गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

भाषा का तमाशा


गाहे-बगाहे यह सुना है कि अगर आपको कोई भाषा सिखनी हो तो सबसे पहले उस भाषा की फिल्म देखनी चाहिए. फिल्मों के जरिए संबंधित भाषा की संस्कृति, परंपरा, संगीत-नृत्य-गीत, मिजाज के संबंध में जाना जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य है कि यह कहावत भोजपुरी भाषा के साथ मेल नहीं खाती. सच कहा जाए तो अगर आप भोजपुरी भाषी हैं या फिर भोजपुरी जानते हैं तो वर्तमान में बनी भोजपुरी फिल्में देख कर आपकी भाषा सुधरने की बजाय बिगड़ जरूर जाएगी. पिछले 50 सालों में अब तक लगभग 475 फिल्में इस भाषा में बनी हैं. लगातार बढ़ते भोजपुरी फिल्मों के बाजार के मद्देनजर 2001 से भोजपुरी फिल्मों के निर्माण में अचानक तेजी आ गई है. फिल्मों के कथानक, संवाद और पटकथा पर ध्यान दिया जाना चाहिए, उन पर लटके-झटके और विदेशी लोकेशन, बनावटी एक्शन पर जोर दिया गया है, इससे फिल्में सतही बन कर रह गईं. इस मुद्दे पर बात करते हुए फिल्म "जय हो छठी मइया” के पटकथा लेखक नारायण दुबे कहते हैं, “पहले एक फिल्म के निर्माण पर ढाई से तीन साल का समय लगता था. इस दौरान भोजपुरी भाषा के जानकार और बेहतरीन लोगों को पटकथा लिखने को कहा जाता था, अधिकांश कलाकार भोजपुरिया पृष्ठभूमि के होते थे. इससे भोजपुरी फिल्मों के संवाद भोजपुरिया मिजाज और रंग में रंगे होते थे. लेकिन अब हालात बदल गए हैं. अब तो तीन महीने में फिल्में बन रही हैं.उसमें भी लोगों को लगता है कि भोजपुरी का संवाद तो कोई लिख सकता है. इसी मानसिकता को ध्यान में रख कर पटकथा लिखी जा रही है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि गैर भोजपुरिया या हिंदी भाषी कलाकारों की संख्या अधिक होने की वजह से भोजपुरी के संवाद भी अंग्रेजी के रोमन में लिखे जा रहे है, इससे उच्चारण और व्याकरण की धज्जी उड़ रही है. भोजपुरी फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों का सारा ध्यान ज्यादा से ज्यादा व्यवसाय करने वाली फिल्मों के निर्माण पर है. यहीं कारण है कि आज तक समसामयिक मुद्दों पर भोजपुरी में किसी कलात्मक फिल्मों का निर्माण नहीं हो सका. ऐसी बात नहीं है कि उसके दर्शक नहीं है.” उन्होंने कहा,- “पहले के मुकाबले भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में अब कहीं ज्यादा प्रतीभावान कलाकार है, लेकिन पटकथा के अशुद्ध लेखन, निर्देशन में कमी, कलाकारों की क्षमता को कम कर देती है और इससे पूरी फिल्म फिल्म न हो कर हाईटेक नाटक हो जाती है. ”

हालांकि ऐसा नहीं है कि भोजपुरी सिनेमा में हमेशा से कृष्णपक्ष रहा है, एक से एक उत्कृष्ट फिल्में इस काल में बनी, जिसने इस भाषा को समृद्ध बनाने में अहम भूमिका निभाई है. अपनी आधी शताब्दी के काल में भोजपुरी सिनेमा कुछ अमूल्य व धरोहर फिल्में भोजपुरिया धाती में समाहित की है. लेकिन उसके बाद की फिल्मों के संबंध में बात की जाए तो यह बेजान संवाद, गैर जरूरी दृश्य, संवाद में फूहड़पन और दुअर्थीपन, अभिनय की अति नाटकियता और 180 मिनट की फिल्म में हर तीसरे मिनट किसी गांव की गोरी के गोरे-गोरे मुखड़े पर अश्लील भाव जरूर दिख जाएंगे. अगर देखा जाए तो भोजपुरी सिनेमा का सफर बहुत ही शानदार था. संवाद संप्रेषणियता के साथ-साथ सकारात्मक संदेश देने वाले थे.

