सोमवार, 13 दिसंबर 2010

नई जंग, पुराने योद्धा

अंग्रेजों की "फूट डालों, राज करों" की नीति उनके जाने के बाद भी भारतीय राजनीति में प्रासंगिक बना रहा. और यह नीति पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के लिए संजीवनी बनी रही. जब ममता बनर्जी ने तात्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु के कार्यकाल में सरकार का मृत्युघंट बांधा था, तब भी यहीं संजीवनी वाममोर्चा को नया जीवन देने में कामयाब रही. लेकिन पिछले 34 वर्षों में बंगाल में बहुत कुछ बदला है. वामो का जनाधार खिसका है. नंदीग्राम, सिंगुर और लालगढ़ से लेकर नानूर तक की घटनाओं ने वाममोर्चा को कमजोर किया है, साख को मटियामेट किया है. सूबे में 2011 के मध्य में विधानसभा चुनाव होने हैं, तैयारियां शुरू हैं. इसके पहले वाममोर्चा किसी न किसी बहाने विपक्ष तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के बीच होने वाले गठजोड़ में फूट डालने में कामयाब हो जाती थी और सिक्का चल जाता था लेकिन हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे ने बता दिया है कि शायद वाममोर्चा की पुरानी नीति अब काम की नहीं रही. इसके अलावा 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की वजह से सांसत में फंसी कांग्रेस फिलहाल अपने बूते चुनावी जंग में कुछ बेहतर कर पाएगी, इसकी उम्मीद कांग्रेसी आलाकमान को भी नहीं है, दूसरे ऐसी स्थिति में केंद्र की यूपीए सरकार को ममता के ममत्व की जरुरत कुछ ज्यादा ही पड़ सकती है. इस राजनीतिक गणित को समझ कर पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा नए सिरे से अपनी चुनावी रणनीति बनाने में जुटी है.

राज्य के वाममोर्चा के सामने एक दिक्कत यह भी है कि पिछली घटनाओं की वजह से अलोकप्रिय हो चुके वामदलों के कई युवा तुर्क इस बार चुनाव लड़ने से ही मना कर बैठे हैं. हद तो यह है कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी माकपा पोलित ब्यूरो से चुनाव नहीं लड़ने की इच्छा जताई थी, लेकिन पार्टी की केंद्रीय कमेटी ने उनका यह आग्रह मानने से इनकार कर दिया. इन सारे राजनीतिक घटनाक्रमों के बाद माकपा नीत वाममोर्चा ने अगामी विधानसभा चुनाव में 60 और 70 के दशक के मजे-मजाए कट्टर और बूढ़े कम्युनिस्टों को मैदान में उतारने की तैयारी की है. इन बूढ़े शेरों का नेतृत्व खुद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य करेंगे. 60 के दशक में वामपंथी आंदोलन के अग्रणी नेता अशोक घोष, क्षीति गोस्वामी, मंजू कुमार मजूमदार और घटक दलों के अन्य पुराने वयोवृद्ध कामरेडों की यह टीम तृणमूल कांग्रेस की उस युवा फौज को टक्कर देगी, जिसे तृममूल सुप्रीमो ममता बनर्जी लगातार धार देने में जुटी हैं. जबकि, इतने दिनों के अंदर वाममोर्चा में बड़े नेताओं के सामने दूसरी पंक्ति के नेता उभर नहीं सके. अब जब कि चुनाव भी हाईटेक हो गये हैं. युवा मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाने और उन्हें अपनी ओर लाने के लिए लगभग सभी दलों द्वारा धड़ल्ले से इंटरनेट का उपयोग किया जा रहा है, वैसी स्थिति में ये बुजुर्ग कामरेड जिन्हें इंटरनेट का ककहरा तक नहीं आता, क्या कमाल करेंगे? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

यहां इस बात का उल्लेख करना जरुरी हो गया है कि पिछले विधानसभा चुनाव के बाद तृणमूल कांग्रेस ने विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल होने के लिए जरुरी 30 विधायकों का आंकड़ा भी जैसे - तैसे पूरी की थी. वही तृणमूल कांग्रेस इस बार वाममोर्चा को करारी टक्कर देने या कहे कि लाल-गढ़ को ढहाने की कुवव्त में दिख रही है.

