बुधवार, 15 अप्रैल 2015

कहीं प्रहसन ना बन जाये विलय


पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने एक बार कहा था कि भारतीय राजनीति में एक तीसरा मोर्चा हमेशा रहेगा, भले ही उसके रूप समय – समय पर बदलें। दरअसल आजादी के बाद से ही देश की सत्ता और राजनीति की मुख्यधारा कांग्रेस के ईर्द-गिर्द घूमती रही, लेकिन बीते दो दशकों में कांग्रेस के आभा में क्षरण हुआ और ठीक लगभग इसी दौर में क्षेत्रीय स्तर पर राजनीतिक क्षत्रपों का वर्चस्व बढ़ा। 2014 के आम चुनाव में जिस प्रकार नरेंद्र मोदी के आक्रामक आवग से राजनीतिक समीकरण बदले हैं, ऐसे में देश में विपक्ष क्षतविक्षत तो हुआ ही है औऱ कई दलों के सामने स्वयं को अप्रासंगिक होने का खतरा भी खड़ा हो गया है। 90 के दशक तक तीसरे मोर्चे का मतलब ही वाम दलों की अगुआई में बनने वाला कुनबा होता था, लेकिन वाम दलों के सिकुड़ने और फिर क्षत्रपों के बढ़ते प्रभाव ने तीसरे मोर्चे की धुरी बदल दी। एक तरह से देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अस्त-पस्त है, तो मोदी लहर का डर इन क्षत्रपों को मजबूती खुंटा से गांड़ने के लिए विवश कर दिया है। 1975 में इंदिरा गांधी की कथित तानाशाही शासन के खिलाफ लोकनायक जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुए संपूर्ण क्रांति की कोख से निकली जनता पार्टी का इतिहास काफी उतार –चढ़ाव भरा रहा है। इन 40 सालों में ‘जनता पार्टी’ के मिलने–बिछड़ने-टूटने की क्रमवार कहानियां है। आज फिर से जनता परिवार के पुराने छह दलों का विलय हुआ है। यह विलय क्यों, कैसे और किसलिए हुआ? इस प्रश्न का उत्तर बिल्कुल सीधा और सपाट है। राजनीति में अवसरवाद, एक तरह से कहा जाय तो दोनों में चोली-दामन का संबंध है। अवसरों का लाभ राजसत्ता हासिल करने के लिए किया जाना तार्किक तौर पर अनैतिक नहीं है, लेकिन राजसत्ता, जनउपेक्षा के साथ अवसरों के सहारे हासिल करने की कवायद, इसे न केवल निकृष्ट बनाती है बल्कि यह घोर अनैतिक भी हो जाता है। वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में देखें तो देश की राजनीति आजादी के बाद से काफी परिपक्व व पुष्ट हुई है। ऐसे वक्त में जब देश की राजनीति ने धारा बदली तो क्षेत्रीय दलों को अपने के अस्तीत्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। बीते आम चुनाव में भाजपा के हाथों मिली करारी हार के बाद बिखरे हुए जनता दल परिवार के नेताओं को अपने परिवार को फिर याद आई। दरअसल यह एकता नरेंद्र मोदी के हाथों हार का कड़वा स्वाद चखने के बाद याद आई। जातिवाद और धर्म की राजनीति करने वाले इस परिवार को समन्वय की याद आने का सबसे बड़ा कारण अपने अप्रासंगिक होने का दुख है। मोदी ने जिस विकास के सहारे अपनी जीत दर्ज कराई है वह इस देश की राजनीति का यू टर्न बन गई है। सवाल यह खड़ा हो रहा है कि आखिर यह याद आज ही क्यों आई। क्या वे मोदी के मैजिक से पार पाने का जुगाड़ कर रहे हैं या फिर उनमें राजनीति के माध्यम से समाज सेवा का नया भाव उदय हुआ है। इस एका में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल(यू), जनता दल (एस) और इंडियन नेशनल लोकदल शामिल हुए। जनता दल में शामिल रहे सभी गुटों की एकता के नाम पर भारत की समकालीन राजनीति में एक बार फिर इतिहास को दोहराने की कोशिश हो रही है। हालांकि अभी यह कहना कठिन है कि इस बार यह एक और त्रासदी साबित होगी या प्रहसन! यह बाद में पता चलेगा। मुलायम सिंह यादव ने तो कहा है कि भविष्य में कुछ और समूहों को भी इसमें शामिल करने की योजना है। इस एकता को अवसरवाद की संज्ञा ही दी जा सकती है। अदूरदर्शी राजनीतिक सोच के चलते हुए बिखराव को समेंटने के