गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

किस-किसने कराई नेताजी की जासूसी ?


सात दशक बीत गये। 18 अगस्त 1945 को द्वितीय विश्वयुद्ध के धुंधलके के बीच जब यह खबर आई कि इंडियन नेशनल आर्मी के ओजस्वी नेता सुभाषचंद्र बोस को ले जा रहा विमान ताइपेई में दुर्घटनाग्रस्त हो गया है तो न केवल परतंत्र हिंदुस्तान में बल्कि दुनिया भर में नेताजी के संबंध में जानने की एक बेचैन जिज्ञासा उत्पन्न हुई लेकिन उस दुर्घटना के बाद के कथानक केवल दो शब्दों - ‘मृत’ और ‘लापता’ के बीच उलझ कर रह गये। अब भी यह रहस्य, रहस्य ही है। नेताजी मौत के रहस्य को सुलझाने के लिए तीन समितियां बनीं, सबने अपनी-अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंपी लेकिन रहस्य से पर्दा नहीं उठा। मामला फिर गरमाया कि नेताजी के परिवार वालों की 1948 से लेकर 1968 तक गुप्त ढंग से निगरानी की गई थी। ऐसी क्या बात रही कि स्वतंत्र हिंदुस्तान को भी अपने नेता के परिजनों की जासूसी करनी पड़ी। इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए हमें नेपथ्य में अर्थात वर्ष 1945 में जाना होगा और जानना होगा कि उस समय की सत्ता क्या थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के आत्मसमर्पण करने के बस तीन दिन बाद ही यह दुर्घटना घटी थी। जब संयुक्त राष्ट्र (जो अमेरिका, सोवियत संघ और ब्रिटेन के नेतृत्व वाले मित्र राष्ट्रों का एक औपचारिक गुट भर था) द्वारा जर्मनी, जापान और इटली के नेतृत्व वाले धुरी राष्ट्रों पर विजय की घोषणा की जा सकती थी। ब्रिटिश राज के अंतर्गत आने वाला भारत भी एक सहयोगी था, हालांकि गांधी जी ने युद्ध से कांग्रेस का समर्थन इस आधार पर वापस ले लिया था कि इसमें भारतीयों की राय नहीं ली गयी थी। लेकिन ब्रिटिश राज, जो भारत का वैधानिक शासन था, उसने भारतीय सेना और रजवाड़ों के रक्षा बलों को युद्ध में शामिल कर लिया था। भारतीय सेना अफ्रीका में जर्मनों के विरुद्ध और दक्षिण-पूर्व एशिया में जापान के विरुद्ध लड़ी थी। औपचारिक विरोध के बावजूद कांग्रेस ने सैन्य बलों में विद्रोह भड़का कर ब्रिटेन के प्रयासों को अवरुद्ध करने की कोई कोशिश नहीं की। जिस व्यक्ति ने ऐसा किया, वे सुभाषचंद्र बोस ही थे, जिन्होंने 1939 में गांधी और कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया था। जब द्वितीय विश्व युद्ध लगभग खत्म होने के कगार पर था तब अंग्रेज भारत छोड़ने के लिए तैयार हो रहे थे, पर वे जिस भारत को छोड़ कर जा रहे थे, उसके लिए उनकी कुछ योजनाएं भी थीं। इस परिस्थिति में विभिन्न राजनीतिक शक्तियों के एक दिलचस्प गठजोड़ का एक उद्देश्य समान था- सुभाषचंद्र बोस की अनुपस्थिति। ब्रिटिश शासन का बोस से पूरी तरह वैमनस्य था। अंग्रेज कांग्रेस को वश में कर सकते थे, किंतु बोस को नहीं। मुस्लिम लीग को बोस स्वीकार्य नहीं हो सकते थे, क्योंकि जिस अनुकरणीय स्वरूप में उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी में हिंदू-मुस्लिम-सिख एकता की स्थापना की थी, वह उस भारत का खाका था, जो वह बनाना चाहते थे। दक्षिण-पूर्व एशिया से प्रसारित अपने रेडियो संबोधनों में बोस ने जिन्ना और पाकिस्तान की संभावना की कठोरता से आलोचना की थी। अगर बोस भारत में उपस्थित होते, तो वे विभाजन के जोशीले विरोधी होते। कांग्रेस स्वाभाविक कारणों