(त्रिलोचन शास्त्री से पहली और आखिरी मुलाकात)
श्रीराजेश
आज सुबह बिजली फिर गुल हो गयी, रोजाना की तरह, और नींद जल्दी खुल गयी, काम कुछ था नहीं. होता भी कैसे ? दिल्ली या नोएडा आये अभी खींच-तान कर डेढ माह बीते हैं, सोचा कि बैग का सामान अव्यवस्थित हो गया है, सहेज दूं. इसी क्रम में मुझे बाबा (त्रिलोचन शास्त्री) की मैं तुम्हें सौंपता हूं काव्य संग्रह दिख गया, जिसे मैंने कोलकाता से दिल्ली के सफर के दौरान पढ़ने के लिए अपने मित्र से ले कर आया था. संग्रह दिखते ही वह दिन मुझे याद आ गया, जब पहली और आखिरी बार मैं बाबा से मिला था. उस समय मुझे ये अंदाजा नहीं था कि बाबा से ये मुलाकात बार-बार याद करने लायक है. उन्हें मैं बाबा कहता हूं. यह संबोधन खुद उन्हीं द्वारा दिया हुआ है.
बात 1994-95 की रहीं होगी. कोलकाता में मैं जनसत्ता में स्ट्रीगरी की जुगाड़ में था. उस समय वहां के समाचार संपादक अमित प्रकाश सिंह हुआ करते थे. जब जनसत्ता कायार्लय पहुंचता तो अमित जी कवि सम्मेलन, विचार गोष्ठी, किसी राजनीतिक दल के धरना-प्रदर्शन को कवर करने का इसानमेंट दे देते और मेरा दिल बाग-बाग हो जाता. इसी तरह कोलकाता में गैर सरकारी स्कूलों की बढ़ती संख्या पर उन्होंने मुझे एक फीचर तैयार करने को कहा, साथ ही चीफ रिपोर्टर गंगा प्रसाद जी (अभी पटना में है) से इससे संबंधित विंदु लिखवा लेने का निर्देश दिया. गंगा जी के टेबल पर जनसत्ता के उस दिन का अंक पड़ा था और उसमें त्रिलोचन शास्त्री के कोलकाता आने की खबर छपी थी. इसके पहले कवि गोष्ठियों को कवर करते मैं सतही तौर पर त्रिलोचन और नागार्जुन दोनों बड़े कवियों के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था. खबर पर नजर पड़ते ही मैंने गंगा जी से कहा कि त्रिलोचन जी के कार्यक्रम को कवर करने का इसानमेंट मुझे ही दिजिएगा. गंगा जी हंस दिये और कहा कि अमित जी तुम्हें कार्यक्रम देते हैं, उनसे ही ले लेना. मैं उनके पास से अमित जी के पास पहुंचा और वहीं बात कही. तो टालते हुए कहे कि अभी उनके आने में तो देर है, आयेंगे तो देखा जायेगा. बात आयी-गयी हो गयी. त्रिलोचन कोलकाता आये, कई गोष्ठियों में उन्होंने शिरकत की. जनसत्ता में सभी की खबरें भी छपी लेकिन मुझे किसी कार्यक्रम को कवर करने का मौका नहीं मिला. इससे अमित जी के प्रति थोड़ी खींज भी थी. लगभग एक सप्ताह बीते होंगे अमित जी ने मारवाड़ी समुदाय के