सोमवार, 16 नवंबर 2009
इंटरनेट पर ‘लाल-गढ़’
नक्सलवाद के समर्थक मानते हैं कि प्रजातंत्र की विफलता नक्सली आंदोलन केअभ्युदाय की वजह होती है और मजबूर होकर लोग हथियार उठाते हैं. लेकिन वास्तविकता यह है कि वर्तमान का नक्सली आंदोलन अपने रास्ते से भटक गया है इसकेतात्कालिक कारण है, न तो व्यवस्था सुधर रही है और न इसकेसुधरने केसंकेत हैं, इसलिए नक्सली आंदोलन बढ़ रहा है. इसमें होने वाली राजनीति को देख सोचना पड़ता है कि वर्ग संघर्ष बढ़ाने केपीछे राजनीति है या राजनीति केकारण वर्ग संघर्ष बढ़ा है. कुछ समय पहले तक नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या माना जाता रहा है, मगर अब इसने चरमपंथ की शक्ल अख्तियार कर ली है.
वर्तमान में नक्सलियों केसंगठन पीपुल्स वार ग्रूप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) दोनों संगठन मुख्यत: बिहार, झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में सक्रिय हैं, जिनकी गिनती गरीब राज्यों केरूप में होती है. इन राज्यों केखेतिहर मजदूरों केबीच इन वाम गुटों केलिए भारी समर्थन है. इस खेप में अब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश भी आ चुकेहै. छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला, जिसकी सीमाएं आंध्रप्रदेश से लगी हुई हैं, में नक्सलवादी आंदोलन गहरे तक पैठ जमा चुका है. प.बंगाल से शुरू हुआ नक्सलवाद अब उड़ीसा, झारखंड और कर्नाटक में भी पैर फैला चुका है.
हाल केकुछ वर्षों में देश में नक्सली गतिविधियों में कुछ ज्यादा ही तेजी आयी है. लालगढ़ में राजधानी एक्सप्रेस को नक्सलियों द्वारा बंधक बनाये जाने की वजह से नक्सलवाद को खत्म करने जैसी बहसें पहले की तरह फिर एक बार तेज हो गयी है. हालांकि नक्सलियों द्वारा किसी ट्रेन का हाईजैक करने का दु:साहस पहली बार किया गया. नक्सली हिंसा को रोकने केलिए लंबे समय से कछुए की गति से सरकारी प्रयास हो रहे है. यही कारण है कि नक्सली हिंसा और उनकी गतिविधियां रुकने केबजाय और तेज होती जा रहीं है.
माओवादी आंदोलन..., नक्सलवादी आंदोलन.... ये शब्द जैसे ही आते हैं. एक ऐसी छवि उभरती है, जिसमें तंगहाली में लिपटा जनसमूह, जंगलों और गांवों की पगडंडियों पर एक कंधे पर लाल झंडा और दूसरे कंधे पर बंदूक रखे, व्यवस्था परिवर्तन केजोशीले नारे लगाता दिखता है. अखबारों में वीभत्स चित्र वाले समाचार भी नजर आते हैं, जो नक्सली हिंसा केतांडव को बयां करते हैं. लेकिन अब इनमें एक और दृश्य जुड़ गया है और व्यापकता केसाथ. अब व्यवस्था की खामियों को दूर करने केलिए कलम, बंदूक और इंकलाबी नारे केसाथ कंप्यूटर स्क्रीन पर नक्लवाद की अवधारणा को और पुष्ट करती सामग्री भी है.
नक्सलियों की कथित वैचारिक क्रांति केप्रसार में इंटरनेट सुरक्षित साधन बन गया है. गूगल महाराज की इन पर दया दृष्टि कुछ अधिक ही है. नक्सली आंदोलन से संबंधित जानाकारी गूगल से मांगी जाएं तो महज 27 सेकेंड में 33,700 लिंकों की जानकारी देता है. इसी तरह लालगढ़ से संबंधित जानकारी केलिए महज 0.08 सेकेंड में 1,38,000 और माओवाद केलिए 0.25 सेकेंड में 2,09,000 लिंकों की जानकारी उपलब्ध कराता है. वहीं समाजवाद केलिए 0.31 सेकेंड में 57,300, गांधीवाद केलिए 0.25 सेकेंड में 16,700, साम्यवाद केलिए 0.20 सेकेंड में 24, 100 और पूंजीवाद केलिए 0.28 सेकेंड में 36, 900 लिंक उपलब्ध कराता है. ये आंकड़े बताते है कि अन्य किसी भी विचारों की अपेक्षा नक्सलवादी विचार का प्रसार इंटरनेट केमाध्यम से कहीं अधिक हुआ है. अब बेबसाइट्स और बड़ी संख्या में ब्लॉग्स केजरिये नक्सली अपनी खबरों को तत्काल दुनिया भर में पहुंचा रहे हैं. हाल केवर्षों में माओवादियों द्वारा अपने विचारों एवं सूचनाओं केआदान-प्रदान केलिए आधुनिक संचार माध्यमों खासकर इंटरनेट का भरपूर उपयोग किया है. आज तकरीबन डेढ़ दशक पहले नक्सली संगठनों को सूचनाओं और विचारों केप्रसार केलिए प्रिंट माध्यमों मसलन संगठन केमुखपत्र और समाचार बुलेटिनों पर निर्भर रहना पड़ता था. ये प्रकाशित सामग्री उनकेलिए खतरे भी बनते थे. भारी संख्या में ऐसे लोगों की गिरफ्तारी भी होती थी जिनकेपास नक्सली साहित्य बरामद होते थे. इस खतरे की वजह से इन प्रकाशित सामग्री का वितरण भी कम खतरनाक नहीं था. जब इंटरनेट की तकनीक ने इस खतरे को काफी हद तक कम कर दिया है. लोग स्वतंत्रतापूर्वक ब्लागों व वेबसाइट्स पर अपने विचार लिपिबद्ध करते हैं. अब नक्सली दूरदराज केगांवों, पहाड़ों में या फिर किसी शहर में, कहीं भी एक कंप्यूटर पर अपनी सामग्री तैयार कर इंटरनेट केजरिये दुनियाभर केलिए उपलब्ध करा रहे हैं. इंटरनेट ने इन सारी समस्याओं का एक झटकेमें समाधान कर दिया है. इंटरनेट पर नजर रखनेवाली एजेंसियां ऐसे ब्लॉग्स को तलाश कर इन्हें निष्क्रिय करती रहती हैं, लेकिन इससे नक्सलियों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता. जैसे ही कोई वेबसाइट या ब्लाग निष्क्रिय किये जाते हैं, साथ-साथ देश विदेश में फैले नक्सलियों की वेबसाइट पर नये ब्लाग या वेबसाइट का पता उपलब्ध करा दिया जाता है ताकि लोग उन सामग्री तक पहुंच सके. पश्चिम बंगाल का नंदीग्राम, सिंगूर और लालगढ़, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश में नक्सलियों की कारगुजारियों का लाल रंग से इंटरनेट भरा पड़ा है. कई ऐसे ब्लाग्स और वेबसाइटें है जो नक्सली विचारों वाले आलेखों, घटनाओं की रिपोर्ट तथा अन्य जानकारियों की लिंक उपलब्ध कराती है. एक ब्लॉग रिवोल्यूशन इन साउथ एशिया में लालगढ़ प्रकरण से जुड़ी खबरों और इसकी पृष्ठभूमि की जानकारी उपलब्ध कराने वाली विभिन्न वेबसाइट्स या ब्लागों केलिंक उपलब्ध कराये गये हैं. इसी तरह एनडीरांची (नई दुनिया) ब्लाग पर भी इंटरनेट पर फलते फूलते नक्सलवाद पर विष्णु राजगढिय़ा का आलेख है जो विभिन्न वेबसाइटों पर नक्सली आवरण को दिखाता है. वहीं नक्सल टेरर वाच जैसा वेबसाइट नक्सली हिंसा और गतिविधियों केखिलाफ पुलिस प्रशासन केअभियानों पर फोकस करता है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार सही मायने में व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, लेकिन अब नये सिरे से फिर से विचार करना होगा कि क्या नक्सलवादी विचारधारा का इंटरनेट पर बढ़ता वर्चस्व हमें कैसा आयाम देगा?