इस प्रयास को मोदी का मैजिक कहां तक सफल होने देगा यह भी इंतजार कर देखने की बात है। माना जाता रहा है कि यह महामोर्चा 2019 के आम चुनाव के मद्देनजर तीसरे मोर्चे को जिंदा करने की कोशिश है। नीतीश और मुलायम की चिंता अपने-अपने राज्यों में विधानसभा चुनावों को लेकर भी है। बिहार में इसी साल और उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। दोनों ही राज्यों में सत्ताधारी पार्टियों के लिए भाजपा से मुकाबला करना बड़ी चुनौती है। जयप्रकाश नारायण ने गैर साम्यवादी दलों को कांग्रेस के कुशासन, भ्रष्टाचार और कुनबापरस्ती जन्य तानाशाही से मुक्ति दिलाने को एकजुट किया था। उनके जाते ही उसके दो टुकड़े हो गए। एक जनता पार्टी रह गई, दूसरा भारतीय जनता पार्टी बन गयी। बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोर्चा और चौधरी चरण सिंह के लोकदल को जनता पार्टी में शामिल कर जनता दल बनाया गया। इसके पहले अध्यक्ष अजीत सिंह बने जिसके गर्भ से जार्ज फर्नान्डीस की समता पार्टी निकली जिसके अब नितीश कुमार डिक्टेटर हैं हालांकि उसका नाम बदलकर अब जनता दल (यू) हो गया। शरद यादव इस दल के वैसे ही अध्यक्ष हैं जैसे मनमोहन सिंह यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री थे। गैर कांग्रेसवाद के रूप में जो समाजवादी विभिन्न नामों से एकजुट हुए थे वे आज और भी अधिक नामधारी होकर कांग्रेस की गोद में बैठते गए और अपना रूप बदलते गए। जिस साम्यवादी पार्टी ने इनको कांग्रेस की गोद में डालने का काम किया था, उसे अब ये पूछ भी नहीं रहे हैं लेकिन कांग्रेस के साथ जाने के द्वंद से जूझ रहे हैं। लालू यादव तो समग्र रूप से कांग्रेस के साथ रहना चाहते हैं, नितीश चाहते हैं कि यह मामला परदे के पीछे ही रहे और मुलायम सिंह दिल्ली की राजनीति में महत्वपूर्ण बने रहने के लिए कांग्रेस को राज्यसभा चुनाव में मदद का क्रम बनाए हुए हैं। जब भ्रष्टाचार, कुशासन और कुनबापरस्ती से देश को सबका साथ और सबका विकास की दिशा पकड़ाने वाले नरेंद्र मोदी का विरोध एकमात्र लक्ष्य के रूप में घोषित किया जाता है तो उसके विघटनकारी दुष्परिणाम की आशंका प्रबल हो जाती है। मोदी के अभियान ने जातीय जकड़न को तोड़ा है और उम्मीद यह की जा रही है कि शीघ्र ही सांप्रदायिक जकड़न की कडि़यां भी टूटेगी। ऐसी परिस्थिति में जातीयता और सांप्रदायिकता की वाहकों के रूप में बहके ''नेताओं'' को अपने लिए जो खतरा दिखाई पड़ रहा है उससे बचाव के रूप में इसे अंतिम प्रयास कह सकते हैं। मुलायम सिंह का दावा है कि वे डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के ''एकमात्र'' उत्तराधिकारी हैं। नितीश और लालू यादव, जयप्रकाश नारायण के समग्र क्रांति आंदोलन से उपजे हैं। क्या बिहार और उत्तर प्रदेश उन महान नेताओं की आकांक्षा के अनुरूप समग्रता की दिशा में बढ़ रहा है अभी तक तो जो दृश्य है उससे तो यही लगता है कि ''समग्र जनता'' परिवार समस्त व्यक्तिगत परिवार में ही सिमट गया है। दो वर्ष पूर्व मुलायम सिंह ने राष्ट्रपति चुनाव के समय ममता बनर्जी को कैसे अधर में छोड़ दिया था और उसके पूर्व कई बार मार्क्सवादी पार्टी के नेताओं को कहां हैं मोर्चा कहकर झटका दे चुके हैं। सकारात्मक उद्देश्य विहीन मात्र विरोध करने के लिए एकत्रीकरण अब तक दिखावे के अलावा कुछ भी साबित नहीं हुआ है। इस बार शायद उतना भी न हो क्योंकि अभी भी चुनावों में उनकी वही स्थिति होने जा रही है जो कांग्रेस की हो चुकी है। अब यह विलय जनता परिवार को एकजुट कर कैसे बिहार और उत्तर प्रदेश की सत्ता इनके झोली में ही रहने देगी, यह देखना दिलचस्प होगा।

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