शनिवार, 30 अप्रैल 2011

जिसमें दम, उसे नहीं गम

विधायक पर नाबालिग से दुष्कर्म का आरोप/ फिर दिखी विधायक की दबंगई / हत्या के आरोप में विधायक गिरफ्तार / मायावती ने कहा, सब पर होगी कार्रवाई / कोर्ट ने विधायक को हिरासत में भेजा.

इस तरह के शीर्षक वाली खबरें उत्तर प्रदेश के अखबारों और पाठकों के लिए नई नहीं हैं. इस तरह की खबरें अब कोई हलचल नहीं पैदा करतीं. जनता भी लंबे समय से राजनीतिक संरक्षण में पल रहे अपराध को देखने-सुनने की अभ्यस्त हो गई है. इन सब से बेफिक्र हो कर जनता और राजनेता अपने रुटीन के कामों में मस्त हैं. हां, कभी-कभार कोई जागरूक मतदाता या राजनीतिक दल राजनीति के अपराधीकरण की कड़े शब्दों में भत्र्सना कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं. सूबे में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. चुनावी तैयारियां शुरूहो गई हैं. उम्मीदवारों की सूची बनने लगी है. ऐसे में जिताऊ प्रत्याशियों की तलाश सभी दलों को है. सभी दलों के मुद्दे अलग हैं, सिद्धांत अलग हैं, शैली अलग है, लेकिन जिस चीज की सबमें समानता है, वह है जिताऊ प्रत्याशियों को मैदान में उतारने की होड़. इस कवायद में नैतिकता और आदर्श जैसी चीजें ताक पर रख दी जाती हैं. यह परंपरा दशकों से अपनी जड़ें जमाते-जमाते अब इतनी मजबूत हो गई है कि इससे मुक्ति की कोई उम्मीद नहीं दिखती.
चुनाव के पहले सभी दल, राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर चिंता जताते हुए इससे छुटकारा पाने की कसमें खाते हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में भी इस तरह की चिंता जताई गई थी, लेकिन किसी भी दल ने अपराधी पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों को टिकट देने में कोई कोताही नहीं की. इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि वर्तमान विधानसभा में बसपा के 68, सपा के 47, भाजपा के 18 विधायक ऐसे हैं जिन पर आपराधिक वारदातों को अंजाम देने, कराने या अप्रत्यक्ष रूप से संलिप्त होने के आरोप हैं. इसके अलावा विधानसभा में नौ निर्दलीय विधायक भी इसी तरह की पृष्ठभूमि वालेहैं.
उल्लेखनीय है कि 2007 के विधानसभा चुनाव में विभिन्न दलों के कुल 882 ऐसे उम्मीदवार किस्मत आजमा रहे थेे, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन 882 में उम्मीदवारों में से 142 विधानसभा में पहुंचने में कामयाब भी रहे. उसके पहले विधानसभा में विभिन्न दलों के 206 विधायक निर्वाचित हो कर आए थे, जिन पर हत्या, अपहरण सहित कई अन्य आपराधिक मामले दर्ज थे. इसी तरह 2012 के विधानसभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी ने अभी ही 162 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है. इनमें से 44 उम्मीदवार अपराधी पृष्ठभूमि के बताए जा रहे हैं, जिनमें सूबे के बाहुबली ब्रजेश सिंह के भतीजे सुशील सिंह को चंदौली से टिकट दिया गया है. इन पर कई धाराओं के अंतर्गत आपराधिक मामले दर्ज हैं. इसके अलावा सपा की ओर से प्रदेश के पूर्व मंत्री नंद गोपाल नंदी की हत्या मामले के अभियुक्त विजय मिश्रा को भदोही से टिकट दिया गया है. वहीं बसपा ने भी लगभग सभी सीटों के लिए सूची तैयार कर ली है, लेकिन वह भी ऐसे उम्मीदवारों से अछूती नहीं है. बसपा की उम्मीदवारों की सूची में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के घर आगजनी के मामले में आरोपी विजेंद्र प्रताप सिंह ऊर्फ बबलू का नाम फैजाबाद से तय है. यह तो सिर्फ बानगी भर है.
