मंगलवार, 4 नवंबर 2014

कामरेड, आपको याद हैं ईएमएस नंबूदरीपाद?


देश विरासतों के बदलने के दौर से गुजर रहा है। महात्मा गांधी और सरकार बल्लभ भाई पटेल घोषित तौर से कांग्रेस की विरासत थे। और स्वयं कांग्रेस को ही महात्मा गांधी के विरासत के तौर पर देखा जाता है। लेकिन बीते एक महीने में पूरे देश ने देखा है कि कैसे ये विरासती शख्यितें राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में परिवर्तित हुई है। अब अगला नंबर देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का है। केंद्र की भाजपा सरकार 14 नवंबर को राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान के तौर मनाने जा रही है। अब तक नेहरू की जयंती 14 नवंबर को बालदिवस के रूप में मनाया जाता रहा है। अगर देखें तो भाजपा नीत केंद्र की सरकार को नेपथ्य के पीछे से आरएसएस का समर्थन, मार्गदर्शन और निर्देश मिलता रहा है। और आरएसएस यह अच्छी तरह जानता है कि यह देश प्रतीकों के प्रति समर्पण वाला देश है और वह इसी दिशा में बढ़ रहा है। ठीक, ऐसी स्थिति में जब देश में दक्षिणपंथी राजनीति उभार पर है तो वहीं वामपंथ ढलान की तरफ है, जो स्वाभाविक है। इसके पीछे के कारणों की विवेचना का यह वक्त भी सही है। कभी देश की राजनीति को प्रभावित करने की माद्दा रखने वाली वामपंथी दल अब सिमटते जा रहे हैं और वह भी लगातार। जो भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने प्रतीकों को व्यापकता देने के साथ ही दूसरे के पाले की विरासतों को भी राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में सामने लाने में लगी है, वहीं वामपंथी पार्टियों ने अपने प्रतीकों को ही हाशिये पर डाल रखा है। संभवत: अब किसी को ठीक से याद भी नहीं होगा कि पहली लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार ईएमएस नंबूदरीपाद ने बनाई थी और वह देश के पहले गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री भी थे। इस वर्ष 8 जुलाई को ज्योति बसु जैसे दिग्गज वामपंथी नेता का सौवां जन्मदिन गुजर गया और किसी को ठीक से खबर तक न हुई! इंद्रजीत गुप्त और गीता मुखर्जी जैसे वामपंथी सांसद को भुला ही दिया गया है। क्या कम्युनिस्ट पार्टियों को अपने इन नेताओं को याद नहीं करना चाहिए और उनके योगदान को देश के सामने नहीं लाना चाहिए। देश की आजादी और लोकतंत्र के 68 साल हो गये हैं लेकिन वामपंथी पार्टियां अब तक अपने को भारतीय नहीं बना सकी है। वे भारतीय मानकों के अनुरूप खुद को नहीं ढाल सकी हैं। मार्क्स ने भले ही धर्म को अफीम बताया था, लेकिन भारत में धर्म जीवनशैली का हिस्सा है। धर्म का शिक्षा और ज्ञान से कुछ लेना देना नहीं है। अंध भक्ति, अंधविश्वास, कट्टरता, धर्मांधता आदि से अलग एक उदारवादी भारतीय चेहरा भी है, जो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरिजाघर और सूफी संतों की मजारों में जाता है, व्रत रखता है और सोच में प्रगतिशील है। वह उत्सवधर्मी भी है, जिसकी झलक पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा के समय दिखाई देती रही है, जहां तीन दशक तक माकपा की सरकार रही। ऐसे समय जब धर्म को लेकर संकुचित तरीके से माहौल बनाया जा रहा है, वामपंथी पार्टियां चुप बैठी हैं। उन्हें धर्म को लेकर असमंजस से निकलना पड़ेगा। इस देश को उस धर्म की जरूरत है, जिसकी पैरवी एक अन्य नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) ने सौ साल पहले की थी। वामपंथी दलों को कांग्रेस के साथ अपने रिश्ते को लेकर स्पष्ट होना चाहिए। वे कांग्रेस के साथ रहेंगी, या उसे समर्थन देंगी या उससे अलग चलेंगी? कांग्रेस के साथ अब तक उनकी राजनीति सुविधा की राजनीति थी, लेकिन बदली परिस्थितियों में उन्हें अपना नजरिया बदलना होगा। इसी तरह उन्हें मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, मायावती और अन्नाद्रमुक तथा द्रमुक को लेकर अपना नजरिया स्पष्ट करना चाहिए। मायावती और जयललिता पर लगाए गए उनके दांव सिरे ही नहीं चढ़ सके थे, इसलिए उन्हें संभावित सहयोगियों को लेकर स्पष्ट होना चाहिए।

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

त्रिलोकपुरी: कराहती है मेरी रूह


मुझे स्लम बस्ती कहते हैं लोग। मुझे तनिक भी एतराज नहीं। बल्कि गर्व होता है। अगल-बगल मयूर विहार फेज 1 और फेज 2 है। पॉश कालोनी है। लेकिन जितने लोग मेरे यहां रहते हैं, उसकी एक चौथाई भी वहां नहीं। मैं हाड़-मांस की तो नहीं लेकिन आत्मा मेरी भी है, जो खिलखिलाती है, जज्बाती होती है, खुश होती है- दुख का एहसास भी करती है, कराहती भी है। तीन दशक बाद फिर मैं लहुलुहान हुई। हालांकि मेरे यहां रहने वाले गरीब तो हैं, उनकी जेबे खाली जरूर रहती हैं लेकिन मन में एक दूसरे के प्रति सम्मान और श्रद्धा दोनों ही भरपुर होती है, लेकिन कभी-कभी कुछ बहकावे में आकर बहक जाते हैं और फिर मुझे छलनी कर देते हैं। आप मुझे तो पहचानते ही होंगे। दिवाली के बाद से मैं काफी सुर्खियों में हूं। मैं त्रिलोकपुरी हूं। मेरी गलियां कुछ शरारती तत्वों के फेंके पत्थरों से भरी पड़ी है, मेरी काया पर इसके निशान आपको मिल जाएंगे। इन्हें नियंत्रित करने के लिए पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों ने कई बार फ्लैग -मार्च किया। उनकी बूटों की आवाजें पूरे इलाके में गूंजी तो उसके निशान भी इन पत्थरों के घावों के निशान के साथ जज्ब हो गये। पहले निषेधाज्ञा से जकड़ने की कोशिश की गई फिर कर्फ्यू। लेकिन ये सभी जो आज टेलीविजन चैनलों पर यहां शांति की बातें करते हैं, वे इस संक्रमण काल में कहां थे? किसी ने मेरी खैर नहीं ली। आम जुमलों में लोग फिल्मी संवाद की नकल कर कहते हैं कि- ‘ठाकुर ने हिजड़ों की फौज बनाई है।’ लेकिन मुझे मेरे किन्नर संतानों पर गर्व है। जब बलवाई तलवार-गड़ासे-बंदूक और पत्थरों को लेकर आगे बढ़ रहे थे, तो सभी जान बचाने के लिए इधर -उधर हो गये, लेकिन किन्नर लैला शॉ इन बलवाइयों के सामने डट गई, तो बड़ा खतरा टल गया। इसी तरह 1984 में आज के दिन ही जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी, छठ का पर्व था। मेरी हिंदू संताने घाटों पर उगते सूर्य को अर्घ्य दे कर लौटी थी और अपने मुस्लिम भाइयों के साथ प्रसाद बांट रहे थे। तभी अचानक से एक हरकारा मचा- सिखों ने इंदिरा को मार दिया। फिर क्या था? सभी हिंदू-और मुस्लिम अपने ही सिख भाइयों के जान के दुश्मन बन बैठे। मैं इन्हें अपने आगोश में ले छिपा लेना चाहती थी, लेकिन उसके पहले कई सिख बच्चे जान गंवा बैठे थे। आतताइयों ने कई को मौत के घात उतार दिये थे। उस समय भी गलियां पत्थरों से पट गई थी। पुलिस वाले की बूटे उस समय भी मुझे खूब रौंदी। उस घटना को याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मैं आज फिर उसी दौर में आ गई। पीढ़ियां बदल गई- लेकिन हालात जस के तस।। कर्फ्यू में ढील दी गई। छठ मनाने के लिए- मैने देखा, किसी की कही नहीं सुन रही- अपनी आंखों से देखा कैसे मुस्लिम परिवार छठ घाट पर अपने पड़ोसी हिंदूओं के साथ मौजूद थे। हां, थोड़े सहमे से थे लेकिन हिंदूओं से नहीं बल्कि बलवाइयों। ये बलवाई न हिंदू होते हैं, ना मुस्लिम। ये तो बस बलवाई है- जो बहकते है-नेताओं के बहकावे से। अभी दिल्ली में चुनाव होने की संभावना है। सभी अपनी जुगत बैठा रहे हैं- भले ही किसी की जान जाए- किसी की रुह फना होती है तो हो... अब थोड़ा सकून है तो नेता इस काली घटना के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार बता रहे हैं। लेकिन मुझे जो घाव मिले हैं, उसका क्या? इन घावों को देने वाले क्या सजा के हकदार नहीं, अगर है तो कब होगा मेरे साथ न्याय?

