शनिवार, 5 जून 2010

बंगालः चुनावी जीत व राजनीतिक हिंसा


श्रीराजेश

कोलकाता नगर निगम के चुनाव परिणाम घोषित होने के तीसरे दिन 5 जून, 2010 की सुबह अचानक दिल्ली में कट्टर कम्युनिस्ट कार्यकर्ता शुभंकर कर्मकार मिले. हैलो-हाय हुई. उनसे साल भर बाद मिलना बड़ा अच्छा लगा. पूछा कि कैसे आना हुआ तो उन्होंने पहले तो यही कहा कि यहीं मयूर विहार में उनकी बहन रहती हैं. उन्हीं के यहां आए हैं. बात आगे चल पड़ी चाय पीने के साथ. तभी उन्होंने बताया कि बंगाल में अब पाशा पलट गया है. चुनाव के नतीजे घोषित होने के साथ ही तृणमूल कांग्रेस के हौसले बुलंद हो गए है. अब फिर वहां राजनीतिक हिंसा का एक और दौर शुरू होने की कगार पर है. सो इस तरह के झमेले से बचने के लिए वह कोलकाता से यहां चले आएं हैं. कई ऐसे और सक्रिय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता हैं जो कोलकाता छोड़ कहीं अन्यंत्र चले गए हैं.

शुभंकर की ये बाते हमें सिद्धार्थ शंकर राय के मुख्यमंत्रीत्व काल की यादे ताजा कर देती है. बंगाल के इतिहास में राजनीतिक हिंसा कोई नई बात नहीं है. इसका इतिहास तकरीबन चार दशकों का रहा है. इसकी शुरुआत 70 के दशक में उस समय हुई जब वामपंथी ट्रेड यूनियनों का आंदोलन शुरू हुआ था. इस आंदोलन को दबाने के लिए तत्कालीन राज्य सरकार ने राजनीतिक हिंसा का सहारा लिया. सरकार के संरक्षण में गली-मोहल्ले में मस्तानों (गुंडों) की एक नई जमात पैदा हो गई. हालांकि जब वाममोर्चा राज्य की सत्ता में आई तो उसने कांग्रेस द्वारा पोषित मस्तानों को अपने पक्ष में मिला लिया और असंगठित मस्तानों के लिए अघोषित तौर पर सिंडिकेट का रूप दे दिया. जो चीजें अव्यवस्थित व उच्छवास में व तत्कालीक प्रतिक्रिया के रूप में होती थी, अब वह व्यवस्थित व सुनियोजित ढंग से होने लगी. समय बीतता गया और ये सारी चीजे व्यवस्था के एक अंग के रूप में समाहित होती गई. बंगाल में एक ओर नक्सलियों की गतिविधियां जारी रही, खूनी खेल चलता रहा वहीं इस बार के लोकसभा चुनाव के बाद से शुरू हुआ राजनीतिक संघर्ष का दौर भी नहीं थमा. 32 वर्षो के शासनकाल में माकपा नित वाममोर्चा को पहली बार विरोधी दल तृणमूल व कांग्रेस गठबंधन से शिकस्त मिली और इस बार तो तृणमूल ने स्थानीय निकायों के चुनाव में वामो की बोलती ही बंद कर दी.

सूबे का एक भी जिला नहीं बचा है जहां अब तक सत्ता पक्ष व विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं व समर्थकों के बीच हिंसक संघर्ष नहीं हुआ हो. पुलिस के आंकड़ों पर नजर डालें तो हर दिन राजनीतिक संघर्ष की एक-दो घटनाएं होती रहती हैं. पिछले छह माह में राजनीतिक हिंसा में विभिन्न दलों के दो सौ से अधिक लोगों की जानें जा चुकी हैं. इन घटनाओं को लेकर तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी राज्य में कानून-व्यवस्था को लेकर कभी वामो सरकार को बर्खास्त करने तो कभी राज्य के मुख्यमंत्री व गृहमंत्री बुद्धदेव भंट्टाचार्य की गिरफ्तारी की मांग करती रहती हैं. माकपा नेता लगातार ममता बनर्जी को माओवादियों के साथ मिल कर बंगाल को अशांत करने व माकपा नेताओं, समर्थकों व कार्यकर्ताओं की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. लेकिन जानकारों का मानना है कि स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम अब बहुत कुछ बदल कर रख देगा. वर्षों से माकपा द्वारा प्रताड़ित तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा है और इसके अतिरेक के रूप में वे अपने उपर हुए अत्याचारों का बदला ले सकते हैं. इसके परिणाम स्वरूप बंगाल में फिर से राजनीतिक हिंसा का दौर और तेजी से बढ़ेगा.


