सोमवार, 30 जून 2014

इराकः टूटने बिखरने के करीब


इराक फिर दहक रहा है। गोलियों, रॉकेट लांचरों के हमलों ने समय से पहले ही आठ-दस साल के बच्चों के हाथों में बंदूक थमा दिया है। जान की सलामती के लिए इराकियों को अब अपनी सेना या फिर हथियारों पर नहीं अल्लाह पर भरोसा है। आईएसआईएस के लड़ाकों ने हमला बोल दिया है, डंके की चोट पर। सारी दुनिया देख रही है- टुकुर-टुकुर। जान फंसी है इराकियों और हजारों भारतीय सहित अन्य विदेशी नागरिकों की। इराक का मीडिया के हवाले से मिली जानकारी के अनुसार हाल-ए-बयां- एक बगदादी को उम्मीद से अधिक विश्वास है कि अब तो बगदाद पर कब्जा जमा लेगा लेकिन हजारों नहीं लाखों बगदादियों की उम्मीदें दरक रही है कि अब उन्हें बगदाद से बदर होना पड़ेगा। इराकी अपने भाग्य को कोस रहे हैं कि यह आफत दशकों से उनका पीछा क्यों नहीं छोड़ रहा। दुनिया में कहीं भी विस्थापन से ज्यादा त्रासद और कुछ नहीं होता। हर मुल्क के वाशिंदों के लिए उनका मुल्क उनकी मां के समान होता है। जहां वह तमाम दुःख और मुसिबतों में मां के ममत्व के साये में होता है, और जब विस्थापित होता है वह ममत्व का साया भी साथ छोड़ देता है, बस साथ रहता है तो केवल एक कशक। बग़दाद में रहने वाले वलीद अबू बकर की 25 वर्षीय बेटी इल्हाम को उम्मीद नहीं कि इस बार वो ज़िंदा रह पाएंगी। उसने अपना हाल भारतीय पत्रकार जुबैर खान को बार-बार टूटते-जुड़ते वाई-फ़ाई इंटरनेट कनेक्शन के बावजूद बताया। कुछ तस्वीरें भी भेजी, जो वहां हाल-ए-बयां कर रहा था। उसका एक वाक्य किसी भी संवेदनशील इंसां को वहीं बूत बनाने के लिए काफी हैः ''मेरी तस्वीर से याद रखिएगा, हम नहीं बचेंगे''। इल्हाम ने 2003 में अमेरिकी हमले के दौरान या फिर शिया-सुन्नी समुदाय के बीच 2007 के हिंसक संघर्ष में मौत को नज़दीक से देखा है। लेकिन इस बार उसका आत्मविश्वास हिला हुआ है। वह बेहद डरी हुई हैं। घर से बाहर मौत खड़ी है-फ़ौजी बख़्तरबंद गाड़ियों की शक्ल में। वलीद को सिर्फ़ एक चिंता है कि उनका जो हो सो हो, उनकी बेटियां ख़ैरियत से रहें। वलीद अबू बकर और उनके जैसे कई परिवार इराक़ की राजधानी बग़दाद में इन दिनों बेहद मुसीबत के दौर से गुजर रहे हैं। इराक़ के अंदर सुन्नी चरमपंथी और शिया बहुल के बीच जारी हिंसा की वजह से हज़ारों लोगों की जान सांसत में है। मौत और तबाही हर दिन उनके दरवाज़े पर दस्तक दे रही हैं। 40 भारतीय मजदूरों का भी आतंकियों ने अपहरण कर लिया है। हजारों की संख्या में भारतीय सहित कई देशों के नागरिक वहां फंसे हुए हैं। जान सांसत में है। सैकड़ों - हजारों मील दूर उनके परिजन उनकी सलामती की दुआ मांग रहे हैं। इराक़ में अगवा भारतीयों में पंजाब के हरसिमरन प्रीत सिंह भी हैं. हरसिमरन प्रीत की मां हरभजन कौर कहती हैं कि 15 जून के बाद से उनका बेटे से कोई संपर्क नहीं हो पाया है। मौजूदा संकट के समय इराक़ का समाज दो वर्गों में बंट चुका है- शिया और सुन्नी। दोनों समुदाय के लोग आपस में फिर से दोस्त हो पाएंगे, इसकी उम्मीद महज़ एक फ़ीसदी है। वलीद जैसे सैकड़ों इराक़ी परिवार और विदेशी नागरिक अब भाग्य के भरोसे हैं। तिकरीत में बिगड़ते हालात के बीच वहाँ फंसी अधिकांश भारतीय नर्सें जल्द से जल्द अपने परिवार के पास लौटना चाहतीं हैं, जबकि कुछ ऐसी भी हैं, जो वापस नहीं आना चाहतीं। यही नहीं, कुछ ऐसी भी हैं, जो इराक़ वापस जाकर काम करना चाहती हैं। हालांकि वो इराक़ में लगातार बिगड़ रही स्थितियों से चिंतित ज़रूर हैं। उनके लिए दुविधा इस बात को लेकर है कि इन हालात में इराक़ लौटना ठीक होगा या नहीं। अगर वो वापस जाती हैं, तो उन्हें नहीं पता कि उनके साथ क्या होगा क्योंकि वहां भारत के 40 कामगारों का अपहरण कर लिया गया है। अगर ये नर्सें वापस इराक़ नहीं जातीं, तो इनके लिए बड़ा सवाल है कि वो लाखों के कर्ज़ का भुगतान कैसे करेंगी, जो उन्होंने अपनी पढ़ाई के लिए लिया है, या फिर नौकरी लगाने के एवज़ में भर्ती एजेंसियों से ले रखा है। नसरिया अस्पताल से छुट्टी पर भारत आई सिंधु कहती हैं, हम सब इराक़ में खराब होते जा रहे हालात से बेहद तनाव में है, लेकिन मैं वहां काम करने के लिए वापस जाना चाहती हूं।'' इराकियों की अपनी मजबूरियां हैं तो वहां फंसे विदेशी नागरिक अपने नजरिये से हालात को देख रहे हैं और उससे उबरने के उपाय तलाश रहे हैं, तो सिंधु जैसी कई निम्न मध्य वर्ग की कामगार है, जिनके लिए जान और जहान सब कुछ रोज की रोजी पर आकर टिक जाती है। ऐसे में इस टूटते - बिखरते देश का गुलशन कैसे आबाद होगा यह अभी तो समय के गर्भ में है। ( पाक्षिक पत्रिका लोकतंत्रनामा के जून-2, 2014 अंक में प्रकाशित)

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