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

उत्स स्वतंत्रता का या उन्मुक्तता का?


22 अगस्त, 2014 की आधी रात को एक राष्ट्रीय खबरियां चैनल पर फिल्म अभिनेता धर्मेंद्र का इंटव्यू आ रहा था. वैसे इस 22 अगस्त 2014 और 14-15 अगस्त 1947 की दरम्यानी रात के बीच कोई संबंध ना होते हुए भी धर्मेंद्र के चेहरे पर रह – रह कर उभरती पीड़ा एक अनजाने संबंध की लकीर खींच रही थी. जब उनसे पूछा गया कि आप ने विभाजन भी देखा है और उस दौर के कत्लेआम भी देखी है, पंजाब सबसे ज्यादा पीड़ित था, उन दिनों को कैसे याद करते हैं? धर्मेंद्र के शब्द नहीं उनके चेहरे पर उभरी पीड़ा दर्शकों को इसका जवाब दे रही थी. सच, इसका जवाब शायद शब्द में नहीं व्यक्त किये जा सकते थे. इसी तरह जब उन्होंने बताया कि ब्रितानी हुकुमत में उनके पिता स्कूल मास्टर थे और उनकी मां उन्हें खादी पहना कर हाथ में तिरंगा ले कर स्कूल भेजती थी, तो पिता उनकी मां से कहते कि एक दिन तुम मेरी नौकरी ले लोगी, तब उनकी मां कहती कि आपकी नौकरी जाये तो जाये लेकिन मैं तो इसे इसी तरह स्कूल भेजूंगी. यह बात कहते हुए धर्मेंद्र के चहरे पर जो गर्व था वह गर्व भी शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता. और वहीं धर्मेंद्र जब 2004 में संसद पहुंचते हैं तो तमाम पीड़ाओं के बाद संसद में सवाल उठाने के लिए वह अनुकूल माहौल नहीं पाते और खुद को राजनीति से दूर कर लेते हैं. धर्मेंद्र ने रुपहले पर्दे पर भले ही कई किरदार निभाया हो लेकिन उन सभी किरदारों पर उनका निजी जीवन का किरदार भारी पड़ा और जीया, भोगा, खोया, पाया जीवन स्तब्ध सा रहने को मजबूर दिखा, शायद सच्चे भारतीय का किरदार ऐसा ही हो गया है. समय कतरा-कतरा बीता है, बदला है. आजादी के मायने भी बदले हैं. आम भारतीयों कि निःशब्द आवाज को सुनने में शायद यह संसद अब अपनी सक्षमता खोने लगी है, व्याप्त अराजक राजनीति के उद्घोष के बीच, तभी तो संसद सवालों के घेर में आ रही है, न्यायपालिका पर भी उंगली उठने लगी है. महज 67 साल की आजादी के बाद ही वह सवाल गौण हो चले हैं जो सालों साल तक किसी देश को जिन्दा रखने के लिये काम करते हैं. पहले स्वतंत्रा दिवस पर जब देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने लालकिले के प्राचीर से अपने पहले भाषण में नागरिक का फर्ज सूबा, प्रांत, प्रदेश, भाषा, संप्रदाय, जाति से ऊपर मुल्क रखने की सलाह दी. और जनता को चेताया कि डर से बडा गुनाह कुछ भी नहीं है. वहीं 15 अगस्त 1947 को कोलकत्ता के बेलियाघाट में अंधेरे कमरे में बैठे महात्मा गांधी ने गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को यह कहकर लौटा दिया कि अंधेरे को रोशनी से दूर कर आजादी के जश्न का वक्त अभी नहीं आया है. ठीक 67 साल बाद जब देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी भी लालकिले के प्राचीर से देश को संबोधित करते हैं तो वह भी देश को वहीं सलाह देते है, लेकिन 2014 में कही कोई गांधी नहीं है जो यह कह सके कि जश्न का वक्त अभी नहीं आया है. लेकिन जश्न है- लेकिन कैसा? इन 67 सालों में देश को सामाजिक सांस्कृतिक तौर पर ना सजाया गया, ना संवारा जा सका और ना ही इसे पूर्ण रूप से स्वावलंबी बनाया जा सका, धीरे-धीरे बाजार देश और देशभक्ति पर तारी होता गया. ना 1947 में कांग्रेस के पास देश के लिए स्पष्ट राजनीतिक सोच थी और ना 2013 के कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर कोई राजनीतिक विचार से देश अवगत हो पाया, तो क्या 66 सालों तक यह देश बगैर किसी राजनीतिक दिशा के चलता रहा? यह सोच का विषय है. शायद इसी का नतीजा था कि स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लालकिला के प्राचीर से देश को संबोधित करने वाले प्रधानमंत्रियों पर देश नजरें टिकाये रखता था कि किसी खास राजनीतिक सोच के तहत घोषणाएं होगी, होती भी रही, कितनी घोषणाएं हकीकत में बदली यह अलग बात है, लेकिन इन घोषणाओं के नशे में हम भारतीय घुत्त होने के आदी हो गये, यह जानते हुए कि शायद इसका दसांश भी पूरा हो. नरेंद्र मोदी से भी देश को ऐसी ही अपेक्षाएं थी, फिर नशे की एक और डोज की. मोदी ने अपेक्षाओं को पूरा भी किया लेकिन इस नशे का फ्लेवर कुछ दूसरा था, घोषणाएं कम लेकिन देश का स्वच्छ – सांस्कारिक बनाने का नशा. लेकिन यह संतोषजनक तो है इस नशे से लाभ ना हो तो ना हो लेकिन हानि की गुंजाइश नहीं है. हर राजनीतिक विचारधारा राजनीतिक सत्ता के लिए जद्दोजहद करती है और इससे निकले संदेश उसे अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करती है लेकिन पहली बार ऐसा हुआ है जब कोई प्रधानमंत्री सीधे-सीधे नैतिक जिम्मेवारियों का विकेंद्रिकरण कर रहा है. अब तक ये जिम्मेवारियां सत्ता प्रतिष्ठान तक खींच कर केंद्रित कर दी गई थी. भले ही विरोधियों को सत्तारुढ़ दल पर निशाना साधने का अस्त्र मिल गया हो लेकिन देश को एक कर्णप्रिय भाषण और उनींदी सपनों का सच के करीब होने का आभाष लगने लगा है, यह आभाष और आशा ही तो जीवन की डोर है. आइये एक फिर उम्मीद बांधते हैं, स्वावलंबी होने का, आजादी के सही उत्स को मनाने का, समाज-संस्कृति को बचाये रखने का, आगे बढ़ने और बेहतर भविष्य का, नई पीढ़ी के उन्मुक्त उड़ान का. हो सकता है इसमें त्रुटियां हो और हम फिर संभले. महात्मा गांधी की वह बात याद आ जाती है जब वह कहते हैं कि - ‘यदि ग़लती करने की आज़ादी नहीं है - तो मुझे ऐसी आज़ादी चाहिए ही नहीं.’ हमें बल देता है.

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

‘प्रतिशोध बम’ तो नहीं नटवर की किताब?