मायावती के शासनकाल में पार्टी के कई विधायकों ने अपने आपराधिक कृत्य से बसपा को शर्मसार किया है. इनमें पुरुषोत्तम द्विवेदी, योगेंद्र सागर, गुड्डू पंडित, आनंद सेन यादव सहित विजेंद्र प्रताप सिंह शामिल हैं. हालांकि मायावती ने हत्या के एक मामले में यमुना निषाद को न केवल मंत्रिमंडल से बाहर किया, बल्कि पार्टी से निलंबित भी कर दिया, जिनकी बाराबंकी में हुई दुर्घटना में मौत हो गई. इसी तरह मुख्यमंत्री मायावती ने फैजाबाद से विधायक आनंद सेन यादव द्वारा एक दलित समुदाय की लड़की सेदुष्कर्म करने तथा उसकी बाद में हत्या किए जाने के मामले में उन्हें पार्टी से निलंबित किया. वर्तमान में बसपा के आनंद सेन यादव, शेखर तिवारी, पुरुषोत्तम द्विवेदी, योगेंद्र सागर, गुड्डू पंडित, विजेंद्र प्रताप सिंह जेल में विभिन्न अपराधों की सजा काट रहे हैं, वहीं सपा के अमरमणि त्रिपाठी, विजय मिश्रा भी जेल की सलाखों के पीछे हैं. कभी बसपा में अपने बाहुबल के बल पर कद्दावर रहे मुख्तार अंसारी कुछ दिन पहले ही जेल से बाहर आए हैं, लेकिन उन्होंने बसपा से अब दूरी बना ली है और हिंदू-मुस्लिम एकता पार्टी नामक एक दल का गठन किया है.
बनारस में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार बद्री विशाल इसके लिए मतदाता भी उतना ही दोषी मानते हैं. अपनी बात को विस्तार देते हुए वह कहते हैं, ‘सत्ता पर मजबूत पकड़ के लिए एक-एक सीट महत्वपूर्ण होती है, बात चाहे किसी भी दल की हो. इसलिए बाहुबलियों का दामन थामने के लिए वे बाध्य होते हैं. दूसरी तरफ बाहुबली अपने आपराधिक कृत्यों की सजा से बचने के लिए राजनीतिक दलों की शरण में जाते हैं. और इन सबमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मतदाता भी बिरादरी तथा अन्य निजी हितों को ध्यान में रख योग्य उम्मीदवारों की बजाय बाहुबलियों को चुन कर भेजते हैं. यहां सबके लिए निजी हित ही सर्वोपरि हो जाता है.’
बद्री विशाल की बात से इस्तेफाक रखने वाले समाजशास्त्री मानवेंद्र उपाध्याय कहते हैं,  ‘वास्तव में लंबे समय से चली आ रही इस परंपरा की वजह से नई पीढ़ी इसकी अभ्यस्त हो चुकी है. वह मानसिक रूप से इससे छुटकारा पाने के लिए तैयार भी नहीं है, राजनीति के अपराधीकरण से मुक्ति के लिए राजनीतिक पार्टियों या फिर मतदाताओं द्वारा स्वत: पहल की उम्मीद पालना बेमानी है. इसके लिए जरूरी है कि कोई संस्था या संगठन निष्पक्ष रूप से मतदाताओं को इसके नकारात्मक पहलू को सामने रख कर उन्हें जागरूक बनाए और  इसके लिए मानसिक तौर पर उन्हें तैयार करें. तभी कुछ हो सकता है.’
राजनीति का अपराधीकरण प्रदेश को लगातार नुकसान पहुंचा रहा है, जबकि प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती कहती हैं कि जब तक किसी अभियुक्त पर अपराध सिद्ध नहीं हो जाता, उसे सजा नहीं हो जाती, तब तक उसे चुनाव लडऩे से वंचित किया जाना उचित नहीं है. कई ऐसे विधायक हैं, जिनके खिलाफ अपराधिक मामले तो दर्ज नहीं हैं, लेकिन उनकी दबंगई और अपराधियों की शह उनकी विजय में मददगार बनती है. अगर इस गंभीर और जनहितकारी मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया गया तो खतरा यह है कि आगामी विधानसभा में आपराधिक छवि के सदस्यों की संख्या और अधिक हो सकती हैं .
पहले राजनैतिक दल अपनी सोच और नीतियों के साथ जनता के बीच जाते थे. यह राजनीति का सुखद पहलू था. चुनाव सुधारों के बारे में मुख्य निर्वाचन आयुक्त डॉ. एसवाई कुरैशी ने कई बार राजनीति में अपराधीकरण पर अपनी चिंता जाहिर की है.  
1985 के विधानसभा चुनाव में 35 विधायक आपराधिक चरित्र के थे. 1989 के चुनाव में इनकी संख्या बढ़कर 50 हो गई. उसके बाद 1991 में हुए मध्यावधि चुनाव में इनकी संख्या बढ़कर 133 हो गई. और उसके बाद यह संख्या लगातार बढ़ती ही गई. लखनऊ के रह कर चुनाव सुधार के लिए मुहिम चला रहे प्रोफेसर डीपी सिंह कहते हैं, ‘यह राजनीति के पराभव का काल है. पहले जनप्रतिनिधि चुने जाते थे जो वास्तव में जनता की सेवा करते थे. 25 वर्ष पहले के अधिकतर जनप्रतिनिधियों का जीवन सादा होता था. लेकिन आज दिखावे की राजनीति और उसमें बढ़ते धन-बल के प्रभाव तथा अपराधियों की सामाजिक स्वीकार्यता ने स्थिति को खराब किया है. जब तक राजनैतिक दल और जनता दोनों ही इस पर ध्यान नहीं देंगे, बदलाव आसान न होगा.’