एक हास्य कवि सम्मेलन की रिपोर्टिंग करने के लिए कहा. अब मेरी खींज और बढ़ गयी और मैंने बगैर सोचे समझे तन से कह दिया कि जितने घटिया कार्यक्रम होते हैं वहीं आप मुझे थमा देते हैं, त्रिलोचन शास्त्री वाली कवि गोष्ठी का इसानमेंट मांगा था तो आपने दिया ही नहीं. भले ही मैं उसकी खबरे ठीक ढंग से नहीं लिख पाता लेकिन जो सीनियर गये थे, उनके साथ ही मुझे भेज देते तो कम से कम मैं उनसे मिल लेता या उन्हें देख लेता. इस पर कोई टिप्पणी करने के बजाय उन्होंने कहा कि अच्छा अब जाओ और अपना काम करो, दिमाग मत खाओ. मैं आ कर अपनी खबरें लिखने लगा. रात के साढ़े नौ के करीब बजे होंगे. घर लौटने की तैयारी कर रहा था. तभी अरविंद (चपरासी) आया और कहा कि अमित जी बुला रहे हैं. मैंने सोचा कल के लिए कुछ निर्देश मिलने वाले होंगे. गया तो उन्होंने बड़े प्यार से बैठाया और पूछा – आखिर तुम क्यों त्रिलोचन जी से मिलना चाहते हो ? मैंने कहा- वे बड़े कवि हैं, स्वाभाविक है कि उनसे मिलने की इच्छा होगी ही. वे हंसने लगे और कहा कि कल तुम्हारा कोई भी इसानमेंट दोपहर दो बजे के बाद ही है, सुबह उनसे जा कर मिल लेना, पता लिख लो. उन्होंने दक्षिण कोलकाता के टालीगंज के रानीकुटी का एक पता लिखा दिया. मैं चला आया.
सियालदह रेलवे स्टेशन पहुंचा तो हमारे कई मित्र पूर्व निर्धारित समय के अनुसार वहां मौजूद थे. इसमें प्रकाश, संजय जायसवाल, और अर्जून सिंह थे. लोकल ट्रेन में बैठे तय हुआ कि प्रकाश भी सुबह मेरे साथ त्रिलोचन जी से मिलने चलेगा. वह अच्छी कविताएं उस समय भी लिखता था, और अब तो लिखता ही है. वह मेरा लंगोटिया मित्र है. अभी वह आगरा में केंद्रीय हिंदी संस्थान की गवेषणा पत्रिका में बतौर सह संपादक कार्यरत है.
अगले दिन प्रकाश मेरे घर अपनी कुछ कविताओं के साथ चलने की तैयारी में आया और साथ हम भी अपनी कविताओं की डायरी लिए चल पड़े. निर्धारित पते पर पहुंचे, कालबेल बजाया, एक महिला निकलीं, हमने अपना आशय बताया. उन्होंने बैठकखाने में बैठा दिया. वहां टेबल पर कई हिंदी –अंग्रेजी के अखबार और कई साहित्यिक पत्रिकाएं रखी थीं. हम दोनों उन पत्रिकाओं को पलटना शुरू किया. ये वैसी पत्रिकाएं थी, जिनका नाम सुना था लेकिन इनमें से कई पत्रिकाओं का कोई अंक देखा नहीं था.तभी वह भद्र महिला बैठकखाने में आयीं और पानी दे कर एक ओर संकेत करते हुए कहा – त्रिलोचन जी उस कमरे में है. वहीं चले जायें.