- श्रीराजेश- जब गड़े मुर्दे उखड़ते हैं, तो कब्र की मिट्टी में दरार आए बगैर नहीं रह सकती। खांटी कांग्रेसी और इंदिरा गांधी या कहें कि पूरे गांधी परिवार के करीबी रहे नटवर सिंह की किताब 'वन लाइफ इज नॉट इनफ' तो सात अगस्त को लांच होगी, लेकिन इसके पहले ही इसने कांग्रेस के शाही परिवार खासकर सोनिया गांधी की राजनीतिक साख पर बट्टा लगा दिया है। राजनीति में साख से बड़ी कोई चीज नहीं होती, और यही साख औरा बनाता है। कांग्रेस का भी सारा दारोमदार इसी गांधी परिवार के औरा पर टिका है, वर्ना यह किसी क्षेत्रीय दल के समतुल्य होकर कब का सिमट गया होता। बीते दिनों मीडिया में खबरें आई थीं कि सोनिया और प्रियंका नटवर से मिलने गई थीं। इसे बस शिष्टाचार वाली मुलाकात करार दी गई। लेकिन यह समझते देर नहीं लगी कि नटवर की आने वाली किताब कांग्रेस और सोनिया की साख को भरभरा कर गिरने पर मजबूर कर देगा। अभी किताब आई नहीं है, लेकिन इसके पहले मुखर होकर नटवर सिंह द्वारा मीडिया को दिये बयान व साक्षात्कार में जिस तरह के खुलासे किये जा रहे हैं वह बताते हैं कि कांग्रेस में उनके साथ जो हुआ कहीं वह उसका अपनी किताब के जरिये प्रतिशोध तो नहीं ले रहे। वैसे अपनी किताब में नटवर सिंह ने जिस प्रकार सोनिया गांधी के त्याग के पीछे राहुल गांधी को मां की मौत का खौफ होने की बात कही है, उसने गांधी परिवार के उस औरे को भी खत्म किया है जिसके भरोसे कांग्रेस हमेशा से खड़ी रही है और कांग्रेस की उस राजनिति में भी सेंध लगा दी है जो बीते एक दशक से तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं की तुलना में सोनिया गांधी को श्रेष्ठ बताता है। हालांकि नटवर की किताब में लिखी कई बातों पर सोनिया गांधी आपत्ति भी जता चुकी हैं। सोनिया खुद भी सच्चाई सामने लाने के लिए अपनी किताब लिखने की बात कही है। यह दीगर बात है कि सोनिया वास्तव में किताब लिखेंगी या नहीं और लिखेंगी तो कौन-सा रहस्य है जिसे वे किताब के जरिये ही उजागर करेंगी। दरअसल, सवाल यह नहीं है कि सोनिया किन बातों का किताब लिखकर उत्तर देंगी या फिर नए रहस्य पर से पर्दा उठायेंगी? सवाल यह उठता है कि कभी कांग्रेस के वफादारों में गिने जाने वाले नटवर आखिर सोनिया गांधी के खिलाफ इतने सख्त क्यों हो गए और उन्होंने अपनी आत्मकथा जारी करने के लिए यही वक्त क्यों चुना? इसे समझने के लिए कुछ अतीत को टटोलना जरूरी हो जाता है। कभी शरद पवार जैसे नेता सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से नाता तोड़ अलग एनसीपी बना लेते हैं, तो कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए कभी जितेंद्र प्रसाद ताल ठोकते हैं। बावजूद इसके बाद के दिनों में इन सबकी सोनिया या कहे गांधी परिवार से संबंध फिर पटरी पर आ जाते हैं, लेकिन अनाज के बदले तेल घोटाले में विदेशमंत्री के पद से हटाये जाने और फिर पार्टी से बड़ी बेरुखी से किनारा कर दिये जाने वाले नटवर सिंह को गांधी परिवार ने कभी घास नहीं डाला और फिर नटवर की कांग्रेस में वापसी नहीं हो सकी। वर्ष 2005 में बोल्कर कमेटी ने आनाज के बदले तेल घोटाले में जब अपनी रिपोर्ट रखी तो उसमें नटवर सिंह और उनके बेटे का नाम आया। इराक के तत्कालीन शासक सद्दाम हुसैन से नटवर सिंह द्वारा तेल का कूपन लेकर धन कमाने और अपने रिश्तेदारों को कमाने देने का आरोप लगा था और घोटाले का मुख्य सूत्रधार उनके बेटे को ठहराया गया था। इस रिपोर्ट के आने के बाद नटवर सिंह को विदेशमंत्री का पद छोड़ना पड़ा था और फिर तीन साल बाद 2008 में कांग्रेस भी छोड़ना पड़ा। बाद के दिनों में इस घोटाले की जांच करने वाली पाठक समिति ने अपनी रिपोर्ट में नटवर सिंह को क्लीन चिट देते हुए बरी कर दिया, बावजूद इसके कांग्रेस के पुराने वफादार की फिर पार्टी में एंट्री नहीं हो सकी। एक समय था जब सोनिया के वफादारों में पहले नंबर पर गिने जाने वाले नटवर सिंह को गांधी परिवार में कई विशेषाधिकार प्राप्त थे। कांग्रेस नेताओं में वे अकेले थे जो सोनिया का नाम लेकर उनसे बात किया करते थे। 2004 में सोनिया के प्रधानमंत्री न बनने की स्थिति देखते हुए नटवर सिंह खुद को प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार के रूप में देखने लगे थे। इसका खुलासा दस जनपथ के करीबी रहे माखनलाल फोतेदार के सामने पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने भी किया था। तब भी यह मुद्दा मीडिया में आया था, लेकिन यह मुख्य सुर्खियां नहीं बन सकी थी। नटवर मान रहे थे कि सुरक्षा आशंकाओं के चलते और पारिवारिक दबाव के बाद शायद सोनिया गांधी प्रधानमंत्री न बनकर अपने किसी भरोसेमंद को यह जिम्मेदारी भी दे सकती हैं। इस वक्त वफादारों में नटवर सिंह सबसे आगे थे। यह घटना 2004 के लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद की है जब कांग्रेस के नेतृत्व में धर्मनिरपेक्ष दलों की संभावित सरकार के गठन के लिए कांग्रेस के नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह से मदद मांगने गए थे। वहीं नटवर ने ऐसी शंका जताई थी तब माखनलाल फोतेदार ने बाहर आकर नटवर से उनकी इस बात के लिए नाराजगी भी जाहिर की थी। नटवर सिंह की यही बात कांग्रेस के दूसरे वफादारों ने सोनिया गांधी को बता दी थी। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने प्रेस को दिए एक बयान में इसकी पुष्टि की थी। नटवर सिंह की यह इच्छा सोनिया गांधी को परेशान कर गई और इस घटना के बाद ही नटवर सिंह कांग्रेस में हासिए पर आ गए थे। हो सकता है कि नटवर अपनी किताब में ढंके-छिपे रूप में सही इस घटना का उल्लेख किया हो, इस बात का तो सात अगस्त के बाद ही पता लग पाएगा। लेकिन पूरे मामले को इस परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है कि कहीं यह किताब प्रतिशोध की भावना से तो नहीं लिखी गई है। हालांकि एक बात तो तय है कि नटवर के इस बुक बम ने कांग्रेस के आधार को हिला रखा है। जिस कांग्रेस की एक ही धूरी गांधी परिवार पर आश्रित है और जो सोनिया का त्याग और बलिदान का औरा था वह भरभराने के बाद क्या उसे राहुल गांधी किसी तरह लीपपोत कर फिर से कांग्रेस को उस पुरानी स्थिति में ला पाएंगे या फिर कांग्रेसियों की उम्मीद का एकमात्र सहारा प्रियंका होगी? इस तरह के कई सवाल खड़े हो रहे हैं और होंगे लेकिन क्या इनके उत्तर भी इतनी ही आसानी से उपलब्ध हो पाएंगे? (दैनिक ‘अर्ली मॉर्निंग में प्रकाशित’)

