सोमवार, 27 जुलाई 2009

बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ब्राह्मणवादी


- श्रीराजेश-
साम्यविदयों ने अपने दर्शन के मुताबिक यह प्रचारित किया कि उनके यहां जाति, धर्म और साम्प्रदाय के आधार पर समाज को विकसित करने की कोई अवधारणा नहीं है. बंगाल, केरल और त्रिपुरा में उपरी तौर पर यह नजर भी आता है लेकिन यदि थोड़ी पड़ताल की जाय तो साम्यवादियों की कलई बड़ी आसानी से खुल जाती है. पत्रकार पलाश विश्वास ने इस पर विशेष तौर प अध्ययन किया और उन्होंने कुछ आंकड़े जुटाये जो कम्युनिस्टो के ब्राह्मणवादी सोंच को रेखांकित करती है.पश्चिम बंगाल में ब्रह्मणों की कुल जनसंख्या 22.45 राज्य की जनसंख्या का महज 2.8 प्रतिशत है. पर विधानसभा में 64 ब्राह्मण हैं.राज्य में सोलह केबिनेट मंत्री ब्राह्मण हैं. दो राज्य मंत्री भी ब्राह्मण हैं. राज्य में सवर्ण कायस्थ और वैद्य की जनसंख्या 30.46 लाख है, जो कुल जनसंख्या का महज 3.4 प्रतिशत हैं. इनके 61 विधायक हैं. इनके केबिनेट मंत्री सात और राज्य मंत्री दो हैं. अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 189 लाख है, जो कुल जनसंख्या का 23.6 प्रतिशत है. इन्हें राजनीतिक आरक्षण हासिल है. इनके विधायक 58 है. 2.8 प्रतिशत ब्राह्मणों के 64 विधायक और 23.6 फीसद अनुसूचितों के 58 विधायक. अनुसूचितो को आरक्षण के बावजूद सिर्फ चार केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री, कुल जमा छह मंत्री अनुसूचित. इसी तरह आरक्षित 44.90 लाख अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या , कुल जनसंख्या का 5.6 प्रतिशत, के कुल सत्रह विधायक और दो राज्य मंत्री हैं. राज्य में 189.20 लाख मुसलमान हैं. जो जनसंख्या का 15.56 प्रतिशत है. इनकी माली हालत सच्चर कमिटी की रपट से उजागर हो गयी है. वाममोर्चा को तीस साल तक लगातार सत्ता में बनाये रखते हुए मुसलमानों की औकात एक मुश्त वोटबैंक में सिमट गयी है. मुसलमान इस राज्य में सबसे पिछड़े हैं. इनके कुल चालीस विधायक हैं , तीन केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री. मंडल कमीशन की रपट लागू करने के पक्ष में सबसे ज्यादा मुखर वामपंथियों के राज्य में ओबीसी की हालत सबसे खस्ता है. राज्य में अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 328.73लाख है, जो कुल जनसंख्या का 41 प्रतिशत है. पर इनके महज 54 विधायक और एक केबिनेट मंत्री हैं. 41 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व सिर्फ एक मंत्री करता है.
यह तो बंगाल सरकार का चेहरा है जो एक साम्यवादी समाज को पिछले 32 वर्षों में विकसित किया है और उस समाज की बागडोर संगठित रूप से ब्राह्मणों के हाथों सौंप दी है. यह 32 वर्षों के अथम श्रम का प्रतिफल है. सिर्फ एससी और एसटी के एमएलए और एमपी के आधार पर नहीं समझा जा सकता, इसके लिए कम्युनिस्टों के नीतिगत मामलो और विधायी कार्यवाहियों से समझा जा सकता है. सिर्फ माकपा ही नहीं बल्कि समान विचारधारा के अन्य वामदल भी आंख बंद कर इसका लंबे अर्से से समर्थन करते आ रहे हैं. ऐसा नहीं है कि वे माकपा की इस कारगुजारी से वाकिफ नहीं है, बल्कि इसका विरोध करने की स्थित में नहीं है. बंगाल के सभी सरकारी विभागों के प्रमुख ब्राह्मण या फिर कायस्थ है (एक्का-दुक्का विभागों को छोड़ कर). बंगाल में अनुसूचित जाति के केवल चार मंत्री है और उनके मंत्रालयों का नाम अधिकांश विधायकों तक को मालूम. इससे उनके मंत्रालय का हस्र समझा जा सकता है. उपेन किस्कू और विलासीबाला सहिस के हटाए जाने के बाद आदिवासी कोटे से बने दो राज्यंत्रियों का होना न होना बराबर है. स्थितियां ऐसी बनती जा रही है कि सत्ता पर कोई काबिज हो – सत्ता समीकरण या सामाजिक संरचना में कोई आमूल चूल परिवर्तन नहीं होने वाला है.