हमने एक सांस में गिलास का पानी खत्म किया और हिचकते हुए कमरे की ओर बढ़े और दरवाजे पर जा कर टिकक गये. भीतर बढ़ी दाढ़ी, विखरे बाल, आसमानी रंग की लुंगी, हां लुंगी ही थी. पीले रंग की कमीज पहने एक वृद्ध पलंग पर लेटे थे. अखबारों में छपी तस्वीरों को देखा ही था, सो तुरंत पहचान गया, यहीं हैं त्रिलोचन. हम दोनों ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़ प्रणाम किया. प्रणाम की आवाज सुन, उठते हुए उन्होंने हम दोनों को आशीष भी दिया और सामने रखी कुर्सी पर बैठने का संकेत किया. कुर्सी एक ही थी, जिस पर मैं बैठ गया और प्रकाश उनके पलंग पर पायताने बैठा बाबा ने बारी-बारी से नाम पूछा. वह धीरे-धीरे हमारी पढ़ाई लिखाई के साथ घर परिवार के विषय में भी बातें करने लगे और महज दस मिनट बीते होंगे कि उनके बातचीत करने के अंदाज से हमारी सारी हिचकिचाहटें दूर हो गईं और हम दोनों सामान्य हो गये. वहीं एक आलमारी में कई सम्मान पत्र, रखे हुए थे. उन्ही में से एक पर उनकी जन्मतिथि 20 अगस्त 1977 अंकित था. जबकि उनकी जन्मतिथि 20 अगस्त 1917 है. हमने कहा- बाबा इस पर तो आपकी जन्मतिथि 1977 है ? तो उन्होंने तपाक से हंसते हुए कहा- मैं क्या तुमलोगों से ज्यादा उम्र का दिखता हूं ? हमलोग कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे. इसके बाद उन्होंने बताया कि गलती से वहां 1917 की जगह 1977 अंकित हो गया है. और वे इस तरह की गलतियों की पूरी फेहरिस्त सुनाने लगे. हम उनके संस्मरण को बड़ी उत्कंठा से सुनते रहे. तभी प्रकाश ने पूछा कि बाबा, सानेट आप लिखते है और हम लोग सानेट के विषय में सुने तो हैं लेकिन जानते नहीं, यहां तक कि आपकी लिखी सानेट भी नहीं पढ़ी है. बाबा ने तुरंत एक पुरानी पत्रिका प्रकाश को थमा दी. इसमें उनके कुछ सानेट थे और इसके बाद वह सानेट के विषय में विस्तार से बताने लगे.इसके बाद बारी-बारी से हमने अपनी कविताएं भी उन्हें सुनाई. और हमारी नादानी भरी कविताएं बड़ी चांव से सुनते रहे. जब दोनों कि कविताएं खत्म हो गयी. तो उन्होंने कहा – अच्छा लिखते हो, लेकिन पहले साहित्यिक पत्रिकाए पढ़ो. फिर लिखो. कविता द्रव्य होती है, जो स्वतः मन से बह निकलती है. उनके यह शब्द अब भी जेहन में वैसे ही बरकरार है. हम दोनों साहित्य के दंतहीन शावक थे लेकिन यह उनकी सहजता ही थी कि वे हम दोनों से इस तरह बातें कर रहे थे जैसे हम सही मायने में साहित्य के अनुरागी हो. सच तो यह है कि जब वे सानेट के विषय में बताते हुए उस मुद्दे से भटक कर अंग्रेजी साहित्य के विषय में बोलने लगे और अंग्रेजी के कवियों का नाम लेते थे तो उनकी आधी बातें हमरी समझ में हीं नहीं आयी. हालांकि वे बार बार पूछते यह सुना है- उनकी हर बात में हां में सर हिला देते. लेकिन वह ताड़ जाते कि हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ा. उनके पास बैठे तकरीबन एक घंटा हो चुका था. उन्होंने पूछा – कुछ खाओगे ? सुबह जल्दी ही निकल गये थे. खाया कुछ नहीं था. भूख लगी ही थी. हां में सर फिर हिला दिया. वह उठे अंदर गये और एक प्लेट में पहवा ले कर आये. प्लेट में चम्मच नहीं था. पास पड़े अखबार के एक टूकड़े को उन्होंने चम्मच बना कर हमें पकड़ा दिया. हम पहवा खाते रहे और वे साहित्य के विषय में अमृतवर्षा करते रहे, हम भींगे भी लेकिन इसका असर अंदर तक नहीं हुआ. पहवां खतम हुआ तो हम चलने को तैयार हुए. उन्होंने ढ़ेर सारी पत्र-पत्रिकाएं पहली मुलाकात का उपहार स्वरूप दिया और अंत में पूछा कि कैसे आये यहां ? तब हमने बताया कि जनसत्ता के अमित जी ने यहां का पता दिया था. वह हंसने लगे. हम समझ नहीं सके और उनका आशीष ले हम लौट गये.