वाममोर्चा के फारवर्ड ब्लॉक के राष्ट्रीय महासचिव देवब्रत विश्वास स्वीकरते हैं कि वाममोर्चा की तुलना में तृणमूल कांग्रेस में युवा नेताओं की तादाद अधिक है. युवा नेताओं की बात युवा मतदाता वर्ग पसंद करते हैं.

गौर करने वाली बात यह है कि पिछले 34 वर्षों के वाममोर्चा शासनकाल में माकपा को पहली बार गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. मौजूदा डिजीटलाईज हो चुके चुनावी जंग में अस्त्र उठाने वाला उनके पास कोई नया योद्धा नहीं है, जिसके बूते वाममोर्चा चुनावी फतह कर सके या लोगों का विश्वास फिर से जीत सके. व्यवस्थित और सुव्यवस्थित ढंग से चुनावी किला फतह करने वाली माकपा इस बार हाताश नजर आ रही है. अब इसे मजबूरी कहें या फिर राजनीतिक अस्तित्व की रक्षा- खैर, जो भी हो- दरक चुके किले को बचाने के लिए जंग के पहले वाममोर्चा का नेतृत्व करने वाली माकपा हथियार डालने को तैयार नहीं है. सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि विवाद से वाममोर्चा की साख पर बट्टा लगने के बाद पार्टी में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को हटाने की सुगबुगाहट शुरू हुई थी, लेकिन भट्टाचार्य की स्वच्छ छवि को देखते हुए माकपा की केंद्रीय कमेटी ने बंगाल में नेतृत्व परिवर्तन की संभावना को सिरे से खारिज कर दिया. फिलहाल बंगाल में माकपा को बुद्धदेव का कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा है, क्योंकि बुद्धदेव के नेतृत्व में ही पार्टी ने पिछले दो विधानसभा चुनाव पूर्ण बहुमत के साथ जीता है. इस बात को ध्यान में रख कर अभी से ही मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का जिलों का दौरा शुरू कर दिया गया हैं. वाममोर्चा के चेयरमैन विमान बोस एक के बाद एक आंदोलन की कार्यसूची घोषित कर रहे हैं. पार्टी के तेज तर्रार नेता गौतम देव ने आक्रामक तेवर अपना रखा है. मुस्लिम मतदाताओं का मन जीतने के लिए भूमि सुधार मंत्री अब्दुर्रज्जाक मोल्ला और मोहम्मद सलीम को विशेष रूप से सक्रिय किया गया है.



गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

जारी है अधिकार का जंग


बीते सप्ताह मैं बिहार में था. वहीं मेरे एक अंतरंग मित्र मुझसे मिलने आएं. बातचीत के क्रम में उन्होंने अपने हाल के नेपाल टूर के बारे में बताया और वहां मोबाइल से लिए गए कई फोटोग्राफ्स दिखाए, साथ कुछ वीडियो क्लीप भी दिखाया.

मेरे उस मित्र के बदले यदि कोई दूसरा उन फोटोग्राफ्स या वीडियो को दिखाता तो मैं निश्चित तौर पर कहता कि ये सभी फोटोग्राफ्स या वीडियो बिहार के ही किसी गांव के हैं. लेकिन मैं जानता था कि मेरे मित्र वास्तव में नेपाल गए थे और मोबाइल से तस्वीरें लेना उनका शौक है.

उसी वीडियो क्लीपिंग में मैंने कुछ महिलाओं को छठ का गीत गाते हुए समूह में बढ़ते देखा. ये दृश्य नेपाल के चितवन जिले के तेजापुर के तालाब के किनारे का था.

इसी तरह एक और क्लीपिंग में प्यार हो गइल ओढ़निया वाली से... गीत पर थिरकते नेपाली किशोर दिखे, उन्होंने बताया कि यह दृश्य रौतहट जिले के रघुनाथपुर में एक पान की दुकान के सामने का है.