अगर सत्तापक्ष और विपक्ष के आरोपो-प्रत्यारोपो को देखे तो साफ हो जाएगा कि राज्य में राजनीतिक हिंसा की घटनाएं किस स्तर तक जा पहुंची है. वामो चेयरमैन व माकपा के प्रदेश सचिव विमान बोस लोकसभा चुनाव के बाद से माकपा के 103 लोगों की हत्या होने की बात कह रहे हैं तो दूसरी ओर ममता बनर्जी माकपा पर तृणमूल कांग्रेस के 131 लोगों की हत्या का आरोप लगा रही हैं. इन मुद्दों को लेकर सुश्री बनर्जी केन्द्रीय गृहमंत्री और प्रधानमंत्री को मारे गये पार्टी कर्मी की सूची के साथ कई बार शिकायत कर चुकी हैं. पहले भी चुनाव के दौरान व बाद में राजनीतिक हिंसा की वारदातें हुई हैं लेकिन इस दफा हालात बदले हुए हैं. इससे संघर्ष के साथ-साथ घरों, वाहनों में तोड़फोड़ व आगजनी की घटनाएं भी हो रही हैं. नक्सल प्रभावित पश्चिम व पूर्व मेदिनीपुर, पुरुलिया और बांकुड़ा जिले में बीते छह माह में दो दर्जन से अधिक लोगों की हत्याएं हो चुकी है. वहीं पूर्व मेदिनीपुर जिले के नंदीग्राम, खेजुरी, केसपुर समेत कई और इलाकों में आये दिन सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों के समर्थकों के बीच संघर्ष हो रहा है जिनमें अब तक आधा दर्जन से अधिक लोग मारे जा चुके हैं. पुलिस व प्रशासन की ओर से राजनीतिक हिंसा को रोकने के लिए कई कदम उठाये गये लेकिन झड़प व संघर्ष का दौर थमा नहीं. उल्टे अब इसके और बढ़ने की आशंका जतायी जा रही है.


पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक पिछले छह माह में ब‌र्द्धमान, वीरभूम, हुगली, हावड़ा, उत्तर व दक्षिण चौबीस परगना, नदिया, मुर्शिदाबाद, मालदह, उत्तर व दक्षिण दिनाजपुर, जलपाईगुड़ी और कूचबिहार के साथ कोलकाता में कहीं माकपा व तृणमूल तो कहीं माकपा और कांग्रेस समर्थकों व कार्यकर्ताओं के बीच छोटी-बड़ी 300 से अधिक राजनीतिक हिंसा की घटनाएं हो चुकी हैं. इनमें राज्य के विभिन्न कालेजों में राजनीतिक दलों के छात्र संगठनों के बीच हुआ संघर्ष भी शामिल है.

इन सबकों देखते हुए शुभंकर के मन में व्याप्त भय का अंदाजा लगाया जा सकता है. अब सवाल उठता है कि किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्या इस तरह के राजनीतिक हिंसा का कोई स्थान है, या फिर इसे किसी भी तरह जायज ठहराया जा सकता है. एक बात साफ है कि राज्य की जनता अब सत्ता परिवर्तन की बांट जोह रही है लेकिन क्या जनादेश मिलने के बाद संबंधित राजनीतिक दल को पुराने वैमनस्य निकालने को हरी झंडी दी जा सकती है. किस दल के कितने कार्यकर्ता राजनीतिक हिंसा के शिकार हुए मुद्दा यह नहीं है. मुद्दा यह है कि राजनीतिक हिंसा की बलि पर इतने भारी संख्या में लोग चढ़े. किसी भी लोकतात्रिक देश व राज्य के लिए कत्तई शुभ संकेत नहीं है. जनता ने स्थानीय निकायों के चुनाव में ममता बनर्जी के प्रति आस्था दिखाई है, रुझान यह भी है कि शायद होने वाले विधानसभा चुनाव में भी ममता बनर्जी को जनता का विश्वास मिले. इसके बाद ममता बनर्जी का यह दायित्व बनता है कि राज्य में शांति और सद्भाव का माहौल बनाएं रखे और वर्चस्व के खूनी खेल से तृणमूल और माकपा दोनों ही अपने को अलग रखे. तभी राज्य में शांति और विकास का मार्ग प्रशस्त होगा.