शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

त्रिलोकपुरी: कराहती है मेरी रूह


मुझे स्लम बस्ती कहते हैं लोग। मुझे तनिक भी एतराज नहीं। बल्कि गर्व होता है। अगल-बगल मयूर विहार फेज 1 और फेज 2 है। पॉश कालोनी है। लेकिन जितने लोग मेरे यहां रहते हैं, उसकी एक चौथाई भी वहां नहीं। मैं हाड़-मांस की तो नहीं लेकिन आत्मा मेरी भी है, जो खिलखिलाती है, जज्बाती होती है, खुश होती है- दुख का एहसास भी करती है, कराहती भी है। तीन दशक बाद फिर मैं लहुलुहान हुई। हालांकि मेरे यहां रहने वाले गरीब तो हैं, उनकी जेबे खाली जरूर रहती हैं लेकिन मन में एक दूसरे के प्रति सम्मान और श्रद्धा दोनों ही भरपुर होती है, लेकिन कभी-कभी कुछ बहकावे में आकर बहक जाते हैं और फिर मुझे छलनी कर देते हैं। आप मुझे तो पहचानते ही होंगे। दिवाली के बाद से मैं काफी सुर्खियों में हूं। मैं त्रिलोकपुरी हूं। मेरी गलियां कुछ शरारती तत्वों के फेंके पत्थरों से भरी पड़ी है, मेरी काया पर इसके निशान आपको मिल जाएंगे। इन्हें नियंत्रित करने के लिए पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों ने कई बार फ्लैग -मार्च किया। उनकी बूटों की आवाजें पूरे इलाके में गूंजी तो उसके निशान भी इन पत्थरों के घावों के निशान के साथ जज्ब हो गये। पहले निषेधाज्ञा से जकड़ने की कोशिश की गई फिर कर्फ्यू। लेकिन ये सभी जो आज टेलीविजन चैनलों पर यहां शांति की बातें करते हैं, वे इस संक्रमण काल में कहां थे? किसी ने मेरी खैर नहीं ली। आम जुमलों में लोग फिल्मी संवाद की नकल कर कहते हैं कि- ‘ठाकुर ने हिजड़ों की फौज बनाई है।’ लेकिन मुझे मेरे किन्नर संतानों पर गर्व है। जब बलवाई तलवार-गड़ासे-बंदूक और पत्थरों को लेकर आगे बढ़ रहे थे, तो सभी जान बचाने के लिए इधर -उधर हो गये, लेकिन किन्नर लैला शॉ इन बलवाइयों के सामने डट गई, तो बड़ा खतरा टल गया। इसी तरह 1984 में आज के दिन ही जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी, छठ का पर्व था। मेरी हिंदू संताने घाटों पर उगते सूर्य को अर्घ्य दे कर लौटी थी और अपने मुस्लिम भाइयों के साथ प्रसाद बांट रहे थे। तभी अचानक से एक हरकारा मचा- सिखों ने इंदिरा को मार दिया। फिर क्या था? सभी हिंदू-और मुस्लिम अपने ही सिख भाइयों के जान के दुश्मन बन बैठे। मैं इन्हें अपने आगोश में ले छिपा लेना चाहती थी, लेकिन उसके पहले कई सिख बच्चे जान गंवा बैठे थे। आतताइयों ने कई को मौत के घात उतार दिये थे। उस समय भी गलियां पत्थरों से पट गई थी। पुलिस वाले की बूटे उस समय भी मुझे खूब रौंदी। उस घटना को याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मैं आज फिर उसी दौर में आ गई। पीढ़ियां बदल गई- लेकिन हालात जस के तस।। कर्फ्यू में ढील दी गई। छठ मनाने के लिए- मैने देखा, किसी की कही नहीं सुन रही- अपनी आंखों से देखा कैसे मुस्लिम परिवार छठ घाट पर अपने पड़ोसी हिंदूओं के साथ मौजूद थे। हां, थोड़े सहमे से थे लेकिन हिंदूओं से नहीं बल्कि बलवाइयों। ये बलवाई न हिंदू होते हैं, ना मुस्लिम। ये तो बस बलवाई है- जो बहकते है-नेताओं के बहकावे से। अभी दिल्ली में चुनाव होने की संभावना है। सभी अपनी जुगत बैठा रहे हैं- भले ही किसी की जान जाए- किसी की रुह फना होती है तो हो... अब थोड़ा सकून है तो नेता इस काली घटना के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार बता रहे हैं। लेकिन मुझे जो घाव मिले हैं, उसका क्या? इन घावों को देने वाले क्या सजा के हकदार नहीं, अगर है तो कब होगा मेरे साथ न्याय?