शाम को दफ्तर पहुंचा तो अमित जी ने देखते ही पूछा – गये थे ?
मैंने कहा – जी.
क्या-क्या बातें हुई?
मैंने वह सब बताना शुरू किया, तभी संपादक जी ने उन्हें अपनी केबिन में बुला लिया और मैं गंगाजी के पास चला गया. मैं त्रिलोचन जी से मिल कर अति प्रसन्न था, चेहरे पर प्रसन्नता के भाव दिख रहे थे, सो गंगा जी बोले – क्या हिरो, क्या हाल है ? मैंने उन्हें भी बताया कि कहां से आ रहा हूं. जब वे सुन लिये तो बोले कि अमित जी तुम लोगों कुछ खिलाया या पानी पिला कर ही टरका दिया. मैंने कहा कि हम अमित जी के यहां थोड़े गये थे, त्रिलोचन जी से मिलने गये थे. वह अपने किसी संबंधी के यहां रानीकुटिर में ठहरे है. गंगा जी हंसने लगे और कहा- अमित जी के पिता है त्रिलोचन शास्त्री और तुम जहां से मिल कर आ रहे हो वह अमित जी का ही घर है, हम यह सुन कर आश्चर्यचकित हुए बगैर नहीं रहे और मेरी नजर में त्रिलोचन जी के साथ अमित जी भी महान हो गये.
आज सुबह बिजली फिर गुल हो गयी, रोजाना की तरह, और नींद जल्दी खुल गयी, काम कुछ था नहीं. होता भी कैसे ? दिल्ली या नोएडा आये अभी खींच-तान कर डेढ माह बीते हैं, सोचा कि बैग का सामान अव्यवस्थित हो गया है, सहेज दूं. इसी क्रम में मुझे बाबा (त्रिलोचन शास्त्री) की मैं तुम्हें सौंपता हूं काव्य संग्रह दिख गया, जिसे मैंने कोलकाता से दिल्ली के सफर के दौरान पढ़ने के लिए अपने मित्र से ले कर आया था. संग्रह दिखते ही वह दिन मुझे याद आ गया, जब पहली और आखिरी बार मैं बाबा से मिला था. उस समय मुझे ये अंदाजा नहीं था कि बाबा से ये मुलाकात बार-बार याद करने लायक है. उन्हें मैं बाबा कहता हूं. यह संबोधन खुद उन्हीं द्वारा दिया हुआ है.
बात 1994-95 की रहीं होगी. कोलकाता में मैं जनसत्ता में स्ट्रीगरी की जुगाड़ में था. उस समय वहां के समाचार संपादक अमित प्रकाश सिंह हुआ करते थे. जब जनसत्ता कायार्लय पहुंचता तो अमित जी कवि सम्मेलन, विचार गोष्ठी, किसी राजनीतिक दल के धरना-प्रदर्शन को कवर करने का इसानमेंट दे देते और मेरा दिल बाग-बाग हो जाता. इसी तरह कोलकाता में गैर सरकारी स्कूलों की बढ़ती संख्या पर उन्होंने मुझे एक फीचर तैयार करने को कहा, साथ ही चीफ रिपोर्टर गंगा प्रसाद जी (अभी पटना में है) से इससे संबंधित विंदु लिखवा लेने का निर्देश दिया. गंगा जी के टेबल पर जनसत्ता के उस दिन का अंक पड़ा था और उसमें त्रिलोचन शास्त्री के कोलकाता आने की खबर छपी थी. इसके पहले कवि गोष्ठियों को कवर करते मैं सतही तौर पर त्रिलोचन और नागार्जुन दोनों