गुरुवार, 5 नवंबर 2009
सोमवार, 21 सितंबर 2009
बुद्धदेव के पर कतरनें की कवायद
वैसे भी सिंगूर के मामले में ममता बनर्जी के घोर के विरोध और किसानों को हुए नुकसान के बाद बुद्धदेव की लोकप्रियता का ग्राफ नीचे गिरा है. हाल में रतन टाटा द्वारा यह बयान दिये जाने के बाद कि वह सिंगूर का जमीन वापस कर सकते हैं, बशर्ते राज्य सरकार सिंगूर में टाटा द्वारा खर्च की गई राशि लौटा दे. टाटा के इस बयान के बाद जहां विपक्ष सरकार पर जमीन वापसी के लिए फिर दबाव बनाने लगी है, वहीं पार्टी कार्यकर्ता सिंगूर में पार्टी की विफलता मान रही है और मुख्यमंत्री के खिलाफ रोष से भरे है. सिंगूर के मामले में मुख्यमंत्री कई बार प्रकाश कारत के आलोचना के शिकार भी बन चुके है, इसके बावजूद उनकी मनमानी से पोलित ब्यूरो को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. सिंगूर, नंदीग्राम और अब लालगढ़ के मामले में उनके हठधर्मिता की वजह से केंद्रीय नेतृत्व उनसे खार खाये बैठा है. प्राप्त जानकारी के अनुसार राज्य में होने वाले अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी के आइकान लीडर किसी नये चेहरे को बनाया जायेगा. लालगढ़ का मामला भले ही ठंडा पड़ गया हो लेकिन वहां माओवादियों की गतिविधियों में कोई कमी नहीं आयी है. इसके बावजूद पिछले दिनों बुद्धदेव द्वारा लालगढ़ के मामले में केंद्र सरकार का समर्थन करना तथा सज्जन जिंदल के पक्ष में दिया गया बयान पार्टी काडरों के साथ केंद्रीय नेतृत्व की भृकुटी खड़ी कर दी है. जब कि देखा जाय तो राज्य के मुखिया के तौर पर उनके द्वारा किया गया कार्य गलत नहीं है फिर भी केंद्रीय नेतृत्व को अपना गढ़ बचाने की चिंता सता रही है. केंद्रीय नेतृत्व एक तो राज्य में उपमुख्यमंत्री बैठा कर बुद्धदेव का पर कतरने की कोशिश कर रहा है वहीं लालगढ़ के मामले पर पार्टी अपनी स्पष्टता भी दर्शाना चाहती है. इस क्रम में माकपा यदि माओवादियों, आदिवासियों के साथ जाती है तो प्रशासनिक अडंगे से पार्टी को दो चार होना पड़ेगा और सरकार आड़े आयेगी और यदि वह इससे बचती है तो घोर वामदल राज्य से माकपा की बोरिया बिस्तर बांधने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी. ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा फायदा विपक्ष उठा ले जायेगा.
गुरुवार, 13 अगस्त 2009
पत्रकार अलोक मेहता के नाम खुला पत्र
आजकल आपकी चर्चा सरेआम है। सुना है आप राज्यसभा जा रहे हैं, चलिए मैं बहुत खुश हूं। किसी से यह भी सुना है कि कांग्रेस आपकी पार्टी के प्रति निष्ठा से प्रभावित है और यदि किसी कारणवश राज्यसभा न भेज सकी तो किसी राज्य का महामहिम बना देगी। सच बताऊं तो अब आपकी उम्र कलम घिसने के बजाय अब तक से गये कलम की स्याही की कीमत वसूलने की हो गयी है और आप सही दिशा में अग्रसर हैं। बधाई हो।
लेकिन जब कुछ लोग कांग्रेस के प्रति आपकी निष्ठा को ले कर जुगाली करते हैं तो मुझे लगता है कि खुद तो वे कुछ कर नहीं सकते, लगते हैं उपदेश देने। कोई किसी को तभी उपकृत कर सकता है या निष्ठा प्रदर्शित कर सकता है, जबकि उसके पास संसाधन हो। आप कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ता हैं, बगैर किसी संदेह के। आपने कांग्रेस की कई मुद्दों पर थोथी दलीलों को सही साबित कर दिया है – यह आपकी तर्क क्षमता, बुद्धिमत्ता, संसाधन संपन्नता प्रदर्शित करता है। इसे लेकर लोगों के पेट में दर्द क्यों उठने लगता है, यह समझ से परे है।
उस दिन अंरुधती ने अपनी बात रखी और कहा कि पत्रकारिता अपने रास्ते से भटक गयी है और पत्रकार खबरों के बजाय विज्ञापन के लिए दौड़ रहे हैं। मीडिया बाज़ार का अनुसरण करने लगी है। अब अरुंधती जी को कौन समझाये? हालांकि आपने अपने लेखन के जरिये उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की है, अब उन्हें समझ भी जाना चाहिए। अरे बाज़ार है तो अख़बार है, खबरिया चैनल है और आप जैसे संपादक हैं। कोई अंरुधती जी को कैसे समझाये कि कंधे पर झोला लटकाये और पदयात्रा करते किसी विचार गोष्ठी में जाने वाले संपादकों का जमाना नहीं रहा, अगर वह इस वेश में किसी पांचसितारा होटल चले गये तो गेट से चौकीदार गर्दनिया देगा। अब ज़माना काफी आगे बढ़ चुका है। कार ज़रूरी है, मोटी तनख्वाह ज़रूरी है। अख़बार निकालने के लिए विज्ञापन ज़रूरी है और विज्ञापन तो उद्योगपतियों से ही न मिलेगा।
अब छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की ख़बर छाप कर अखबार क्या काला करे, कोई क्रांति तो होने से रही। अलबत्ता वह जगह भी बेकार जाएगी, जहां दो या तीन कालम में ख़बर छपेगी। वहां किसी धन्ना सेठ की खबर छाप दी जाए तो दूसरे दिन वह खुश हो कर कुछ विज्ञापन दे देगा और नहीं तो कांग्रेस की खबर छप जाए तो आपकी राज्यसभा की उम्मीदवारी और पक्की।
अब एक और बात, आजकल स्टार प्लस पर एक रियलिटी शो सच का सामना चल रहा है। इसे लेकर लोग बवाल मचाये हुए हैं। जब उस कार्यक्रम में भाग लेने वाले व्यक्ति को एंकर बार-बार कहता है कि अब आपसे पूछे जाने वाले सवाल नितांत निजी हो सकते हैं, और यदि आप चाहें तो अब तक जो रकम आपने जीती है उसे लेकर वापस जा सकते हैं – इसके बावजूद लोगों को सच का सामना करने का जूनून सवार है, तो इसमें इस रियलिटी शो आर्गेनाइज़ करने वाले निर्माता का क्या दोष। इसी तरह छत्तीसगढ़ में पत्रकारों द्वारा विज्ञापन वसूली की बात पर आपका नाराज़ होना स्वाभाविक है क्योंकि आप सच का सामना करने वालों की तरह थोड़े ही हैं। उनकी और आपसे तुलना कत्तई नहीं। अरे भाई, आपने कहा भी कि हिंदी अख़बार वालों के पास संसाधन पर्याप्त नहीं हैं। ऐसे में किसी पत्रकार को बगैर पारिश्रमिक या थोड़े बहुत पारिश्रमिक दे कर उसकी लेखन क्षमता को बचाये रखने के लिए आप या आपके जैसे दूसरे संपादक (ऐसे संपादकों की कमी नहीं है, इसलिए इसे अन्यथा न लिया जाय) ने अवसर दे कर उल्लेखनीय कार्य किया है। अब जहां तक उनकी रोज़ी-रोटी की बात है, तो अखबार के लिए विज्ञापन जुटाना गुनाह थोड़े ही है। हां, इसके लिए पत्रकारों को थोड़ा ध्यान रखना पड़ता है कि विज्ञापन देने वाले साहूकारों के खिलाफ ख़बरें न छप जाए और मैं समझता हूं कि इनके ख़िलाफ ख़बरें छापने से कोई क्रांति तो होने नहीं जा रही और न ही आदिवासियों की खबरें छापने से उनकी स्थिति में कोई आमूलचूल परिवर्तन आने वाला है। अधिकांश तो ऐसे भी हैं, जो अपने विषय में छपी ख़बर पढ़ नहीं सकते। ऐसे में किसी अखबार के लिए उनसे संबंधित खबर का क्या औचित्य।
आलोक जी, आप बड़े पत्रकार है और देशवासी आपकी बातों को गंभीरता से लेते हैं। भले ही कुछ टर्टा टाइप के लोग हैं जिनकी आदत हर किये में टांग अड़ाने की है, सुबह भकुआये उठते हैं और उनींदी आंखों के साथ ही इस तरह की चर्चा में लग जाते हैं। इन पर ध्यान न दें। आप सिर्फ अपने स्वास्थ्य और राज्यसभा की टिकट पर ध्यान केंद्रित करें।
आपका शुभचितंक
श्रीराजेश
सोमवार, 27 जुलाई 2009
बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ब्राह्मणवादी
यह तो बंगाल सरकार का चेहरा है जो एक साम्यवादी समाज को पिछले 32 वर्षों में विकसित किया है और उस समाज की बागडोर संगठित रूप से ब्राह्मणों के हाथों सौंप दी है. यह 32 वर्षों के अथम श्रम का प्रतिफल है. सिर्फ एससी और एसटी के एमएलए और एमपी के आधार पर नहीं समझा जा सकता, इसके लिए कम्युनिस्टों के नीतिगत मामलो और विधायी कार्यवाहियों से समझा जा सकता है. सिर्फ माकपा ही नहीं बल्कि समान विचारधारा के अन्य वामदल भी आंख बंद कर इसका लंबे अर्से से समर्थन करते आ रहे हैं. ऐसा नहीं है कि वे माकपा की इस कारगुजारी से वाकिफ नहीं है, बल्कि इसका विरोध करने की स्थित में नहीं है. बंगाल के सभी सरकारी विभागों के प्रमुख ब्राह्मण या फिर कायस्थ है (एक्का-दुक्का विभागों को छोड़ कर). बंगाल में अनुसूचित जाति के केवल चार मंत्री है और उनके मंत्रालयों का नाम अधिकांश विधायकों तक को मालूम. इससे उनके मंत्रालय का हस्र समझा जा सकता है. उपेन किस्कू और विलासीबाला सहिस के हटाए जाने के बाद आदिवासी कोटे से बने दो राज्यंत्रियों का होना न होना बराबर है. स्थितियां ऐसी बनती जा रही है कि सत्ता पर कोई काबिज हो – सत्ता समीकरण या सामाजिक संरचना में कोई आमूल चूल परिवर्तन नहीं होने वाला है.