से बोस को पसंद नहीं करती थी। क्यों कि वे उस सत्ता के दावेदार होते, जिसकी आकांक्षा पार्टी और उसके नेता जवाहरलाल नेहरू को अपने लिए थी। यदि पंडित नेहरू इस बात को लेकर निश्चिंत थे कि बोस की मृत्यु हो चुकी है, तो फिर बोस के परिवार पर उन्होंने निगरानी करना क्यों जारी रखा था? जैसा कि दस्तावेजों से जाहिर होता है, 1957 में जापान की यात्रा के दौरान नेहरू परेशान क्यों हो गये थे? ये प्रश्न अभी उत्तर की प्रतीक्षा में हैं। बहरहाल, अभी तक गोपनीय रखी गई फाइलों के सार्वजनिक होने से पहले हम कुछ भी भरोसे के साथ कहने की स्थिति में नहीं है। इस संबंध में राजनीतिक समीकरण बहुत सरल है। सुभाषचंद्र बोस उम्र के हिसाब से जवाहरलाल नेहरू से आठ वर्ष छोटे थे। उनके पास समय था। बोस या उनकी पार्टी 1952 तक बंगाल और उड़ीसा में चुनाव जीत सकते थे। राष्ट्रीय स्तर पर बोस विपक्षी पार्टियों के गंठबंधन की धुरी बन सकते थे। यह गंठबंधन 1957 में कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकता था और 1962 के आम चुनाव में पराजित कर सकता था लेकिन यह बात निर्विवाद तौर पर कही जा सकती है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास की कहानी तब बिल्कुल अलग होती। वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर ने 1988 में एक किताब लिखी थी ‘नेहरू : द मेकिंग ऑफ इंडिया’ इसमें उन्होंने नेहरू के शुक्लपक्ष को बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत किया था लेकिन हाल ही में उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी अब भी ऐसी 87 फाइलें हैं, जिनका भारत सरकार खुलासा नहीं करेगी। उन्होंने सवाल उठाया कि ऐसा क्यों है? वे यह भी जानना चाहते हैं कि क्या नेहरू ने जान-बूझकर इन्हें इसलिए छुपाया ताकि लोग उन पर स्टालिन की एक जेल में नेताजी के कथित रूप से कैद होने संबंधी बातों पर पर्दा डालने का आरोप ना लगाएं? इस तरह मानो उन्होंने यह जताने की कोशिश की कि नेहरू और स्टालिन साजिशकर्ता थे। यह सही है कि गांधी और नेहरू दोनों ही सुभाषचंद्र बोस को पसंद नहीं करते थे। लेकिन नेताजी को लेकर जो रहस्य बरकरार है, उस पर से पर्दा उठाने को लेकर सभी सरकारें, लगभग कन्नी काटती रही हैं। केंद्र में सर्वाधिक समय तक कांग्रेस की ही सरकारें रही है। तो क्या इन रहस्यों से पर्दा उठने पर वर्तमान में खस्ताहाल कांग्रेस और पस्त नहीं हो जाएगी? कांग्रेस के पित पुरुष नेहरू की आभा घूमिल नहीं हो जाएगी? खैर, यह तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस से संबंधित देश की अंदरुनी स्थितियों का आकलन है लेकिन उन पर नजर रखने के लिए जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने भी स्वयं एक महिला गुप्तचर की नियुक्ति करायी थी। हालांकि हिटलर - नेताजी के संबंध की घनिष्ठता जगजाहिर है। यह महिला एमिली शैंकी थी।
