मंगलवार, 1 मार्च 2011

पश्चिम बंगालः राजनीतिक धूप-छांव

जनाक्रोश और उससे जन्मी क्रांति ने ट्यूनिशिया और मिस्र में लंबे समय से सत्ता पर काबिज तानाशाहों को विदा कर दिया. लीबिया, यमन, जार्डन सहित कई देशों में लोकतंत्र के लिए क्रांति हो रही है. चीन में भी लोग सड़क पर उतरे. यहां स्थितियां अलग थी, अपनी ही लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ. पश्चिम बंगाल की सत्ता पर भी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार काबिज है. पिछले साढ़े तीन दशक से. यहां भी बदलाव की बयार पिछले कुछ सालों से देखी जा रही है. नजर विधानसभा चुनाव पर है. आखिरकार इंतजार खत्म हुई. हालांकि वैसा कुछ नहीं है कि समय बीत रहा हो या बीत गया हो. सब कुछ अपने वक्त से ही हो रहा है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से पश्चिम बंगाल की राजनीति के धूप-छांव ने लोगों की निगाहें होने वाले विधानसभा चुनाव पर केंद्रीत कर दी है. हालांकि पश्चिम बंगाल के अलावा देश के अन्य चार राज्यों में विधानसभा चुनाव की चुनाव आयोग ने एक मार्च को घोषणा कर दी है. एक तरह से इन राज्यों में चुनावी डुगडुगी बज गई.
आज दुनिया भर में जहां भी सत्ता में कम्युनिस्ट हैं, वहां लोकतंत्र स्याह हुआ है. इसके कई उदाहरण है. भारत में भी दो राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में हैं. पश्चिम बंगाल और केरल. बावजूद इसके पश्चिम बंगाल की स्थितियां केरल के मुकाबले कुछ ज्यादा ही चिंतित करने वाली रही है. शेष असम, पुंडुचेरी, तमिलनाडु की भी अपनी-अपनी समस्याएं हैं लेकिन पश्चिम बंगाल की समस्याएं और स्थितियां जुदा हैं. चुनाव आयोग की घोषणा के अनुसार बंगाल में 294 सीटों के लिए छह चरणों में 18, 23, 27 अप्रैल, 3, 7 और 10 मई चुनाव होने हैं.
यहां होने वाले इस चुनाव के नतीजे क्या होंगे ? अनुमान सबकों है- वाममोर्चा को भी, मुख्य विपक्षी तृणमूल कांग्रेस को भी और बंगाल की जनता को भी. लेकिन क्या ये अनुमान वास्तविकता में बदलेंगे? कयास लगने शुरू हो गये हैं. कभी किसानों, मजदूरों, सर्वहारा वर्ग और बुद्धिजीवियों की के बल पर वाममोर्चा ताल ठोकते हुए साढ़े तीन दशक पूर्व राइटर्स में घुसी थी. कामरेड ज्योति बसु के नेतृत्व में. हालात बदल गये, न ज्योति बसु रहे, न माकपा वह रही. आज वहीं किसान, मजदूर, सर्वहारा वर्ग और बुद्धिजीवी माकपा के विऱोधी हो गये हैं. सड़कों पर भी उतरे हैं. हालांकि बंगाल में सड़क पर उतरने की संस्कृति को माकपा ने ही परवान चढ़ाया, आज वही गले की फांस बनी है.
चुनावी घोषणा होते ही राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई है. यह संयोग ही है कि चुनाव की घोषणा भी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के जन्मदिन के दिन ही हुआ. हालांकि मुख्यमंत्री ने अपना जन्मदिन काफी सादगी से मनाया. चुनाव की तारीख की घोषणा होते ही राजनीतिक विशलेषकों में पश्चिम बंगाल में वर्षों से चली आ रही राजनीतिक हिंसा के और बढ़ने या फिर कहें कि सारे रिकार्ड तोड़ने की आशंका चिंता पैदा कर रही है. इस आशंका को नंदीग्राम में 14 मार्च, 2007 को दिन के ऊजाले में ‘चप्पल पहने पुलिसवालों’ द्वारा की गई कार्रवाई बिना किसी शक के पुष्टि करती हैं. वास्तव में, हिंसा में उबाल की शुरुआत 24 नवंबर, 2010 को उस समय हुई, जब शुनिया चार से खेजुरी-नंदीग्राम पर नाकाम हमला हुआ. करीब दौ सौ हथियारबंद लोगों ने कामारडा गांव में घुस कर बमबारी शुरू कर दी. उनका उद्देश्य तृणमूल समथर्कों को डराना और अपनी खोई जमीन पर नियंत्रण कायम करना था. इसके बाद ममता बनर्जी ने केंद्र पर राज्य की वाममोर्चा