दरअसल, भारत-नेपाल का संबंध सिर्फ एक पड़ोसी मुल्क का ही नहीं है और न ही दोनों देशों में बीच केवल सांस्कृतिक साझापन ही है, बल्कि बहुत कुछ अनकहा, अनदेखा और अनछुए अनुभव, भावनाएं हैं जो दोनों देशों को एकाकार करते हैं. बावजूद इस एकात्मकता के कभी-कभी कुछ अवारा हवाएं बहुत कुछ हिला जाती हैं, लेकिन उखाड़ नहीं पाती. ऐसी कई घटनाएं अतीत में देखी गई है. यह घटना पुरानी जरुर है लेकिन स्मृति पटल पर अब भी बरकरार है- जब राजशाही के खात्मे के बाद वहां चुने गये देश के पहले उपराष्ट्रपति परमानंद झा ने पद व गोपनीयता की शपथ हिंदी में ली थी तो पूरे देश में इसे ले कर विवाद उभरा. मामला नेपाली सुप्रीम कोर्ट में गया और 13 महीने बाद 24 जुला2009 को सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया कि झा फिर से उपराष्ट्रपति पद की शपथ नेपाली में लें. हालांकि झा ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को असंवैधानिक करार देते हुए इसे नेपाल के गैर नेपाली भाषी लोगों का अपमान बताया. उसी तरह नेपाल के पवित्र हिंदू मंदिर पशुपतिनाथ में भारतीय पुजारियों की नियुक्ति के मामले पर भी भारी विवाद हुआ था. अगस्त, 2009 में मंदिर का संचालन करने वाली पशुपति क्षेत्र विकास ट्रस्ट ने दक्षिण भारतीय मुख्य पुजारी महाबलेश्वर भट्ट के नेतृत्व में तीन सदस्यीय समिति का गठन किया, जिन्हें दो नये पुजारियों के नाम के बारे में सुझाव देना था. हालांकि माओवादियों ने इसका विरोध करते हुए चेतावनी दी थी कि अगर ऐसा हुआ तो पूरे नेपाल में उग्र प्रदर्शन किए जाएंगे. सत्तासीन माओवादी नीत सरकार ने एक नया कानून बना कर नेपाली पुजारियों की नियुक्ति को मंजूरी दी थी. इस नियम को उच्चतम न्यायालय में चुनौती भी दी गई. उल्लेखनीय है कि मंदिर में भारतीय पुजारियों के रखे जाने की 300 साल पुरानी परंपरा रही है. यूं तो ये नेपाल के आंतरिक मामले हैं और कहा गया कि इनका भारत से क्या लेना-देना? लेकिन सच्चाई यह है कि ये दोनों मामले आपस में जुड़े हुए हैं. यह नेपाल के कुछ कट्टरपंथियों का भारत पर सीधा प्रहार था. बावजूद इसके नेपाल में वह पारंपरिक नेपाल-भारत साझापन अटूट बना रहा. जिसकी बानगी के रूप में उपरोक्त वीडियो क्लीपिंग है.

वास्तव में नेपाल में भोजपुरी, मैथिली बोलने वाले लोग जिनकी संपर्क भाषा हिंदी है, वे मधेशी कहलाते हैं. नेपाल के भोजपुरिया जिलों- रौतहट, बारा, पर्सा, चितवन, नवलपरासी और रूपंदेही में तकरीबन 2.5 लाख भोजपुरी भाषी है जो नेपाल की कुल आबादी का 9 प्रतिशत है. त्रिभुवन विश्वविद्यालय के सीएनएएस के एक अध्ययन रिपोर्ट के 14 वें अंक के मुताबिक नेपाल में मैथिली भाषी 11.1 प्रतिशत, भोजपुरी भाषी 9.5 प्रतिशत और थारू भाषी 3.6 प्रतिशत हैं.

