मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

बिहार विस चुनावः प्रवासी बिहारियों की कथा-व्यथा

भोजपुरी का एक गीत है, "मत भुलइह परदेसी आपन गांव रे...”
आज यह गीत बिहार गा रहा है. विधानसभा चुनाव के प्रथम चरण का मतदान 21 अक्टूबर को होने वाला है. राजनीतिक दलों का प्रथम चरण के चुनाव के लिए प्रचार थम गया है. अब सारा जोर मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाने पर लगा है. चुनाव आयोग अपने संसाधनों से मतदाताओं को उनके मताधिकार के बारे में बताने में लगा है, तो कुछ गैर सरकारी संगठन भी इस मुहिम में ताल ठोक रहे हैं. लेकिन सबसे बड़ी और चौकाने वाली बात है कि राज्य के लगभग 30 प्रतिशत मतदाता ऐसे हैं जो चाह कर भी अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं. इन मतदाताओं पर ना राजनीतिक दलों की दृष्टि है और ना ही चुनाव आयोग की.
ये वो मतदाता है जो सूबे में रोजगार नहीं मिलने की वजह से दूसरे राज्यों में पलायन किए. खुद परदेस में है और परिवार बिहार के गांवों में बसता है. सांस परदेस में लेते हैं लेकिन दिल की धड़कन के लिए ऊर्जा गांव से मिलती है. इन प्रवासियों में तीन तबके हैं और सब के सब मतदाता ही हैं.
एक तबका वैसे मजदूरों का है जो मेहनतकस हैं और दूसरे राज्यों में जाकर असंगठित क्षेत्रों में जांगर तोड़ रहे. सपने धुंआ हो रहे हैं.
दूसरा तबका उन छात्रों का है, जो बेहतर भविष्य का सपना संजोये उच्च शिक्षा के लिए घर से बाहर छात्रावासों में हैं. मतदान करने की उम्र तो हो गई है लेकिन अभी तक मतदान केंद्र तक नहीं जा सके हैं. प्रदेश में सरकार के चयन में अपनी भूमिका सुनिश्चित करना चाहते हैं लेकिन उनके लिए यह संभव नहीं हो पाता.
और तीसरा तबका उन पढ़े-लिखे लोगों का है जो सरकारी या गैर सरकारी नौकरियों में लगे हैं और जहां है वहीं अस्थाई तौर पर सैटल है.
गांव घर से दूर दिन भर रोजी रोजगार के रोजनामचा से जूझने के बाद घर लौटने पर उनकी निगाहें टीवी स्क्रीन पर टिक जाती है. रिमोट पर उंगलिया टहलने लगती है. बिहार से संबंधित खबरें दिखने वाली चैनलों पर आ कर थम जाती है. चाय की चुस्की और नाटकीय ढंग से एंकर का हाल-ए-बयां बिहार सुन कर थोड़ी सकून जरूर मिलती है.
ऐसे समय में वे अपने गांव-देस लौटना चाहते हैं लेकिन क्या यह संभव है.
सुबह अखबार देने वाले से आज मेरी मुलाकात हो गई. उसका कहना है कि हम जितना कमाते हैं उसके अनुसार देखे तो सिर्फ चुनाव के दौरान मतदान करने के लिए जाना संभव नहीं हैं. हालांकि मन तो बहुत करता है.
दिल्ली के विनोद नगर में रहने वाले शिवशंकर मिश्रा का कहना है कि बिहार अपना घर है वहां कि हलचलों से कैसे अलग रहा जा सकता है, लेकिन रोजी-रोटी की समस्या हमें चुनावों से दूर कर देती है. पिछले कुछ वर्षों में बाढ़ और सूखे ने मजदूरों के पलायन को और तेज किया है.
बिहार के सीवान जिले के निवासी व दिल्ली में मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत धनजीत सिंह का कहना है, “सिर्फ वोट देने के लिए बिहार जाना तो संभव नहीं, लेकिन ई-वोटिंग की व्यवस्था होती तो शायद बिहार में मतदान के प्रतिशत में खासी बढ़ोत्तरी होती. ”
खैर, राजनीतिक दलों का तर्क अलग है. उनका कहना है कि चुनाव की तारीख ऐसी है कि छठ में बहुत सारे प्रवासी बिहार अपने घर आते हैं और वे अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे. लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रवासी बिहारियों के मत के लिए चुनाव की ताऱीख का निर्धारण छठ और होली जैसे त्योहारों को ध्यान में ही रख कर किए जाएंगे.

1 टिप्पणी:

  1. अपना घर छोड़ना कौन चाहता है, यदि बिहार में पहले विकास कार्य हुये होते तो बिहारी दूसरी जगह क्यों जाते...

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