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

सफेदी की तलाश


अबहियों सिरामन बाबा पर गान्ही जी से मुलाकात का दौरा चढ़ जाता है। आजादी से 24 साल बड़े सिरामन बाबा, गांव की चौहदी लांघने की कोई मशक्कत नहीं करते। पहिले तो नहीं, लेकिन अब अखबार सिरामन बाबा को मिल जाता है। आंख की रोशनी पूरा साथ नहीं देती, चश्मा का सहारा इस बुढ़ापे में बड़ा सुघर लगता है। पढ़ा कि दिल्ली सहित कई शहरों पर आबादी का बोझ बढ़ रहा है। यह पढ़ते ही बाबा के झुर्रीदार ललाट पर पसीने छलछलाने लगे, गेहूंआ रंग अब लाल होने लगा था। अखबार ताखा पर पटका और दूकच्छी धोती घुटते हुए,नंगे पांव एक हाथ में घास छीलनी खुरपी और दूसरे में बांस की कोइन की छड़ी लिए उठ खड़े होते हैं। सावन का बदरकट्टू दिन, उमस की तासीर और बरखा की उम्मीद, तिस पर उम्र का तकाजा। कुल मिला कर सिरामन बाबा आंय-बांय-शांय करते दुआर से बड़ी तेजी से कांपते, हांफते, सरसराते बधार की ओर दौड़ते हैं। तभी गांव की गोड़िन लछमिया टोक देती है- बाबा, पांय लागी। सिरामन काका- तरस-करुणा भाव से एकटक देखते हैं लछमिया की ओर, लेकिन उनके मुंह से बोल नहीं फूंटते। तनिक ठिठकते हैं, फिर पूछ बैठते हैं। सुराजी, का कवनो खबर आया है का? दिल्लीये में हैं ना? लछमिया स्तब्ध हो जाती है- सोचती है, का हुआ बाबा को। कबो पयलगी करने पर- जय,जय कहना नहीं भूलते। आज इसके बजाय सुराजी के बारे में काहे पूछ रहे हैं। मन में बेचनी हुलेर मारने लगती है। बाभन और देव की जुबान- राम, सब कुछ ठीके-ठाक हो। आशंका के भाव लछमिया के चेहरे पर घुंघट के भीतर छाप छोड़ रही थी। अब रहा नहीं जा रहा था। सिरामन बाबा उससे कवनो ठिठोली तो करेंगे नहीं। गांव के रिश्ते से बहुरिया जो उनकी है। ओइसे भी सिरामन बाबा टोला -मोहल्ला के बड़े बुजुर्ग हैं और उनका व्यवहार भी उसी तरह होता है, वात्सल्य भाव से ओत-प्रोत। खैर, लछमिया घर जा के डोमा के मोबाइल से फोन कर लेगी, सुराजी को। मां की ममता है- बेटा सकुशल हो, खबर मिल जाए। अउर का चाहिए। तबो लछमिया बात को घुमाने के लिए बोली- बाबा चाय पी लिजिए, बनी है, ठंडी हो जाएगी। बाबा भड़क उठते हैं- तोहके चाय के ठंडी होने की चिंता है, इहा सवसे देश ठंड पड़ा जा रहा है। इसकी फिकर किसी को नहीं है। रत्ती भर परवाह तो कर। बाकिर तू का समझेगी ई सब बात। ना तो तू इतनी पढ़ी-लिखी है, ना तू गान्ही बाबा के जमाने को देखी है। ठीक है, तू चाय पी। हम आते हैं। बाबा फिर उसी तेजी से बधार की ओर रुख करते हैं, सोचते हुए कि गान्ही बाबा गांव को विकसित कर इसे ही रहने, रोजगार लायक बनाना चाहते थे। बाकिर किसी ने उनकी ना सुनी। शहर में भागे और अइसे भागे कि ओइजो धक्कमपेल पड़ गई अब उ रहने लायक नहीं रह गया। सुनते हैं मशीन खूब घरघराती है, का तो उससे ध्वनि प्रदूषण होता है, अखबार में अक्सर खबर छपती है। शहर वालों के चोंचले बेसी हैं। भला थोड़ा आवाजे हो गया तो का कान फट थोड़े जाएगा। हां, शहर में गाड़ी-बस ज्यादा चलते हैं। धुआं निकलता है, उससे सांस लेने में दिक्कत होती है। ई बात समझ में आती है। साथहीं पीने के पानी में कवन-कवन रसायन होते हैं, ओकरा से पानियो जहर बन जाता है। अब बताओ कि शहर में आबादी के बोझ से नोकरी नहीं मिल रहा। भोजन-भाजन का इंतजाम कइसे होगा? भगवान का दिया हवा-पानी उहो कवनो काम का नहीं है। जियेंगे कइसे शहर में। ई बात अइसहीं गान्ही बाबा नहीं सोचे थे। आगे की सोच वाले आदमी थे, सबका अंदाजा लगा लिये थे। आज तक उनकी कवनो नहीं सुना अब भुगतो। ये बाते बुदबुदाते-बुदबुदाते उनके मन में चल रही उथल-पुथल अब थोड़ी शांत हो चली थी। चवर भी आधा पार कर चुके थे। जीन बाबा के चबूतरा पर बइठ के खैनी मलने का विचार आया। इसी बहाने जीन बाबा के स्थान पर एक खिली खैनी चढ़ा देंगे। सावन की फूहार हल्की पड़ी थी। चबूतरा का पक्का थोड़ा भींग गया था। एक कोने में पिपर के गच्छिन डाड़ के नीचे पक्का सूखा था, वहीं बइठ गये। फिर अतीत के कुछ देखे, सुने याद दिमाग में दलघोटनी की तरह मथने लगी। वारेन हेस्टिंग कहता भी था कुटीर उद्योग को धीरे-धीरे मारो। लोहार, कुम्हार, धुनिया, इन्हें खत्म करो। अब गांव को शहर बनाया जायेगा। बताओ, जब गांव शहर बन जायेगा, तो देश कहां जायेगा? तभी उन्हें छह दशक पुरानी बात इयाद हो आई, उनके हमउम्र दशरथ लोहार हंसते-हंसते कहा था गांव शहर बनी तबे ना गोरी-गोरी मेम देखे के मिलिहें। सिरामन बाबा बांस की कोइन की छड़ी को चबूतरे के दीवार से टिकाये और धोती के खूंट से कागद की एक पुड़िया निकाले। उसमें खैनी थी, सफेदी के लिए धोती की दूसरी चेट बार-बार खोल रहे थे, आखिर गई कहां? सिरामन बाबा की तरह आज पूरा देश सफेदी तलाश रहा है- कहां है?

सोमवार, 30 जून 2014

इराकः टूटने बिखरने के करीब


इराक फिर दहक रहा है। गोलियों, रॉकेट लांचरों के हमलों ने समय से पहले ही आठ-दस साल के बच्चों के हाथों में बंदूक थमा दिया है। जान की सलामती के लिए इराकियों को अब अपनी सेना या फिर हथियारों पर नहीं अल्लाह पर भरोसा है। आईएसआईएस के लड़ाकों ने हमला बोल दिया है, डंके की चोट पर। सारी दुनिया देख रही है- टुकुर-टुकुर। जान फंसी है इराकियों और हजारों भारतीय सहित अन्य विदेशी नागरिकों की। इराक का मीडिया के हवाले से मिली जानकारी के अनुसार हाल-ए-बयां- एक बगदादी को उम्मीद से अधिक विश्वास है कि अब तो बगदाद पर कब्जा जमा लेगा लेकिन हजारों नहीं लाखों बगदादियों की उम्मीदें दरक रही है कि अब उन्हें बगदाद से बदर होना पड़ेगा। इराकी अपने भाग्य को कोस रहे हैं कि यह आफत दशकों से उनका पीछा क्यों नहीं छोड़ रहा। दुनिया में कहीं भी विस्थापन से ज्यादा त्रासद और कुछ नहीं होता। हर मुल्क के वाशिंदों के लिए उनका मुल्क उनकी मां के समान होता है। जहां वह तमाम दुःख और मुसिबतों में मां के ममत्व के साये में होता है, और जब विस्थापित होता है वह ममत्व का साया भी साथ छोड़ देता है, बस साथ रहता है तो केवल एक कशक। बग़दाद में रहने वाले वलीद अबू बकर की 25 वर्षीय बेटी इल्हाम को उम्मीद नहीं कि इस बार वो ज़िंदा रह पाएंगी। उसने अपना हाल भारतीय पत्रकार जुबैर खान को बार-बार टूटते-जुड़ते वाई-फ़ाई इंटरनेट कनेक्शन के बावजूद बताया। कुछ तस्वीरें भी भेजी, जो वहां हाल-ए-बयां कर रहा था। उसका एक वाक्य किसी भी संवेदनशील इंसां को वहीं बूत बनाने के लिए काफी हैः ''मेरी तस्वीर से याद रखिएगा, हम नहीं बचेंगे''। इल्हाम ने 2003 में अमेरिकी हमले के दौरान या फिर शिया-सुन्नी समुदाय के बीच 2007 के हिंसक संघर्ष में मौत को नज़दीक से देखा है। लेकिन इस बार उसका आत्मविश्वास हिला हुआ है। वह बेहद डरी हुई हैं। घर से बाहर मौत खड़ी है-फ़ौजी बख़्तरबंद गाड़ियों की शक्ल में। वलीद को सिर्फ़ एक चिंता है कि उनका जो हो सो हो, उनकी बेटियां ख़ैरियत से रहें। वलीद अबू बकर और उनके जैसे कई परिवार इराक़ की राजधानी बग़दाद में इन दिनों बेहद मुसीबत के दौर से गुजर रहे हैं। इराक़ के अंदर सुन्नी चरमपंथी और शिया बहुल के बीच जारी हिंसा की वजह से हज़ारों लोगों की जान सांसत में है। मौत और तबाही हर दिन उनके दरवाज़े पर दस्तक दे रही हैं। 40 भारतीय मजदूरों का भी आतंकियों ने अपहरण कर लिया है। हजारों की संख्या में भारतीय सहित कई देशों के नागरिक वहां फंसे हुए हैं। जान सांसत में है। सैकड़ों - हजारों मील दूर उनके परिजन उनकी सलामती की दुआ मांग रहे हैं। इराक़ में अगवा भारतीयों में पंजाब के हरसिमरन प्रीत सिंह भी हैं. हरसिमरन प्रीत की मां हरभजन कौर कहती हैं कि 15 जून के बाद से उनका बेटे से कोई संपर्क नहीं हो पाया है। मौजूदा संकट के समय इराक़ का समाज दो वर्गों में बंट चुका है- शिया और सुन्नी। दोनों समुदाय के लोग आपस में फिर से दोस्त हो पाएंगे, इसकी उम्मीद महज़ एक फ़ीसदी है। वलीद जैसे सैकड़ों इराक़ी परिवार और विदेशी नागरिक अब भाग्य के भरोसे हैं। तिकरीत में बिगड़ते हालात के बीच वहाँ फंसी अधिकांश भारतीय नर्सें जल्द से जल्द अपने परिवार के पास लौटना चाहतीं हैं, जबकि कुछ ऐसी भी हैं, जो वापस नहीं आना चाहतीं। यही नहीं, कुछ ऐसी भी हैं, जो इराक़ वापस जाकर काम करना चाहती हैं। हालांकि वो इराक़ में लगातार बिगड़ रही स्थितियों से चिंतित ज़रूर हैं। उनके लिए दुविधा इस बात को लेकर है कि इन हालात में इराक़ लौटना ठीक होगा या नहीं। अगर वो वापस जाती हैं, तो उन्हें नहीं पता कि उनके साथ क्या होगा क्योंकि वहां भारत के 40 कामगारों का अपहरण कर लिया गया है। अगर ये नर्सें वापस इराक़ नहीं जातीं, तो इनके लिए बड़ा सवाल है कि वो लाखों के कर्ज़ का भुगतान कैसे करेंगी, जो उन्होंने अपनी पढ़ाई के लिए लिया है, या फिर नौकरी लगाने के एवज़ में भर्ती एजेंसियों से ले रखा है। नसरिया अस्पताल से छुट्टी पर भारत आई सिंधु कहती हैं, हम सब इराक़ में खराब होते जा रहे हालात से बेहद तनाव में है, लेकिन मैं वहां काम करने के लिए वापस जाना चाहती हूं।'' इराकियों की अपनी मजबूरियां हैं तो वहां फंसे विदेशी नागरिक अपने नजरिये से हालात को देख रहे हैं और उससे उबरने के उपाय तलाश रहे हैं, तो सिंधु जैसी कई निम्न मध्य वर्ग की कामगार है, जिनके लिए जान और जहान सब कुछ रोज की रोजी पर आकर टिक जाती है। ऐसे में इस टूटते - बिखरते देश का गुलशन कैसे आबाद होगा यह अभी तो समय के गर्भ में है। ( पाक्षिक पत्रिका लोकतंत्रनामा के जून-2, 2014 अंक में प्रकाशित)