बड़े कवियों के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था. खबर पर नजर पड़ते ही मैंने गंगा जी से कहा कि त्रिलोचन जी के कार्यक्रम को कवर करने का इसानमेंट मुझे ही दिजिएगा. गंगा जी हंस दिये और कहा कि अमित जी तुम्हें कार्यक्रम देते हैं, उनसे ही ले लेना. मैं उनके पास से अमित जी के पास पहुंचा और वहीं बात कही. तो टालते हुए कहे कि अभी उनके आने में तो देर है, आयेंगे तो देखा जायेगा. बात आयी-गयी हो गयी. त्रिलोचन कोलकाता आये, कई गोष्ठियों में उन्होंने शिरकत की. जनसत्ता में सभी की खबरें भी छपी लेकिन मुझे किसी कार्यक्रम को कवर करने का मौका नहीं मिला. इससे अमित जी के प्रति थोड़ी खींज भी थी. लगभग एक सप्ताह बीते होंगे अमित जी ने मारवाड़ी समुदाय के एक हास्य कवि सम्मेलन की रिपोर्टिंग करने के लिए कहा. अब मेरी खींज और बढ़ गयी और मैंने बगैर सोचे समझे तन से कह दिया कि जितने घटिया कार्यक्रम होते हैं वहीं आप मुझे थमा देते हैं, त्रिलोचन शास्त्री वाली कवि गोष्ठी का इसानमेंट मांगा था तो आपने दिया ही नहीं. भले ही मैं उसकी खबरे ठीक ढंग से नहीं लिख पाता लेकिन जो सीनियर गये थे, उनके साथ ही मुझे भेज देते तो कम से कम मैं उनसे मिल लेता या उन्हें देख लेता. इस पर कोई टिप्पणी करने के बजाय उन्होंने कहा कि अच्छा अब जाओ और अपना काम करो, दिमाग मत खाओ. मैं आ कर अपनी खबरें लिखने लगा. रात के साढ़े नौ के करीब बजे होंगे. घर लौटने की तैयारी कर रहा था. तभी अरविंद (चपरासी) आया और कहा कि अमित जी बुला रहे हैं. मैंने सोचा कल के लिए कुछ निर्देश मिलने वाले होंगे. गया तो उन्होंने बड़े प्यार से बैठाया और पूछा – आखिर तुम क्यों त्रिलोचन जी से मिलना चाहते हो ? मैंने कहा- वे बड़े कवि हैं, स्वाभाविक है कि उनसे मिलने की इच्छा होगी ही. वे हंसने लगे और कहा कि कल तुम्हारा कोई भी इसानमेंट दोपहर दो बजे के बाद ही है, सुबह उनसे जा कर मिल लेना, पता लिख लो. उन्होंने दक्षिण कोलकाता के टालीगंज के रानीकुटी का एक पता लिखा दिया. मैं चला आया.
सियालदह रेलवे स्टेशन पहुंचा तो हमारे कई मित्र पूर्व निर्धारित समय के अनुसार वहां मौजूद थे. इसमें प्रकाश, संजय जायसवाल, और अर्जून सिंह थे. लोकल ट्रेन में बैठे तय हुआ कि प्रकाश भी सुबह मेरे साथ त्रिलोचन जी से मिलने चलेगा. वह अच्छी कविताएं उस समय भी लिखता था, और अब तो लिखता ही है. वह मेरा लंगोटिया मित्र है. अभी वह आगरा में केंद्रीय हिंदी संस्थान की गवेषणा पत्रिका में बतौर सह संपादक कार्यरत है.