इतनी बड़ी आबादी को ध्यान में रखते हुए स्थानीय रेडियो स्टेशनों में कुछ रेडियो स्टेशन भोजपुरी में समाचार व मनोरंजन सामग्री का प्रसारण कर रहे हैं. भोजपुरी के लोकप्रिय नेपाली रेडियो स्टेशेनों में गदीमाई एफएम, इंद्राणी एफएम, विजय एफएम, रुपंदेही एफएम. समयक एफएम, रेडियो बीरगंज, नारायणी एफएम, मस्ती एफएम, नोबेल एफएम, कादंबरी एफएम, रौतहट एफएम, गौर एफएम, रेडियो नमस्ते और मध्यविंदु एफएम शामिल है. इनमें से लगभग सभी एफएम या रेडियो स्टेशन दैनिक समाचार का प्रसारण करते हैं, वहीं नेपाल में भोजपुरी में पांच समाचार पत्रों का प्रकाशन भी हो रहा है. हालांकि इनकी प्रसार संख्या बहुत कम है.

दूसरी ओर पिछले कुछ सालों से नेपाल के मधेशी हमेशा अखबारों की सुर्खियों में रहे हैं. सवाल है कि ये मधेशी है कौन? मधेशी शब्द संस्कृत के ‘मध्य प्रदेश’ से निकला है, जिसका अर्थ है बीच का देश. चूंकि यह बोली तिरहुत की मैथिली और गोरखपुर की भोजपुरी के बीचवाले स्थानों में बोली जाती है, अत: इसका नाम मधेशी पड़ गया. यह बोली मुख्यत: बिहार के चंपारण जिले में बोली जाती है और इसकी लिपि ‘कैथी’ है. इसी तरह ‘थारू’ लोग नेपाल की तराई में रहते हैं. ये उत्तरप्रदेश के बहराइच से चंपारण तक फैले हैं और भोजपुरी बोलते हैं. यह विशेष तौर से उल्लेखनीय है कि गोंडा और बहराइच जिले के थारू लोग भी भोजपुरी बोलते हैं जबकि वहां की भाषा अवधी है. भारत में अंग्रेजों के शासन काल में इस पट्टी से भारी संख्या में लोग नेपाल के तराई क्षेत्रों में गये. इसके पूर्व भी भारत-नेपाल के शाही परिवारों में बेहतर तालमेल होने की वजह से भी लोगों का आना-जाना और बस जाना जारी रहा. इसी क्रम में भारी संख्या में मोतीहारी से लेकर बहराइच तक के लोग नेपाल के तराई क्षेत्र में जा बसे और उसी तरह भारी संख्या में नेपाली भारत के विभिन्न हिस्सों में आ कर बसे. मधेशियों की बड़ी संख्या से तराई क्षेत्र बिहार और उत्तर प्रदेश के हिस्से जैसे लगते हैं. इन सबके बावजूद भारतीय मूल के मधेशी आज भी नेपाल की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए जंग कर रहे हैं. नेपाल की कुल 2.30 करोड़ आबादी में से मधेशियों की संख्या 1 करोड़ से भी अधिक मानी जाती है. विभिन्न इलाकों में इनके पचास से अधिक संगठन कार्यरत हैं. पड़ोसी यूपी तथा बिहार के नागरिकों को उन्होंने 1857 से 1947 के बीच लगातार आजादी के जंग में मदद की. नेपाल में आज भी 40-45 लाख मधेशी लोग नागरिकता से वंचित हैं. लोकतंत्र के नए झोंके में भी मधेशी लोग बहुत सहज नहीं हो सके क्योंकि अरसे से वे माओवादियों के निशाने पर भी रहे हैं. नेपाल की आबादी में करीब 51 फीसदी होकर भी वे यूपीवाले या बिहारी नाम से पुकारे जाते हैं. हिंदी के साथ नेपाल की तराई में मैथिली, भोजपुरी, अवधी तथा थारू बोली जाती है. मधेशी इलाका नेपाल के कुल क्षेत्रफल का 21 फीसदी है और यही इलाका नेपाल का अन्न भंडार भी है.