सोमवार, 2 जून 2014

है हिंद को इन पर नाज


पहली लोकसभा के हैं ये चार सांसद देश की संसद में कल से 16वीं लोकसभा नजर आएगी। पहली से 16वीं लोकसभा तक पहुंचने में देश को 62 वर्षों का सफर तय करना पड़ा है। इस बीच राजनीति ने कई करवटें बदली, राजनीति सुचिता कई बार तार-तार हुई, तो कई बार नेताओं के आचरण ने पूरी राजनीति को स्याह आवरण में ढक दिया। 1947 में जब देश आजाद हुआ तो देशवासियों को भरोसा था कि उनके नेता देश के निर्माण की अगुआई करेंगे और किये भी। लेकिन वक्त के साथ बहुत कुछ बदला। राजनीति में धनबल और बाहुबल बढेÞ हैं। इस स्थिति से देश की जनता तो दुखी है ही लेकिन सबसे ज्यादा दुखी अगर कोई है तो वे चार लोग हैं, जो देश की पहली लोकसभा के सांसद रहे हैं। पहली लोकसभा के अब केवल चार सांसद रेशमलाल जांगड़े, रिशांग कीशिंग, के. मोहन राव और सुब्रमण्यम तिलक जीवित बचे हैं और ये अपने जीवन के नौ दशक पूरे कर चुके हैं। 1952 के पहले संसदीय चुनाव में छत्तीसगढ़ तब के मध्यप्रदेश से जीत कर संसद पहुंचने वाले रेशम लाल जांगड़े फिलहाल 90 वर्ष है और फिलहाल वह छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के एक सरकारी मकान में रहते हैं। वह कहते हैं कि आजादी के आंदोलन ने हमें तपा कर मजबूत बना दिया था, यही वजह है कि इस उम्र में भी पूरी तरह सक्षम हैं और चुनाव अभियानों में शामिल होने का भी दम-खम रखते हैं। जांगड़े का जन्म इसी राज्य के परसाडीह गांव में एक गरीब दलित किसान परिवार में सन 1925 में हुआ था। वह रोज तैर कर महानदी पार करके स्कूल जाते थे। 1939 से 1942 के बीच वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रभावित रहे और भड़काऊ भाषण देने की वजह से जेल भेज दिये गये। लेकिन, इसके बाद उन पर गांधीजी का असर हुआ और वह भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गये। इस क्रम में वह दलित समुदाय और अन्य पिछड़ी जातियों के बड़े नेता के रूप में उभरे। यहीं से वह नेहरू की निगाह में आये। अनुसूचित जाति से आने के बावजूद उन्होंने 1952 में पहला लोकसभा चुनाव कांग्रेस के टिकट पर एक सामान्य सीट, बिलासपुर से लड़ा। 70 के दशक में वह आपातकाल के दौरान जेपी आंदोलन से प्रभावित हुए और जनता पार्टी में शामिल हो गये। यहां से वह भाजपा की ओर मुड़ गये। संसद में उनकी अंतिम पारी 1989 से 1991 तक, भाजपा सदस्य के रूप में रही। इसके बाद उन्हें टिकट नहीं मिला। वह चुनाव प्रचार में धनबल और बाहुबल के बढ़ते प्रभाव से दुखी हैं। देश के सबसे बुजुर्ग पूर्व सांसद है 94 वर्षीय रिशांग किशिंग। वह कुद को राजनीति से रिटायर कर चुके हैं। इस साल की शुरूआत में उन्होंने मणिपुर से राज्यसभा जाने के लिए अपनी पार्टी कांग्रेस को मना कर दिया था। वह चार बार मणिपुर के मुख्यमंत्री भी रहे हैं। वह भी संसद में आये मौजूदा बदलावों से दुखी हैं। इसी तरह 90 वर्षीय के. मोहन राव आंध्र प्रदेश के गोदावरी जिले के तल्लारेवु में रहते हैं। वह सिर्फ 27 साल की उम्र में सांसद बन गये थे। 1952 में वह भाकपा के टिकट पर कांकीनाडा और राजमुंदरी सीटों से लड़े थे। वह जमींदारी के खिलाफ आंदोलन के अगुवा थे। आज उनके पास एकमात्र संपत्ति तल्लारेवु में 8 एकड़ जमीन का एक टुकड़ा है। वह दो साल पहले तक 1400 रुपये पेंशन पर गुजारा कर रहे थे। इस बीच संसदीय कार्य मंत्री राजीव शुक्ला ने इस बारे में खबर पढ़ी और उनकी पेंशन 20,000 रुपये महीना करवा दी। 93 वर्षीय सुब्रमण्यम तिलक ने कानून की पढ़ाई की थी और उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। इसके लिए उन्हें विजियानगरम में चार महीने की जेल भी हुई थी। 1940 में जयप्रकाश नारायण विजियानगरम आये। उनके आह्वान पर वह मजदूर आंदोलन से राजनीति में आये। वह जेपी के अलावा विनोबा भावे, अशोक मेहता, जॉर्ज फनार्डीस और जी रामचंद्र राव से करीब से जुड़े थे। 1952 में वह प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर 32 साल की उम्र में संसद के लिए चुने गये। यह आतिशी नेता दोस्तों से उधार लेकर शपथ लेने संसद गये थे। बाद में उन्होंने सक्रिय राजनीति छोड़ दी। वह भी वर्तमान राजनीति में नैतिकता खत्म होने से दुखी हैं।

रविवार, 27 अप्रैल 2014

कांग्रेस की जद से दूर ‘लालदुर्ग’


