शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

भारतीय राजनीति की त्रिदेवी: ममता, माया, जयललिता @ 84 सीटें


लोकसभा चुनाव में महज तीन महीने रह गये हैं. ऐसे में राजनीतिक दांव पेंच और उठा पटक का शुरू हो जाना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता. लेकिन 2014 का चुनाव ऐसा आम चुनाव है, जिसमें आमने सामने दो बड़ी और पारंपरिक भारतीय राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा है. राजनीतिक पार्टियों का एक समूह कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए के साथ है तो दूसरा समूह जो कि फिलहाल कमोजर ही है लेकिन वह भाजपा के नेतृत्व में एनडीए के साथ है. और इन दोनों से अलग तीसरा समूह थर्ड फ्रंट के रूप में आज भी पहले की तरह सामने हैं लेकिन अंतर यह कि अब तक इसकी अगुआई आम तौर पर वामपंथी पार्टियां ही करती थी, लेकिन पहले से जीर्णशीर्ण पड़ चुकी वाममोर्चा इस बार ऐसी स्थिति में नहीं है, तो उनकी जगह समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव इस फ्रंट का नेतृत्व करते नजर आ रहे हैं. भले ही वे यह दावा करें कि प्रधानमंत्री की दौड़ में वे नहीं है लेकिन उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से देश अवगत है. ठीक ऐसे में जयललिता ने वाममोर्चा के साथ गठबंधन कर राजनीतिक का मास्टर – स्ट्रोक खेला है. वाममोर्चा के साथ गठबंधन के इस फैसले से उन्होंने राजनीतिक निशाने एक साथ साधने की कोशिश की है. अपने समर्थकों के बीच ‘पुराची थैलवी अम्मा’ के नाम से लोकप्रिय जयललिता खुद को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की दौड़ से अगल नहीं मानती. उनके इस बयान से कि “अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, यह बात करने का सही समय अभी नहीं आया है” से जाहिर होता है. दूसरी तरफ वह भाजपा को फिलहाल समर्थन देने की घोषणा कर, अभी से ही वे अपने समर्थकों के एक वर्ग को खोना नहीं चाहती. और तीसरी बात कि तीसरा मोर्चा बनने की स्थिति में भी वे खुद को अप्रासंगिक नहीं रखना चाहती. स्वाभाविक भी है कि उनकी महत्वाकांक्षा निराधार नहीं है. तमिलनाडु में वैसे भी कांग्रेस का जनाधार दरका हुआ है, डीएमके भी कांग्रेस के साथ गंठबंधन को लेकर उत्सूक नहीं दिखती. दूसरी ओर डीएमके अपने अंदर की गुटबाजी और कलह से जूझ रही है और पार्टी निराशा की गर्त में डूबी जा रही है. ऐसी स्थिति जयललिता की पार्टी एआईडीएमके लिए माकूल माहौल पैदा कर रही है और चुनाव के लिए उन्हें यह स्थिति उत्साहित कर रही है. इसी उत्साह के नतीजे रूप में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों में से चार की उम्र कैद की सजा को जयललिता की सरकार ने माफ करने का निर्णय कर लिया है. इसका मकसद था कि वह तमिलों की सहानुभूति प्राप्त कर सके. हालांकि उनके इस निर्णय की कानूनी वैधता को लेकर विवाद खड़ा हो गया है. इस विवाद का चाहे जो अंजाम हो, लेकिन वह तमिलों के एक तबके के दिलों में अपनी जगह बनाने में कामयाब रही हैं. आम चुनाव को लेकर हाल ही में हुए एक सर्वे में यह बात सामने आई कि तमिलनाडु की कुल 39 लोकसभा सीट में से तकरीबन 32 से 33 सीटें जयललिता को मिलेंगी. इसके पहले हुए विधानसभा चुनाव में भी जयललिता की पार्टी एआईडीएमके को 234 में 203 सीटों पर रिकार्ड जीत हासिल हुई थी. जयललिता के ताजा फैसले और बयान ने उनकी सीटें और बढ़ने का संकेत देती है. जयललिता ने फिलहाल जो राजनीति दांव चला है वह हर परिस्थिति में उनके अनुकूल है. वह या तो खुद प्रधानमंत्री की दावेदारी पेश कर सकती है या फिर जिसे चाहें वह प्रधानमंत्री बने. कुल मिलाकर जयललिता की राजनीति उन्हें फिलहाल बढ़त में तो ले ही जा रही है. इसी तरह अगर बात करें ममता बनर्जी की तो हाल ही में अण्णा हजारे ने उनकी तारीफ कर नई राजनीतिक चर्चा को गर्मा दिया और मौके की नब्ज को पकड़ने के लिए ममता ने अण्णा से मुलाकात भी की. इस मुलाकात के बाद अण्णा ने तृणमूल कांग्रेस का प्रचार करने को लेकर अपनी सहमति बी दी. यह मुलाकात भविष्य में क्या गुल खिलायेगा यह तो आने वाले समय में पता लगेगा, लेकिन पश्चिम बंगाल में बीते दिनों हुए पंचायत चुनाव में तृणमूल को 41.76 फीसदी वोट मिले, तो वाममोर्चा को 37.6 फीसदी ही वोट मिले. इससे तृणमूल कांग्रेस उत्साहित है और उसे उम्मीद है कि भाजपा को लोकसभा चुनाव में चाहें कितनी ही