रविवार, 27 अप्रैल 2014

कांग्रेस की जद से दूर ‘लालदुर्ग’


यूं तो केंद्र की राजनीति में कांग्रेस के लिए वाम वैशाखी हमेशा से उसके साथ रही है लेकिन वाम दलों के दबदबे वाले राज्यों में कांग्रेस की स्थिति पर नजर डाले तो ये वाम दलों के लिए भी अप्रासंगिक हो जाते हैं। इसका ताजा उदाहरण हम पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा के संदर्भ में देख सकते हैं। बात शुरू करते हैं पश्चिम बंगाल से। पश्चिम बंगाल में अपना वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रही कांग्रेस के लिए करो या मरो की लड़ाई बन गया है। इस दौर में मुकाबला राज्य में अब तक कांग्रेस का गढ़ रहे इलाकों में हैं। गुरुवार को जिन छह सीटों पर मतदान हुआ, उनमें से पांच सीटें पिछले कई लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के कब्जे में रही है। इस दौर में मैदान में उतरे 78 उम्मीदवारों में कांग्रेस की दीपा दासमुंशी और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बेटे अभिजीत मुखर्जी भी शामिल हैं। लेकिन इन सीटों पर इस बार तृणमूल कांग्रेस भी मजबूत स्थिति में है। कमोवेश यह स्थिति बीते वर्षों से रही है। कांग्रेस जो आधार खोती गई उसे ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल अपने खाते में करती गई। वाम दलों के लंबे शासन के उकताये लोगों ने कांग्रेस के बजाय तृणमूल में भरोसा जताया तो कांग्रेस और टूट गई। इसी तरह केरल में वाम दलों के विकल्प के रूप में लंबे संघर्ष के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीएफ ने सत्ता तो संभाल ली लेकिन एलडीएफ की तरह वह बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों के बीच के संबंधों के संतुलन को संभालने में नाकाम रही। इसाई बहुल इस राज्य में जहां बहुसंख्यक यूडीएफ से नाराज दिख रहे हैं वहीं अल्पसंख्यक भी मानते हैं कि यूडीएफ सिर्फ तुष्टिकरण की राजनीति में लगीं है, इससे बेहतर तो एलडीएफ ही थी। ऐसे मौके का फायदा हिंदुत्व के घोड़े पर सवार भाजपा उठाने से नहीं चुक रही। इस लोकसभा चुनाव में केरल में सत्ता का नेतृत्व कर रही कांग्रेस को मुश्किल दौरे से गुजरना पड़ रहा है। दूसरे केंद्र की यूपीए सरकार की दो पारियों के बाद उपजे एंटी इनकंबेंसी फैक्टर नीम पर करेला चढ़ने वाली कहावत चरितार्थ कर रहा है। थोड़ी उम्मीद कांग्रेस को त्रिपुरा से नजर आई थी, वहां भी लंबे समय से वाम दल सत्ता में हैं, माणिक सरकार ईमानदार मुख्यमंत्री जरूर है, लेकिन उनकी नीतियों से राज्य की आवाम में उकताहट और विरोध के पुट दिखने लगे हैं। दूसरी तरफ वहां ना तो भाजपा का कोई ठोस जनाधार है और ना ही उनके वृहद गठबंधन एनडीए का कोई घटक दल मजबूत है। सिर्फ तृणमूल कांग्रेस की मौजूदगी कांग्रेस के लिए राहत बन रही थी लेकिन जैसे-जैसे चुनावी ताप बढ़ा। यूपीए के दस सालों के शासन की विफलता को मुखरता मिली। और नरेंद्र मोदी की प्रचारित लहर का प्रभाव कांग्रेस के अरमानों पर कुठाराघात करते नजर आने लगा। वैसे कांग्रेस को वहां अपने ही धड़े से अलग हुए प्रोग्रेसिव ग्रामीण कांग्रेस से नुकसान हो रहा है, इस दल ने वहां तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है और दो सीटों पर चुनाव लड़ा है। वहीं कांग्रेस की मुख्य घटक इंडिजिनश नेशनलिस्ट पार्टी आॅफ त्रिपुरा (आईएनपीटी) कमजोर स्थिति में हैं। ऐसे में इस राज्य में सांगठनिक ढांचे से कमजोर कांग्रेस को कहीं से सकून देने वाली खबर आने की उम्मीद नहीं लगती। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में मुख्य दलों के बीच राज्य के पिछड़ेपन और बांग्लादेश की सीमा से लगे होने की वजह से इन तमाम इलाकों में घुसपैठ और सीमापार से होने वाली तस्करी स्थानीय चुनावी मुद्दा बना है। वहीं कांग्रेस राष्ट्रीय मुद्दों की तलवार से इन स्थानीय मुद्दों की काट ढ़ूढ़ रही है। ऐसे में मुश्किल दौर से गुजर रही कांग्रेस को अगर इन राज्यों से कहीं थोड़ी सफलता मिलती है तो यह खुद कांग्रेस के लिए भी कम आश्चर्य की बात नहीं होगी।

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