यूं तो केंद्र की राजनीति में कांग्रेस के लिए वाम वैशाखी हमेशा से उसके साथ रही है लेकिन वाम दलों के दबदबे वाले राज्यों में कांग्रेस की स्थिति पर नजर डाले तो ये वाम दलों के लिए भी अप्रासंगिक हो जाते हैं। इसका ताजा उदाहरण हम पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा के संदर्भ में देख सकते हैं। बात शुरू करते हैं पश्चिम बंगाल से। पश्चिम बंगाल में अपना वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रही कांग्रेस के लिए करो या मरो की लड़ाई बन गया है। इस दौर में मुकाबला राज्य में अब तक कांग्रेस का गढ़ रहे इलाकों में हैं। गुरुवार को जिन छह सीटों पर मतदान हुआ, उनमें से पांच सीटें पिछले कई लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के कब्जे में रही है। इस दौर में मैदान में उतरे 78 उम्मीदवारों में कांग्रेस की दीपा दासमुंशी और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बेटे अभिजीत मुखर्जी भी शामिल हैं। लेकिन इन सीटों पर इस बार तृणमूल कांग्रेस भी मजबूत स्थिति में है। कमोवेश यह स्थिति बीते वर्षों से रही है। कांग्रेस जो आधार खोती गई उसे ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल अपने खाते में करती गई। वाम दलों के लंबे शासन के उकताये लोगों ने कांग्रेस के बजाय तृणमूल में भरोसा जताया तो कांग्रेस और टूट गई। इसी तरह केरल में वाम दलों के विकल्प के रूप में लंबे संघर्ष के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीएफ ने सत्ता तो संभाल ली लेकिन एलडीएफ की तरह वह बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों के बीच के संबंधों के संतुलन को संभालने में नाकाम रही। इसाई बहुल इस राज्य में जहां बहुसंख्यक यूडीएफ से नाराज दिख रहे हैं वहीं अल्पसंख्यक भी मानते हैं कि यूडीएफ सिर्फ तुष्टिकरण की राजनीति में लगीं है, इससे बेहतर तो एलडीएफ ही थी। ऐसे मौके का फायदा हिंदुत्व के घोड़े पर सवार भाजपा उठाने से नहीं चुक रही। इस लोकसभा चुनाव में केरल में सत्ता का नेतृत्व कर रही कांग्रेस को मुश्किल दौरे से गुजरना पड़ रहा है। दूसरे केंद्र की यूपीए सरकार की दो पारियों के बाद उपजे एंटी इनकंबेंसी फैक्टर नीम पर करेला चढ़ने वाली कहावत चरितार्थ कर रहा है। थोड़ी उम्मीद कांग्रेस को त्रिपुरा से नजर आई थी, वहां भी लंबे समय से वाम दल सत्ता में हैं, माणिक सरकार ईमानदार मुख्यमंत्री जरूर है, लेकिन उनकी नीतियों से राज्य की आवाम में उकताहट और विरोध के पुट दिखने लगे हैं। दूसरी तरफ वहां ना तो भाजपा का कोई ठोस जनाधार है और ना ही उनके वृहद गठबंधन एनडीए का कोई घटक दल मजबूत है। सिर्फ तृणमूल कांग्रेस की मौजूदगी कांग्रेस के लिए राहत बन रही थी लेकिन जैसे-जैसे चुनावी ताप बढ़ा। यूपीए के दस सालों के शासन की विफलता को मुखरता मिली। और नरेंद्र मोदी की प्रचारित लहर का प्रभाव कांग्रेस के अरमानों पर कुठाराघात करते नजर आने लगा। वैसे कांग्रेस को वहां अपने ही धड़े से अलग हुए प्रोग्रेसिव ग्रामीण कांग्रेस से नुकसान हो रहा है, इस दल ने वहां तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है और दो सीटों पर चुनाव लड़ा है। वहीं कांग्रेस की मुख्य घटक इंडिजिनश नेशनलिस्ट पार्टी आॅफ त्रिपुरा (आईएनपीटी) कमजोर स्थिति में हैं। ऐसे में इस राज्य में सांगठनिक ढांचे से कमजोर कांग्रेस को कहीं से सकून देने वाली खबर आने की उम्मीद नहीं लगती। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में मुख्य दलों के बीच राज्य के पिछड़ेपन और बांग्लादेश की सीमा से लगे होने की वजह से इन तमाम इलाकों में घुसपैठ और सीमापार से होने वाली तस्करी स्थानीय चुनावी मुद्दा बना है। वहीं कांग्रेस राष्ट्रीय मुद्दों की तलवार से इन स्थानीय मुद्दों की काट ढ़ूढ़ रही है। ऐसे में मुश्किल दौर से गुजर रही कांग्रेस को अगर इन राज्यों से कहीं थोड़ी सफलता मिलती है तो यह खुद कांग्रेस के लिए भी कम आश्चर्य की बात नहीं होगी।

रविवार, 20 अप्रैल 2014

राहुल गांधी का ‘मिशन’ 2014 या 2019’


बार-बार यह बात सामने आती रही कि भाजपा ने जैसे नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया, उस तरह कांग्रेस ने राहुल गांधी बतौर कांग्रेस की ओर से पीएम पद का उम्मीदवार क्यों नहीं घोषित किया। क्या राहुल गांधी के ‘मिशन’ में 2014 के बजाय 2019 का लोकसभा का चुनाव तो नहीं था। थोड़ा अटपटा लगता है लेकिन अगर पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण करें तो कई चीजें साफ होती हैं। पहले यह देखना होगा कि कांग्रेस या फिर राहुल गांधी का 16वीं लोकसभा चुनाव को लेकर क्या ‘विजन’ था? वास्तव में, भाजपा द्वारा भारी तामझाम के साथ नरेंद्र मोदी को सामने लाया गया, लेकिन कांग्रेस को उम्मीद थी कि भाजपा का यह केवल ‘प्रचार-स्टंट’ है और भाजपा चाहे जितनी कोशिश कर लें बहुमत का आकड़ा वह अपने सहयोगियों के साथ भी नहीं जुगाड़ पाएगी। वहीं दूसरी ओर, दस वर्षों के यूपीए के शासनकाल से उत्पन्न हुए ‘एंटी इंकंबेंसी फैक्टर’ की वजह से कांग्रेस को भी जीत भले ना मिले, लेकिन ऐसी स्थिति में तीसरा मोर्चा फिर अस्तित्व में आ जाएगा। लेकिन यह मोर्चा भी कांग्रेस के समर्थन के बगैर सत्ता में नहीं आ पायेगी और सत्ता में आने के बाद अंदरुनी खींचतान में यह पांच वर्ष का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाएगी और मध्यावधि चुनाव अपेक्षित हो जाएगा। कांग्रेस की इसी सोच और आकलन के बल पर राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य का खांका खींचा गया। 17 वीं लोकसभा चुनाव होने की स्थिति में यूपीए के खिलाफ ‘एंटी इंकंबेंसी फैक्टर’ खत्म हो चुका होगा और स्थाई सरकार देने में कांग्रेस की सक्षमता सामने आएगी। वहीं नरेंद्र मोदी की आभा भी उस समय तक तेज खो हो चुकी होगी। तब राहुल गांधी देश के एक मात्र चमकता चेहरा होंगे। और अगर, भाजपा के नेतृत्व में एनडीए पूर्ण बहुमत में आ भी जाती है तो पांच साल बाद उसे भी ‘एंटी इंकंबेंसी फैक्टर’ का सामना करना होगा और तब तक राहुल को अपनी ‘सशक्त’ राजनीतिक पहचान बनाने में कामयाबी मिल चुकी होगी। हालांकि अतीत में राहुल द्वारा आर्डिनेंस को फाड़ना, गैस सिलेंडर के मुद्दे पर सरकार को निर्देश देना, लोकपाल बिल को लेकर सक्रियता इसी प्रयास का हिस्सा था। इसके सकारात्मक प्रभाव भी नजर आए. लेकिन 16वीं लोकसभा में अगर एनडीए जीत कर आती है तो एक विद्रोही और आक्रोशित विपक्षी नेता के तौर पर राहुल को अपनी इमेज बनाने में सहुलियत होगी। उन पर यह आरोप लगता रहा है कि देश के प्रमुख मुद्दे पर वे अक्सर चुप ही रहते हैं। लेकिन इसकेपीछे का कारण था कि उस समय अगर वह कोई बयान देते हैं, जो कि उनकी इमेज एक विद्रोही तेवर वाले नेता की बनाती है तो ऐसी स्थिति में उनकी सरकार के बैकफुट पर आने का खतरा बन सकता था। हालांकि ऐसा हुआ भी है। तो क्या राहुल ने एक अलग तरह की राजनीतिक बिसात अपने लिए बिछा रखी है, जहां शह भी वहीं दे सकते हैं और मात भी वही।

