शनिवार, 16 नवंबर 2013

सचिनः साख के प्रतीक


देश में साख का संकट जटिल हो गया है, देशवासियों को जहां साख दिखती है, वहीं वह अपना खूंटा गाड़ देता है। साख की यही मिशाल 15 नवंबर को मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम दिखा, जहां कॉरपोरेट घरानों से लेकर राजनीतिक हस्ती तक और देश के संभ्रांत व समृद्ध कहे जाने वाले लोगों से लेकर मीडिल क्लास तक ‘सचिन-सचिन’ का शोर कर रहा था। लगभग यहीं साख हमें दो साल पहले दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर इंडिया गेट तक अन्ना हजारे के आंदोलन में दिखा था। तब भी अन्ना के साथ कॉरपोरेट, पालिटिशियन, फिल्मी हस्तियों से लेकर मीडिल क्लास तक हाथों में तिरंगा लिए हाजीर हो गया। देश में जब भ्रष्टाचार संस्कार का रूप लेने लगा है, ऐसे में क्रिकेट के सटोरियों के लिए भी चारों तरफ हरियाली पसरी रही। बावजूद इसके 22 गज की पीच पर 24 साल तक बेदाग रहने वाले सचिन में सारे देश ने साख देखा और यहीं साख वानखेड़े में अपनी उपस्थिति दर्ज कराया। इस चौबीस साल में देश ने 8 प्रधानमंत्री भी देखा र लगभग राजनीति की हर धारा ने देश को प्रभावित किया लेकिन सचिन अपनी धारा पर बहते रहे अविरल। और यही अविरल प्रवाह ने रिकार्डों की ऐसी झड़ी लगायी कि क्रिकेट की पूरी एक नई किताब लिख दी गई। इतिहास के पन्नों में किस प्रधानमंत्री को याद किया जायेगा यह तो किसी को नहीं पता लेकिन क्रिकेट का जिक्र जब भी होगा तब सचिन को याद किये बगैर जिक्र पूरा नहीं होगा और यहीं से सचिन के नये मायने शुरु होंगे। गौर करने वाली बात है कि सचिन ने उस वक्त पहला मैच खेला जब हर घर में टीवी दस्तक दे रहा था। सचिन उस दौर में चमके जब भारत बाजार में बदल रहा था। उदारीकरण वाली अर्थव्यवस्था अपना पैर जमा रही थी। धीरे-धीरे टीवी सेट का जाना पहचाना चेहरा होने लगा सचिन और लोग अपने बच्चों का नाम सचिन रख, सचिन के अक्श को अपने बच्चों में देखना शुरू कर दिया। और बाजार ने इसी नब्ज को पहचाना और फिर सचिन धीरे-धीरे ब्रांड में तब्दिल हो गए। लेकिन यह ब्रांड भी बना तो साख की बदौलत, साख बड़ी चीज साबित हुई, फिर एक बार। और जिस वानखेड़े स्टेडियम में सचिन आखिरी मैच खेले, उसे देखने देश के सबसे ज्यादा करोड़पति भी पहुचे। और देश के सबसे लोकप्रिय व्यक्तियों से लेकर सबसे ताकतवर लोगों की कतार भी नजर आई। तो सचिन रिटायरमेंट के बाद 24 बरस पुराने सचिन तेदूलकर नहीं होंगे बल्कि चकाचौंध भारत के नुमाइंदे होंगे, जिनकी परछाई तले अंधेरे में सिमटा भारत खामोशी से सचिन को निहारेगा,खुश होगा और आने वाली पीढ़ियों को बतायेगा कि उसने कभी सचिन को खेलता हुये अपनी आंखों से देखा था। लेकिन भारत में सचिन का जो जुनुन है उसके सामने तो कुछ दूसरे सवाल हैं। क्योंकि मुबंई के वानखेडे स्टेडियम में सचिन की विदाई का जश्न जब खत्म होगा और उसके बाद सचिन तो होंगे लेकिन उनके साथ क्रिकेट नहीं होगा। कैसी होगी उसकी अगली सुबह जब सचिन का हाथ अनायास क्रिकेट के बल्ले को थामने के लिये बढेगा और उन्हे झटके में एहसास होगा कि अब तो 22 गज की पीच को वह पीछे छोड़ आये है । लेकिन सवाल यह अबूझ है कि आखिर जिस सपने को सचिन ने देखा अब वह खुद उसे पूरा मान चुके हैं तो फिर सचिन के रिटायरमेंट को लेकर एक अकुलाहट हर किसी में क्यों है। हर दिल की धड़कन क्यों बढ़ी हुई है। तो सच यही है कि मौजूदा क्रिकेट में सचिन की तरह चाहे हर कोई खेल रहा हो लेकिन सचिन जिस दौर से निकले और मौजूदा दौर जिस सचिन को देख रहा है वह क्रिकेटर से ज्यादा सचिन के जरीये अपनी पहचान पाने की अकुलाहट है। और फिलहाल देश में कोई ऐसा है नहीं जो कई पीढियो में अपनी साख को बरकरार रख सके।

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