गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

जर्मनी, फ्रांस व कनाडाः मोदी पर मेहरबान


जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर के साथ यूरेनियम आपूर्ति सुनिश्चत कर रहे थे, तभी टाइम पत्रिका ने उन्हें दमदार नेता बताते हुए दुनिया के 100 प्रभावशाली लोगों में शामिल करने की घोषणा की तो वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने उन्हें भारत का मुख्य सुधारक कहा। वास्तव में, बीते एक दशक से भारत की सत्ता में रही यूपीए की सरकार ने एक ‘उदासीन सरकार’ की छवि बनाई थी, यह छवि न केवल देश में बल्कि पूरी दुनिया में बनी। दुनिया की तमाम रेटिंग एजेंसियों ने भारत को सुस्त अर्थव्यवस्था करार दे दी थी, लेकिन परिदृश्य बीते 11 महीने में बदले हैं, रेटिंग एजेंसियों का भारत के प्रति नजरिया भी बदला है। वैसे भी किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था वहां की उत्पादकता पर तो निर्भर करती ही है, लेकिन इसके लिए मानव संसाधन, तकनीक और संयंत्र की आवश्यकता होती है। इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भारी निवेश की आवश्यकता होती है। विकासशील देश में निवेश के लिए अवसरों की भारी गुंजाइश होती है लेकिन इसके लिए उपयुक्त वातारण सबसे अहम तत्व बनता है। बीते 11 महीने के शासन में मोदी सरकार ने निवेश के लिए अनुकुल माहौल सृजित करने की मैराथन कोशिशे की है और कुछ हद तक इसमें सफलता भी मिली है, अगर भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर सरकार की हो रही छिछालेदर को दरकिनार कर दे तो... कहावत है कि प्रतिष्ठा पाने के लिए सबसे पहली आवश्यक शर्त होती है कि हम दूसरे को प्रतिष्ठित करें। इस मामले में नरेंद्र मोदी काफी आगे हैं। हम इसका नजारा चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे के दौरान उनके स्वागत के रूप में देख चुके हैं। इसी तरह गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति का भी भव्य स्वागत किया गया। वास्तव में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के परिप्रेक्ष्य में इस ‘स्वागत कूटनीति’ का महत्व अलग होता है औऱ इसका सीधा मतलब व्यापार, कूटनीति, तकनीक हस्तानांतरण, शिक्षा औऱ द्वीपक्षीय संबंधों की प्रगाढता से है। 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद नरेंद्र मोदी 15 देशों का दौरा कर चुके हैं। उनके विदेश दौरे का खास मकसद है कि विदेशी निवेश को आकर्षित किया जाए जिससे देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिल सके। मोदी अपनी तीन देशों फ्रांस, जर्मनी और कनाडा का दौरा संपन्न कर लौटे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूरोप और कनाडा यात्रा के राजनीतिक एवं आर्थिक महत्व के बरक्स तकनीकी, वैज्ञानिक और सामरिक महत्व भी कम नहीं है। इन देशों के पास भारत की ऊर्जा जरूरतों की कुंजी भी है। इस यात्रा के दौरान ‘मेक इन इंडिया’ अभियान, स्मार्ट सिटी और ऊर्जा सहयोग महत्वपूर्ण विषय बन कर उभरे हैं। परमाणु ऊर्जा में फ्रांस और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में जर्मनी आगे हैं। इन सबके अलावा अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद भी इन देशों की चिंता का विषय है। सामरिक दृष्टि से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की पहलकदमी में कनाडा की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। आण्विक ऊर्जा को लेकर भारत का शुरुआती सहयोगी देश कनाडा ही था। साल 1974 में भारत के पहले आण्विक परीक्षण के लिए आण्विक सामग्री जिस ‘सायरस’ रिएक्टर से प्राप्त हुई थी, वह कनाडा के सहयोग से लगा था। इस विस्फोट के बाद अमेरिका और कनाडा के साथ भारत के नाभिकीय सहयोग में खटास आयी, जो 2008 के भारत-अमेरिका और 2010 के भारत-कनाडा परमाणु सौदा के बाद खत्म हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी कनाडा यात्रा के दौरान एक अहम करार पर हस्ताक्षर किए। इस नए करार के तहत अगले पांच वर्षों में भारत, कनाडा से तीन हज़ार टन से ज़्यादा यूरेनियम खरीदेगा। इसका इस्तेमाल भारत के परमाणु कार्यक्रम में किया जाएगा। इन सब कुछ प्रमुख उपलब्धियों और समझौतों के अलावा मोदी ने छोटे-छोटे स्तर के कई समझौते किए। रेलवे, सुरक्षा, नागरिक विमानन, शिक्षा एवं कौशल का विकास, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता आदि को लेकर कई महत्वपूर्ण समझौते