संबंधों से नहीं इनकार, फिर क्यों विरोधी हैं बेकरार


16वीं लोकसभा के लिए जैसे ही चुनावी बिगुल बजा, सारे राजनीतिक दल अपने स्कोर को बढ़ाने के लिए तरह-तरह की जुगत बैठाने में लगे गये। रणनीतिया बनायी जाने लगी। विरोधियों को कैसे घेरा जाए। जो प्रचलित मुद्दे हैं, खास कर महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, और विकास, वह तो है ही। ताजी-ताजी जन्मी आम आदमी पार्टी ने भी अपने को भ्रष्टाचार से दो-दो हाथ करते दिखाने की कोशिश में कांग्रेस और भाजपा को भ्रष्टाचार की गंगोत्री बताने की कोशिश की। इसी क्रम में राबर्ट वाड्रा द्वारा जमीन सौदे में हेराफेरी का मामला उठा कर कांग्रेस को असहज स्थिति में लाने की कोशिश की तो भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के उद्योगपति गौतम अडानी और मुकेश अंबानी से संबंधों को उजागर किया। खैर, राबर्ट वाड्रा के मुद्दे शुरुआती दौर में मीडिया की सुर्खियों में रहा लेकिन उसके बाद यह मुद्दा शनै: शनै: लोप हो गया। लेकिन जैसे -जैसे तुनावी ताप बढ़ा और कथित मोदी लहर के प्रभाव के साथ ही मोदी और अडानी के बीच के संबंध भी चुनावी मुद्दा बनने लगा। इस संबंध पर ना केवल आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने ही निशाना साधा बल्कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भी इससे नहीं चूके। दरअसल, अडानी समूह का विस्तार भी बीते 10-12 सालों में गुजरात में बड़ी तेजी से हुआ है और मोदी भी गुजरात की सत्ता में तकरीबन इतने दिन पहले ही आये, तो यहीं बना यह मुद्दा। बात 1980 के दशक की है, जब अहमदाबाद की सड़कों पर एक युवा ग्रे कलर के बजाज सुपर स्कूटर पर पीछे अपने एक दोस्त को बैठा कर घूमा करता था। यह युवा और कोई नहीं बल्कि अडानी समूह के प्रमुख गौतम अडानी है और स्कूटर पीछे बैठने वाले युवा उनके दोस्त मलय महादेविया है। इन दोनों दोस्तों की जोड़ी आज भी उसी तरह है। अडानी अपने व्यवसाय को बढ़ाना चाहते थे, तो नरेंद्र मोदी राज्य में औद्योगिक क्रांति लाने के योजना बना रहे थे। इसी योजना में मोदी ने यह प्रावधान किया कि राज्य में भूमि बैंक बनायी जायेगी, जो किऔद्योगिक ईकाइ लगाने वालों को सरकार कम कीमत में देगी। गुजरात सरकार के इस योजना का लाभ कई उद्योगपतियों को मिला। इसमें रटन टाटा का नाम भी शामिल है। जब पश्चिम बंगाल सिंगूर में नैनो प्लांट को लेकर बवाल मचा तो टाटा ने वहां से अपनी परियोजना हटाने की घोषणा की और नरेंद्र मोदी ने गुजरात के साणंद में उन्हें प्लांट लगाने के लिए जमीन मुहैया करायी। लेकिन अडानी को लेकर ही वबाल ज्यादा मचा। यूं भी नरेंद्र मोदी ने गुजरात के औद्योगिक विकास की गति को तेज करने और औद्योगिक माहौल को सशक्त करने के लिए ‘वाइब्रेट गुजरात’ हर साल कराते रहे। इससे वे उद्योगपतियों के खासे चहेते बने। स्वाभाविक हैं कि मोदी ने जनता के समर्थन और उद्योगपतियों के साथ अपने संबंधों का खासा राजनीतिक लाभ भी उठाया। अडानी को भी गुजराट के तटीय इलाके में एक बड़ा भू-भाग रियायती दर पर दिया गया और यहीं रियायती दर पर जमीन दिये जाने का मुद्दा आज चुनावी चर्चा का विषय बना है। दूसरी ओर 2012 के वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में ही मुकेश अंबानी ने नरेंद्र मोदी के संबंध में कहा कि वह अब राज्य के विकास के बाद देश के विकास के लिए कुछ करें। संकेत साफ था, वे मोदी को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश कर रहे थे। वह संकेत अब मूर्तरूप लेने के क्रम में है। इसी बीच गैस कीमतों को लेकर जब बवाल मचा और विरप्पा मोइली के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई तो जहां कांग्रेस ने इस चुप्पी साधी, वहीं नरेंद्र मोदी ने भी इस मामले पर कोई बयान नहीं दिया। नरेंद्र मोदी इस मामले पर चुप्पी विरोधियों को मुकेश अंबानी के साथ उनके संबंध को पुख्ता बताने को बल मिला। रही-सही कसर तब पूरी हुई जब नरेंद्र मोदी को अडानी के निजी हेलीकाप्टर से उतरने की तस्वीर अरविन्द केजरीवाल द्वारा जारी की गई। हालांकि अडानी या अंबानी दोनों ने ही मोदी से अपनी नजदीकियों को कभी छिपाने की कोशिश नहीं की, तब भी नहीं जब साल 2004 में एनडीए सरकार सत्ता से बाहर हो गई थी। हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में अपने पावर बिजनेस को बढ़ाने और ओडिशा में बंदरगाहों के लिए बिडिंग के वास्ते अडानी ने यूपीए में भी अपने कई दोस्त बनाए हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ ने अडानी की उनके शुरूआती दिनों में मदद की थी। कई बिजनेसमैन एनसीपी नेता शरद पवार से भी अडानी की नजदीकियों की बात बताते हैं। इसी तरह मुकेश अंबानी के नरेंद्र मोदी के अलावा भाजपा और कांग्रेस के लगभग सभी वरिष्ठ नेताओं के साथ गहरे संबंध जगजाहिर हैं। लेकिन क्या इन दोनों उद्योगपतियों के साथ संबंधों को लेकर नरेंद्र मोदी के चुनावी महासमर में कोई असर पड़ेगा? इस प्रश्न का उत्तर तो 16 मई को ही मिल पायेगा।

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

राजनीतिक सत्ता से ही समाज को हांकने का खेल


16वीं लोकसभा के लिए अब तक चार चरण के मतदान हो चुके हैं और पांचवें चरण के मतदान के लिए भी लोगों में खासा उत्साह देखा जा रहा है। लोकतंत्र के इसी मिजाजा को भारतीय संसदीय राजनीति की खूबसूरती मानी जाती है। वास्तव में, 2014 का यह आम चुनाव कुछ खास हो गया है। खास होने का कारण भारी संख्या में इस बार पहली बार वोट डालने वाले युवाओं को लेकर है। गौर करने वाली बात है कि जब देश का पहला आम चुनाव 1952 में हुआ था तब कुल 10 करोड़ 59 हजार मत पड़े थे। 2014 के चुनाव में लगभग इतने ही नये मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। इस तरह देखा जाए तो आजाद हिंदुस्तान के छह दशक बीतते बीतते 1952 का छह हिंदुस्तान खड़ा हो गया है। पहले आम चुनाव में मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 32 लाख 12 हार 343 थी। और 2014 में यह संख्या 81 करोड़ के पार हो गई है। जाहिर है इतने वोटरों के वोट से चुनी हुई कोई भी सरकार हो, उसे पांच बरस तक राज करने का मौका मिलता है और अपने राज में वह कोई भी निर्णय लेती है तो उसे सही माना जाता है। इतना ही नहीं सरकार अगर गलत निर्णय लेती है और विपक्ष विरोध करता है तो भी सरकार यह कहने से नहीं चूकती कि जनता ने उन्हें चुना है। अगर जनता को गलत लगेगा तो वह अगले चुनाव में बदल देगी। लेकिन विचारणीय और यक्ष प्रश्न तब खड़ा हो जाता है, जब इसी जनता द्वारा चुनी सरकार नीतियों के नाम पर करोड़ो- अरबो का वारा-न्यारा करती है, और भ्रष्टाचार से लड़ाई में खुद को आगे भी दिखाने की कोशिश करती है। तो सवाल यही है कि जिस चुनाव के जरीये देश में सत्ता बनती बिगडती हो क्या वह चुनाव तंत्र अपने में सुधार की मांग नहीं करता? सिर्फ चुनाव आयोग की कडाई से हालात में सुधार या फिर भ्रष्ट होते संस्थानों को कानूनी दायरे में कडाई बरतने भर से सुधार आ जायेगा, इस बात की क्या गारंटी है? दरअसल, मुश्किल यही है कि देश में समूचा संघर्ष सत्ता पाने के लिये ही हो रहा है और राजनीतिक सत्ता को ही हर व्यवस्था में सुधार का आधार माना जा रहा है। लोभी समाज को ठीक करने की जगह जब राजनीतिक सत्ता से ही समाज को हांकने का खेल खेला जा रहा हो तो फिर दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के लोकतंत्र पर दाग लगने से बचायेगा कौन यह अभी तो एक पहेली बनी हुई है । क्योंकि देश तो 2014 के आम चुनाव में ही लोकतंत्र का पर्व मनाने निकल पड़ा है। जहां चुनाव आयोग 3500 करोड खर्च करेगा। और राजनीतिक दल 30,500 करोड़ । फिर आप ही कल्पना किजिए कि अंजाम-ए-गुलिश्ता क्या होगा?