उपरी तौर प यह सकून देने वाली बात है कि बंगाल में कोई किसी की जात नहीं पूछता लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि यहां जातिवाद की मानसिकता नहीं है. बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान की तरह असंगठित तौर नहीं बल्कि व्यवस्थित तरीके से बंगाल में जातिवाद ने अपना वर्चस्व जमाया है और इसी का प्रतिफल है कि बंगाल में मूलनिवासी दलित, आदिवासी, ओबीसी और मुसलमान स्वयं को दूसरे दर्जे के नागरिक हैं.इन सबके साथ राज्य में अस्पृश्यता अन्य दूसरे राज्यों से किन्हीं मामलों में कम नहीं है. इसका उदाहरण अक्सर देखने को मिल जाता है. पिछले साल बांकुड़ा में नीची जातियों की महिलाओं का पकाया मिड डे मिल खाने से सवर्णों के बच्चों के इनकार के बाद वाममोर्चा के चेयरमैन और राज्य माकपा के महासचिव विमान बोस ने हस्तक्षेप किया था. इसी तरह का वाकया महानगर कोलकाता में हुआ. आरोप है कि कोलकाता मेडिकल कालेज में अस्पृश्य और नीची जातियों के छात्रो के साथ न सिर्फ छुआछूत चल रहा है, बल्कि ऐसे छात्रों को शारीरिक व मानसिक तौर पर उत्पीड़ित भी किया जाता है. जब खास कोलकाते में ऐसा हो रहा है तो अन्यत्र क्या होगा. कोलकाता मेडिकल कालेज के मेन हास्टल के पहले और दूसरे वर्ष के सत्रह छात्रों ने डीन और सुपर को अस्पृश्यता की लिखित शिकायत की थी लेकिन इतना समय बीतने के बावजूद कोई यह बता पाने की स्थिति में नहीं है कि उस मामले में क्या कार्रवाई हुई. हाल ही में बीते लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ वाममोर्चा को अच्छी शिकस्त मिली है. यह शिकस्त माकपा की गलत नीतियों और कथनी और करनी फर्क की वजह से हुई. करीब डेढ़ साल तक भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर नंदीग्राम में हिंसा के चलते वहां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का जनाधार वहां से लगभग खतम हो गया और सिंगूर में भी लगभग यहीं हुआ. अब लालगढ़ में लाल गुर्ग ढह रहा है
लोकसभा चुनाव में वाममोर्चा को मिले झटकों से छोटे घटक दलों के दिन बहुरनें की उम्मीद है. चुनाव से पहले घटक दलों को ताक पर रखने वाली वाममोर्चा की सबसे बड़ी पार्टी माकपा अब उन्हें तरजीह देने लगी है.
डॉ. अम्बेडकर ने साइमन कमीशन के सामने अतिशोषित दलितों की समस्याओं को रखा और उससे प्रभावित होकर अंग्रेजी हुकूमत ने डॉ. अम्बेडकर को अपना पक्ष रखने के लिए लंदन की गोलमेज सभा में आमत्रिंत किया. इंग्लैंड के उस समय के प्रधानमंत्री रैमजे मेग्डोनाल्ड ने मुसलमानों और दलितों को पृथक मताधिकार का अधिकार दिया, जिस पर गांधी जी असहमत हुए और पूना की यरवदा जेल में 22 दिन तक अनशन पर बैठे रहे. उनका मानना था कि दलित हिंदू समाज का हिस्सा हैं इसलिए इनको पृथक मताधिकार देने का मतलब होगा कि समाज से अलग करना. गांधी जी की अहिंसा का हथियार हिंसा से भी ज्यादा मजबूर कर देने वाला होता थी. इन्हीं परिस्थितियों में डॉ. अम्बेडकर ने गांधीजी से पूनापैक्ट किया और आरक्षण पर सहमति बनी. संविंधान समिति बनाते समय गांधीजी ने डॉ. अम्बेडकर का नाम प्रस्तावित किया. डॉ. अम्बेडकर दलितों, शोषितों, महिलाओं एवं अल्पसंख्यकों के लिए तमाम प्रावधान संविधान में रखने में सफल रहे. कुछ और क्रातिंकारी प्रावधान होने चाहिए थे जो न हो सके. दूसरों की सहमति पर भी बहुत बातें आधारित थीं. भारत के सविंधान की धारा-17 में अस्पृश्यता निवारण मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया. इसके स्थान पर यदि जाति उन्मूलन को मौलिक अधिकार बनाया गया होता तो आज जात-पांत का इतना प्रभाव न दिखता. डॉ. अम्बेडकर जब कानून मंत्री थे तो प्रधानमंत्री, जवाहर लाल नेहरू से मशविरा लेकर हिंदू कोड बिल पेश किया जिसमें महिलाओं को घर की संपत्ति में अधिकार सहित तमाम और क्षेत्रों में उनको बराबरी का हक शामिल था. संसद में विधेयक पेश होने पर संसद के अंदर कट्टरवादी सांसद एवं मंत्री इसका विरोध करने लगे.
डॉ. अम्बेडकर को गहरा धक्का लगा और उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देते हुए कहा कि यदि आज भी हिंदू समाज महिलाओं को बराबर का अधिकार देने के लिए तैयार नहीं हैं तो यह बहुत ही ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है. इसके बाद डॉ. अम्बेडकर अपना राजनैतिक दल बनाने में जुट गए और भारत को बौद्धमय भी. 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर की धरती पर लाखों दलितों के साथ बौद्ध धर्म धारण करके विशेष तौर से दलितों के उत्थान, मान-सम्मान एवं समाज में जात-पांत की समाप्ति का मार्ग प्रशस्त किया. इससे महाराष्ट्र में सांस्कृतिक क्रातिं का कारवां आगे बढ़ा और उसके प्रभाव से जितनी जागरुकता और प्रगति महाराष्ट्र के दलितों में आई उतनी अन्य स्थानों पर देखने को नहीं मिलती.
डॉ. अम्बेडकर, डॉ. राम मनोहर लोहिया एवं पेरियार मिलकर एक नई राजनैतिक भूमि की तलाश करने ही वाले थे कि डॉ. अम्बेडकर का 6 दिसम्बर, 1956 को परिनिर्वाण हो गया. इनके आंदोलन की वारिस रिपब्लिक पार्टी ऑफ इडिंया बनी और कुछ हद तक 1960 के दशक में सफलता भी प्राप्त की. गुटबाजी के कारण रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इडिंया कुछ खास कामयाबी नहीं हासिल कर सकी. डॉ. अम्बेडकर को केवल दलितों के मसीहा के रूप में देखना ही जात-पांत है. सविंधान की धारा 25 से लेकर 30 तक जो अधिकार एवं सुविधाएं अल्पसंख्यकों को दी हैं, दुनिया में शायद ही किसी और देश में हों. महिलाओं के बारे में उल्लेख किया जा चुका है. डॉ. अम्बेडकर जमीन का राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे और सरकार का बड़े उद्योगों में एकाधिकार.
भारत के कम्युनिस्टों से आर्थिक मामले में ये कहीं अधिक प्रगतिशील थे. दुर्भाग्य से इनके योगदान को पूरा श्रेय नहीं मिला लेकिन जैसे-जैसे लोग जागृत होते जा रहे हैं, मृत डॉ. अम्बेडकर जिंदा से ज्यादा प्रभावशाली होते जा रहे हैं. रिपब्लिक पार्टी ऑफ इडिंया की गुटबाजी के कारण डॉ. अम्बेडकर के कारवां को धक्का लगा. उसे पूरा करने का वायदा लेकर कांशीराम भारतीय समाज के पटल पर आए. कांशीराम ने हजारों वर्षों से बंटे समाज के अंतर्विरोध को समझा और उसका इस्तेमाल करके राजनैतिक सफलता हासिल करने में सफल रहे. डॉ. अम्बेडकर का मूल सिद्धांत जाति उन्मूलन था. तमिलनाडु से लेकर कश्मीर तक तथा गुजरात से लेकर बंगाल तक डॉ. अम्बेडकर के विचारों पर आधारित तमाम संगठन बने और आज भी हैं. लेकिन ये संगठन वर्तमान संदर्भ में कितने प्रभावशाली है, यह सवाल के घेरे में है. बंगाल का वर्तमान परिदृश्य निराश और हतोत्साहित करने वाला है.
