गुरुवार, 19 अगस्त 2010

बेतुका एलान

श्रीराजेश
बिहार से आने वाली अधिकांश खबरें सुर्खियां बन जाती है. इन खबरों की सुर्खियां बनने की अलग कहानी है लेकिन एक बार फिर इसकी बानगी जश्न-ए-आज़ादी की 64 वीं वर्षगांठ के अवसर पर भी देखने को मिली. जब सूखे की मार झेल रहे बिहारवासियों को राहत देने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने झंडोत्तोलन समारोह को संबोधित करते हुए पूरे राज्य को सूखाग्रस्त घोषित किया. इसके एक दिन पहले राज्य सरकार ने प्रदेशवासियों के जेहन में देशभक्ति की अलख जगाए रखने के लिए सरकारी वाहनों के रजिस्ट्रेशन नंबर स्वतंत्रता आंदोलन से जु़ड़े वर्षों के अनुसार रखने तथा राजधानी पटना की 112 सड़कों का नामकरण महापुरूषों, शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर करने का फैसला किया है. इन सभी खबरों न केवल राज्य के अख़बारों, खबरियां चैनलों में बल्कि राष्ट्रीय मीडिया में भी अपनी जगह बनायी.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के संबंध में कहा जाता है कि वे कुशल मीडिया प्रबंधक हैं और इसी कुशलता का वे बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं. उनकी हर घोषणाएं राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में हो रहे हैं.
एक तरफ जहां सरकार स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े वर्षों को यादगार बनाने की प्रक्रिया में जुटी है, वहीं दूसरी ओर राज्य के मुंगेर जिले के बहियारपुर थाना क्षेत्र के गोरघट गांव के निवासी व स्वतंत्रता सेनानी गणेश पासवान आज अपने जीवन के उतरार्द्ध में जीवनयापन के लिए बीड़ी बनाने के लिए बाध्य हैं. 91 वर्षीय गणेश पासवान के पास सारे जरूरी कागजात होने के बावजूद उन्हें अब तक पेंशन नहीं मिल रहा. उनकी आंखों में आज भी सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की यादें ताजा हैं. जब गणेश पासवान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से अपनी पेंशन के बावत मिले तो मुख्यमंत्री ने उनकी पेंशन शुरू करने के लिए एक पत्र दिया. भले ही आज तक गणेश पासवान को पेंशन की एक भी किस्त न मिली हो लेकिन मुख्यमंत्री द्वारा उनके पेंशन शुरू किये जाने से संबंधित आदेश भी राज्य की मीडिया में सुर्खियां बनाने में कामयाब रही. लगे हाथों मुख्यमंत्री ने न केवल गणेश पासवान को बल्कि राज्य के तमाम वैसे स्वतंत्रता सेनानी जो किन्हीं कारणों से सरकारी लाभ से वंचित रह गए. उन्हें उनके अधिकारों को दिलाने तथा जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुई संपूर्ण क्रांति के सेनानियों को भी पेंशन देने की घोषणा की थी.
राज्य के राजनीतिक विशलेषकों की माने तो फिलहाल मुख्यमंत्री की सभी घोषणाएं और निर्णय होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर की जा रही है. स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति राज्य सरकार कितनी दायित्वपूर्ण है इसकी बानगी नौ अगस्त को दिल्ली में देखने को मिली, जब राज्य के पांच स्वतंत्रता सेनानियों को स्वंत्रता आंदोलन में उनके संघर्ष के लिए राष्ट्रपति प्रतीभा देवी सिंह पाटील ने नई दिल्ली स्थित बिहार निवास में 'एटहोम समारोह' में सम्मानित किया. समारोह में आए स्वतंत्रता सेनानियों में सीवान के सत्यनारायण साह एवं श्री राम लक्ष्मण सिंह, पूर्वी चम्पारण के युगल सिंह और अरवल के राम एकवाल शर्मा और द्वारिक साव ने बड़े गर्व के साथ अपने संघर्षों की दास्तां सुनायी लेकिन समारोह के बाद राज्य की राजनीतिक व प्रशासनिक दशा-दिशा से दुखी दिखे. उनकी नाराजगी न केवल नीतीश सरकार से थी बल्कि इसके पूर्ववर्ती सरकारों से भी थी. न तो उन्हें यथोचित सरकारी सुविधाएं मिलीं और न हीं उनके सपनों का स्वराज बिहार में अपना मूर्त रूप बना सका.