नेताजी और एमिली शैंकी की इकलौती संतान अनिता बोस हैं, जिनका जन्म 29 नवंबर, 1942 को वियना में हुआ था। अनिता बोस छह फरवरी, 2013 को नई दिल्ली आई थीं। नेताजी की जीवनी पर आधारित पुस्तक ‘फ्रीडम स्ट्रगल ऑफ इंडिया’ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भेंट की थी। तब भी अनिता बोस ने या उनके पति मार्टिन फाफ, उनके तीनों बच्चे पीटर अरुण, थॉमस कृष्णा और माया करीना ने जासूसी की शिकायत नहीं की। अनिता बोस को मोदी सरकार से भी बोस परिवार की कथित जासूसी को लेकर कोई शिकायत नहीं है। न ही अनिता बोस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बर्लिन में मिलने में कोई दिलचस्पी दिखाई। ऐसे में, आशंका यह भी उठती है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि नेताजी को लेकर बोस परिवार के भीतर ही राजनीति हो रही हो? सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई शरत चंद्र बोस के पोते सूर्य कुमार बोस की प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात कराने में बर्लिन स्थित भारतीय दूतावास की इतनी दिलचस्पी क्यों रही? इस सवाल का उत्तर शायद समय आने पर मिले। नेताजी के भतीजे अमिय नाथ बोस के बेटे सूर्य कुमार बोस जर्मनी के हैम्बर्ग शहर में आईटी प्रोफेशनल हैं और वहां 1972 से रह रहे हैं। सूर्य कुमार बोस हैम्बर्ग में इंडो-जर्मन एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। सूर्य कुमार बोस के अनुसार, ‘यह सिलसिला 1978 में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद रुक गया।’ गौर करने वाली बात यह है कि इन्हीं सूर्य कुमार बोस के दूसरे भाई चंद्र कुमार बोस 09 अप्रैल, 2014 को गांधी नगर जाकर तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले, और उन्हें परिवार के 24 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित पत्र दिया और कहा कि नेताजी की मौत पर साल 2006 में जस्टिस मुखर्जी कमीशन की रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए, जिसमें कहा गया था कि उनकी मृत्यु हवाई दुर्घटना में नहीं हुई थी। इससे पहले 1955 में शाह नवाज कमेटी, और 1970 में खोसला आयोग की रिपोर्टों पर चंद्र कुमार बोस को भरोसा नहीं था, जिनमें माना गया था कि नेताजी की मौत हवाई दुर्घटना में हुई थी। सवाल यह है कि नेताजी के बड़े भाई शरतचंद्र बोस की चौथी पीढ़ी को क्यों लगा कि इस मामले में किसी राज्य का मुख्यमंत्री कुछ कर सकता है? लेकिन बात सिक्के के दूसरे पहलू पर भी होनी चाहिए। अनिता बोस ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया था कि नेताजी वियना इलाज के सिलसिले में गए थे, वहां उन्हें अपनी पुस्तक ‘द इंडियन स्ट्रगल’ लिखने के लिए एक सहयोगी की जरूरत थी, और उसी क्रम में एमिली शैंकी से उनकी मुलाकात कराई गई थी। 29 अप्रैल, 1941 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रिबेनट्राप से वियना के होटल इंपीरियल में मुलाकात होती है, और इसके प्रकारांतर एमिली शैंकी, नेताजी के एक खास दोस्त ओटो फाल्टिस के साथ वियना से बर्लिन आती हैं। मिहिर बोस की पुस्तक ‘राज, सीक्रेट, रिवॉल्यूशन’ में इसकी चर्चा है कि एमिली शैंकी की सुभाष चंद्र बोस से मुलाकात संयोग नहीं था, उसे कुख्यात गुप्तचर संगठन ‘गेस्टापो’ ने नेताजी पर नजर रखने के लिए ‘प्लांट’ कराया था। नेताजी, अपनी ‘संगिनी’ एमिली के हिटलर के प्रति समर्पण को देखकर अक्सर तंज भी करते थे, ‘योर हिटलर!’ इस तथ्य का पता इतालवी विदेश मंत्री सिएनो की डायरी से चलता है। सुभाष चंद्र बोस, सिएनो से 06 और 29 जून 1941 को रोम में मिले थे। नेताजी को सिएनो ने कुछ समय के लिए नजरबंद भी कर लिया था। फ्रीडा क्रेत्शमार, एक और सचिव थी, जिसे जर्मन खुफिया संस्था ‘गेस्टापो’ ने नेताजी पर नजर रखने के लिए ‘माताहारी’ के रूप में नियुक्त कराया था। तो क्या अब, जब नेताजी के परिजनों और उनसे जुड़ी खुफिया जानकारियों को सार्वजनिक किया जाए या नहीं, इसपर फैसला करने के लिए केंद्र सरकार ने एक समिति गठित की है, तो उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि हाल ही में जर्मनी की यात्रा कर लौटे प्रधानमंत्री मोदी नेताजी से जुड़े तमाम तथ्यों, दस्तावेजों और तस्वीरों की मांग वह जर्मन चांसलर अंगेला मर्केल से करें। बगैर इसके नेताजी के संबंध में अगर कोई जानकारी सामने आती है तो वह अधकचरी ही होगी और सवाल जस के तस अर्थात शाश्वत बने रहेंगे।

जर्मनी, फ्रांस व कनाडाः मोदी पर मेहरबान


जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर के साथ यूरेनियम आपूर्ति सुनिश्चत कर रहे थे, तभी टाइम पत्रिका ने उन्हें दमदार नेता बताते हुए दुनिया के 100 प्रभावशाली लोगों में शामिल करने की घोषणा की तो वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने उन्हें भारत का मुख्य सुधारक कहा। वास्तव में, बीते एक दशक से भारत की सत्ता में रही यूपीए की सरकार ने एक ‘उदासीन सरकार’ की छवि बनाई थी, यह छवि न केवल देश में बल्कि पूरी दुनिया में बनी। दुनिया की तमाम रेटिंग एजेंसियों ने भारत को सुस्त अर्थव्यवस्था करार दे दी थी, लेकिन परिदृश्य बीते 11 महीने में बदले हैं, रेटिंग एजेंसियों का भारत के प्रति नजरिया भी बदला है। वैसे भी किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था वहां की उत्पादकता पर तो निर्भर करती ही है, लेकिन इसके लिए मानव संसाधन, तकनीक और संयंत्र की आवश्यकता होती है। इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भारी निवेश की आवश्यकता होती है। विकासशील देश में निवेश के लिए अवसरों की भारी गुंजाइश होती है लेकिन इसके लिए उपयुक्त वातारण सबसे अहम तत्व बनता है। बीते 11 महीने के शासन में मोदी सरकार ने निवेश के लिए अनुकुल माहौल सृजित करने की मैराथन कोशिशे की है और कुछ हद तक इसमें सफलता भी मिली है, अगर भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर सरकार की हो रही छिछालेदर को दरकिनार कर दे तो... कहावत है कि प्रतिष्ठा पाने के लिए सबसे पहली आवश्यक शर्त होती है कि हम दूसरे को प्रतिष्ठित करें। इस मामले में नरेंद्र मोदी काफी आगे हैं। हम इसका नजारा चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे के दौरान उनके स्वागत के रूप में देख चुके हैं। इसी तरह गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति का भी भव्य स्वागत किया गया। वास्तव में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के परिप्रेक्ष्य में इस ‘स्वागत कूटनीति’ का महत्व अलग होता है औऱ इसका सीधा मतलब व्यापार, कूटनीति, तकनीक हस्तानांतरण, शिक्षा औऱ द्वीपक्षीय संबंधों की प्रगाढता से है। 