अधिक सीटें क्यों ना मिल जाये लेकिन सत्तारूढ़ होने के लिए उसे 35 से 40 सीटों की अतिरिक्त जरुरत पड़ेगी. ऐसे में तृणमूल कांग्रेस भाजपा की सरकार बनवाने में किंगमेकर की भूमिका में आ जाएगी. जैसे कि 1998 में एनडीए को जयललिता और 1999 में एनडीए सरकार को समर्थन दे कर चंद्रबाबू नायडु ने जो भूमिका निभाई थी, कमोवेश उसी भूमिका में 2014 में तृणमूल कांग्रेस आने का सपना संजो रही है. ममता बनर्जी हालांकि प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल नहीं है. लेकिन उनके समर्थक सभाओं में इस बात की चर्चा जरुर करते हैं कि वे अगले लोकसभा में नई सरकार बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका में आएं और सत्ता की चाबी उनके हाथ में हो इसलिए उन्हें अधिक से अधिक सीटों पर जनता वोट देकर जीताये, और संसद में भेजे. चुनावी सर्वे में भी यह दिखता है कि राज्य की कुल 45 लोकसभा सीटों में से तृणमूल कांग्रेस के खाते में 30 सीटें आ सकती है. हालांकि तृममूल कांग्रेस जब से पश्चिम बंगाल की सत्ता में आई है, तब से अब तक वह ना तो आर्थिक मोर्चे पर कोई सफलता अर्जित कर पाई है और ना ही उद्योगों या निवेश को लाने में सफल हुई है. राज्य के विकास के मोर्चे पर भी वह विफल ही रही है. उसके खाते में केवल माओवादियों पर अंकुश लगाने तथा गोरखालैंड के आंदोलन पर काबू पाना ही आया है. राज्य में काननू व्यवस्था की खस्ता हालत ने तृणमूल के सामने चुनौती खड़ा कर दी है. हालांकि बसपा की फिलहाल 20 सीटें है, लेकिन इस बार भी उसके सामने कोई बड़ी जीत की गुंजाइश नहीं दिखती है. चुनावी सर्वे में बसपा को केवल 22 सीटें मिलने की उम्मीद जतायी गई है. बावजूद इसके बसपा की सुप्रीमो मायावती की नजर मछली की आंख यानि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर टिकी है. 2009 में उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का सपना देखा था लेकिन यह सपना हकीकत में नहीं तब्दील हो सका. 2009 में ही परमाणु सौदे के मामले में यूपीए से समर्थन वापस लेकर वाममोर्चा ने बसपा का नेतृत्व स्वीकार कर लिया. तब मायावती को लगा कि उनका राजनीति ग्राफ ऊपर बढ़ रहा है और इसी उत्साह में उन्होंने लोकसभा के सभी 543 में से 500 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये, लेकिन जीत केवल 20 सीटों पर ही मिली. इसके बाद से बसपा का ग्राफ लगातार गिरता गया. उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में भी उनकी पार्टी की करारी हार हुई. मध्यप्रदेश में उनकी सात सीटें घट कर चार पर आ गई, तो राजस्थान में भी सीटें छह से घट कर चार पर आ गई. इसी अन्य राज्यों पंजाब, हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल में भी पार्टी की लोकप्रियता घटी है. दूसरी ओर पहले से ही उत्तर प्रदेश में कमजोर पड़ी कांग्रेस अपनी सेहत सुधारने में लगी है और कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से मायावती ने साफ इनकार किया है. मायावती को लगता है कि कमजोर साथी से बेहतर है कि वह अकेले ही चुनाव लड़ें. सूबे के मुज्जफरनगर दंगे के बाद माना जा रहा है मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा सपा से नाराज है और मायावती को लगता है कि यह बड़ा तबका उनकी पार्टी की ओर उन्मुख होगा. मायावती का मानना है कि भाजपा चाहे जितनी मशक्कत कर ले, वह 272 के जादुई आंकड़े से दूर ही रहेगी. ऐसे में बसपा समर्थन दे कर मनचाहा शर्ते मनवा सकती है और अगर तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की स्थिति आती है तो वह सबसे बड़े प्रदेश से अधिक सीटों के साथ संसद में पहुंच कर अपने सपने को साकार करने की दिशा में बढ़ सकती है. खुद को दलित उम्मीदवार बता कर प्रधानमंत्री की दौड़ में खुद को आगे रखने की जुगत में है. इस तरह देखा जाए तो वर्तमान भारतीय राजनीति की ये तीन देवियां अगले लोकसभा चुनाव में या चुनाव के बाद सरकार बनने की स्थिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी. कारण कि अगर हम चुनाव पूर्व हुए इस सर्वेक्षण के आलोक में देखे तो 84 सीटें इनके कब्जे में होंगी और ये जिस दल के साथ तीनों एक साथ जुड़ जाएंगी तो उस दल की सरकार बन जाएगी. ऐसे में ये तीनों राजनीतिक देवियां अपने समर्थन के एवज में उसकी कीमत वसूलने से नहीं चुकेंगी.

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