नाजिर हुसैन की अगुआई में सन 1962 में "गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो" से भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत मानी जाती है. यह फिल्म अपने संवाद, कहानी और सामाजिक और धार्मिक ताना-बाना के साथ आज भी भोजपुरिया दर्शकों के लिए बेहतरीन फिल्मों में शामिल है. इसके साथ ही विदेसिया, लागी नाहीं छुटे रामा, गंगा किनारे मोरा गांव जैसी फिल्में भोजपुरी सिनेमा की धरोहर हैं. भोजपुरी भाषा का कोई मानक नहीं होने के बाद भी इन फिल्मों में भाषाई शुद्धता के साथ-साथ स्तरीयता दिखती है. लेकिन समय के साथ भोजपुरिया फिल्मों का मिजाज भी बदला. इस बदलाव ने सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए कुछ ऊल-जलूल रास्ता अख्तियार की. इसकी वजह से यह अपनी गरिमा बचाने में विफल रही और भोजपुरी फिल्मों के सर पर फूहड़ और अश्लील जैसे बदनामी के कलंक लगे. 2001 के बाद की फिल्मों में इस तरह के दृश्यों की अचानक बाढ़ आ गई, जिसे पूरे परिवार के साथ देखना उचित नहीं माना जा सकता. दांत दिखाते हुए हीरो जब कहता है- 'का हो....कहां जात बाड़ू....Ó या फिर राह चलती लड़की को कहता है कि "का हो कईसन बाड़ू....Ó इस संवाद को बोलने के साथ अभिनय का जो छिछोरापन दिखता है वह भोजपुरी सिनेमा की गरिमा को तार-तार कर देती है. इसके बाद भी तर्क दिया जाता है कि ऐसे दृश्य या संवाद दर्शकों की मांग पर परोसे जा रहे हैं.

ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ नकारात्मक ही है. भोजपुरी सिनेमा कुछ सकारात्मक सकून भी देती है. यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भोजपुरी भाषा में जितनी फिल्में बनी है, किसी दूसरी क्षेत्रीय भाषा में उतनी उत्कृष्ट फिल्में नहीं बनी, सिर्फ बांग्ला और दक्षिण भारतीय भाषाओं की फिल्मों को छोड़ कर. बलम परदेशिया, दूल्‍हा गंगा पार के, हमार भउजी, दगाबाज बलमा, दंगल, गंगा के बेटी, पिया रखिह सेनुरवा क लाज, विदेसिया, गंगा किनारे मोरा गांव और परिवार फिल्म अपनी विशेषता के बल पर समाज में अपनी जगह बनाने में सक्षम रही. इन सभी फिल्मों के बनाने में हर पक्ष पर बेहतरीन काम दिखता है. भाषा की शुद्धता से लेकर संवाद की संप्रेषणियता तक. अभिनय से लेकर हास्य तक. सब उत्कृष्ट है. लेकिन वहीं राम-बलराम, ससुरा बड़ा पइसा वाला में पात्रों का अभिनय अति नाटकियता पूर्ण और भाषाई अशुद्धता की शिकार है. अभी तक भोजपुरी में जो उत्कृष्ट फिल्में बनी है उसका श्रेय गैर भोजपुरी निर्माताओं का भी, इस श्रेणी में नाजिर हुसैन को छोड़ कर ताराचंद बड़जात्या, और आरती भट्टाचार्य के नाम प्रमुख है. इन लोगों द्वारा निर्मित लगभग सभी फिल्मों में गीत-संगीत, नृत्य, कहानी, संवाद और चरित्र सब का समान योगदान है. इसी क्रम में जद्‌दन बाई, लीला मिश्रा, आरती, कुमकुम, पद्‌मा खन्‍ना, गौरी खुराना, तनूजा, प्रेमा नारायण, टीना घई, साहिला चढ्‌ढा, पिंकी यादव, नगमा के अतिरिक्‍त मीरा माधुरी, रेखा सहाय, वं‍दिनी मिश्रा, शीला डेविड, सीमा बजाज, बरखा पंडित, नूर फातिमा, रेनूश्री, शबनम, पाखी हेगड़े, रानी चटर्जी और रंभा जैसी अभिनेत्री भोजपुरी फिल्मों में अपने अभिनय का जलवा विखेर चुकी है. लेकिन अहम बात यह है कि इन अभिनेत्रियों में से कोई भी भोजपुरिया पृष्ठभूमि की नहीं है. अगर अभिनेताओं की बात की जाय तो इस मामले में यह फिल्म इंडस्ट्री संपन्न है. पहले कुणाल सिंह, राकेश पांडेय फिर बाद में मनोज तिवारी, रवि किशन,पवन सिंह, और दिनेश लाल यादव निरहुआ जैसे भोजपुरिया अभिनेता अपनी शुद्ध भोजपुरिया मिजाज वाला संवाद पेश कर सिनेमा को संपन्न बनाये. दूसरी ओर भोजपुरी फिल्मों की सफलता का राज इसके गीत का माधुर्य और संवाद की सहजता है. पुराने भोजपुरी फिल्मों के कई संवाद तो इतने लोकप्रिय हुए कि उसे हिंदी फिल्मों में हास्य के रूप में समाहित किया गया. पार्श्वगायन के क्षेत्र में भी भोजपुरी सिनेमा अपना विशेष महत्व कुछ स्तरीय गायकों की वजह से बना कर रखने में सफल रही है. महिलाओं में शारदा सिन्हा, विन्ध्यवासिनी देवी, अलका याज्ञिन, उषा मंगेशकर, हेमलता, चंद्राणी मुखर्जी, दिलराज कौर, मोनिका अग्रवाल और पुरुषों में भरत शर्मा, उदित नारायण, सुरेश वाडेकर, मनोज तिवारी, बालेश्‍वर के नाम सबसे अधिक लोकप्रिय है.


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