सरकार और माकपा के खिलाफ ठोस कदम उठाने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया. वास्तव में बंगाल के वर्तमान राजनीतिक हालात को देखने पर यह साफ लगता है कि माकपा का लाल-दस्ता सलवा जुडूम का माकपाई संस्करण बन गया है. अगर राज्य के जंगल महल और लालगढ़ की ओर ध्यान केंद्रीत करे और वहां के तथ्यों पर नजर दौड़ाये तो स्थित और भयानक नजर आती है. स्थानीय बांग्ला अखबार एक दिन ने अपने 2 सितंबर 2010 के अंक में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इसके अनुसार जंगल महल के झाडग़्राम में 52 शिविर और सात ब्लॉकों में 1620 हथियारबंद कार्यकर्ता जमे हुए हैं. गैर आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार इस इलाके में तकरीबन 90 हर्मद शिविर और 2500 सशस्त्र माकपा के हथियारबंद लाल-दस्ते के सदस्यों के मौजूद होने की सूचना है. हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री पी चिंदबरम के मुताबिक 86 शिविर वहां चल रहे हैं. इसी तरह स्थानीय पत्रकारों के दावों को माने तो लालगढ़ के विद्रोह के पूर्व एक दशक से भी कम समय में 100 से भी अधिक लोगों की माकपाइयों ने हत्या कर दी.
उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, 15 दिसंबर, 2010 तक इन झड़पों में मारे गए और घायल हुए तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं की संख्या क्रमश: 96 एवं 1,237 थी. इसी तरह माकपा के मारे गए एवं घायल कार्यकर्ताओं की संख्या क्रमश: 65 और 773 थी. इन झड़पों में मारे गए एवं घायल कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की संख्या भी क्रमश: 15 एवं 221 थी. ये आंकड़े खतरनाक तस्वीर पेश करते हैं और पश्चिम बंगाल में कानून- व्यवस्था की बिगड़ी हालत की ओर संकेत करते हैं. जंगल महल में संयुक्त बलों की तैनाती की आखिर क्या जरूरत है जब माकपा ने कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए हथियारबंद कार्यकर्ताओं को तैनात कर रखा है? इन हालातों को देखने के बाद यह साफ हो जाता है कि पश्चिम बंगाल देश का इकलौता ऐसा राज्य है जहां पुलिस सत्तारुढ़ दल काडर के रूप में कार्य करती है. हालांकि उपरोक्त तथ्यों की मैंने पहले भी चर्चा की है. अब के परिप्रेक्ष्य के साथ देखना होगा कि क्या पश्चिम बंगाल में निष्पक्ष चुनाव कराना चुनाव आयोग के लिए बड़ी चुनौती नहीं होगी, जब कि स्थानीय पुलिस सत्ताधारी दल के समर्थक के रूप में कार्य करती हो. निसंदेह आम बंगाली (बंगाल में रहने वाले सभी भाषा-भाषी) अपने मताधिकार के प्रति देश के अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा जागरूक है. बावजूद इसके “साइंटिफिक पोलिंग” को ‘मैनेज’ कराने में माकपा को खासा अनुभव है. और इसी अनुभव के बल पर वह पिछले साढ़े तीन दशक से सत्ता में बैठी है. लेकिन अब उसका जनाधार खसकता हुआ दिखता है लेकिन वास्तविक तस्वीर चुनाव के नतीजे साफ कर देंगे. जनता पर कमजोर होती पकड़ से पार्टी के चाणक्य भली-भांति परिचित हैं और दरकते लाल-गढ़ को बचाने के लिए सिवाय बयानबाजी करने के उनके पास कुछ भी नहीं है. कथित नैतिकता, सैद्धांतिक राजनीति के छलावे से छली जनता के सामने अब तस्वीर थोड़ी साफ हुई है.
यहां गौर करने वाली बात है कि बंगाल की सत्ता पर काबिज वाममोर्चा के खिलाफ इससे पहले इतना जनाक्रोश नहीं दिखा था, जो अब है. अर्थात एंटीइंकांबेंसी फैक्टर पूरे जोर पर है. इसका फायदा निश्चित रूप से तृणमूल कांग्रेस को मिलेगा. बाकी चुनावी होने तक और कितनी लाशें गिरेंगी, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती.

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