रविवार, 28 जून 2009

समलैंगिकताः भारतीय संस्कृति व प्रकृति के नियमों का अतिक्रमण

श्रीराजेश
देश के चारों महानगर में रविवार, 28 जून को दूसरे साल भी समलैंगिकों ने जुलूस निकाल कर धारा 377 को खत्म करने की मांग की. हालांकि समलैंगिकों द्वारा यह मांग को आश्चर्य पैदा नहीं करता लेकिन उनकी मांग पर केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली का बयान कि उनकी मांगों पर समाज के हर वर्ग व विभिन्न धर्मों के लोगों की सलाह मशविरा के बाद इस पर कोई कदम उठायेगा, राजनीति से प्रेरित लगा. भारतीय सभ्यता-संस्कृति में समलैंगिकता अनैतिक, धृणित, अप्राकृतिक और अमानवीय करार दिया गया है. भारत का जो पांच हजार वर्षों का इतिहास है उसमें कहीं भी समलैंगिकता का समर्थन करता कोई तथ्य नहीं दिखता. आज के कुछ धनाढ्य वर्ग के बिगड़ैल युवा पश्चिमी बयार से कुछ ज्यादा ही प्रभावित है और वह तथाकथित आधुनिक सोच, आधुनिक जीवन शैली के चक्कर में पड़ कर अपनी संस्कृति और प्रकृति नियमों के खिलाफ आचरण करने लगे हैं. अप्राकृतिक ढंग से किये गये किसी कार्य का नतीजा कैसा होता है. इसका जवलंत उदाहरण दो दिनों पूर्व दिवंगत हुए मशहूर गायक माइकल जैक्सन है. उन्होंने हमेशा प्रकृतिक के विरुद्ध ही आचरण किया और जीवन की सांध्य बेला में संघर्ष करते हुए इस दुनिया से विदा हो गये. इस प्राकृतिक सत्य को आखिरकार वे नहीं झूठला सके. उन पर भी बाल यौन शोषण का आरोप लगा, इसे समलैंगिकता भी कह सकते है. हालांकि वे बरी भी हुए, लेकिन सत्य तो यह है कि जब धुंआं दिखा तो स्वाभाविक है कि आग की कोई चिंगारी कही जरुर दिखी होगी, भले ही वक्त के साथ वह चिंगारी राख हो गयी हो. इसी तरह एक और युद्ध उन्होंने प्रकृति के विरुद्ध छेड़ा. इसमें भी वह अंततः सफल नहीं हुए. वह जब अपनी प्रसिद्धि के शुरुआती दिनों थे तब अमेरिका में अश्वेतों को दोयम दर्जा का माना जाता था. यह कुंठा और व्यवस्था के प्रति विद्रोह दूसरे अमेरिकी अश्वेतों की तरह उनमें भी पनपा. लेकिन इस विद्रोह कि दिशा प्रकृति के विरुद्ध थी. जैक्सन ने अपनी मोटी और चपटी नाक की प्लास्टिक सर्जरी करा कर तराशी तथा चमड़ी के रंग को गोरा कराने के लिए कास्मेटिक सर्जरी का सहारा लिया. इसके परिणाम स्वरूप वह त्वचा कैंसर की चपेट में भी आये और इसके साथ कई अन्य रोगों की गिरफ्त में आये. इस स्टार के दुर्गति से उन समलैंगिकों को सबक सीखना चाहिए कि वे जो कर रहे है वह अनैतिक व प्रकृति के विरुद्ध है और इसके परिणाम कभी सकारात्मक नहीं होंगे.
सोमवार की सुबह जब मैं अखबार पढ़ रहा था तो इस खबर पर मेरी नजर पड़ी और मैं समलैंगिकों की विचारधारा के विषय में सोचने लगा. पिछले साल जब इन लोगों ने इसी मांग को लेकर पहली बार जुलूस निकाला तब मैं कोलकाता में था और इस बार दिल्ली में. पिछले साल ही इनके जुलूस निकाले जाने के बाद मैं इनके विषय में थोड़ी बहुत जानकारी एकत्र करने के प्रयास में लग गया. इस मशक्कत में कई पुस्तकें मेरी नजर से हो कर गुजरी. समलैंगिकता की फिलासफी मेरी समझदानी में नहीं घुसी. खैर जब दफ्तर पहुंचा तो अपने कुछ मित्रों के साथ इस पर काफी देर तक बहस हुई. कई ने तो इनके प्रति कड़े व भद्दे लहजे में टिप्पणी कर अपने आक्रोश को व्यक्त किया. लेकिन मैं मानता हूं कि ये आक्रोश के भाजन के नहीं बल्कि दया व सहानुभूति के पात्र है. केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली को इनकी मांग पर विचार करने के बजाय, इनमें भारतीय संस्कार भरने की जरुरत बताते हुए, इसके लिए उन्हें पहल करना चाहिए.