उपरी तौर प यह सकून देने वाली बात है कि बंगाल में कोई किसी की जात नहीं पूछता लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि यहां जातिवाद की मानसिकता नहीं है. बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान की तरह असंगठित तौर नहीं बल्कि व्यवस्थित तरीके से बंगाल में जातिवाद ने अपना वर्चस्व जमाया है और इसी का प्रतिफल है कि बंगाल में मूलनिवासी दलित, आदिवासी, ओबीसी और मुसलमान स्वयं को दूसरे दर्जे के नागरिक हैं.इन सबके साथ राज्य में अस्पृश्यता अन्य दूसरे राज्यों से किन्हीं मामलों में कम नहीं है. इसका उदाहरण अक्सर देखने को मिल जाता है. पिछले साल बांकुड़ा में नीची जातियों की महिलाओं का पकाया मिड डे मिल खाने से सवर्णों के बच्चों के इनकार के बाद वाममोर्चा के चेयरमैन और राज्य माकपा के महासचिव विमान बोस ने हस्तक्षेप किया था. इसी तरह का वाकया महानगर कोलकाता में हुआ. आरोप है कि कोलकाता मेडिकल कालेज में अस्पृश्य और नीची जातियों के छात्रो के साथ न सिर्फ छुआछूत चल रहा है, बल्कि ऐसे छात्रों को शारीरिक व मानसिक तौर पर उत्पीड़ित भी किया जाता है. जब खास कोलकाते में ऐसा हो रहा है तो अन्यत्र क्या होगा. कोलकाता मेडिकल कालेज के मेन हास्टल के पहले और दूसरे वर्ष के सत्रह छात्रों ने डीन और सुपर को अस्पृश्यता की लिखित शिकायत की थी लेकिन इतना समय बीतने के बावजूद कोई यह बता पाने की स्थिति में नहीं है कि उस मामले में क्या कार्रवाई हुई. हाल ही में बीते लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ वाममोर्चा को अच्छी शिकस्त मिली है. यह शिकस्त माकपा की गलत नीतियों और कथनी और करनी फर्क की वजह से हुई. करीब डेढ़ साल तक भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर नंदीग्राम में हिंसा के चलते वहां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का जनाधार वहां से लगभग खतम हो गया और सिंगूर में भी लगभग यहीं हुआ. अब लालगढ़ में लाल गुर्ग ढह रहा है
लोकसभा चुनाव में वाममोर्चा को मिले झटकों से छोटे घटक दलों के दिन बहुरनें की उम्मीद है. चुनाव से पहले घटक दलों को ताक पर रखने वाली वाममोर्चा की सबसे बड़ी पार्टी माकपा अब उन्हें तरजीह देने लगी है.
डॉ. अम्बेडकर ने साइमन कमीशन के सामने अतिशोषित दलितों की समस्याओं को रखा और उससे प्रभावित होकर अंग्रेजी हुकूमत ने डॉ. अम्बेडकर को अपना पक्ष रखने के लिए लंदन की गोलमेज सभा में आमत्रिंत किया. इंग्लैंड के उस समय के प्रधानमंत्री रैमजे मेग्डोनाल्ड ने मुसलमानों और दलितों को पृथक मताधिकार का अधिकार दिया, जिस पर गांधी जी असहमत हुए और पूना की यरवदा जेल में 22 दिन तक अनशन पर बैठे रहे. उनका मानना था कि दलित हिंदू समाज का हिस्सा हैं इसलिए इनको पृथक मताधिकार देने का मतलब होगा कि समाज से अलग करना. गांधी जी की अहिंसा का हथियार हिंसा से भी ज्यादा मजबूर कर देने वाला होता थी. इन्हीं परिस्थितियों में डॉ. अम्बेडकर ने गांधीजी से पूनापैक्ट किया और आरक्षण पर सहमति बनी. संविंधान समिति बनाते समय गांधीजी ने डॉ. अम्बेडकर का नाम प्रस्तावित किया. डॉ. अम्बेडकर दलितों, शोषितों, महिलाओं एवं अल्पसंख्यकों के लिए तमाम प्रावधान संविधान में रखने में सफल रहे. कुछ और क्रातिंकारी प्रावधान होने चाहिए थे जो न हो सके. दूसरों की सहमति पर भी बहुत बातें आधारित थीं. भारत के सविंधान की धारा-17 में अस्पृश्यता निवारण मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया. इसके स्थान पर यदि जाति उन्मूलन को मौलिक अधिकार बनाया गया होता तो आज जात-पांत का इतना प्रभाव न दिखता. डॉ. अम्बेडकर जब कानून मंत्री थे तो प्रधानमंत्री, जवाहर लाल नेहरू से मशविरा लेकर हिंदू कोड बिल पेश किया जिसमें महिलाओं को घर की संपत्ति में अधिकार सहित तमाम और क्षेत्रों में उनको बराबरी का हक शामिल था. संसद में विधेयक पेश होने पर संसद के अंदर कट्टरवादी सांसद एवं मंत्री इसका विरोध करने लगे.