हुए। मोदी ने भी अपनी इस यात्रा को काफी सफल बताया। अब यह देखना होगा कि किया गया समझौता और दिया गया भरोसा कितना और कितनी जल्दी भलीभूत होता है। इसके पहले सामरिक दृष्टि से फ्रांस के साथ राफेल लड़ाकू विमान का सौदा इस यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण घटना है। एक तरह से इस सौदे को नये ढंग से परिभाषित किया गया है। पहले इस सौदे के तहत 18 तैयारशुदा विमान फ्रांस से मिलते। शेष 108 विमानों के लिए फ्रांस तकनीकी जानकारी हमें उपलब्ध कराता। उन्हें एचएएल में बनाने की योजना थी। अब 36 विमान सीधे वहीं से तैयार हो कर आयेंगे। तो क्या मोदी सरकार ‘मेक इन इंडिया’ नीति से हट रही है? जबकि फ्रांस सरकार किसी भारतीय कंपनी के सहयोग से निजी क्षेत्र में भी इस विमान को तैयार कर सकती है। इस व्यवस्था में भारतीय कंपनी की हिस्सेदारी 51 फीसदी की होगी। राफेल विमानों को लेकर फिलहाल एक अनिश्चितता खत्म हुई, पर यह समस्या का समाधान नहीं है। हमारे फाइटर स्क्वॉड्रन कम होते जा रहे हैं। आदर्श रूप से हमारे पास 45 स्क्वॉड्रन होने चाहिए, पर उनकी संख्या 36 के आसपास हो जाने का अंदेशा है। हमें केवल विमान ही नहीं, बल्कि उसे बनाने की तकनीक भी चाहिए। और तकनीक केवल पैसे से नहीं, कूटनीति से मिलती है। राफेल दो इंजन का फ्रंटलाइन फाइटर विमान है। इसके लिए टेंडर 2007 में निकला था। भारत अपनी सेनाओं के आधुनिकीकरण में लगा है। लगभग 100 अरब डॉलर के इस कार्यक्रम के लिए धन से ज्यादा तकनीक हासिल करने की चुनौती है। तकनीक पैसा देने पर भी नहीं मिलती। सैन्य तकनीक पर सरकारों का नियंत्रण होता है। उसे हासिल करने के दो ही तरीके हैं। पहला, हम अपनी तकनीकी शिक्षा का स्तर सुधारें। दूसरा, हम मित्र बनायें और तकनीक हासिल करें। यह तय है कि जब तक हमारे पास तकनीक नहीं होगी, हम स्वावलंबी नहीं हो पायेंगे। महाराष्ट्र के जैतापुर में परमाणु संयंत्र लगाने को लेकर भी फ्रांस के साथ नए सिरे से सहमति बनी। जैतापुर में फ्रांस की कंपनी एरेवा की मदद से छह परमाणु संयंत्र शुरू होंगे। भारत में लगने वाले इन संयंत्रों से दस हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन होना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी पहल ‘मेक इन इंडिया’ में फ्रांस की कई कंपनियों ने रुचि दिखाई। उनमें फ्रांस की प्रमुख विमानन कंपनी एयरबस भी शामिल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तुलूज एयरबस संयंत्र का दौरा करने के बाद मेक इन इंडिया का समर्थन करते हुए एयरबस ने कहा कि वह भारत में विमान बनाने को तैयार है। जर्मनी अक्षय ऊर्जा, ऑटोमोबाइल्स और भारी इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अग्रणी देश है। जर्मनी, पूरे यूरोप में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। कोई एक हजार जर्मन कंपनियां 16।1 अरब डॉलर का सालाना कारोबार भारत से कर रही हैं। जर्मनी जितनी मशीनरी दुनिया भर में निर्यात करता है, उसका 33 प्रतिशत भारत भेजता है। क्या इन जर्मन कंपनियों को मोदी जी ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम की ओर मुखातिब कर पायेंगे? जर्मनी की दिलचस्पी भारत में हाईस्पीड रेल, इंश्योरेंस सेक्टर से मुद्रा उगाही, इंडस्ट्रियल कॉरीडोर और स्मार्ट सिटी बनाने में है। लेकिन, जर्मनी का सरोकार भारत में ईसाइयों की सुरक्षा से भी है। 28 देशों का समूह, यूरोपीय संघ से भारत का 73 अरब यूरो का व्यापार है, मगर यूरोपीय संघ से मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) कई वर्षो से टलता रहा है। मोदी संभवत: इस वजह से ब्रसेल्स जाना टाल गये कि कहीं ‘एफटीए’ पर बात नहीं बनी, तो जगहंसाई होगी। यूरोपीय थिंक टैंक ‘फ्रीद’ के अनुसार, ‘यूरोप को वैसी प्राथमिकता नहीं मिल रही है, जो पिछली सरकारों ने दी थी। मोदी जब से सत्ता में आये, उनकी ‘यात्रा’ में यूरोप नहीं रहा है, उनका ज्यादा ध्यान ‘हिंद-प्रशांत’ कूटनीति पर केंद्रित रहा है। यह बात बहुत हद तक सही है। ऐसा ही पेच कनाडा के साथ फंसा है। कनाडा से आर्थिक सहयोग समझौते (सीइपीए) के वास्ते 19-20 मार्च, 2015 को बैठक हुई थी, लेकिन इसमें ‘मेक इन इंडिया’ की जगह कितनी है, यह मोदी के कनाडा दौरे के बाद भी बंद मुठ्ठी की तरह ही है। यह आने वाले कुछ महीने के बाद पता चल पाएगा कि कनाडा ‘मेक इन इंडिया’ में कितना सहभागी बनता है।

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