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

भारतीय राजनीति की त्रिदेवी: ममता, माया, जयललिता @ 84 सीटें


लोकसभा चुनाव में महज तीन महीने रह गये हैं. ऐसे में राजनीतिक दांव पेंच और उठा पटक का शुरू हो जाना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता. लेकिन 2014 का चुनाव ऐसा आम चुनाव है, जिसमें आमने सामने दो बड़ी और पारंपरिक भारतीय राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा है. राजनीतिक पार्टियों का एक समूह कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए के साथ है तो दूसरा समूह जो कि फिलहाल कमोजर ही है लेकिन वह भाजपा के नेतृत्व में एनडीए के साथ है. और इन दोनों से अलग तीसरा समूह थर्ड फ्रंट के रूप में आज भी पहले की तरह सामने हैं लेकिन अंतर यह कि अब तक इसकी अगुआई आम तौर पर वामपंथी पार्टियां ही करती थी, लेकिन पहले से जीर्णशीर्ण पड़ चुकी वाममोर्चा इस बार ऐसी स्थिति में नहीं है, तो उनकी जगह समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव इस फ्रंट का नेतृत्व करते नजर आ रहे हैं. भले ही वे यह दावा करें कि प्रधानमंत्री की दौड़ में वे नहीं है लेकिन उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से देश अवगत है. ठीक ऐसे में जयललिता ने वाममोर्चा के साथ गठबंधन कर राजनीतिक का मास्टर – स्ट्रोक खेला है. वाममोर्चा के साथ गठबंधन के इस फैसले से उन्होंने राजनीतिक निशाने एक साथ साधने की कोशिश की है. अपने समर्थकों के बीच ‘पुराची थैलवी अम्मा’ के नाम से लोकप्रिय जयललिता खुद को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की दौड़ से अगल नहीं मानती. उनके इस बयान से कि “अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, यह बात करने का सही समय अभी नहीं आया है” से जाहिर होता है. दूसरी तरफ वह भाजपा को फिलहाल समर्थन देने की घोषणा कर, अभी से ही वे अपने समर्थकों के एक वर्ग को खोना नहीं चाहती. और तीसरी बात कि तीसरा मोर्चा बनने की स्थिति में भी वे खुद को अप्रासंगिक नहीं रखना चाहती. स्वाभाविक भी है कि उनकी महत्वाकांक्षा निराधार नहीं है. तमिलनाडु में वैसे भी कांग्रेस का जनाधार दरका हुआ है, डीएमके भी कांग्रेस के साथ गंठबंधन को लेकर उत्सूक नहीं दिखती. दूसरी ओर डीएमके अपने अंदर की गुटबाजी और कलह से जूझ रही है और पार्टी निराशा की गर्त में डूबी जा रही है. ऐसी स्थिति जयललिता की पार्टी एआईडीएमके लिए माकूल माहौल पैदा कर रही है और चुनाव के लिए उन्हें यह स्थिति उत्साहित कर रही है. इसी उत्साह के नतीजे रूप में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों में से चार की उम्र कैद की सजा को जयललिता की सरकार ने माफ करने का निर्णय कर लिया है. इसका मकसद था कि वह तमिलों की सहानुभूति प्राप्त कर सके. हालांकि उनके इस निर्णय की कानूनी वैधता को लेकर विवाद खड़ा हो गया है. इस विवाद का चाहे जो अंजाम हो, लेकिन वह तमिलों के एक तबके के दिलों में अपनी जगह बनाने में कामयाब रही हैं. आम चुनाव को लेकर हाल ही में हुए एक सर्वे में यह बात सामने आई कि तमिलनाडु की कुल 39 लोकसभा सीट में से तकरीबन 32 से 33 सीटें जयललिता को मिलेंगी. इसके पहले हुए विधानसभा चुनाव में भी जयललिता की पार्टी एआईडीएमके को 234 में 203 सीटों पर रिकार्ड जीत हासिल हुई थी. जयललिता के ताजा फैसले और बयान ने उनकी सीटें और बढ़ने का संकेत देती है. जयललिता ने फिलहाल जो राजनीति दांव चला है वह हर परिस्थिति में उनके अनुकूल है. वह या तो खुद प्रधानमंत्री की दावेदारी पेश कर सकती है या फिर जिसे चाहें वह प्रधानमंत्री बने. कुल मिलाकर जयललिता की राजनीति उन्हें फिलहाल बढ़त में तो ले ही जा रही है. इसी तरह अगर बात करें ममता बनर्जी की तो हाल ही में अण्णा हजारे ने उनकी तारीफ कर नई राजनीतिक चर्चा को गर्मा दिया और मौके की नब्ज को पकड़ने के लिए ममता ने अण्णा से मुलाकात भी की. इस मुलाकात के बाद अण्णा ने तृणमूल कांग्रेस का प्रचार करने को लेकर अपनी सहमति बी दी. यह मुलाकात भविष्य में क्या गुल खिलायेगा यह तो आने वाले समय में पता लगेगा, लेकिन पश्चिम बंगाल में बीते दिनों हुए पंचायत चुनाव में तृणमूल को 41.76 फीसदी वोट मिले, तो वाममोर्चा को 37.6 फीसदी ही वोट मिले. इससे तृणमूल कांग्रेस उत्साहित है और उसे उम्मीद है कि भाजपा को लोकसभा चुनाव में चाहें कितनी ही अधिक सीटें क्यों ना मिल जाये लेकिन सत्तारूढ़ होने के लिए उसे 35 से 40 सीटों की अतिरिक्त जरुरत पड़ेगी. ऐसे में तृणमूल कांग्रेस भाजपा की सरकार बनवाने में किंगमेकर की भूमिका में आ जाएगी. जैसे कि 1998 में एनडीए को जयललिता और 1999 में एनडीए सरकार को समर्थन दे कर चंद्रबाबू नायडु ने जो भूमिका निभाई थी, कमोवेश उसी भूमिका में 2014 में तृणमूल कांग्रेस आने का सपना संजो रही है. ममता बनर्जी हालांकि प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल नहीं है. लेकिन उनके समर्थक सभाओं में इस बात की चर्चा जरुर करते हैं कि वे अगले लोकसभा में नई सरकार बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका में आएं और सत्ता की चाबी उनके हाथ में हो इसलिए उन्हें अधिक से अधिक सीटों पर जनता वोट देकर जीताये, और संसद में भेजे. चुनावी सर्वे में भी यह दिखता है कि राज्य की कुल 45 लोकसभा सीटों में से तृणमूल कांग्रेस के खाते में 30 सीटें आ सकती है. हालांकि तृममूल कांग्रेस जब से पश्चिम बंगाल की सत्ता में आई है, तब से अब तक वह ना तो आर्थिक मोर्चे पर कोई सफलता अर्जित कर पाई है और ना ही उद्योगों या निवेश को लाने में सफल हुई है. राज्य के विकास के मोर्चे पर भी वह विफल ही रही है. उसके खाते में केवल माओवादियों पर अंकुश लगाने तथा गोरखालैंड के आंदोलन पर काबू पाना ही आया है. राज्य में काननू व्यवस्था की खस्ता हालत ने तृणमूल के सामने चुनौती खड़ा कर दी है. हालांकि बसपा की फिलहाल 20 सीटें है, लेकिन इस बार भी उसके सामने कोई बड़ी जीत की गुंजाइश नहीं दिखती है. चुनावी सर्वे में बसपा को केवल 22 सीटें मिलने की उम्मीद जतायी गई है. बावजूद इसके बसपा की सुप्रीमो मायावती की नजर मछली की आंख यानि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर टिकी है. 2009 में उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का सपना देखा था लेकिन यह सपना हकीकत में नहीं तब्दील हो सका. 2009 में ही परमाणु सौदे के मामले में यूपीए से समर्थन वापस लेकर वाममोर्चा ने बसपा का नेतृत्व स्वीकार कर लिया. तब मायावती को लगा कि उनका राजनीति ग्राफ ऊपर बढ़ रहा है और इसी उत्साह में उन्होंने लोकसभा के सभी 543 में से 500 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये, लेकिन जीत केवल 20 सीटों पर ही मिली. इसके बाद से बसपा का ग्राफ लगातार गिरता गया. उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में भी उनकी पार्टी की करारी हार हुई. मध्यप्रदेश में उनकी सात सीटें घट कर चार पर आ गई, तो राजस्थान में भी सीटें छह से घट कर चार पर आ गई. इसी अन्य राज्यों पंजाब, हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल में भी पार्टी की लोकप्रियता घटी है. दूसरी ओर पहले से ही उत्तर प्रदेश में कमजोर पड़ी कांग्रेस अपनी सेहत सुधारने में लगी है और कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से मायावती ने साफ इनकार किया है. मायावती को लगता है कि कमजोर साथी से बेहतर है कि वह अकेले ही चुनाव लड़ें. सूबे के मुज्जफरनगर दंगे के बाद माना जा रहा है मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा सपा से नाराज है और मायावती को लगता है कि यह बड़ा तबका उनकी पार्टी की ओर उन्मुख होगा. मायावती का मानना है कि भाजपा चाहे जितनी मशक्कत कर ले, वह 272 के जादुई आंकड़े से दूर ही रहेगी. ऐसे में बसपा समर्थन दे कर मनचाहा शर्ते मनवा सकती है और अगर तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की स्थिति आती है तो वह सबसे बड़े प्रदेश से अधिक सीटों के साथ संसद में पहुंच कर अपने सपने को साकार करने की दिशा में बढ़ सकती है. खुद को दलित उम्मीदवार बता कर प्रधानमंत्री की दौड़ में खुद को आगे रखने की जुगत में है. इस तरह देखा जाए तो वर्तमान भारतीय राजनीति की ये तीन देवियां अगले लोकसभा चुनाव में या चुनाव के बाद सरकार बनने की स्थिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी. कारण कि अगर हम चुनाव पूर्व हुए इस सर्वेक्षण के आलोक में देखे तो 84 सीटें इनके कब्जे में होंगी और ये जिस दल के साथ तीनों एक साथ जुड़ जाएंगी तो उस दल की सरकार बन जाएगी. ऐसे में ये तीनों राजनीतिक देवियां अपने समर्थन के एवज में उसकी कीमत वसूलने से नहीं चुकेंगी.