(इस आलेख के तथ्य व आंकड़े पलाश विश्वास के आलेख “वाममोर्चा नहीं, बंगाल में ब्राह्मण मोर्चा का राज ” से लिए गये है.)
शनिवार, 18 जुलाई 2009
दलितों के लिए खतरा बन रहे दलित नेता
दलितों को नुकसान दलित नेताओं द्वारा कैसे किया जा रहा है इसकी बानगी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी के 13 जुलाई को लिखे ब्लाग से समझा जा सकता है जिसमें में उन्होंने बड़े बेबाक ढंग से कई तथ्यों को उकेरा है. उन्होंने लिखा है – “आंबेडकर से मायावती वाया कांशीराम का यह रास्ता करीब सत्तर साल बाद दलित को उसी मीनार पर बैठाने पर आमादा है, जिस पर हिन्दुओं को बैठा देखकर आंबेडकर संघर्ष की राह पर चल पड़े थे। सत्ता कैसे चमचा बनाती है और कैसे किसे औजार बनाती है, इसे मायावती की सत्ता के अक्स में ही देखने से पहले औजार और चमचा की थ्योरी को समझना भी जरुरी है.....”
आगे और लिखा है- ”मायावती इस सच को ना समझती हो ऐसा हो नहीं सकता. लेकिन बहुजन के संघर्ष से सर्वजन की सोशल इंजिनियरिंग का खेल मायावती की सत्ता कैसे औजार और चमचो में सिमटी है यह समझना जरुरी है. मायावती सत्ता चलाने में दक्ष है इसलिये अपने हर कदम को राज्य के निर्णय से जोड़कर चलती है. बुत या प्रतिमा प्रेम मायावती का नहीं राज्य का निर्णय है, इसलिये सुप्रीम कोर्ट भी मायावती की प्रतिमाओ को लगाने से नहीं रोक सकता. चूंकि आंबेडकर-कांशीराम-मायावती के बुत समूचे राज्य में अभी तक जितने लगे है, अगर उनकी जगहो पर आंबेडकर की शिक्षा पर जोर देने वाले सच के दलित उत्थान को पकड़ा जाता तो संयोग से राज्य में उच्च शिक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तीन यूनिवर्सिटी और राज्य के हर गांव में एक प्राथमिक स्कूल खुल सकता था. लेकिन बुत लगाना कैबिनेट का निर्णय है और कैबिनेट राज्य की जरुरत को सबसे ज्यादा समझती है, क्योंकि जनता ने ही इस सरकार को चुना है, जिसकी कैबिनेट निर्णय ले रही है तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है..”
इस तरह के विचार देश के लेखकों और पत्रकारों द्वारा मायावती के कृत्यों के परिपेक्ष्य में दिये जा रहे है, जो साफ तौर पर दर्शाता है कि राजनीतिक दल और उसके नेता अंबेडकर को आदर्श बताते हुए किस तरह दलितों का और दलित आंदोलनों का नुकसान कर रहे हैं. अब समय की मांग है कि दलित आंदोलन के बुद्धिजीवियों को अब ठोस पहल करनी होगी और उन्हें सड़कों पर उतरना होगा, गांवों और कस्बों का चक्कर लगा तक सबसे पहले ऐसे मुखौटाधारी दलित नेताओं की पोल दलित जनता के सामने खोलनी होगी, उसके बाद आंदोलन को गति देने की प्रक्रिया शुरू करनी होगी. निश्चित तौर प दलित आंदोलन को और तेज करने की जरुरत है ताकि देश में वर्ण समानता का माहौल बन सके, लेकिन यह तभी संभव है जब नेताओं को इस समुदाय के लोगों का शोषण और दोहन करने की इजाजत न दी जाय.
मंगलवार, 14 जुलाई 2009
मध्य प्रदेश में कौमार्य परीक्षण पर विवाद
मध्यप्रदेश सरकार की ओर से चलाये जा रहे कन्यादान योजना के तहत शहडोल जिले में सरकारी सामूहिक विवाह सम्मलेन के पहले युवतियों का कौमार्य परीक्षण कराए जाने का मामला प्रकाश में आया है. यह घटना शर्मशार करने वाली है. हद तो यह है कि यह पूरी घटना स्थानीय जिलाधिकारी के निर्देश और नेतृत्व में हुआ. इसकी जानकारी मिलने के बाद राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरीजा व्यास ने राज्य सरकार से जवाब तलब किया और मुद्दा मिलते ही राजनेता अपनी राजनीतिक कलाबाजी दिखाने में पीछे नहीं रहे. राज्यसभा में जम कर इस मुद्दे पर हंगामा हुआ लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा. यह खबर सोमवार को प्रकाश में आया इसके बाद बहती गंगा में हाथ धोने के लिए कई तथाकथित महिला संगठनो ने भी पहल शुरू कर दी लेकिन आश्चर्य की बात है कि यह पता लगने के बाद कि इस सरकारी सामूहिक विवाह सम्मेलन का आयोजन जिलाधिकारी के नेतृत्व में हुआ था. और इस कौमार्य परीक्षण का मामला जिलाधिकारी के साथ अन्य प्रशासनिक अधिकारियों के संज्ञान में था, इसके बावजूद अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई. हालांकि प्रशासनिक अधिकारियों का कहना है कि गरीब परिवार जहां अपनी बेटियों की शादी इस योजना के जरिए कराकर सामाजिक दायित्व से मुक्त होना चाहते हैं, वहीं कुछ लोग इन शादियों के जरिए आर्थिक लाभ अर्जित करने में पीछे नहीं है. अभी हाल ही में शहडोल जिले में आयोजित सामूहिक विवाह समारोह में 13 ऐसी युवतियां शादी करने पहुंची जो गर्भवती थी. इस आयोजन में कुल 151 विवाह होना था. मगर 13 युवतियों के गर्भवती पाए जाने पर सिर्फ 138 लड़कियों की शादी कराई गई. अधिकारियों ने यह भी कहा इस समारोह में महिला रोग विशेषज्ञ की भी तैनाती की गई थी, जिन्होंने युवतियों से उनकी निजी समस्याएं पूछी और माहवारी न होने की बात कहे जाने पर उनका चिकित्सकीय परीक्षण कराया गया तो 13 युवतिया गर्भवती निकली.
खैर इस तरह के मामले के प्रकाश में आने के बाद प्रशासन की ओर से उसके खंडन में लगभग इसी तरह के बयान आते हैं और देश के लोग प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं के रटी-रटाई बात सुनने के आदी हो गये हैं. यहां गौर करने वाली बात है कि सरकार की कन्यादान योजना के साथ वर व वधू पक्ष आपसी रजामंदी से विवाह तय करते है और दोनों एक दूसरे के स्थिति से वाकिफ होतें हैं. सरकार की भूमिका बस इतनी होती है ये गरीब लोग विवाह समारोह का खर्च उठा पाने में अक्षम लोगों को इस समारोह के आयोजन के जरिये मदद करना. मान लिया जाय कि कोई युवती गर्भवती ही है और जो युवक उससे विवाह रचाना चाहता है उससे युवती के गर्भवती होने से कोई फर्क नहीं पड़ता तो क्या प्रशासन को यह अधिकार है कि युवती के गर्भवती होने का हवाला दे कर उन्हें विवाह करने से रोका जाय. इसी तरह ऐसे भी मामले मध्यप्रदेश में पहले आ चुके है जिनमें विवाह पूर्व ही युवक व युवती के बीच शारीरिक संबंध बन गये, बाद में उन्होंने शादी की. यदि ऐसा होता भी है तो गुनाह क्या है. दूसरी ओर राज्य महिला आयोग की सदस्य सुषमा जैन का कहना भी काफी हद तक सही है कि पैसे के लालच में कई गरीब परिवार अपने बच्चों की दोबारा दिखावटी शादी करते है. वस्तुतः वह जोड़ा काफी पहले वैवाहिक बंधन में बंध चुका होता है लेकिन सरकार से मिलने वाली आर्थिक मदद के लालच में वह जोड़ा दोबारा शादी रचाना पहुंचता है. इसमें युवतियों के गर्भवति होने का मामला बड़ा ही समान्य है. मामला भले ही कौमार्य परीक्षण का न रहा हो लेकिन इन युवतियों के किसी भी प्रकार की कोई चिकित्सकीय जांच की उस समय कोई जरुरत नहीं है. शासन व प्रशासन को इस पर विचार करना होगा. इससे न केवल वैवाहिक बंधन में बंधने वाले जोड़े के रिश्ते खत्म होंगे बल्कि सामाजिक ताना-बाना भी छिन्न-भिन्न हो सकता है. सरकार ऐसी कोई ठोस पहल क्यों नहीं करती कि राज्य की जनता की आर्थिक स्थिति इतनी सक्षम हो जाये कि उन्हें सरकारी खैरात की जरुरत न पड़े. सरकार को शहडोल में हुए सामूहिक विवाह समारोह के संबंध में उठे आरोपो की गंभीरता से जांच कराना चाहिए और यदि कौमार्य परीक्षण जैसे अमर्यादित कोई कृत्य हुआ है तो संबंधित दोषियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई करनी चाहिए. सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप और बयानबाजी के माध्यम से इस घटना से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए. महिला संगठन सिर्फ अपनी उपस्थिति दर्ज न कराये बल्कि इस मामले के संच को सामने लाये तभी वे खुद को महिलाओं के हितों के प्रति समर्पित कह पायेंगी, अन्यथा इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी और इसे हमलोग शर्मनाक घटना कह कर इससे अपना पल्ला झाड़ते रहेंगे.