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद नरेंद्र मोदी 15 देशों का दौरा कर चुके हैं। उनके विदेश दौरे का खास मकसद है कि विदेशी निवेश को आकर्षित किया जाए जिससे देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिल सके। मोदी अपनी तीन देशों फ्रांस, जर्मनी और कनाडा का दौरा संपन्न कर लौटे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूरोप और कनाडा यात्रा के राजनीतिक एवं आर्थिक महत्व के बरक्स तकनीकी, वैज्ञानिक और सामरिक महत्व भी कम नहीं है। इन देशों के पास भारत की ऊर्जा जरूरतों की कुंजी भी है। इस यात्रा के दौरान ‘मेक इन इंडिया’ अभियान, स्मार्ट सिटी और ऊर्जा सहयोग महत्वपूर्ण विषय बन कर उभरे हैं। परमाणु ऊर्जा में फ्रांस और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में जर्मनी आगे हैं। इन सबके अलावा अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद भी इन देशों की चिंता का विषय है। सामरिक दृष्टि से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की पहलकदमी में कनाडा की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। आण्विक ऊर्जा को लेकर भारत का शुरुआती सहयोगी देश कनाडा ही था। साल 1974 में भारत के पहले आण्विक परीक्षण के लिए आण्विक सामग्री जिस ‘सायरस’ रिएक्टर से प्राप्त हुई थी, वह कनाडा के सहयोग से लगा था। इस विस्फोट के बाद अमेरिका और कनाडा के साथ भारत के नाभिकीय सहयोग में खटास आयी, जो 2008 के भारत-अमेरिका और 2010 के भारत-कनाडा परमाणु सौदा के बाद खत्म हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी कनाडा यात्रा के दौरान एक अहम करार पर हस्ताक्षर किए। इस नए करार के तहत अगले पांच वर्षों में भारत, कनाडा से तीन हज़ार टन से ज़्यादा यूरेनियम खरीदेगा। इसका इस्तेमाल भारत के परमाणु कार्यक्रम में किया जाएगा। इन सब कुछ प्रमुख उपलब्धियों और समझौतों के अलावा मोदी ने छोटे-छोटे स्तर के कई समझौते किए। रेलवे, सुरक्षा, नागरिक विमानन, शिक्षा एवं कौशल का विकास, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता आदि को लेकर कई महत्वपूर्ण समझौते हुए। मोदी ने भी अपनी इस यात्रा को काफी सफल बताया। अब यह देखना होगा कि किया गया समझौता और दिया गया भरोसा कितना और कितनी जल्दी भलीभूत होता है। इसके पहले सामरिक दृष्टि से फ्रांस के साथ राफेल लड़ाकू विमान का सौदा इस यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण घटना है। एक तरह से इस सौदे को नये ढंग से परिभाषित किया गया है। पहले इस सौदे के तहत 18 तैयारशुदा विमान फ्रांस से मिलते। शेष 108 विमानों के लिए फ्रांस तकनीकी जानकारी हमें उपलब्ध कराता। उन्हें एचएएल में बनाने की योजना थी। अब 36 विमान सीधे वहीं से तैयार हो कर आयेंगे। तो क्या मोदी सरकार ‘मेक इन इंडिया’ नीति से हट रही है? जबकि फ्रांस सरकार किसी भारतीय कंपनी के सहयोग से निजी क्षेत्र में भी इस विमान को तैयार कर सकती है। इस व्यवस्था में भारतीय कंपनी की हिस्सेदारी 51 फीसदी की होगी। राफेल विमानों को लेकर फिलहाल एक अनिश्चितता खत्म हुई, पर यह समस्या का समाधान नहीं है। हमारे फाइटर स्क्वॉड्रन कम होते जा रहे हैं। आदर्श रूप से हमारे पास 45 स्क्वॉड्रन होने चाहिए, पर उनकी संख्या 36 के आसपास हो जाने का अंदेशा है। हमें केवल विमान ही नहीं, बल्कि उसे बनाने की तकनीक भी चाहिए। और तकनीक केवल पैसे से नहीं, कूटनीति से मिलती है। राफेल दो इंजन का फ्रंटलाइन फाइटर विमान है। इसके लिए टेंडर 2007 में निकला था। भारत अपनी सेनाओं के आधुनिकीकरण में लगा है। लगभग 100 अरब डॉलर के इस कार्यक्रम के लिए धन से ज्यादा तकनीक हासिल करने की चुनौती है। तकनीक पैसा देने पर भी नहीं मिलती। सैन्य तकनीक पर सरकारों का नियंत्रण होता है। उसे हासिल करने के दो ही तरीके