अगले दिन प्रकाश मेरे घर अपनी कुछ कविताओं के साथ चलने की तैयारी में आया और साथ हम भी अपनी कविताओं की डायरी लिए चल पड़े. निर्धारित पते पर पहुंचे, कालबेल बजाया, एक महिला निकलीं, हमने अपना आशय बताया. उन्होंने बैठकखाने में बैठा दिया. वहां टेबल पर कई हिंदी –अंग्रेजी के अखबार और कई साहित्यिक पत्रिकाएं रखी थीं. हम दोनों उन पत्रिकाओं को पलटना शुरू किया. ये वैसी पत्रिकाएं थी, जिनका नाम सुना था लेकिन इनमें से कई पत्रिकाओं का कोई अंक देखा नहीं था.तभी वह भद्र महिला बैठकखाने में आयीं और पानी दे कर एक ओर संकेत करते हुए कहा – त्रिलोचन जी उस कमरे में है. वहीं चले जायें.
हमने एक सांस में गिलास का पानी खत्म किया और हिचकते हुए कमरे की ओर बढ़े और दरवाजे पर जा कर टिकक गये. भीतर बढ़ी दाढ़ी, विखरे बाल, आसमानी रंग की लुंगी, हां लुंगी ही थी. पीले रंग की कमीज पहने एक वृद्ध पलंग पर लेटे थे. अखबारों में छपी तस्वीरों को देखा ही था, सो तुरंत पहचान गया, यहीं हैं त्रिलोचन. हम दोनों ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़ प्रणाम किया. प्रणाम की आवाज सुन, उठते हुए उन्होंने हम दोनों को आशीष भी दिया और सामने रखी कुर्सी पर बैठने का संकेत किया. कुर्सी एक ही थी, जिस पर मैं बैठ गया और प्रकाश उनके पलंग पर पायताने बैठा बाबा ने बारी-बारी से नाम पूछा. वह धीरे-धीरे हमारी पढ़ाई लिखाई के साथ घर परिवार के विषय में भी बातें करने लगे और महज दस मिनट बीते होंगे कि उनके बातचीत करने के अंदाज से हमारी सारी हिचकिचाहटें दूर हो गईं और हम दोनों सामान्य हो गये. वहीं एक आलमारी में कई सम्मान पत्र, रखे हुए थे. उन्ही में से एक पर उनकी जन्मतिथि 20 अगस्त 1977 अंकित था. जबकि उनकी जन्मतिथि 20 अगस्त 1917 है. हमने कहा- बाबा इस पर तो आपकी जन्मतिथि 1977 है ? तो उन्होंने तपाक से हंसते हुए कहा- मैं क्या तुमलोगों से ज्यादा उम्र का दिखता हूं ? हमलोग कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे. इसके बाद उन्होंने बताया कि गलती से वहां 1917 की जगह 1977 अंकित हो गया है. और वे इस तरह की गलतियों की पूरी फेहरिस्त सुनाने लगे. हम उनके संस्मरण को बड़ी उत्कंठा से सुनते रहे. तभी प्रकाश ने पूछा कि बाबा, सानेट आप लिखते है और हम लोग सानेट के विषय में सुने तो हैं लेकिन जानते नहीं, यहां तक कि आपकी लिखी सानेट भी नहीं पढ़ी है. बाबा ने तुरंत एक पुरानी पत्रिका प्रकाश को थमा दी. इसमें उनके कुछ सानेट थे और इसके बाद वह सानेट के विषय में विस्तार से बताने लगे.इसके बाद बारी-बारी से हमने अपनी कविताएं भी उन्हें सुनाई. और हमारी नादानी भरी कविताएं बड़ी चांव से सुनते रहे. जब दोनों कि कविताएं खत्म हो गयी. तो उन्होंने कहा – अच्छा लिखते हो, लेकिन पहले साहित्यिक पत्रिकाए पढ़ो. फिर लिखो. कविता द्रव्य होती है, जो स्वतः मन से बह निकलती है. उनके यह शब्द अब भी जेहन में वैसे ही बरकरार है. हम दोनों साहित्य के दंतहीन शावक थे लेकिन यह उनकी सहजता ही थी कि वे हम दोनों से इस तरह बातें