शनिवार, 11 जुलाई 2009
‘कविता द्रव्य होती है, जो स्वतः बह निकलती है’
आज सुबह बिजली फिर गुल हो गयी, रोजाना की तरह, और नींद जल्दी खुल गयी, काम कुछ था नहीं. होता भी कैसे ? दिल्ली या नोएडा आये अभी खींच-तान कर डेढ माह बीते हैं, सोचा कि बैग का सामान अव्यवस्थित हो गया है, सहेज दूं. इसी क्रम में मुझे बाबा (त्रिलोचन शास्त्री) की मैं तुम्हें सौंपता हूं काव्य संग्रह दिख गया, जिसे मैंने कोलकाता से दिल्ली के सफर के दौरान पढ़ने के लिए अपने मित्र से ले कर आया था. संग्रह दिखते ही वह दिन मुझे याद आ गया, जब पहली और आखिरी बार मैं बाबा से मिला था. उस समय मुझे ये अंदाजा नहीं था कि बाबा से ये मुलाकात बार-बार याद करने लायक है. उन्हें मैं बाबा कहता हूं. यह संबोधन खुद उन्हीं द्वारा दिया हुआ है.
बात 1994-95 की रहीं होगी. कोलकाता में मैं जनसत्ता में स्ट्रीगरी की जुगाड़ में था. उस समय वहां के समाचार संपादक अमित प्रकाश सिंह हुआ करते थे. जब जनसत्ता कायार्लय पहुंचता तो अमित जी कवि सम्मेलन, विचार गोष्ठी, किसी राजनीतिक दल के धरना-प्रदर्शन को कवर करने का इसानमेंट दे देते और मेरा दिल बाग-बाग हो जाता. इसी तरह कोलकाता में गैर सरकारी स्कूलों की बढ़ती संख्या पर उन्होंने मुझे एक फीचर तैयार करने को कहा, साथ ही चीफ रिपोर्टर गंगा प्रसाद जी (अभी पटना में है) से इससे संबंधित विंदु लिखवा लेने का निर्देश दिया. गंगा जी के टेबल पर जनसत्ता के उस दिन का अंक पड़ा था और उसमें त्रिलोचन शास्त्री के कोलकाता आने की खबर छपी थी. इसके पहले कवि गोष्ठियों को कवर करते मैं सतही तौर पर त्रिलोचन और नागार्जुन दोनों बड़े कवियों के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था. खबर पर नजर पड़ते ही मैंने गंगा जी से कहा कि त्रिलोचन जी के कार्यक्रम को कवर करने का इसानमेंट मुझे ही दिजिएगा. गंगा जी हंस दिये और कहा कि अमित जी तुम्हें कार्यक्रम देते हैं, उनसे ही ले लेना. मैं उनके पास से अमित जी के पास पहुंचा और वहीं बात कही. तो टालते हुए कहे कि अभी उनके आने में तो देर है, आयेंगे तो देखा जायेगा. बात आयी-गयी हो गयी. त्रिलोचन कोलकाता आये, कई गोष्ठियों में उन्होंने शिरकत की. जनसत्ता में सभी की खबरें भी छपी लेकिन मुझे किसी कार्यक्रम को कवर करने का मौका नहीं मिला. इससे अमित जी के प्रति थोड़ी खींज भी थी. लगभग एक सप्ताह बीते होंगे अमित जी ने मारवाड़ी समुदाय के एक हास्य कवि सम्मेलन की रिपोर्टिंग करने के लिए कहा. अब मेरी खींज और बढ़ गयी और मैंने बगैर सोचे समझे तन से कह दिया कि जितने घटिया कार्यक्रम होते हैं वहीं आप मुझे थमा देते हैं, त्रिलोचन शास्त्री वाली कवि गोष्ठी का इसानमेंट मांगा था तो आपने दिया ही नहीं. भले ही मैं उसकी खबरे ठीक ढंग से नहीं लिख पाता लेकिन जो सीनियर गये थे, उनके साथ ही मुझे भेज देते तो कम से कम मैं उनसे मिल लेता या उन्हें देख लेता. इस पर कोई टिप्पणी करने के बजाय उन्होंने कहा कि अच्छा अब जाओ और अपना काम करो, दिमाग मत खाओ. मैं आ कर अपनी खबरें लिखने लगा. रात के साढ़े नौ के करीब बजे होंगे. घर लौटने की तैयारी कर रहा था. तभी अरविंद (चपरासी) आया और कहा कि अमित जी बुला रहे हैं. मैंने सोचा कल के लिए कुछ निर्देश मिलने वाले होंगे. गया तो उन्होंने बड़े प्यार से बैठाया और पूछा – आखिर तुम क्यों त्रिलोचन जी से मिलना चाहते हो ? मैंने कहा- वे बड़े कवि हैं, स्वाभाविक है कि उनसे मिलने की इच्छा होगी ही. वे हंसने लगे और कहा कि कल तुम्हारा कोई भी इसानमेंट दोपहर दो बजे के बाद ही है, सुबह उनसे जा कर मिल लेना, पता लिख लो. उन्होंने दक्षिण कोलकाता के टालीगंज के रानीकुटी का एक पता लिखा दिया. मैं चला आया.
सियालदह रेलवे स्टेशन पहुंचा तो हमारे कई मित्र पूर्व निर्धारित समय के अनुसार वहां मौजूद थे. इसमें प्रकाश, संजय जायसवाल, और अर्जून सिंह थे. लोकल ट्रेन में बैठे तय हुआ कि प्रकाश भी सुबह मेरे साथ त्रिलोचन जी से मिलने चलेगा. वह अच्छी कविताएं उस समय भी लिखता था, और अब तो लिखता ही है. वह मेरा लंगोटिया मित्र है. अभी वह आगरा में केंद्रीय हिंदी संस्थान की गवेषणा पत्रिका में बतौर सह संपादक कार्यरत है.
अगले दिन प्रकाश मेरे घर अपनी कुछ कविताओं के साथ चलने की तैयारी में आया और साथ हम भी अपनी कविताओं की डायरी लिए चल पड़े. निर्धारित पते पर पहुंचे, कालबेल बजाया, एक महिला निकलीं, हमने अपना आशय बताया. उन्होंने बैठकखाने में बैठा दिया. वहां टेबल पर कई हिंदी –अंग्रेजी के अखबार और कई साहित्यिक पत्रिकाएं रखी थीं. हम दोनों उन पत्रिकाओं को पलटना शुरू किया. ये वैसी पत्रिकाएं थी, जिनका नाम सुना था लेकिन इनमें से कई पत्रिकाओं का कोई अंक देखा नहीं था.तभी वह भद्र महिला बैठकखाने में आयीं और पानी दे कर एक ओर संकेत करते हुए कहा – त्रिलोचन जी उस कमरे में है. वहीं चले जायें.