आरा के जैन कॉलेज के हिंदी विभाग के प्रोफेसर गुरुचरण सिंह सरकार की इन घोषणाओं को महज दिखावा मानते हैं. वह कहते हैं, 'अब स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस सिर्फ रस्म अदायगी का पर्व बन कर रहा गया है. राजनीतिज्ञों की वादा खिलाफी और जनता के प्रति उनकी जवाबदेही के प्रति उदासीनता ने आम लोगों में राजनीति के प्रति विरक्ति का भाव पैदा हो गया है. हालांकि देशवासियों में अपने महापुरुषों, शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति काफी आदर भाव है. लेकिन उनके सपनों को वर्तमान राजनेता साकार करने की दिशा में कुछ करेंगे, ऐसा भरोसा नहीं है.' प्रोफेसर सिंह का कहना है, 'वास्तव में परिस्थितियां ऐसी बन गईं हैं कि राजनेताओं की हर घोषणाएं राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रख कर होती हैं.' उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों मुख्यमंत्री ने विद्यापति यात्रा भी की थी. इसको भी राजनीतिक विशलेषकों ने माना कि मुख्यमंत्री चुनाव को ध्यान में रख कर मैथिलीभाषियों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जो यात्रा की उसका नामकरण मैथिली कवि विद्यापति के नाम पर कर दी.
बिहार विश्वविद्यालय के भोजपुरी के प्रोफेसर डॉ जयकांत जय का कहना है, 'संपूर्ण क्रांति के दौरान सक्रिय लोगों को सेनानी कहना और फिर उन्हें पेंशन देने की राज्य सरकार की घोषणा बेमतलब की बात है. व्यावस्था में अराजकता के खिलाफ संघर्ष करने की तुलना स्वतंत्रता आंदोलन से नहीं की जा सकती. राज्य में बड़े हाई-फाई तरिके से सरकारी खज़ाने का लाभ लेने वाले गिरोह लंबे अर्से से सक्रिय रहे हैं, केवल नीतीश कुमार के कार्यकाल में ही नहीं इसके पहले की सरकारों ने भी जो असली सुविधाओं का अधिकारी हैं, उसे सुविधाएं नहीं दे पायी और कुछ खास गिने-चुने फर्जी लोग लाभ लूट ले गये.' वह फिर कहते हैं,' इस तरह की घोषणाओं से आम लोगों को कोई खास लेना देना नहीं है. वास्तविकता तो यह है कि इन राजनेताओं की अपेक्षा आम जनता अपने स्वतंत्रता सेनानियों और महापुरुषों के महत्व को ज्यादा समझती है और बगैर किसी लाभ की आकांक्षा लिए वह उनके प्रति श्रद्धा रखते हैं. निसंदेह सरकार की यह घोषणा चुनावी रंग में रंगी हुई है. इन घोषणा कर सरकार लोगों का स्वतंत्रता सेनानियों और देशभक्ति की बात कर भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने की कोशिश कर रही है.'
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय मानते हैं कि ये घोषणा केवल चुनावी हथकंडा है और इसमें कोई नई बात नहीं है. ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े है. राय कहते हैं, - 'बिहार के लिए यह वर्ष चुनावी वर्ष है, इस लिए सरकार अपनी ब्रांडिंग करने में लगी है, इसके लिए तरह-तरह की रणनीति अपना रही है. जहां तक स्वतंत्रता सेनानियों के पेंशन की बात है तो यह नई बात नहीं है. 1971 में इंदिरा गांधी ने जब स्वतंत्रता सेनानियों के लिए पेंशन की घोषणा की तो सत्ता में बैठे रसूखदारों की मदद से अधिकांश कांग्रेसियों ने स्वतंत्रता सेनानी के पेंशन का लाभ उठाया, वहीं चीज बिहार में दोहरायी जा रही है. 1974 के आंदोलन के जेपी सेनानियों को राज्य सरकार पेंशन देने की घोषणा करती है तो इससे ज्यादातर जद यू से जुड़े लोग ही लाभान्वित होंगे. गणेश पासवान को पूछने और उनकी खोज-खबर रखने की फुर्सत सरकार के शायद नहीं है.'
(यह आलेख 'द संडे इंडियन' में प्रकाशित हो चुका है)