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

‘हमारा कोई राजनीतिक मकसद नहीं है’



पत्रकारिता छोड़ कर सूचना अधिकार कानून के लिए संघर्ष करते हुए मनीष सिसोदिया ने आरटीआई कार्यकर्ता के रूप में अपनी पहचान बनाई. उस दौरान उन्होंने महसूस किया कि भ्रष्टाचार को खत्म किए बगैर यह कानून बहुत ज्यादा सार्थक नहीं होगा. उन्होंने भ्रष्टाचार उन्मूलन आंदोलन की नींव रख कर सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. पर्दे के पीछे से इस आंदोलन की जमीन तैयार कर और उसे मंजिल तक पहुंचाने में लगे मनीष सिसोदिया से मेरी हुई बातचीत का अंश:-

देश में कई समस्याएं हैं लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आंदोलन का मन कैसे बना?
हम लोग सूचना के अधिकार कानून के लिए संघर्षरत थे. उसी दौरान यह महसूस किया कि यह कानून तब तक कारगर नहीं हो सकता, जब तक कि भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए कोई सख्त कानून नहीं होगा. इसके बाद हम लोग इस दिशा में बढऩे लगे, तभी लंबित लोकपाल विधेयक का मामला आया, लेकिन इसमें काफी खामियां थी. हमने जन लोकपाल विधेयक तैयार करने की ठानी और लोगों के सुझाव से जन लोकपाल विधेयक तैयार कराया तथा सरकार के समक्ष रखा. स्वाभाविक था सरकार नहीं मानी और हमारा आंदोलन शुरू हुआ. नतीजा सामने है.
 
आखिर इस आंदोलन के नेतृत्व के लिए आप लोगों ने अन्ना हजारे को ही क्यों चुना?
आरटीआई आंदोलन के समय से ही हम अन्ना को जानते थे. उन्होंने महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन किया है. ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति हैं. तो लगा ये हमारे इस आंदोलन को सही नेतृत्व दे सकते हैं. अन्ना ने भी हमारे प्रस्ताव को मान लिया.
 
क्या आपको उम्मीद थी कि आंदोलन जंतर-मंतर तक ही नहीं बल्कि देशव्यापी होगा?
जी हां, उम्मीद जरूर थी कि देश भर से समर्थन मिलेगा, लेकिन यह आंदोलन इतना बड़ा होगा, इसकी उम्मीद नहीं थी.
 
आंदोलन से इतने बड़े पैमाने पर लोगों के जुडऩे का कारण आप क्या मानते हैं?
कई कारण हैं, लोगों के भीतर भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश तो था ही, इसी बीच अरब देशों में हुए जनांदोलनों ने लोगों को मनोवैज्ञानिक रूप से मोटिवेट किया. इसके अलावा सोशल नेटवर्किंग साइट्स और इंटरनेट ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई.
 
किरण बेदी और स्वामी अग्निवेश को समिति में नहीं रखे जाने और दूसरी ओर पिता-पुत्र को समिति में जगह दिए जाने के खिलाफ आवाज उठी है, आपका इस पर विचार....
पहली बात, किरण बेदी और स्वामी अग्निवेश ने स्वयं ही समिति में रहने से मना कर दिया था, उनके पास अन्य दूसरी जिम्मेदारियां हैं और जहां तक शांति भूषण और प्रशांत भूषण जी की बात है तो दोनों ही कानून के विशेषज्ञ है, उन्हें उनकी विशेषज्ञता की वजह से पूरा देश जानता है. विधेयक के प्रारूप को बनाने में शुरू से ही दोनों ने अथक प्रयास किया है. और इस पर किसी तरह का विवाद खड़ा करने को कोई तुक नहीं है.
 