हमने एक सांस में गिलास का पानी खत्म किया और हिचकते हुए कमरे की ओर बढ़े और दरवाजे पर जा कर टिकक गये. भीतर बढ़ी दाढ़ी, विखरे बाल, आसमानी रंग की लुंगी, हां लुंगी ही थी. पीले रंग की कमीज पहने एक वृद्ध पलंग पर लेटे थे. अखबारों में छपी तस्वीरों को देखा ही था, सो तुरंत पहचान गया, यहीं हैं त्रिलोचन. हम दोनों ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़ प्रणाम किया. प्रणाम की आवाज सुन, उठते हुए उन्होंने हम दोनों को आशीष भी दिया और सामने रखी कुर्सी पर बैठने का संकेत किया. कुर्सी एक ही थी, जिस पर मैं बैठ गया और प्रकाश उनके पलंग पर पायताने बैठा बाबा ने बारी-बारी से नाम पूछा. वह धीरे-धीरे हमारी पढ़ाई लिखाई के साथ घर परिवार के विषय में भी बातें करने लगे और महज दस मिनट बीते होंगे कि उनके बातचीत करने के अंदाज से हमारी सारी हिचकिचाहटें दूर हो गईं और हम दोनों सामान्य हो गये. वहीं एक आलमारी में कई सम्मान पत्र, रखे हुए थे. उन्ही में से एक पर उनकी जन्मतिथि 20 अगस्त 1977 अंकित था. जबकि उनकी जन्मतिथि 20 अगस्त 1917 है. हमने कहा- बाबा इस पर तो आपकी जन्मतिथि 1977 है ? तो उन्होंने तपाक से हंसते हुए कहा- मैं क्या तुमलोगों से ज्यादा उम्र का दिखता हूं ? हमलोग कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे. इसके बाद उन्होंने बताया कि गलती से वहां 1917 की जगह 1977 अंकित हो गया है. और वे इस तरह की गलतियों की पूरी फेहरिस्त सुनाने लगे. हम उनके संस्मरण को बड़ी उत्कंठा से सुनते रहे. तभी प्रकाश ने पूछा कि बाबा, सानेट आप लिखते है और हम लोग सानेट के विषय में सुने तो हैं लेकिन जानते नहीं, यहां तक कि आपकी लिखी सानेट भी नहीं पढ़ी है. बाबा ने तुरंत एक पुरानी पत्रिका प्रकाश को थमा दी. इसमें उनके कुछ सानेट थे और इसके बाद वह सानेट के विषय में विस्तार से बताने लगे.इसके बाद बारी-बारी से हमने अपनी कविताएं भी उन्हें सुनाई. और हमारी नादानी भरी कविताएं बड़ी चांव से सुनते रहे. जब दोनों कि कविताएं खत्म हो गयी. तो उन्होंने कहा – अच्छा लिखते हो, लेकिन पहले साहित्यिक पत्रिकाए पढ़ो. फिर लिखो. कविता द्रव्य होती है, जो स्वतः मन से बह निकलती है. उनके यह शब्द अब भी जेहन में वैसे ही बरकरार है. हम दोनों साहित्य के दंतहीन शावक थे लेकिन यह उनकी सहजता ही थी कि वे हम दोनों से इस तरह बातें कर रहे थे जैसे हम सही मायने में साहित्य के अनुरागी हो. सच तो यह है कि जब वे सानेट के विषय में बताते हुए उस मुद्दे से भटक कर अंग्रेजी साहित्य के विषय में बोलने लगे और अंग्रेजी के कवियों का नाम लेते थे तो उनकी आधी बातें हमरी समझ में हीं नहीं आयी. हालांकि वे बार बार पूछते यह सुना है- उनकी हर बात में हां में सर हिला देते. लेकिन वह ताड़ जाते कि हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ा. उनके पास बैठे तकरीबन एक घंटा हो चुका था. उन्होंने पूछा – कुछ खाओगे ? सुबह जल्दी ही निकल गये थे. खाया कुछ नहीं था. भूख लगी ही थी. हां में सर फिर हिला दिया. वह उठे अंदर गये और एक प्लेट में पहवा ले कर आये. प्लेट में चम्मच नहीं था. पास पड़े अखबार के एक टूकड़े को उन्होंने चम्मच बना कर हमें पकड़ा दिया. हम पहवा खाते रहे और वे साहित्य के विषय में अमृतवर्षा करते रहे, हम भींगे भी लेकिन इसका असर अंदर तक नहीं हुआ. पहवां खतम हुआ तो हम चलने को तैयार हुए. उन्होंने ढ़ेर सारी पत्र-पत्रिकाएं पहली मुलाकात का उपहार स्वरूप दिया और अंत में पूछा कि कैसे आये यहां ? तब हमने बताया कि जनसत्ता के अमित जी ने यहां का पता दिया था. वह हंसने लगे. हम समझ नहीं सके और उनका आशीष ले हम लौट गये.
शाम को दफ्तर पहुंचा तो अमित जी ने देखते ही पूछा – गये थे ?
मैंने कहा – जी.
क्या-क्या बातें हुई?
मैंने वह सब बताना शुरू किया, तभी संपादक जी ने उन्हें अपनी केबिन में बुला लिया और मैं गंगाजी के पास चला गया. मैं त्रिलोचन जी से मिल कर अति प्रसन्न था, चेहरे पर प्रसन्नता के भाव दिख रहे थे, सो गंगा जी बोले – क्या हिरो, क्या हाल है ? मैंने उन्हें भी बताया कि कहां से आ रहा हूं. जब वे सुन लिये तो बोले कि अमित जी तुम लोगों कुछ खिलाया या पानी पिला कर ही टरका दिया. मैंने कहा कि हम अमित जी के यहां थोड़े गये थे, त्रिलोचन जी से मिलने गये थे. वह अपने किसी संबंधी के यहां रानीकुटिर में ठहरे है. गंगा जी हंसने लगे और कहा- अमित जी के पिता है त्रिलोचन शास्त्री और तुम जहां से मिल कर आ रहे हो वह अमित जी का ही घर है, हम यह सुन कर आश्चर्यचकित हुए बगैर नहीं रहे और मेरी नजर में त्रिलोचन जी के साथ अमित जी भी महान हो गये.
शुक्रवार, 10 जुलाई 2009
मीडिया का बढ़ता मुनाफा व पत्रकारिता की बदलती परिभाषा
एक बंधु ने अपने ब्लाग (http://shyamnranga.blogspot.com) पर सूचना दी है कि मूल रूप से बीकानेर के रहने वाले और अब मुंबई प्रवासी श्याम लाल जी दम्माणी को विभिन्न अखबारों में संपादक के नाम पत्र लिखने के लिए उनका नाम लिम्का बुक आफ रिकार्ड में दर्ज किया गया है. वह वर्ष 1991 से 2004 के बीच लगभग साढ़े चार हजार पत्र लिख चुके हैं और ये पत्र विभिन्न विषयों पर सुझाव स्वरूप या प्रतिक्रियात्मक लिखा गया है.
यह भारतीय मीडिया जगत के लिए शुभ सूचना है बावजूद इसके इस सूचनात्मक खबर के संबंध में कहीं किसी अखबार, खबरियां चैनल या फिर समाचार पोर्टल में चर्चा नहीं की. देखा जा रहा है कि इस तरह की चीजें अब अखबारों, खबरियां चैनलों व समाचार पोर्टलों से गायब ही रहते हैं. ऐसा क्यों ? यह प्रश्न भी अनायास नहीं है लेकिन इस संबंध में गंभीरता से विचार आवश्यक है.
पिछले दस वर्षों के दौरान देखा गया है कि भारतीय मीडिया का जनसरोकार से नाता धीरे-धीरे क्षीण होते जा रहा है, लेकिन फिर सवाल उठता है कि ऐसा क्यों ? हम बाजारवाद का हवाला देते हैं, यदि ठीक से देखा जाय तो भारत में बाजारवाद की बयार की 90 के दशक के सरसराहट शुरू हुई और सरकारी नीतियों के पाल के छांव में 90 के दशक के मध्य तक इसने अपना वर्चस्व जमा लिया था. मीडिया में भी बाजारवाद का प्रभाव इसी काल में शुरू हुआ, जब इंटरनेट और इंटरटेनमेंट सेक्टर में विदेशी पूंजी निवेश को 100 फीसदी की छूट दी गयी. जबकि टेलीकाम सेक्टर में 74 फीसदी, समाचारों में 26 फीसदी और एफएम, डीटीएच, केबल औप प्रिंट मीडिया में 49 फीसदी की छूट दी गयी. दरअसल, सरकार की इस नीति से खास कर प्रिंट मीडिया को नई जान तो मिली ही जो प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश से वंचित होने के कारण आर्थिक रूप से बीमार थी, उसे नई संभावनाएं दिखने लगी. बावजूद इसके विदेशी कंपनियों द्वारा इस सेक्टर में भारी पूंजी निवेश ने इस क्षेत्र की प्राथमिकताएं बदल दी और जनसरोकार का नजरियां हांसिये पर चला गया तथा अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की प्रवृति बढ़ती गयी. इसका असर हाल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अखबारों के पाठकों की संख्या में पिछले तीन साल में आयी भारी गिरावट और साथ ही टैम यानी टेलीविजन आडिययंस मेरजरमेंट के आंकड़ों के विश्लेषकों के अनुसार चार साल पहले जहां देश में 210 चैनल थे जो आज बढ़ कर 324 हो गये हैं, दिखता है. जो कार्यक्रम चैनल (खबरिया चैनलों के साथ) को 10 से ज्यादा टीवीआर दे सके, ऐसे चैनल दो एक ही रह गये हैं. इसके बावजूद कुछ छोटे मोटे मीडिया घरानों को छोड़ कर आर्थिक मंदी के दौर में भी देश का मीडिया उद्योग ठीक-ठाक मुनाफा में रहा.