डॉ. अम्बेडकर को गहरा धक्का लगा और उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देते हुए कहा कि यदि आज भी हिंदू समाज महिलाओं को बराबर का अधिकार देने के लिए तैयार नहीं हैं तो यह बहुत ही ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है. इसके बाद डॉ. अम्बेडकर अपना राजनैतिक दल बनाने में जुट गए और भारत को बौद्धमय भी. 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर की धरती पर लाखों दलितों के साथ बौद्ध धर्म धारण करके विशेष तौर से दलितों के उत्थान, मान-सम्मान एवं समाज में जात-पांत की समाप्ति का मार्ग प्रशस्त किया. इससे महाराष्ट्र में सांस्कृतिक क्रातिं का कारवां आगे बढ़ा और उसके प्रभाव से जितनी जागरुकता और प्रगति महाराष्ट्र के दलितों में आई उतनी अन्य स्थानों पर देखने को नहीं मिलती.
डॉ. अम्बेडकर, डॉ. राम मनोहर लोहिया एवं पेरियार मिलकर एक नई राजनैतिक भूमि की तलाश करने ही वाले थे कि डॉ. अम्बेडकर का 6 दिसम्बर, 1956 को परिनिर्वाण हो गया. इनके आंदोलन की वारिस रिपब्लिक पार्टी ऑफ इडिंया बनी और कुछ हद तक 1960 के दशक में सफलता भी प्राप्त की. गुटबाजी के कारण रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इडिंया कुछ खास कामयाबी नहीं हासिल कर सकी. डॉ. अम्बेडकर को केवल दलितों के मसीहा के रूप में देखना ही जात-पांत है. सविंधान की धारा 25 से लेकर 30 तक जो अधिकार एवं सुविधाएं अल्पसंख्यकों को दी हैं, दुनिया में शायद ही किसी और देश में हों. महिलाओं के बारे में उल्लेख किया जा चुका है. डॉ. अम्बेडकर जमीन का राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे और सरकार का बड़े उद्योगों में एकाधिकार.
भारत के कम्युनिस्टों से आर्थिक मामले में ये कहीं अधिक प्रगतिशील थे. दुर्भाग्य से इनके योगदान को पूरा श्रेय नहीं मिला लेकिन जैसे-जैसे लोग जागृत होते जा रहे हैं, मृत डॉ. अम्बेडकर जिंदा से ज्यादा प्रभावशाली होते जा रहे हैं. रिपब्लिक पार्टी ऑफ इडिंया की गुटबाजी के कारण डॉ. अम्बेडकर के कारवां को धक्का लगा. उसे पूरा करने का वायदा लेकर कांशीराम भारतीय समाज के पटल पर आए. कांशीराम ने हजारों वर्षों से बंटे समाज के अंतर्विरोध को समझा और उसका इस्तेमाल करके राजनैतिक सफलता हासिल करने में सफल रहे. डॉ. अम्बेडकर का मूल सिद्धांत जाति उन्मूलन था. तमिलनाडु से लेकर कश्मीर तक तथा गुजरात से लेकर बंगाल तक डॉ. अम्बेडकर के विचारों पर आधारित तमाम संगठन बने और आज भी हैं. लेकिन ये संगठन वर्तमान संदर्भ में कितने प्रभावशाली है, यह सवाल के घेरे में है. बंगाल का वर्तमान परिदृश्य निराश और हतोत्साहित करने वाला है.
(इस आलेख के तथ्य व आंकड़े पलाश विश्वास के आलेख “वाममोर्चा नहीं, बंगाल में ब्राह्मण मोर्चा का राज ” से लिए गये है.)

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