मधेशियों को नेपाल की मुख्यधारा में ईमानदारी से जोडऩे की कोशिश के तहत 2007 में तत्कालीन नेपाली प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला ने बातचीत की गुंजाइश बनाई थी. लेकिन इतने समय बीतने के बाद इसमें कोई ठोस प्रगति नहीं हुई. कुछ मिला कर यह नेपाली माओवादियों के ऊपर निर्भर है.

गौरतलब है कि नेपाल में मधेशियों की सामाजिक संरचना बिहार तथा यूपी पर आधारित हैं. मधेशी लोगों में वैसी ही जाति व्यवस्था है. भारत तथा नेपाल के बीच खुली सीमा होने के कारण पुराने जमाने से ही इन भारतीय राज्यों के लोगों से मधेशियों के शादी-ब्याह के रिश्ते रहे हैं. धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन में भी शायद ही कोई फर्क दिखाई देता हो. लेकिन मधेश या तराई की राजकीय व्यवस्था पर शुरू से ही पहाडिय़ों का एकछत्र अधिकार रहा है. वे अब काफी तादाद में यहां बस गए हैं. राजकीय व्यवस्था में मधेशी हर जगह उपेक्षित हैं और पहाड़ी सम्मानित.

एक तरह से नेपाल में मधेशियों या फिर भोजपुरी भाषियों की भारी संख्या को देखते हुए भोजपुरी का बाजार लगातार बढ़ता जा रहा है लेकिन यह समुदाय नेपाल में एक बड़ी शक्ति होने के बावजूद उपेक्षित है, नेपाली सेना में मधेशियों की भर्ती पर शुरू से ही अघोषित रोक रही है. नेपाली पुलिस में भी उनकी तादाद बेहद मामूली है. राजकीय व्यवस्था ने इस बात का पूरा इंतजाम कर रखा है कि उनका मनोबल गिरा रहे. हालांकि प्रशासनिक सेवा में उनकी स्थिति सेना और पुलिस के मुकाबले कुछ अच्छी जरूर है, लेकिन इसे न तो संतोषजनक कहा जा सकता है और न सम्मानजनक. प्रतिनिधि सभाओं में मधेशियों को उनकी आबादी के हिसाब से कभी सही प्रतिनिधित्व नहीं मिला.

70 के दशक से नागरिकता प्रमाणपत्र से वंचित होते-होते कोई 30 लाख मधेशी अपने ही देश में परायों जैसी जिंदगी जीने को मजबूर हो गए. अब वे न तो नौकरी के लिए आवेदन कर सकते थे और न ही जमीन-जायदाद खरीद-बेच सकते थे. शुक्र है कि कम से कम नेपाली राज्य ने इस समस्या को गंभीरता से लिया.

ऐसा नहीं कि मधेशी समुदाय ने नेपाल में अपना स्तर सुधारने की कोशिश नहीं की. 1950 के दशक से ही (जब वेदानंद झा के नेतृत्व में तराई कांग्रेस की स्थापना हुई थी) मधेशी राजकीय सुविधाओं के सही बंटवारे की मांग करते रहे हैं. 1959 के पहले आम चुनाव में तराई कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई. 1980 के दशक में मधेशियों की मांगें उठाने के लिए गजेंद्र नारायण सिंह की अगुआई में पहले नेपाल सद्भावना परिषद और फिर नेपाल सद्भावना पार्टी का गठन हुआ. 1991, 1996 तथा 1999 में हुए तीनों आम चुनावों में नेपाल सद्भावना पार्टी ने अपनी संसदीय उपस्थिति दिखाई. दुर्भाग्यवश सीटों की तादाद काफी कम रही. लेकिन इसके बाद से मधेशियों के पक्ष में एक राजनैतिक बयार बहने लगी. पिछले चार चुनावों में मधेशी नेकपा एमाले के लगभग दो सौ सांसदों के मतदान से बाहर रहने की वजह से सर्वाधिक 238 मत मिलने के बाद भी कामरेड प्रचंड प्रधानमंत्री नहीं बन सके. पिछले 30 जून को एमाले पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल के त्यागपत्र के बाद वहां प्रधानमंत्री पद के लिए चुनाव अपरिहार्य हो गया. नये प्रधानमंत्री के चुनाव के लिए 21, 23 जुला, 2 और 6 अगस्त को चुनाव हुआ, लेकिन इसके लिए 601 सदस्यों का आधा अर्थात 301 सांसदों का समर्थन कोई नहीं जुटा सका, इसलिए 14 अगस्त को वहां पांचवीं बार चुनाव हुए.