हैं। पहला, हम अपनी तकनीकी शिक्षा का स्तर सुधारें। दूसरा, हम मित्र बनायें और तकनीक हासिल करें। यह तय है कि जब तक हमारे पास तकनीक नहीं होगी, हम स्वावलंबी नहीं हो पायेंगे। महाराष्ट्र के जैतापुर में परमाणु संयंत्र लगाने को लेकर भी फ्रांस के साथ नए सिरे से सहमति बनी। जैतापुर में फ्रांस की कंपनी एरेवा की मदद से छह परमाणु संयंत्र शुरू होंगे। भारत में लगने वाले इन संयंत्रों से दस हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन होना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी पहल ‘मेक इन इंडिया’ में फ्रांस की कई कंपनियों ने रुचि दिखाई। उनमें फ्रांस की प्रमुख विमानन कंपनी एयरबस भी शामिल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तुलूज एयरबस संयंत्र का दौरा करने के बाद मेक इन इंडिया का समर्थन करते हुए एयरबस ने कहा कि वह भारत में विमान बनाने को तैयार है। जर्मनी अक्षय ऊर्जा, ऑटोमोबाइल्स और भारी इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अग्रणी देश है। जर्मनी, पूरे यूरोप में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। कोई एक हजार जर्मन कंपनियां 16।1 अरब डॉलर का सालाना कारोबार भारत से कर रही हैं। जर्मनी जितनी मशीनरी दुनिया भर में निर्यात करता है, उसका 33 प्रतिशत भारत भेजता है। क्या इन जर्मन कंपनियों को मोदी जी ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम की ओर मुखातिब कर पायेंगे? जर्मनी की दिलचस्पी भारत में हाईस्पीड रेल, इंश्योरेंस सेक्टर से मुद्रा उगाही, इंडस्ट्रियल कॉरीडोर और स्मार्ट सिटी बनाने में है। लेकिन, जर्मनी का सरोकार भारत में ईसाइयों की सुरक्षा से भी है। 28 देशों का समूह, यूरोपीय संघ से भारत का 73 अरब यूरो का व्यापार है, मगर यूरोपीय संघ से मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) कई वर्षो से टलता रहा है। मोदी संभवत: इस वजह से ब्रसेल्स जाना टाल गये कि कहीं ‘एफटीए’ पर बात नहीं बनी, तो जगहंसाई होगी। यूरोपीय थिंक टैंक ‘फ्रीद’ के अनुसार, ‘यूरोप को वैसी प्राथमिकता नहीं मिल रही है, जो पिछली सरकारों ने दी थी। मोदी जब से सत्ता में आये, उनकी ‘यात्रा’ में यूरोप नहीं रहा है, उनका ज्यादा ध्यान ‘हिंद-प्रशांत’ कूटनीति पर केंद्रित रहा है। यह बात बहुत हद तक सही है। ऐसा ही पेच कनाडा के साथ फंसा है। कनाडा से आर्थिक सहयोग समझौते (सीइपीए) के वास्ते 19-20 मार्च, 2015 को बैठक हुई थी, लेकिन इसमें ‘मेक इन इंडिया’ की जगह कितनी है, यह मोदी के कनाडा दौरे के बाद भी बंद मुठ्ठी की तरह ही है। यह आने वाले कुछ महीने के बाद पता चल पाएगा कि कनाडा ‘मेक इन इंडिया’ में कितना सहभागी बनता है।

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

कहीं प्रहसन ना बन जाये विलय


पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने एक बार कहा था कि भारतीय राजनीति में एक तीसरा मोर्चा हमेशा रहेगा, भले ही उसके रूप समय – समय पर बदलें। दरअसल आजादी के बाद से ही देश की सत्ता और राजनीति की मुख्यधारा कांग्रेस के ईर्द-गिर्द घूमती रही, लेकिन बीते दो दशकों में कांग्रेस के आभा में क्षरण हुआ और ठीक लगभग इसी दौर में क्षेत्रीय स्तर पर राजनीतिक क्षत्रपों का वर्चस्व बढ़ा। 