आपकी आगे की रणनीति?
देखिए, हमारा कोई राजनीतिक मकसद नहीं है. हमने सूचना के अधिकार कानून के लिए काम किया, अब भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए प्रयास हो रहा है, इसके आगे राजनीतिक सुधार का मामला है. इसके अतंरगत निर्वाचित सांसदों को वापस बुलाने का अधिकार और मतदाताओं के पास उम्मीदवारों के चुनाव में ‘इनमें  से कोई’ का  वैकल्पिक अधिकार भी शामिल है.
 
आंदोलन की तैयारी के बारे में बताएं?
नवंबर, 2010 से हम लोग इस दिशा में सक्रिय हुए. इसके बाद हमने कई स्तर पर लोगों को अपने साथ जोडऩे और उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ जागरूक करने का प्रयास किया. लोगों को जोडऩे के लिए हम लोगों ने अलग-अलग टीम बना कर देश भर का दौरा किया. साथ ही इंटरनेट के माध्यम से मसलन ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स का भी इस्तेमाल किया.

‘जनहित के लिए बार-बार करुंगा सरकार को ब्लैकमेल’


भ्रष्टाचार के खिलाफ देशभर में हुए आंदोलन से नायक बन कर उभरे 76 वर्षीय गांधीवादी अन्ना हजारे की आंखों में एक पुलकित भारत का सपना है. उनका मानना है कि बगैर संघर्ष के हम गांधी के स्वराज को हासिल नहीं कर सकते और इसमें सबसे बड़ी बाधा भ्रष्टाचार है,  देश में स्वायत्त लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों की जरूरत है. आंदोलन के उपरांत अन्ना हजारे से हुई मेरी बातचीत का मुख्य अंश:-

आंदोलन के समाप्त होते ही कई तरह के विवाद सामने आए हैं. इन विवादों की वजह क्या है?
देखिए, कहीं कोई विवाद नहीं है, लोकतंत्र में विचारों की अभिव्यक्ति की छूट है. हां कुछ बातों पर मतभेद थे, लेकिन वह संवादहीनता की वजह से था और अब वह खत्म हो चुका है.
 
आपके संबंध में कहा जा रहा है कि आपने सरकार पर दबाव डाल कर उसे ब्लैकमेल किया है?
जनहित के लिए मुझे सरकार पर दबाव बनाना पड़ा है और यदि सरकार ब्लैकमेल हुई है तो ऐसे कार्यों के लिए मैं सरकार को बार-बार ब्लैकमेल करना चाहूंगा.
 
आगे की रणनीति?
अभी एक समिति बनानी है. 16 अप्रैल से विधेयक का नया प्रारूप बनना शुरू हो जाएगा.  हालांकि मैं यह साफ कर देना चाहता हूं कि आंदोलन खत्म नहीं हुआ बल्कि अभी तो शुरुआत है. इसके अगले चरण में राजनीतिक सुधार का मामला है, जिसके तरह राइट टू रिकॉल, नेगेटिव वोटिंग शामिल है.
 
ड्रॉफ्ट समिति में पिता-पुत्र को रखे जाने पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं?
देखिए, हमने पिता-पुत्र के नाते प्रशांत भूषण या फिर शांति भूषण जी को नहीं रखा है. ड्राफ्ट बनाने के लिए कानून के विशेषज्ञों की जरूरत है और इन लोगों ने शुरू से ही इसके लिए अथक प्रयास किया है. इनका समिति में होना जरूरी था. इन दोनों को पूरा देश इनकी विशेषज्ञता की वजह से जानता है, न कि पिता-पुत्र होने की वजह से.
आपने नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की किस आधार पर प्रशंसा की?
मैने किसी व्यक्ति विशेष की प्रशंसा नहीं की. गुजरात और बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में हुए विकास कार्यों की प्रशंसा की और हम फिर कहते हैं कि गांवों के विकास के बगैर देश का विकास संभव नहीं. इसलिए दूसरे राज्यों को गुजरात और बिहार के गांवों की तर्ज पर अपने राज्यों के गांवों को विकसित बनाने का काम करना चाहिए.
नरेंद्र मोदी के कार्यों की आप प्रशंसा कर रहे हैं, जब कि उन पर दंगे कराने के आरोप है?
नहीं, मैं किसी भी प्रकार की हिंसा या सांप्रदायिक दंगों का कतई समर्थन नहीं करता. न ही व्यक्ति के तौर पर नरेंद्र मोदी की प्रशंसा कर रहा हूं. मैं पहले ही कह चुका हूं कि गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में हुए विकास कार्यों की सराहना करता हूं.
 