इसके बाद 86 सांसदों वाले मधेशी फोरम को पटाने की रणनीति शुरू हुई. बदले राजनीति माहौल को देखते हुए अब नेकपा माओवादी नेपाल में रहने वाले एक करोड़ भारतीय मूल के नेपाली अर्थात मधेशियों को पटाने का सभी अस्त्र इस्तेमाल कर रहे हैं. इसके मद्देनजर भारत विरोध के लिए जगजाहिर प्रचंड की नेकपा माओवादी पार्टी अब अपने कूटनीतिक बयान से दिल्ली को दोस्ती का नया संकेत दे रही है. इसके अलावा मधेशी दलों के स्वायत्त प्रदेश की मांगों पर गंभीरता से विचार शुरू हो गया है. जो बता रहा है कि नेपाल में उपेक्षित भोजपुरिया या मधेशी समुदाय अपनी ताकत से अपना अधिकार लेने में सफल हो रहे हैं.

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

अश्लील नहीं, सलील है भोजपुरी गीत

संतोष अपने छह साल के भतीजे से जब कहते हैं कि सोनू कोई गाना गाओ तो सोनू बेधड़क शुरू हो जाता है-

केकरा से कहीं अपना दिलवा के हाल, ततकाल अइहऽ

देवरा कटले बावे गाल, ततकाल अईहऽ.

यह गीत संतोष के परिवार और उनके जैसे भोजपुरिया लोगों के बीच किसी अश्लीलता के दायरा में नहीं आता. हालांकि बहुत से लोग इसे फूहड़-अश्लील कह सकते हैं. लेकिन इसके पहले भोजपुरी की समृद्ध संस्कृति- परंपरा को जानना जरूरी हो जाता है.

भोजपुरी ना सिर्फ मिठास से भरी भाषा है, बल्कि श्रृंगार रस में गोता लगाती हुई वीरता का शंखनाद करने वाली संस्कृति है. भोजपुरी गीतों में भक्ति, प्रकृति के प्रति प्रेम, उलाहना, दर्द, घर-परिवार की बातें, यहां तक कि गांव-जवार-टोला और मवेशियों का बखान भी दिखता है, तो दूसरी ओर बेटी की विदाई और जीजा-शाली, देवर – भाभी के बीच की हंसी-ठिठोली व रास का सतरंगा इंद्रघनुष भी दिखता है. जबकि भोजपुरी की पारंपरिक लोकगीतों का संसार भरा-पूरा है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ठीक उसी तरह से आती है जैसे कि खेत खलिहान.

शास्त्रीय संगीत में राग पर आधारित जितने मूल गीत हैं उनमें से अधिकांश भोजपुरी में ही हैं. यह हर संगीत घराने के लिए बेशकीमती धरोहर है. बदलते समाज के साथ हिलोर मारती ईच्छाएं इन गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं-

शादी शहरे में करिहऽ हमार बाबूजी,

जहवां घर में होखे फ्रिज, टीवी अलमारी बाबूजी...

वहीं बेटी की बिदाई के दौरान जो भाव उभरता है उसे सूफियाना अंदाज में कुछ इस तरह भी प्रस्तुत किया गया है-

सोनवा के पिंजड़ा में बंद भइल, हाय राम

चिरई के जियरा उदास...