2014 के आम चुनाव में जिस प्रकार नरेंद्र मोदी के आक्रामक आवग से राजनीतिक समीकरण बदले हैं, ऐसे में देश में विपक्ष क्षतविक्षत तो हुआ ही है औऱ कई दलों के सामने स्वयं को अप्रासंगिक होने का खतरा भी खड़ा हो गया है। 90 के दशक तक तीसरे मोर्चे का मतलब ही वाम दलों की अगुआई में बनने वाला कुनबा होता था, लेकिन वाम दलों के सिकुड़ने और फिर क्षत्रपों के बढ़ते प्रभाव ने तीसरे मोर्चे की धुरी बदल दी। एक तरह से देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अस्त-पस्त है, तो मोदी लहर का डर इन क्षत्रपों को मजबूती खुंटा से गांड़ने के लिए विवश कर दिया है। 1975 में इंदिरा गांधी की कथित तानाशाही शासन के खिलाफ लोकनायक जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुए संपूर्ण क्रांति की कोख से निकली जनता पार्टी का इतिहास काफी उतार –चढ़ाव भरा रहा है। इन 40 सालों में ‘जनता पार्टी’ के मिलने–बिछड़ने-टूटने की क्रमवार कहानियां है। आज फिर से जनता परिवार के पुराने छह दलों का विलय हुआ है। यह विलय क्यों, कैसे और किसलिए हुआ? इस प्रश्न का उत्तर बिल्कुल सीधा और सपाट है। राजनीति में अवसरवाद, एक तरह से कहा जाय तो दोनों में चोली-दामन का संबंध है। अवसरों का लाभ राजसत्ता हासिल करने के लिए किया जाना तार्किक तौर पर अनैतिक नहीं है, लेकिन राजसत्ता, जनउपेक्षा के साथ अवसरों के सहारे हासिल करने की कवायद, इसे न केवल निकृष्ट बनाती है बल्कि यह घोर अनैतिक भी हो जाता है। वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में देखें तो देश की राजनीति आजादी के बाद से काफी परिपक्व व पुष्ट हुई है। ऐसे वक्त में जब देश की राजनीति ने धारा बदली तो क्षेत्रीय दलों को अपने के अस्तीत्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। बीते आम चुनाव में भाजपा के हाथों मिली करारी हार के बाद बिखरे हुए जनता दल परिवार के नेताओं को अपने परिवार को फिर याद आई। दरअसल यह एकता नरेंद्र मोदी के हाथों हार का कड़वा स्वाद चखने के बाद याद आई। जातिवाद और धर्म की राजनीति करने वाले इस परिवार को समन्वय की याद आने का सबसे बड़ा कारण अपने अप्रासंगिक होने का दुख है। मोदी ने जिस विकास के सहारे अपनी जीत दर्ज कराई है वह इस देश की राजनीति का यू टर्न बन गई है। सवाल यह खड़ा हो रहा है कि आखिर यह याद आज ही क्यों आई। क्या वे मोदी के मैजिक से पार पाने का जुगाड़ कर रहे हैं या फिर उनमें राजनीति के माध्यम से समाज सेवा का नया भाव उदय हुआ है। इस एका में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल(यू), जनता दल (एस) और इंडियन नेशनल लोकदल शामिल हुए। जनता दल में शामिल रहे सभी गुटों की एकता के नाम पर भारत की समकालीन राजनीति में एक बार फिर इतिहास को दोहराने की कोशिश हो रही है। हालांकि अभी यह कहना कठिन है कि इस बार यह एक और त्रासदी साबित होगी या प्रहसन! यह बाद में पता चलेगा। मुलायम सिंह यादव ने तो कहा है कि भविष्य में कुछ और समूहों को भी इसमें शामिल करने की योजना है। इस एकता को अवसरवाद की संज्ञा ही दी जा सकती है। अदूरदर्शी राजनीतिक सोच के चलते हुए बिखराव को समेंटने के इस प्रयास को मोदी का मैजिक कहां तक सफल होने देगा यह भी इंतजार कर देखने की बात है। माना जाता रहा है कि यह महामोर्चा 2019 के आम चुनाव के मद्देनजर तीसरे मोर्चे को जिंदा करने की कोशिश है। नीतीश और मुलायम की चिंता अपने-अपने राज्यों