शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

खो गई लालू की लालिमा!

बिहार और लालू. एक समय में दोनों एक दूसरे के पर्याय माने जाते थे. प्रदेश की राजनीति में बादशाहत कायम करने वाले मसखरे-से भदेस नेता लालू प्रसाद यादव अब खामोश हैं. बीते विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी की हुई जबरदस्त हार ने उन्हें हरिनाम याद दिला दिया है. बड़बोले लालू के मुंह बोल फूटते नहीं सुना जा रहा. इसे बिहारी राजनीति में दंबई के सूरज का डूबना माना जाता है. इस पराजय ने लालू की बड़बोलेपन पर ब्रेक ही नहीं लगाया है बल्कि उनके द्वंद को भी बढ़ा दिया है कि वे अपनी मसखरेपन वाली छवि को त्यागे या फिर "परिपक्व" राजनेता की तरह फिर से उठ खड़े हों. दोराहे पर खड़े लालू की यह सोच रही है कि गंवई अंदाज उन्हें जनता से सीधे जोड़ती है, वहीं उन्हें एक अ-गंभीर नेता के रूप में प्रस्तुत करती है.

सिर्फ राजद ही नहीं बल्कि सूबे में यह फुसफुसाहट स्वर लेने लगी है कि अब लालू युग का अंत हो रहा है. इस युगांत की सुगबुगाहट लालू की लालिमा को धूमिल करने के क्रम में है और इसे वे भी बखूबी समझने लगे हैं. बेटे तेजस्वनी को राजनीति के फलक पर ला कर अगली पीढ़ी में अपनी पहुंच बनाने की योजना पर लालू ने वैसे ही सोच को सामने रखा जैसा कि राबड़ी के समय में सोचा था. लेकिन वो समय और था - अब का समय कुछ और. सूबे की राजनीति आरंभ से ही "क्रानी पॉलिटिक्स” की रही है. इसकी जटिलता की उलझन में लालू ने अपने लिए दो दशक पहले डोर का सिरा ढूंढ़ लिया था. लेकिन डोर आखिर बगैर सुलझाये कितना खींचा जा सकता है, अंततः वह इस विधानसभा चुनाव में टूट गया. यूं तो 15 वीं लोकसभा चुनाव में ही डोर के कमजोर होने का अंदेशा हो गया था लेकिन लालू ने इस चुनावी वैतरणी को भी इसी के सहारे पार लगाने की कोशिश की जो नाकाम रही. उनके बयानों पर गौर करें - लालू ने पहले तो यह कहा कि अब कोई सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बन सकता तो फिर कुछ दिनों बाद सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देने की बात कहकर उन्होंने खुद को हंसी का पात्र बना दिया. इसी तरह छात्रों को साइकिल की जगह मोटरसाइकिल का लॉलीपॉप देकर भी वे खुद को उपहास का पात्र बना रहे थे. इस तरह के बयान उनकी अकुलाहट और अ-गांभीर्यता को परिलक्षित करता है. आजादी के बाद की राजनीति अब अपने परिपक्वता की ओर अग्रसर है और बिहारी जनमानस इस तरह के बयानों को पचा नहीं पा रहा. लालू प्रसाद के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वाकई वे भविष्य में बिहार की राजनीति में अपने को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए ऐसा करने का साहस जुटा पाएंगे? शायद नहीं. दरअसल, लालू को इसका एहसास पहले से ही हो गया था कि इस चुनाव में वे बुरी तरह परास्त होने वाले हैं, इसलिए उन्होंने अपने बेटे तेजस्वी को राजनीति के मैदान में उतार दिया ताकि पांच साल के बाद दूसरी पीढ़ी कमान संभालने के लिए तैयार हो. 1997 में भी लालू प्रसाद ने तब ऐसा ही किया था जब वे चारा घोटाले में नाम आने की वजह से सत्ता छोड़ने वाले थे. तब उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का राजकाज सौंप दिया. फलस्वरूप 1990 में पिछड़ों की राजनीति और सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर उभरा बिहार का सबसे कद्दावर और करिश्माई नेता धीरे-धीरे अपनी चमक खोने लगा.

उनके जीवन में तीन ऐसे पड़ाव आए जहां से लालू की राजनीति का मर्सिया गाया जाने लगा. पहला पड़ाव, जब लालू प्रसाद का नाम चारा घोटाले में आया. फिर दूसरा पड़ाव जब उन्होंने सत्ता राबड़ी देवी को सौंप दी और फिर तीसरी व अंतिम गलती कि 2005 के चुनाव में परास्त होने के बाद भी सबक न ले सके, अपनी असलियत को नकारते रहे. वास्तव में लालू बिहार में सवर्णों की जकड़न से तंग लोगों की आकांक्षा के तौर पर उभरे नेता थे लेकिन बिहार की सत्ता मिलने के बाद पहले तो उन्होंने खुद को सरकार का मुखिया समझा, फिर खुद को सरकार समझने लगे और आखिरी दौर वह भी आया जब लालू खुद को ही बिहार भी समझने लगे. उनके गुरूर ने उन्हें नायक से अधिनायक बना दिया, जो उन्हें विनाश के इस मुहाने तक ले आया. अगर लालू की राजनीतिक के अतीत और वर्तमान पर नजर दौड़ाएं तो उनकी राजनीति ने अचानक ही यू-टर्न नहीं लिया है. लालू की सबसे बड़ी कमजोरी रही कि वे अपने कार्यकर्ताओं से कभी नजदीकी रिश्ता नहीं बना सके. पूरे सूबे की तो बात छोड़िये, अपने गृह जिले गोपालगंज में भी लालू की पकड़ अब इतनी नहीं रही कि वह छह में से एक भी सीट अपनी पार्टी को दिलवा सके. इस चुनाव में उन्हें अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक नुकसान हुआ है. इसका कारण है कि लालू का "माय" यानी मुसलिम-यादव समीकरण तो पहले ही ध्वस्त हो चुका था, इस बार बड़े पैमाने पर इनके खेमे से यादवी आधार भी खिसका है, वरना कोई कारण नहीं कि 12-13 प्रतिशत आबादी वाले यादव जाति का वोट यदि एकमुश्त लालू के खाते में जाता तो इतनी बुरी हार नहीं होती. वास्तव में जातीय राजनीति का यह सिद्धांत है कि अकेले कोई जाति किसी एक नेता के साथ बहुत दिनों तक नहीं रह सकती. यादव लालू प्रसाद के साथ तभी रहेंगे जब और पिछड़ी जातियां उनके साथ हों. दूसरी पिछड़ी जातियों में आधार खिसकेगा तो यादव भी उनके साथ नहीं रह सकते. ताजा राजनीतिक माहौल में लालू के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है. तीन साल के पहले उन्हें खुद को साबित करने का कोई दूसरा अवसर नहीं आने वाला. 2014 में लोकसभा का चुनाव होगा, तब तक लालू को अपनी नीतियों की समीक्षा करने और सूबे के गांव-गांव तक फिर से अपनी पैठ बनानी होगी. बढ़ती उम्र के साथ उनके सामने नीतीश की खामियों को उजागर करने की भी चुनौती होगी, वरना हरिनाम के जाप के अलावा और कोई और विकल्प नहीं है.

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