शनिवार, 3 दिसंबर 2011

हौसला जुर्म है... बेबसी जुर्म है...

आज भविष्य बांचने का काम ज्योतिषी के बजाय अर्थशास्त्री कर रहे हैं. आर्थिक उतार-चढ़ाव के तामपान को मापते हुए जब अर्थशास्त्रियों ने यह भविष्यवाणी की कि अगली सदी अब एशिया की है, तो चीन और भारत की बांछे खिल गई. अगर सही मायने में आंकलन की जाए तो दुनिया पर बादशाहत का झंडा फहराने वाले अमेरिका के लिए खाड़ी युद्ध बहुत महंगा पड़ा. इसकी परिणती के रूप में 9/11 और फिर घोर आर्थिक मंदी ने उसकी रही सही कसर पूरी. हालांकि 9/11 और आर्थिक मंदी ने दुनिया के अर्थशास्त्र को नया पैरामीटर उपलब्ध कराया और इसी के नतीजे के रूप में अगली सदी एशिया की करार दी गई.
भारत के संबंध में बात की जाए तो यह विचार करना जरुरी हो जाता है कि एक ऐसा देश जहां घोर आर्थिक विषमताएं है, भ्रष्टाचार पूरे जोर पर है, निजी स्वार्थ जब देशहित पर भारी पड़ रहे हैं, ऐसे में वह कौन सा तत्व है जिसके बल पर भारत विश्व महाशक्ति बनने का ख्वाब पाल रहा है? उत्तर एक झटके में आता है कि महाशक्ति बनने का ख्वाब भारत अपनी युवाशक्ति के बल पर देख रहा है. बावजूद इसके अब समय आ गया है कि हम देखे कि हम अपने युवाओं को कौन से सुविधा और संसाधन तक उसकी पहुंच बना रहे हैं जिससे कि वह विश्व फलक पर अपनी खास पहचान बना सके.
सच कहा जाए तो अभी तक हमारे पास युवा संसाधन के इस्तामाल को कोई ठोस रोडमैप भी नहीं है. ऐसी स्थिति में चीन फिलहाल हमारे पर भारी है. हालांकि उसके पास इतनी बड़ी युवाशक्ति नहीं है लेकिन हाल के दशक में उसने खुद को काफी बदला है. यह बदलाव उसे भारत से एक कदम आगे खड़ा करता है. यदि वास्तव में हम आकलन करें तो हमारा निकट प्रतिद्वंदी चीन है, हर क्षेत्र में.
देश की खासी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है. स्वाभाविक है कि युवाओं की ज्यादा आबादी भी गांवों में ही रहती है, लेकिन वहां शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी मूलभूत चीजें अब भी पहुंच से दूर है. इसलिए युवाओं का संघर्ष और पलायन दोनों जारी है. ग्रामीण युवा रोजगार की तलास में शहरों की ओर भागते हैं लेकिन यहां भी उन्हें रोजगार का संकट दिखता है. शहरों में पारंपरिक रोजगार के अवसर जहां सिमटे हैं, वहीं गैरपारंपरिक रोजगार के अवसर बढ़े है. इन दोनों के बीच भारी गैप है. ग्रामीण युवा जो शहर आए हैं उन्हें रोजगार चाहिए लेकिन जहां रोजगार है उसके लिए उनके पास कौशल नहीं है. यह भारी खालीपन युवाओं के उत्साह और उनकी सामग्रिक विकास पर प्रश्नचिन्ह लगाता है तो साथ ही वह गैरपारंपरिक उद्योगों के फलने फूलने में बाधक भी सिद्ध होता है. सत्ता प्रतिष्ठान को गांवों में पारंपरिक व गैर पारंपरिक कार्य कौशल के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए. केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देने के नाम पर भारी भरकम योजनाएं लागू की है, लेकिन क्या सिर्फ योजनाएं वस्तुस्थिति के लिए काफी है. बुनियादी ढांचे के विकास के बगैर और कुशल कामगारों की कमी तथा भ्रष्टाचार की बलिबेदी पर ये सारी योजनाएं दम तोड़ रही है. मनरेगा जैसी सौ दिनी कार्य योजना ग्रामीण व कम शिक्षित या अनपढ़ युवाओं के लिए केवल छुनछुना मात्र इससे न तो उनका विकास हो सकता है और न हीं देश का. अगर यूपीए सरकार इसे अ
अपनी उपलब्धि मानती है तो यह भी कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है. क्योंकि यह युवा सपनों का कत्ल करने जैसा है.
दूसरी ओर शहरी युवाओं की बात करें तो स्थिति और भयावह है. उन्हें हर कदम पर प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है और इसके लिए उन्हें तकनीकी तौर पर ट्रेंड नहीं किया गया, जिससे उनकी मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही है. पेशेवर शिक्षा के पाठ्यक्रम इतने महंगे है कि मध्य आय वर्ग के परिवार वाले युवाओं के लिए यह पहुंच से बाहर है. उनकीे प्रतिभा कुंद हो रही है, जिसके नकारात्मक प्रभाव से देश नहीं बच सकता. आक्रोश का प्रस्फूटन होगा और समय रहते हमने इन आक्रोशों को शांत करने का यत्न नहीं किया तो महाशक्ति बनने के ख्वाब पानी के बुलबुले की तरह फूट जाएंगे.
राजनीति से लेकर विज्ञान और तकनीक तक फिलहाल जिन चमकते युवा चेहरों को सरकार प्रतीक के रूप में पेश कर रही है क्या उनमें से एक भी युवा उस वर्ग से जो रोज की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है? एक भी युवा बस्तर के जंगलों से निकल कर वह सिलीकॉन वेली गया है? नहीं. ये चमकते यूथ आईकॉन वे हैं जो सुविधा संपन्न तबके से ताल्लकुल रखते हैं. अगर कोई मध्य या निम्न मध्यवर्ग का युवा शिखर पर पहुंचा भी है तो उसका श्रेय सरकार या उसकी नीतियों को नहीं दिया जा सकता बल्कि वह अपनी प्रतीभा के बल पर पहुंचा है. सत्ता प्रतिष्ठान को विकसित भारत के महत्वपूर्ण संसाधन के सामग्रिक विकास के प्रति संवेदनशील होना होगा तभी ख्वाब हकीकत में बदलेंगे.