भोजपुरी गीतों की बात हो और पूरबी विधा से लोगों को रू--रू कराने वाले महेंद्र मिसिर की चर्चा न हो यह संभव नहीं है. 1935 से 1960 तक कलकत्ता से बनारस तक हर जगह पूरबी की तान छिड़ी रहती थी. आज न सिर्फ उत्तर भारत बल्कि देश के हर शहर, कस्बे में सबसे अधिक कोई गीत सुनी जाती है तो वह भोजपुरी गीत है. इस बात का अंदाजा इसी से लगया जा सकता है कि गीत-संगीत के डीवीडी-सीडी का बाजार में अकेले 24 प्रतिशत हिस्सेदारी भोजपुरी गीतों के कैसेटों का है. इसमें सिर्फ भोजपुरी फिल्म और एलबम ही नहीं बल्कि सोहर, झूमर, पूरबी, फगुआ, चइता, मइया के गीत, छठ और कांवर गीतों के कैसेट्स भी शामिल है. अगर भोजपुरी में द्वीअर्थी या फिर अश्लील गीतों की शुरुआत की बात की जाए तो सबसे पहले बालेश्वर ने इस गाने 'कटहर के कोवा तू खइब तऽ ई मोटका.....' से की. बाद में 'कतनो देखाई हरीहरी बोकवा बोलत नइखे' जैसे गीत प्रचलन में आए. इस परंपरा को गुड्डू रंगीला और राधेश्याम रसिया ने आगे बढ़ाया. एक जमाने में ये गीत - 'करवा फेरी ना बलम जी हमरी ओरिया' को फूहड़ की श्रेणी में रखा गया था लेकिन आज के संदर्भ में देखा जाय तो यह सामान्य गीत है. हालांकि भोजपुरिया मिजाज से हट कर देखा जाय तो यह फूहड़ जरूर लगता है, लेकिन इसे अश्लील कहने के पहले कई कारकों पर विचार करना पड़ेगा. वहीं भरत शर्मा 'व्यास' के श्रंगार रस वाले गीत - 'गोरिया चांद के अंजोरिया नियर गोर बाड़ू हो...' भी भोजपुरी संगीत के सौंदर्य शास्त्र को कसौटी पर कस कर समृद्ध करती है. 'पनिया के जहाज से पलटनिया बन अइहऽ, पिया लेले अइहऽ हो टिकवा बंगाल के...' में शारदा सिन्हा ने जिस तरह से प्रवासी बलम का इंतजार करती पत्नी की उससे जुड़े नेह को दिखाने की कोशिश की है, गीत के परिप्रेक्ष्य में यह अतुलनीय है और यह गीत भोजपुरी गीत-संगीत जगत के लिए धरोहर है. भोजपुरी के प्रख्यात गायक भरत शर्मा 'व्यास' के अनुसार, 'सिर्फ बाजार के नाम पर कुछ भी रद्दी परोसने की अनुमति नहीं दी जा सकती. गायकों को अपनी भाषा और माटी की गरीमा का ख्याल रख कर गाना चाहिए. क्योंकि गीत अमर होती है और वह कभी नहीं मरती. जैसे अभी परोसी जाएगी उसी रूप में वह पीढ़ी दर पीढ़ी जाएगी. हालांकि भोजपुरी भाषा की जो मिठास है वह श्रृंगार रस से ओत-प्रोत है, इसे और चटक बनाने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि सोहबर रंग लोगों को आकर्षित करता है ना कि गिजमिजाया रंग.'