में विधानसभा चुनावों को लेकर भी है। बिहार में इसी साल और उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। दोनों ही राज्यों में सत्ताधारी पार्टियों के लिए भाजपा से मुकाबला करना बड़ी चुनौती है। जयप्रकाश नारायण ने गैर साम्यवादी दलों को कांग्रेस के कुशासन, भ्रष्टाचार और कुनबापरस्ती जन्य तानाशाही से मुक्ति दिलाने को एकजुट किया था। उनके जाते ही उसके दो टुकड़े हो गए। एक जनता पार्टी रह गई, दूसरा भारतीय जनता पार्टी बन गयी। बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोर्चा और चौधरी चरण सिंह के लोकदल को जनता पार्टी में शामिल कर जनता दल बनाया गया। इसके पहले अध्यक्ष अजीत सिंह बने जिसके गर्भ से जार्ज फर्नान्डीस की समता पार्टी निकली जिसके अब नितीश कुमार डिक्टेटर हैं हालांकि उसका नाम बदलकर अब जनता दल (यू) हो गया। शरद यादव इस दल के वैसे ही अध्यक्ष हैं जैसे मनमोहन सिंह यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री थे। गैर कांग्रेसवाद के रूप में जो समाजवादी विभिन्न नामों से एकजुट हुए थे वे आज और भी अधिक नामधारी होकर कांग्रेस की गोद में बैठते गए और अपना रूप बदलते गए। जिस साम्यवादी पार्टी ने इनको कांग्रेस की गोद में डालने का काम किया था, उसे अब ये पूछ भी नहीं रहे हैं लेकिन कांग्रेस के साथ जाने के द्वंद से जूझ रहे हैं। लालू यादव तो समग्र रूप से कांग्रेस के साथ रहना चाहते हैं, नितीश चाहते हैं कि यह मामला परदे के पीछे ही रहे और मुलायम सिंह दिल्ली की राजनीति में महत्वपूर्ण बने रहने के लिए कांग्रेस को राज्यसभा चुनाव में मदद का क्रम बनाए हुए हैं। जब भ्रष्टाचार, कुशासन और कुनबापरस्ती से देश को सबका साथ और सबका विकास की दिशा पकड़ाने वाले नरेंद्र मोदी का विरोध एकमात्र लक्ष्य के रूप में घोषित किया जाता है तो उसके विघटनकारी दुष्परिणाम की आशंका प्रबल हो जाती है। मोदी के अभियान ने जातीय जकड़न को तोड़ा है और उम्मीद यह की जा रही है कि शीघ्र ही सांप्रदायिक जकड़न की कडि़यां भी टूटेगी। ऐसी परिस्थिति में जातीयता और सांप्रदायिकता की वाहकों के रूप में बहके ''नेताओं'' को अपने लिए जो खतरा दिखाई पड़ रहा है उससे बचाव के रूप में इसे अंतिम प्रयास कह सकते हैं। मुलायम सिंह का दावा है कि वे डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के ''एकमात्र'' उत्तराधिकारी हैं। नितीश और लालू यादव, जयप्रकाश नारायण के समग्र क्रांति आंदोलन से उपजे हैं। क्या बिहार और उत्तर प्रदेश उन महान नेताओं की आकांक्षा के अनुरूप समग्रता की दिशा में बढ़ रहा है अभी तक तो जो दृश्य है उससे तो यही लगता है कि ''समग्र जनता'' परिवार समस्त व्यक्तिगत परिवार में ही सिमट गया है। दो वर्ष पूर्व मुलायम सिंह ने राष्ट्रपति चुनाव के समय ममता बनर्जी को कैसे अधर में छोड़ दिया था और उसके पूर्व कई बार मार्क्सवादी पार्टी के नेताओं को कहां हैं मोर्चा कहकर झटका दे चुके हैं। सकारात्मक उद्देश्य विहीन मात्र विरोध करने के लिए एकत्रीकरण अब तक दिखावे के अलावा कुछ भी साबित नहीं हुआ है। इस बार शायद उतना भी न हो क्योंकि अभी भी चुनावों में उनकी वही स्थिति होने जा रही है जो कांग्रेस की हो चुकी है। अब यह विलय जनता परिवार को एकजुट कर कैसे बिहार और उत्तर प्रदेश की सत्ता इनके झोली में ही रहने देगी, यह देखना दिलचस्प होगा।