कर रहे थे जैसे हम सही मायने में साहित्य के अनुरागी हो. सच तो यह है कि जब वे सानेट के विषय में बताते हुए उस मुद्दे से भटक कर अंग्रेजी साहित्य के विषय में बोलने लगे और अंग्रेजी के कवियों का नाम लेते थे तो उनकी आधी बातें हमरी समझ में हीं नहीं आयी. हालांकि वे बार बार पूछते यह सुना है- उनकी हर बात में हां में सर हिला देते. लेकिन वह ताड़ जाते कि हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ा. उनके पास बैठे तकरीबन एक घंटा हो चुका था. उन्होंने पूछा – कुछ खाओगे ? सुबह जल्दी ही निकल गये थे. खाया कुछ नहीं था. भूख लगी ही थी. हां में सर फिर हिला दिया. वह उठे अंदर गये और एक प्लेट में पहवा ले कर आये. प्लेट में चम्मच नहीं था. पास पड़े अखबार के एक टूकड़े को उन्होंने चम्मच बना कर हमें पकड़ा दिया. हम पहवा खाते रहे और वे साहित्य के विषय में अमृतवर्षा करते रहे, हम भींगे भी लेकिन इसका असर अंदर तक नहीं हुआ. पहवां खतम हुआ तो हम चलने को तैयार हुए. उन्होंने ढ़ेर सारी पत्र-पत्रिकाएं पहली मुलाकात का उपहार स्वरूप दिया और अंत में पूछा कि कैसे आये यहां ? तब हमने बताया कि जनसत्ता के अमित जी ने यहां का पता दिया था. वह हंसने लगे. हम समझ नहीं सके और उनका आशीष ले हम लौट गये.
शाम को दफ्तर पहुंचा तो अमित जी ने देखते ही पूछा – गये थे ?
मैंने कहा – जी.
क्या-क्या बातें हुई?
मैंने वह सब बताना शुरू किया, तभी संपादक जी ने उन्हें अपनी केबिन में बुला लिया और मैं गंगाजी के पास चला गया. मैं त्रिलोचन जी से मिल कर अति प्रसन्न था, चेहरे पर प्रसन्नता के भाव दिख रहे थे, सो गंगा जी बोले – क्या हिरो, क्या हाल है ? मैंने उन्हें भी बताया कि कहां से आ रहा हूं. जब वे सुन लिये तो बोले कि अमित जी तुम लोगों कुछ खिलाया या पानी पिला कर ही टरका दिया. मैंने कहा कि हम अमित जी के यहां थोड़े गये थे, त्रिलोचन जी से मिलने गये थे. वह अपने किसी संबंधी के यहां रानीकुटिर में ठहरे है. गंगा जी हंसने लगे और कहा- अमित जी के पिता है त्रिलोचन शास्त्री और तुम जहां से मिल कर आ रहे हो वह अमित जी का ही घर है, हम यह सुन कर आश्चर्यचकित हुए बगैर नहीं रहे और मेरी नजर में त्रिलोचन जी के साथ अमित जी भी महान हो गये.
अदभुत....गजब का रहस्य है आपके इस संस्मरण में...अमित जी और त्रिलोचन के जी के बीच एकदम अलग ढंग से लिखा गया है...अंत में अमित जी और त्रिलोचन जी के बीच के रहस्य को समझ कर कुछ देर के लिए झेप गया...बहुत बढ़िया संस्मरण है...धन्यवाद
जवाब देंहटाएंअच्छा संस्मरण लिखा है आपने। ‘कविता द्रव्य होती है, जो स्वतः बह निकलती है’ शीर्षक के बारे में माफी के साथ कहना चाहता हूँ कि "द्रव्य" के बदले "द्रव" लिखा जाना चाहिए। मेरे हिसाब से "द्रव्य" से ठोस पदार्थ का बोध होता है, जिसमें बहाव की स्थिति उपयुक्त नहीं लगती किन्तु "द्रव" में यह संभव है। देख लीजियेगा और बुरा मत मानियेगा।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
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