हर काल, हर समाज की एक खासियत होती है, दूसरा समाज इसे किस रूप में स्वीकारता है यह उस समाज के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखना चाहिए. भोजपुरी संगीत को शीर्ष पर पहुंचाने और अपने सुर से भोजपुरी गीत-संगीत को समृद्ध करने वाली पद्मश्री शारदा सिन्हा का विचार है कि बगैर श्रृंगार को व्याख्ति किए एक बेहतरीन गीत की कल्पना नहीं की जा सकती लेकिन श्रृंगार को व्याख्ति करने का भी एक मर्यादित तरीका होता है, जिसका अतिक्रमण नहीं होना चाहिए. वह कहती हैं - 'आजकल भोजपुरी फिल्मों में आइटम सांग के नाम पर जबरन भड़काऊ और बगैर सिर-पैर वाले गाने ठूसे जाते हैं, साथ ही नर्तकी के पहनावे को भी सुहर तो नहीं ही कहा जा सकता. इसके बावजूद तर्क होता है कि ऐसे दृश्य या गीत दर्शकों-श्रोताओं की मांग पर दिए जाते हैं. यह भी ध्यान देने वाली बात है कि शीघ्र लोकप्रियता पाने की ललक के चलते जिसने भी इस तरह के गीत गाने शुरू किए, उनकी चमक चार दिन की चांदनी हो कर गई. हालांकि अगर राजा-रजवाड़ा के समय के गीतों प नजर डालें, तो जो तवायफों द्वारा मुजरा के रूप में गायी जाती थी, वह भी सभ्य-सुसंस्कृत थी.' शारदा सिन्हा द्वीअर्थी और फूहड़ गीतों को भोजपुरी भाषा के लिए ग्रहण मानते हुए कहती हैं, 'ऐसा नहीं है कि इसके खिलाफ काम नहीं हो रहा. एक तरह से कहा जाय तो नि:शब्द आंदोलन चल रहा है.'

भोजपुरी लोकगीत गायिका विजया भारती कहती हैं, ' इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि भोजपुरी गीतों में अश्लीलता नहीं है, लेकिन इसे जरुरत से ज्यादा प्रचारित किया गया, वास्तव में बहुत सारी कैसेट रिकार्डिंग कंपनियां सब नये-नये अपरिपक्व गायकों को कम पैसे, यहां तक कि पैसा ले कर कैसेट निकालती हैं, और उन कंपनियों को गीतों की स्तरीयता से कोई मतलब नहीं है. उन्हें तो सिर्फ बाजार दिखता है. लेकिन जो गायक अश्लील, फूहड़ या द्वीअर्थी गीतों के माध्यम से जैसे फलक पर आते हैं वैसे ही गायकी के पटल से गायब हो जाते हैं. सच कहा जाय तो यह पूरा माध्यम ही भ्रष्ट हो गया है.' भोजपुरी गीतों के मिजाज पर बात करते हुए वह कहती हैं, ' ऐसे भी भोजपुरी रसीली भाषा है, इसे फगुआ और चइता के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है. श्रृंगार की बात रस के साथ कहने और सुनने में जितना मजा आता है उसे फूहड़पन में सुन कर विरक्ति ही होती है.यहीं हुआ है भोजपुरी गीतों के साथ.'

भोजपुरी टीवी चैनल महुआ द्वारा शुरू किए गए 'सुर संग्राम' से उभरी गायिका अनामिका सिंह कहती हैं, 'कमजोर की मेहरी, गांव भर की भउजी वाली कहावत भोजपुरी गीतों के साथे हो गई है. वास्तव में भोजपुरी गीतों में उतनी अश्लीलता नहीं है जितना कि प्रचारित किया जाता है.' वह एक उदाहरण देती हैं, 'एक गीत 'निरहू सटल रहे...' खूब हिट हुई थी, इस गीत को अश्लील तक करार दिया गया लेकिन इस गीत के अर्थ को समझने की कोशिश की जाय तो बहुत सोहबर है. दरअसल, गीत में कहा गया है कि एक महिला बीमार है, तब निरहू सटा था, निरहू का भोजपुरी में शाब्दिक अर्थ सिंदूर होता है. किसी भी सुहागन को अपने सुहाग के प्रति इससे बढिय़ा ढंग से प्रेम कैसे व्याख्या की जा सकती है. अर्थात बीमारी के दौरान भी उस महिला की मांग में सिंदूर सजी थी. लेकिन लोगों ने निरहू का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष के रूप में लिया, जिससे यह अश्लील लगने लगा.' आज भी भरत शर्मा, अजीत अकेला, मुन्ना सिंह, मनोज तिवारी, निरहुआ, पवन सिंह, छैला बिहारी, देवी, कल्पना, प्रतीभा सिंह जैसे गायक अपनी गीत और आवाज से भोजपुरिया गीत की पिटारी को भर रहे हैं.