दूसरी ओर अखबारों, खबरियां चैनलों व समाचार पोर्टलों से जनसरोकार के मुद्दे गायब होने के साथ पत्रकारिता के स्तर में लगातार गिरावट देखी जा रही है जिसने पाठकों और दर्शकों के आंकड़े कम करने में अहम भूमिका निभाई है. अब यह सुक्त वाक्य सच लगने लगा है कि भारतीय पत्रकारिता अपने संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है. उपरोक्त श्याम लाल जी दम्माणी जैसा संजीदा पाठक संपादक के नाम जब पत्र लिखता है तो सामान्यतः अखबार में प्रकाशित किसी खबर या आलेख को वह पहले गंभीरता से पढ़ता है और वह उसके दिमाग से सीधे दिल तक उतरती है और उसके बाद प्रतिक्रिया स्वरूप विचारों जन्म होता है. ये पत्र अखबारों को अपनी नीतियों के निर्धारण, पत्रकारों को अपनी दृष्टि विकसित करने और विचारों को जनोन्मुखी और मंथन करने के लिए बाध्य करती है. वर्तमान दौर में पाठकों के संपादक के नाम पत्र का महत्व सिर्फ उस कालम को भरने तक ही रह गया है. अब मीडिया जगत में खबरों की परिभाषा बदल गयी है- उपभोक्ता के लिहाज से खबरें. वर्तमान दौर में देखा जा रहा है कि पत्रकार बजट व सरकारी रिपोर्टों का विलशेषण करने की क्षमता खोते जा रहे है. अखबारों में भाषण बाजी और उन्होंने कहा.... टाइप की खबरों की बाढ़ है. इस लिहाज से देखा जाय तो भले मीडिया का व्यापार बढ़ रहा हो, लेकिन पत्रकारिता पीछे छूट रही है. कई विद्वानों का कहना है कि पश्चिमी देशों, खास कर अमेरिका में पत्रकारिता का अवसान देखा जा रहा है. इसके कारण भी गिनाये गये है कि पहले वहां अखबार आये इसके बाद समाचर चैनल और फिर बाद में समाचार वाली वेबसाइटें आयीं. पत्रकारिता को ये सभी माध्यम एक-एक कर मिले और हुआ यह कि जो धार धीरे-धीरे मिलती तकनीक के साथ तेज होनी चाहिए थी वह घीस कर बोथरा गयी और पत्रकारिता पर उपभोक्तावाद हावी हो गया लेकिन भारतीय पत्रकारिता के साथ स्थिति बिलकुल अलग है. भारतीय पत्रकारिता पर केवल खबर परोसने की ही नहीं बल्कि देश व समाज को नई दिशा देने की जिम्मेदारी भी है, जो काफी पहले से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करती आ रही है लेकिन हाल में आर्थिक उदारीकरण ने इसके मायने बदल दिये हैं. भारतीय पत्रकारिता के बुजुर्गों को फिर से पत्रकारिता के पुरानी परिभाषा को लौटाने की पहल ही नहीं कोशिश करने के लिए मार्ग दर्शन करना चाहिए और युवा पत्रकारों की पीढ़ीं को नई सोंच के साथ इस लुभावन चमक-दमक से मुक्त हो कर मिशन से मशीन में तब्दील होती पत्रकारिता को उसकी मंजिल तक पहुंचाने के प्रयास तेज करने होंगे. यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इस प्रयास से पत्रकारों की आर्थिक स्थिति पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका नहीं के बराबर है लेकिन इतना जोखिम तो उठाया ही जा सकता है.
रविवार, 28 जून 2009
समलैंगिकताः भारतीय संस्कृति व प्रकृति के नियमों का अतिक्रमण
देश के चारों महानगर में रविवार, 28 जून को दूसरे साल भी समलैंगिकों ने जुलूस निकाल कर धारा 377 को खत्म करने की मांग की. हालांकि समलैंगिकों द्वारा यह मांग को आश्चर्य पैदा नहीं करता लेकिन उनकी मांग पर केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली का बयान कि उनकी मांगों पर समाज के हर वर्ग व विभिन्न धर्मों के लोगों की सलाह मशविरा के बाद इस पर कोई कदम उठायेगा, राजनीति से प्रेरित लगा. भारतीय सभ्यता-संस्कृति में समलैंगिकता अनैतिक, धृणित, अप्राकृतिक और अमानवीय करार दिया गया है. भारत का जो पांच हजार वर्षों का इतिहास है उसमें कहीं भी समलैंगिकता का समर्थन करता कोई तथ्य नहीं दिखता. आज के कुछ धनाढ्य वर्ग के बिगड़ैल युवा पश्चिमी बयार से कुछ ज्यादा ही प्रभावित है और वह तथाकथित आधुनिक सोच, आधुनिक जीवन शैली के चक्कर में पड़ कर अपनी संस्कृति और प्रकृति नियमों के खिलाफ आचरण करने लगे हैं. अप्राकृतिक ढंग से किये गये किसी कार्य का नतीजा कैसा होता है. इसका जवलंत उदाहरण दो दिनों पूर्व दिवंगत हुए मशहूर गायक माइकल जैक्सन है. उन्होंने हमेशा प्रकृतिक के विरुद्ध ही आचरण किया और जीवन की सांध्य बेला में संघर्ष करते हुए इस दुनिया से विदा हो गये. इस प्राकृतिक सत्य को आखिरकार वे नहीं झूठला सके. उन पर भी बाल यौन शोषण का आरोप लगा, इसे समलैंगिकता भी कह सकते है. हालांकि वे बरी भी हुए, लेकिन सत्य तो यह है कि जब धुंआं दिखा तो स्वाभाविक है कि आग की कोई चिंगारी कही जरुर दिखी होगी, भले ही वक्त के साथ वह चिंगारी राख हो गयी हो. इसी तरह एक और युद्ध उन्होंने प्रकृति के विरुद्ध छेड़ा. इसमें भी वह अंततः सफल नहीं हुए. वह जब अपनी प्रसिद्धि के शुरुआती दिनों थे तब अमेरिका में अश्वेतों को दोयम दर्जा का माना जाता था. यह कुंठा और व्यवस्था के प्रति विद्रोह दूसरे अमेरिकी अश्वेतों की तरह उनमें भी पनपा. लेकिन इस विद्रोह कि दिशा प्रकृति के विरुद्ध थी. जैक्सन ने अपनी मोटी और चपटी नाक की प्लास्टिक सर्जरी करा कर तराशी तथा चमड़ी के रंग को गोरा कराने के लिए कास्मेटिक सर्जरी का सहारा लिया. इसके परिणाम स्वरूप वह त्वचा कैंसर की चपेट में भी आये और इसके साथ कई अन्य रोगों की गिरफ्त में आये. इस स्टार के दुर्गति से उन समलैंगिकों को सबक सीखना चाहिए कि वे जो कर रहे है वह अनैतिक व प्रकृति के विरुद्ध है और इसके परिणाम कभी सकारात्मक नहीं होंगे.
सोमवार की सुबह जब मैं अखबार पढ़ रहा था तो इस खबर पर मेरी नजर पड़ी और मैं समलैंगिकों की विचारधारा के विषय में सोचने लगा. पिछले साल जब इन लोगों ने इसी मांग को लेकर पहली बार जुलूस निकाला तब मैं कोलकाता में था और इस बार दिल्ली में. पिछले साल ही इनके जुलूस निकाले जाने के बाद मैं इनके विषय में थोड़ी बहुत जानकारी एकत्र करने के प्रयास में लग गया. इस मशक्कत में कई पुस्तकें मेरी नजर से हो कर गुजरी. समलैंगिकता की फिलासफी मेरी समझदानी में नहीं घुसी. खैर जब दफ्तर पहुंचा तो अपने कुछ मित्रों के साथ इस पर काफी देर तक बहस हुई. कई ने तो इनके प्रति कड़े व भद्दे लहजे में टिप्पणी कर अपने आक्रोश को व्यक्त किया. लेकिन मैं मानता हूं कि ये आक्रोश के भाजन के नहीं बल्कि दया व सहानुभूति के पात्र है. केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली को इनकी मांग पर विचार करने के बजाय, इनमें भारतीय संस्कार भरने की जरुरत बताते हुए, इसके लिए उन्हें पहल करना चाहिए.
गुरुवार, 25 जून 2009
लाल सरकार को लालगढ़ का लाल सलाम
राज्य की सत्ता में आने के पूर्व वामपंथियों सर्वहारा वर्ग के उत्थान के लिए दो मोर्चो पर आंदोलन चल रहा था। एक तो माकपा के नेतृत्व में वामपंथ की पूंजीवाद और कामगारों के हक की लोकतांत्रित ढंग से आंदोलन चल रही थी और वहीं राज्य की राजधानी कोलकाता से तकरीबन 550 किलोमीटर दूर जलपाईगुड़ी के नक्सलबाड़ी गांव में चारू मजूमदार और सन्याल के नेतृत्व में चरम वामपंथियों ने सशस्त्र आंदोलन का विगुल बजा दिया था। इसका राष्ट्रव्यापि प्रभाव पड़ा। माकपा को सत्ता तक पहुंचाने में चरम वामपंथियों और अब नक्सली के रूप में कुख्यात संगठनों का आहम योगदान है। राज्य की सत्ता पर अप्रत्यक्ष रूप से कब्जा जमाये रखने की मंशा से नक्सलियों ने माकपा को सत्तासीन किया लेकिन बाद में माकपा नक्सलियों से दूरी बनाने लगी और फिर उन्हें जेलों में ठूसना भी शुरू कर दिया। यहीं से माकपा व नक्सलियों के बीच ठन गयी.
