों दल राजनीतिक हिंसा में मारे गये अपने-अपने कार्यकर्ताओं की जो संख्या बता रहे हैं, वह भले ही विश्वसनीय न हो, लेकिन एक बात तो तय है कि राज्य की शस्य – श्यामला भूमि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के खून से लाल हो गई है. और उनके खून के छींटे माकपा और तृणमूल पर पड़े हैं.

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का मुद्दा कोई नया नहीं है लेकिन यह मुद्दा राष्ट्रीय फलक पर 2007 में नंदीग्राम की घटना के बाद आया. नंदीग्राम में 14 मार्च, 2007 को दिन के ऊजाले में ‘चप्पल पहने पुलिसवालों’ द्वारा की गई कार्रवाई ने इस तथ्य की बिना किसी शक के पुष्टि कर दी. महात्मा गांधी के पौत्र और राज्य के तत्कालीन राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी ने हालात को ‘शीत संत्रास’ करार दिया था. हिंसा में उबाल की शुरुआत 24 नवंबर, 2010 को उस समय हुई, जब शुनिया चार से खेजुरी-नंदीग्राम पर नाकाम हमला हुआ. करीब दौ सौ हथियारबंद लोगों ने कामारडा गांव में घुस कर बमबारी शुरू कर दी. उनका उद्देश्य तृणमूल समथर्कों को डराना और अपनी खोई जमीन पर नियंत्रण कायम करना था. इसके बाद ममता बनर्जी ने केंद्र पर राज्य की वाममोर्चा सरकार और माकपा के खिलाफ ठोस कदम उठाने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया. वास्तव में बंगाल के वर्तमान राजनीतिक हालात को देखने पर यह साफ लगता है कि माकपा का लाल-दस्ता सलवा जुडूम का माकपाई संस्करण बन गया है. अगर राज्य के जंगल महल और लालगढ़ की ओर ध्यान केंद्रीत करे और वहां के तथ्यों पर नजर दौड़ाये तो स्थित और भयानक नजर आती है. स्थानीय बांग्ला अखबार एक दिन ने अपने 2 सितंबर 2010 के अंक में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इसके अनुसार जंगल महल के झाडग़्राम में 52 शिविर और सात ब्लॉकों में 1620 हथियारबंद कार्यकर्ता जमे हुए हैं. गैर आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार इस इलाके में तकरीबन 90 हर्मद शिविर और 2500 सशस्त्र माकपा के हथियारबंद लाल-दस्ते के सदस्यों के मौजूद होने की सूचना है. हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री पी चिंदबरम के मुताबिक 86 शिविर वहां चल रहे हैं. इसी तरह स्थानीय पत्रकारों के दावों को माने तो लालगढ़ के विद्रोह के पूर्व एक दशक से भी कम समय में 100 से भी अधिक लोगों की माकपाइयों ने हत्या कर दी. फिलहाल इस इलाके पर पुलिस संत्रास विरोधी जनसाधारनेर कमेटी का नियंत्रण है.

चूंकि संयुक्त अर्द्धसैनिक बल वहां तैनात हैं, इसलिए केंद्रीय गृह मंत्रालय को वहां स्थिति पर नजर रखनी पड़ रही है. केंद्रीय खुफिया एजेंसियां हर रोज दिल्ली को स्थिति से बाखबर करती हैं. पूर्व खुफिया अधिकारी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रह चुके राज्यपाल एमके नारायणन भी रोज की प्रगति पर नजर रखे हुए हैं. कई स्रोतों से मिली जानकारी के बाद, चिदंबरम ने 21 दिसंबर को बुद्धदेब भट्टाचार्य को पत्र लिखा: ‘खोई जमीन फिर से हासिल करने की कोशिश में पश्चिमी मिदनापुर जिले में काफी संख्या में सशस्त्र कार्यकर्ताओं की भर्ती और तैनाती की गई है. उन्हें प्रशिक्षित भी किया गया है. इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि हर्मद शिविर आमतौर पर माकपा कार्यालयों एवं माकपा के स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं के घरों में स्थित हैं. यह बड़ी चिंता का विषय है कि कार्यकताओं को हथियारों से लैस किया गया है...’

केंद्रीय गृहमंत्री ने यह भी उल्लेख किया, ‘चुनाव में आगे निकलने के लिए, माकपा और तृणमूल कांग्रेस समर्थकों के बीच झड़पों में बढ़ोतरी हुई है.’ उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, 15 दिसंबर, 2010 तक इन झड़पों में मारे गए और घायल हुए तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं की संख्या क्रमश: 96 एवं 1,237 थी. इसी तरह माकपा के मारे गए एवं घायल कार्यकर्ताओं की संख्या क्रमश: 65 और 773 थी. इन झड़पों में मारे गए एवं घायल कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की संख्या भी क्रमश: 15 एवं 221 थी. ये आंकड़े खतरनाक तस्वीर पेश करते हैं और पश्चिम बंगाल में कानून- व्यवस्था की बिगड़ी हालत की ओर संकेत करते हैं.’ उन्होंने वे महत्वपूर्ण सवाल भी उठाए, जो राज्य के विरोधी दल वर्षों से उठाते रहे हैं: जंगल महल में संयुक्त बलों की तैनाती की आखिर क्या जरूरत है जब माकपा ने कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए हथियारबंद कार्यकर्ताओं को तैनात कर रखा है?

इन हालातों को देखने के बाद यह साफ हो जाता है कि पश्चिम बंगाल देश का इकलौता ऐसा राज्य है जहां पुलिस सत्तारुढ़ दल काडर के रूप में कार्य करती है. हालांकि लोकसभा चुनाव व स्थानीय निकायों के चुनाव में मिली करारी हार के बाद माकपा ने आत्ममंथन किया और इस नतीजे पर पहुंची कि उसने अपने द्वारा लगायी आग में ही अपना घर जला लिया है. माकपा के कई दिग्गज इस बार हार की आशंका को देखते हुए पार्टी आलाकमान से चुनाव लड़ने में असमर्थता जता दी है. नया चेहरा तलाशने में भी माकपा को मशक्कत करनी पड़ रही है. यह इस बात का संकेत है कि राज्य में लालदुर्ग में दरार पड़ गई है और वह इस बार के चुनाव में ढह सकता है. पूरे हालात को देखते हुए 70 के दशक में बांग्ला कवि नवारूण भट्टाचार्य द्वारा लिखी कविता कि पक्ति ‘एई मृत्यु उपत्यका आमार देश ना/ एई रक्तस्नातो कसाईखाना आमार देश ना' आज और ज्यादा प्रासंगिक हो उठी है.

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