गुरुवार, 25 जून 2009

लाल सरकार को लालगढ़ का लाल सलाम

श्रीराजेश
लालगढ़। लाल दस्ता के साथ और लाल सरकार के खिलाफ। पश्चिम बंगाल से वाम शासन के दरकने का प्रतिक। 1976-77 की पुनरावृति।
राज्य की सत्ता में आने के पूर्व वामपंथियों सर्वहारा वर्ग के उत्थान के लिए दो मोर्चो पर आंदोलन चल रहा था। एक तो माकपा के नेतृत्व में वामपंथ की पूंजीवाद और कामगारों के हक की लोकतांत्रित ढंग से आंदोलन चल रही थी और वहीं राज्य की राजधानी कोलकाता से तकरीबन 550 किलोमीटर दूर जलपाईगुड़ी के नक्सलबाड़ी गांव में चारू मजूमदार और सन्याल के नेतृत्व में चरम वामपंथियों ने सशस्त्र आंदोलन का विगुल बजा दिया था। इसका राष्ट्रव्यापि प्रभाव पड़ा। माकपा को सत्ता तक पहुंचाने में चरम वामपंथियों और अब नक्सली के रूप में कुख्यात संगठनों का आहम योगदान है। राज्य की सत्ता पर अप्रत्यक्ष रूप से कब्जा जमाये रखने की मंशा से नक्सलियों ने माकपा को सत्तासीन किया लेकिन बाद में माकपा नक्सलियों से दूरी बनाने लगी और फिर उन्हें जेलों में ठूसना भी शुरू कर दिया। यहीं से माकपा व नक्सलियों के बीच ठन गयी.
32 वर्ष पूर्व राज्य की सत्ता में आने के लिए माकपा और उसके सहयोगी वाम दलों ने राज्य के पिछड़ेपन, औद्योगिक रुग्णता, कानून व्यवस्था की लचर स्थिति, खेतीहर मजदूरों और कामगारों के विकास, जमींदारों के अत्चार को खत्म करने के मुद्दे उठाये। आज 32 वर्ष बीत गये। इतने लंबे कार्यकाल की उपलब्धी के रूप में राज्य सरकार के पास सिफर् भूमि सुधार है। इसके बावजूद जिन मुद्दों को उठा कर माकपा सत्तासीन हुई थी, वह जस की तस बरकरार है और तो और राज्य के कई हिस्सों में स्थिति और बदहाल हो गयी है। इन 32 वर्षों में सर्वहरा वर्ग की मसीहा कमयुनिस्ट सरकार के कई रूप सामने आये हैं। नंदीग्राम में हत्यारी सरकार, सिंगूर में अत्याचारी सरकार और अब लालगढ़ में निकम्मी सरकार। ध्यान देने वाली बात है कि आदीवासी बहुल क्षेत्र लालगढ़ के जंगली क्षेत्र में अच्छी सड़कें, नई-नई पुलिया, गांवों में पक्के स्कूल भवनों और कहीं-कहीं हैंडपंप भी है लेकिन यह चीजें जिनकी व्यवस्था करने की जिम्मेदारी सरकार की है, उसे नक्सली संगठनों ने किया है। पहले से ही लालगढ़ के आदीवासियों में राज्य की निकम्मी सरकार से प्रति आक्रोश तो भरा ही था लेकिन नक्सलियों के खुले समर्थन के बाद यह आक्रोश की चिंगारी भड़क गयी, लालगढ़ लाल सरकार की लाल सलाम करने की ठान ली।

राज्य में माकपा की जड़े कमजोर होने लगी है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वहां क्रांग्रेस या फिर तृणमूल कांग्रेस मजबूत हो रही है। माकपा के कैडर स्वयं को ठगा महसूस करने लगे हैं और उन्हें रूस की वोलशेविक क्रांति के दौरान हुए नरसंहार और दशकों बाद जमीन के नीचे दबे लाखों कंकालों के मिलने का दृश्य दिखने लगा है और माकपा के तिलस्म उनके नजर के सामने से टूटने लगा है।