विधेयक के बनने वाले प्रारूप के लिए गठित समिति के कार्यों में कितनी पारदर्शिता होगी?
विधेयक का मसौदा तैयार करने की पूरी प्रक्रिया पारदर्शी होगी और पूरी प्रक्रिया वीडियो कांफ्रेंंसिंग के जरिए देशवासियों को दिखाई जाएगी. मसौदे की प्रति इंटरनेट पर तथा उसकी मुद्रित प्रतियां  गांव-गांव तक भेज कर सुझाव मंगाए जाएंगे.
 
देश में अनगिनत भ्रष्ट नेता और मंत्री हैं, फिर शरद पवार ही आपके निशाने पर क्यों हैं?
नहीं, नहीं. मेरे निशाने पर कोई व्यक्ति विशेष नहीं है. मेरे निशाने पर भ्रष्टाचारी हैं. मेरी लड़ाई भ्रष्टाचार की प्रवृति से है. 20 वर्षों से चल रही मेरी इस लड़ाई की वजह से महाराष्ट्र में कई मंत्री और 400 से अधिक अधिकारी नपे हैं. लेकिन उनसे मेरी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी और न है.
 
क्या महिला आरक्षण बिल का जो हस्र हुआ, वहीं हस्र इसका भी नहीं होगा?
मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसा नहीं होगा, और यदि इस विधेयक के प्रति सरकार कुछ अनपेक्षित कार्य करती है तो 15 अगस्त के बाद फिर आंदोलन शुरू होगा.
 
क्या समिति में दो अध्यक्षों के होने से समस्याएं खड़ी नहीं होगी?
नहीं, ऐसी बात नहीं है. और वैसे भी यह समिति दो महीनों के लिए है, जिसका काम सिर्फ लोकपाल बिल का प्रारूप बनाना भर है. कभी-कभी विषम परिस्थितियों में इस तरह का समझौता करना पड़ता है.    
 
समिति में सरकार द्वारा नामित पांचों सदस्यों की संपत्ति सार्वजिनक होगी और क्या आपके पांचों प्रतिनिधि जिनमें आप स्वयं शामिल है, अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करेंगे?
देखिए, यह जो समिति बनी है और इसके जो सदस्य हैं, वे कोई लाभ के पद पर नहीं है कि संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक किया जाए, लेकिन पारदर्शिता बनाए रखने के लिए सदस्यों की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने में हमें कोई दिक्कत नहीं है.
 
आपको संसद और लोकतंत्र पर कितना विश्वास है?

संसद और लोकतंत्र पर पूरा विश्वास है, लेकिन इस लोकतांत्रिक ढांचे में भ्रष्ट मंत्रियों और अधिकारियों ने सेंध लगा दी है. आजादी के बाद से ही देश संसद से कम और न्याय व्यवस्था से अधिक संचालित हो रहा है जो कि किसी लोकतंत्र के बहुत अच्छी बात नहीं है.
 
क्या आपके मन में कभी यह विचार नहीं आया कि चुनाव लडऩा चाहिए?
मैं एक आम आदमी हूं और चुनाव लडऩा अब आम आदमी के बूते की बात नहीं रह गई है, लोग चंद रुपयों के लिए किसी को भी वोट दे देते हैं. ऐसे में मेरी तो जमानत ही जब्त हो जाएगी. (हंसते हुए)
शायद सांसद या मंत्री बन कर आप ज्यादा लोगों के लिए काम कर सकते थे?
मैं एक आम आदमी के रूप में भी लोगों के लिए अपने स्तर पर बहुत काम कर रहा हूं. लोगों की सेवा के लिए सांसद या मंत्री होना जरूरी नहीं है बल्कि जरूरी है कि उनके दिल में जनहित के लिए जज्बा हो.
 
आंदोलन का स्वरूप इतना बड़ा हो जाएगा, इसकी कितनी उम्मीद थी?
बिलकुल उम्मीद नहीं थी कि आंदोलन इतना बड़ा होगा, लेकिन इस आंदोलन ने साफ कर दिया कि देश अब भ्रष्टाचारियों को बर्दाश्त नहीं करेगा. और यही कारण है कि सरकार की चूलें चार दिन में ही हिल गईं. 
 