32 वर्ष पूर्व राज्य की सत्ता में आने के लिए माकपा और उसके सहयोगी वाम दलों ने राज्य के पिछड़ेपन, औद्योगिक रुग्णता, कानून व्यवस्था की लचर स्थिति, खेतीहर मजदूरों और कामगारों के विकास, जमींदारों के अत्चार को खत्म करने के मुद्दे उठाये। आज 32 वर्ष बीत गये। इतने लंबे कार्यकाल की उपलब्धी के रूप में राज्य सरकार के पास सिफर् भूमि सुधार है। इसके बावजूद जिन मुद्दों को उठा कर माकपा सत्तासीन हुई थी, वह जस की तस बरकरार है और तो और राज्य के कई हिस्सों में स्थिति और बदहाल हो गयी है। इन 32 वर्षों में सर्वहरा वर्ग की मसीहा कमयुनिस्ट सरकार के कई रूप सामने आये हैं। नंदीग्राम में हत्यारी सरकार, सिंगूर में अत्याचारी सरकार और अब लालगढ़ में निकम्मी सरकार। ध्यान देने वाली बात है कि आदीवासी बहुल क्षेत्र लालगढ़ के जंगली क्षेत्र में अच्छी सड़कें, नई-नई पुलिया, गांवों में पक्के स्कूल भवनों और कहीं-कहीं हैंडपंप भी है लेकिन यह चीजें जिनकी व्यवस्था करने की जिम्मेदारी सरकार की है, उसे नक्सली संगठनों ने किया है। पहले से ही लालगढ़ के आदीवासियों में राज्य की निकम्मी सरकार से प्रति आक्रोश तो भरा ही था लेकिन नक्सलियों के खुले समर्थन के बाद यह आक्रोश की चिंगारी भड़क गयी, लालगढ़ लाल सरकार की लाल सलाम करने की ठान ली।
राज्य में माकपा की जड़े कमजोर होने लगी है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वहां क्रांग्रेस या फिर तृणमूल कांग्रेस मजबूत हो रही है। माकपा के कैडर स्वयं को ठगा महसूस करने लगे हैं और उन्हें रूस की वोलशेविक क्रांति के दौरान हुए नरसंहार और दशकों बाद जमीन के नीचे दबे लाखों कंकालों के मिलने का दृश्य दिखने लगा है और माकपा के तिलस्म उनके नजर के सामने से टूटने लगा है।
रविवार, 22 मार्च 2009
बहुत कुछ तय करेगा 2009 का आम चुनाव
15 वीं लोकसभा के चुनाव की तैयारियां पूरे शबाब पर है. एक अरब 25 करोड़ की आबादी वाले देश के 70 करोड़ मतदाता नई सरकार का चयन करेंगे और इनमें लगभग 42 करोड़ मतदाता युवा है. देश की आदाजी के बाद संभवतः यह पहला आम चुनाव है जिसके मतदाताओं में युवा वर्ग का वर्चस्व है. यह चुनाव पिछले 14 आम चुनावों से काफी कुछ अलग होगा. न तो सत्ताधारी यूपीए के पास कोई चुनावी मुद्दा है और न ही सबसे बड़े विरोधी दल भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के पास कोई मुद्दा है. अब तक जो परिदृश्य सामने आये है उनमें सबसे अधिक हास्यास्पद स्थिति कम्युनिस्टों के नेतृत्व में बना तीसरा मोर्चा का कुनबा है. न इनके पास कोई सर्वमान्य नेता है और न ही मुद्दा.पिछले दो दशक में राज्य स्तरीय छोटे दलों का वर्चस्व काफी बढ़ा है और ये छोटे दल राष्ट्रीय दलों को तीगनी का नाच नचाने में लगे हैं.बिहार में राजद-लोजपा के बीच गंठबंधन और कांग्रेस को महज तीन सीटें दे कर सूबे से कांग्रेस को समेटने की कवायद इन दलों की मंशा को चरितार्थ करते हैं. इसी तरह महज 20-25 सीटों के बल पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सुप्रीमो शरद पवार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नजर टिकाये है. यह सारी स्थितियां मतदाताओं के सामने है. युवा वर्ग इस तरह की किसी भी अनैतिक व अराजनैतिक गतिविधियों के खिलाफ मन बना रहा है. राजनीतिक दलों के पास मुद्दे की चकाचौंध नहीं होने से मतदाताओं के पास उनके कार्यों का मूल्यांकन करने का बेहतर अवसर मिला है. दूसरी ओर से इस चुनाव से कई वरिष्ठ राजनेताओं के राजनीतिक जीवन के खात्में की घोषणा होनी है. यदि राजग बहुमत तो दूर रहता है तो प्रधानमंत्री के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी, राजनीतिक पटल से स्वतः गायब हो जायेंगे. इसके अलावा मायावती, जयललीता, लालू, रामविलास जैसे छत्रपों को उनकी औकात भी इस चुनाव में तय हो जायेगी. युवा मतदाता देश में बेहतर रोजगार के अवसर, बुनियादी ढांचे में सुधार, प्रशासनिक पारदर्शिता, अमन और खुशहाली चाहते है औऱ छत्रप यह सारी चीजे अपने राज्यों में देने में विफल साबित हुए है तो इनसे देश कैसे उम्मीद पाल सकता है. युवाओं की राजनीति में सक्रियता बढ़ाने के लिए जरुरी है कि राजनीतिक दल पहले अपने नेताओं की सूची से बाहुबलियों को हटाये. संसद में मसल्स की नहीं माइंड की जरुरत होती है.बड़े या छोटे राजनीतिक दलों के नेताओं को यह समय चेत जाने का अन्यथा वे अपनी सफाये के लिए खुद जिम्मेवार होंगे.
मंगलवार, 17 मार्च 2009
फिर न ठगे जाये युवा
भारत अमेरिका नहीं है. यहां बराक ओबामा भी नहीं है. इस लिए अमेरिका की तरह न तो यहां चुनाव होने है और न ही वैसे मुद्दे हैं. यह बात भारतीय राजनीति के बुढ़ाए नेताओं को क्यों नहीं समझ आती. 15 वीं लोकसभा चुनाव त्रिकोणीय बन रही है. यूपीए, एनडीए और तीसरा मोर्चा में टक्कर होनी है. तीनों गठबंधन के पास कायदे के चुनावी मुद्दे नहीं हैं. सभी दलों के चुनावी वादों में एक वादा युवाओं की राजनीति में अधिक से अधिक हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की है. बावजूद इसके यह ज्यादा खुश होने की बात नहीं है. 14 वीं लोकसभा में इन दलों के युवा प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे युवा सांसद कोई छाप नहीं छोड़ पाये हैं. सिर्फ गांधी-नेहरु परिवार से होने के कारण राहुल गांधी युवाओं के आइकन नहीं बन सकतें और न ही भड़काउ भाषण दिला कर वरुण गांधी के सहारे भाजपा नरेंद्र मोदी की दूसरी पीढी तैयार कर पायेगी. युवाओं को भुलावे में रखने की कोशिशे सभी राजनीतिक दलों में देखी जा रही है. इसे देश का युवा वर्ग भी भली भांति समझ रहा है. ऐसी स्थिति में जहां युवा स्वयं को ठगा हुआ महसूस करते हो, वे क्या राजनीति में आना चाहेगे. इस वर्ग को राजनीति में लाने के लिए गंभीर पहल की आवश्यता है न कि सिर्फ वादों की. देश के 70 करोड़ युवाओं को देश के बुनियादी ढांचे में सुधार, रोजगार के अवसर, बेहतर जीवन स्तर और पारदर्शी प्रशासन चाहिए. आजादी के सातवें दशक में भी यह चीजें नदारद है. फिर किस बूते पर भारत की तुलना अमेरिका से करने में नेताओं को संकोच नहीं होता. युवा सांसदों ने भी युवाओं की आकांक्षा पर तुषारा पात किया है. इन सांसदों की संसद में उपस्थिति इतनी कम रही है कि इनसे कोई उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. वैसे भी इन युवा सांसदों को राजनीति विरासत में मिली है. यदि इनके द्वारा अपने बल बूते पर संसद तक पहुंचने की कूबत होती तो ये निश्चित तौर पर युवाओं के सच्चे हमदर्द होते.
अब देश के युवाओं को तय करना है कि 15 वीं लोकसभा में ऐसे युवा सांसद पहुंचे जो सही मायने में युवाओं के प्रतिनिधि हो सके. राजनीतिक दलों के वादों पर भरोसा नहीं किया जा सकता. युवा वर्ग अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करें, यहीं वक्त की मांग है.