रविवार, 20 अप्रैल 2014

राहुल गांधी का ‘मिशन’ 2014 या 2019’


बार-बार यह बात सामने आती रही कि भाजपा ने जैसे नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया, उस तरह कांग्रेस ने राहुल गांधी बतौर कांग्रेस की ओर से पीएम पद का उम्मीदवार क्यों नहीं घोषित किया। क्या राहुल गांधी के ‘मिशन’ में 2014 के बजाय 2019 का लोकसभा का चुनाव तो नहीं था। थोड़ा अटपटा लगता है लेकिन अगर पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण करें तो कई चीजें साफ होती हैं। पहले यह देखना होगा कि कांग्रेस या फिर राहुल गांधी का 16वीं लोकसभा चुनाव को लेकर क्या ‘विजन’ था? वास्तव में, भाजपा द्वारा भारी तामझाम के साथ नरेंद्र मोदी को सामने लाया गया, लेकिन कांग्रेस को उम्मीद थी कि भाजपा का यह केवल ‘प्रचार-स्टंट’ है और भाजपा चाहे जितनी कोशिश कर लें बहुमत का आकड़ा वह अपने सहयोगियों के साथ भी नहीं जुगाड़ पाएगी। वहीं दूसरी ओर, दस वर्षों के यूपीए के शासनकाल से उत्पन्न हुए ‘एंटी इंकंबेंसी फैक्टर’ की वजह से कांग्रेस को भी जीत भले ना मिले, लेकिन ऐसी स्थिति में तीसरा मोर्चा फिर अस्तित्व में आ जाएगा। लेकिन यह मोर्चा भी कांग्रेस के समर्थन के बगैर सत्ता में नहीं आ पायेगी और सत्ता में आने के बाद अंदरुनी खींचतान में यह पांच वर्ष का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाएगी और मध्यावधि चुनाव अपेक्षित हो जाएगा। कांग्रेस की इसी सोच और आकलन के बल पर राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य का खांका खींचा गया। 17 वीं लोकसभा चुनाव होने की स्थिति में यूपीए के खिलाफ ‘एंटी इंकंबेंसी फैक्टर’ खत्म हो चुका होगा और स्थाई सरकार देने में कांग्रेस की सक्षमता सामने आएगी। वहीं नरेंद्र मोदी की आभा भी उस समय तक तेज खो हो चुकी होगी। तब राहुल गांधी देश के एक मात्र चमकता चेहरा होंगे। और अगर, भाजपा के नेतृत्व में एनडीए पूर्ण बहुमत में आ भी जाती है तो पांच साल बाद उसे भी ‘एंटी इंकंबेंसी फैक्टर’ का सामना करना होगा और तब तक राहुल को अपनी ‘सशक्त’ राजनीतिक पहचान बनाने में कामयाबी मिल चुकी होगी। हालांकि अतीत में राहुल द्वारा आर्डिनेंस को फाड़ना, गैस सिलेंडर के मुद्दे पर सरकार को निर्देश देना, लोकपाल बिल को लेकर सक्रियता इसी प्रयास का हिस्सा था। इसके सकारात्मक प्रभाव भी नजर आए. लेकिन 16वीं लोकसभा में अगर एनडीए जीत कर आती है तो एक विद्रोही और आक्रोशित विपक्षी नेता के तौर पर राहुल को अपनी इमेज बनाने में सहुलियत होगी। उन पर यह आरोप लगता रहा है कि देश के प्रमुख मुद्दे पर वे अक्सर चुप ही रहते हैं। लेकिन इसकेपीछे का कारण था कि उस समय अगर वह कोई बयान देते हैं, जो कि उनकी इमेज एक विद्रोही तेवर वाले नेता की बनाती है तो ऐसी स्थिति में उनकी सरकार के बैकफुट पर आने का खतरा बन सकता था। हालांकि ऐसा हुआ भी है। तो क्या राहुल ने एक अलग तरह की राजनीतिक बिसात अपने लिए बिछा रखी है, जहां शह भी वहीं दे सकते हैं और मात भी वही।

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