नेगेटिव वोटिंग अगर लागू हो जाए तो परिदृश्य में क्या बदलाव आएगा?
बहुत कुछ बदल जाएगा. आज लोगों के पास ‘सांपनाथ’ और ‘नागनाथ’ में से किसी एक को चुनना ही है, विकल्प नहीं है. उम्मीदवार जीत के लिए करोड़ों रुपये खर्च करते हैं. लेकिन जब लोगों को नापंसदगी का अधिकार मिल जाएगा, तो पानी की तरह पैसे बहाने वाले नेताओं के होश ठिकाने आ जाएंगे और इससे भ्रष्टाचार को खत्म करने में भी मदद मिलेगी.
 
 

कैनवास पर राजस्थान की गुलाबी उजास



किरण सोनी गुप्ता प्रशासकीय अधिकारी होने के साथ ही एक उम्दा चित्रकार भी है, वह दोनों कार्यों के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित करती हैं, पढ़ें...

दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय और ताबूतों में बंद ममियां, बेजान आदम कद व आदिम काल की मूर्तियां चुपचाप अपने काल का प्रतिनिधित्व करते हुए सारी बातें करती हैं. संग्रहालय के गलियारों में लगे सोफे उनसे अनदेखे हैं लेकिन वे सोफे थके हारे पर्यटकों और शोधार्थियों को सकून के साथ अतीत को अतीत के संदर्भ में देखने, समझने की गुंजाइश पैदा करते हैं और वहीं सोफे अजंता गैलरी में जाने को प्रेरित भी करते हैं. यह गैलरी वर्षों से आड़ी तिरछी रेखाओं वाले कैनवास से जीवन को बड़े साफगोई से पेश करती आयी है. इसी कड़ी में किरण सोनी गुप्ता की तुलिका से निकले रंग ने जीवन के बहुरंगेपन को आलोकित किया है. किरण बताती हैं उन्होंने बचपन को बड़े मन से जीया है. और इसी मनमौजीपन में उन्होंने पेंसिल और ब्रश अपनी दीदी से छिप कर थामा, कभी रंग कैनवास से छिटक कर फर्स पर गिरे तो कभी कपड़ों पर, डांट भी सुनी और कुछ अच्छी कलाकारी बनने पर दीदी का दुलार भी मिला. दिन बीते, और बीतता गया बहुत कुछ. इसी बीच प्रशासनिक सेवा में आने पर किरण सोनी की व्यस्तता बढ़ी, समय सिमटा लेकिन चित्रकारी के फलक विस्तृत हो गये. गुड्डों-गुडिय़ों की थीम से शुरू हुआ सफर स्त्री विमर्श और जीवन के उन आयामों तक गया जहां आम तौर विरानी छायी रहती है.
संग्रहालय में लगी किरण सोनी की पेंटिंग प्रदर्शनी की थीम रेतीले प्रदेश राजस्थान की गुलाबी उजास पर है. जहां आड़ी तिरछी रेखाओं में महिलाओं के विभिन्न रूप विभिन्न रंगों की जुगलबंदी से एकाकार होते दिखे. ये सभी पेंटिग सिर्फ पारंपरिक तुलिका से ही नहीं उकेरे गये बल्कि गैरमशीनी तकनीक का इसमें बखुबी इस्तेमाल दिखा और यहीं लीक से हट कर की गई पेंटिंग न केवल देश में बल्कि विदेशों की कला दीर्घा में भी किरण की कलाकृति को विशिष्ठता प्रदान करती है.
कलाकार की संवेदना ने राजस्थानी जीवन शैली और इसके पीछे उस शैली को बल प्रदान करने वाले कारकों को रंगों में ढाल कर कैनवास पर दिखाने की कोशिश की है. किरण कहती हैं, ‘निसंदेह पेंटिंग के लिए जरुरी है कि चित्रकार संवेदनशील हो, उसी तरह बैगर संवेदनशीलता के प्रशासकीय कार्यों का भी निष्पादन नहीं हो सकता. इसलिए दोनों कार्य मेरे लिए पृथक-पृथक होने के बजाए एक दूसरे के पूरक बन गये हैं.’ किरण सोनी ने अपनी चित्रकारी की प्रतीभा का लोहा न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी मनवाया है. अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा सहित अन्य कई यूरोपीय देशों में उनकी प्रदर्शनी ने खासी प्रशंसा बटोरी है और कई देशी विदेशी अवार्ड भी अपने नाम किये हैं.