गुरुवार, 17 जुलाई 2014

सफेदी की तलाश


अबहियों सिरामन बाबा पर गान्ही जी से मुलाकात का दौरा चढ़ जाता है। आजादी से 24 साल बड़े सिरामन बाबा, गांव की चौहदी लांघने की कोई मशक्कत नहीं करते। पहिले तो नहीं, लेकिन अब अखबार सिरामन बाबा को मिल जाता है। आंख की रोशनी पूरा साथ नहीं देती, चश्मा का सहारा इस बुढ़ापे में बड़ा सुघर लगता है। पढ़ा कि दिल्ली सहित कई शहरों पर आबादी का बोझ बढ़ रहा है। यह पढ़ते ही बाबा के झुर्रीदार ललाट पर पसीने छलछलाने लगे, गेहूंआ रंग अब लाल होने लगा था। अखबार ताखा पर पटका और दूकच्छी धोती घुटते हुए,नंगे पांव एक हाथ में घास छीलनी खुरपी और दूसरे में बांस की कोइन की छड़ी लिए उठ खड़े होते हैं। सावन का बदरकट्टू दिन, उमस की तासीर और बरखा की उम्मीद, तिस पर उम्र का तकाजा। कुल मिला कर सिरामन बाबा आंय-बांय-शांय करते दुआर से बड़ी तेजी से कांपते, हांफते, सरसराते बधार की ओर दौड़ते हैं। तभी गांव की गोड़िन लछमिया टोक देती है- बाबा, पांय लागी। सिरामन काका- तरस-करुणा भाव से एकटक देखते हैं लछमिया की ओर, लेकिन उनके मुंह से बोल नहीं फूंटते। तनिक ठिठकते हैं, फिर पूछ बैठते हैं। सुराजी, का कवनो खबर आया है का? दिल्लीये में हैं ना? लछमिया स्तब्ध हो जाती है- सोचती है, का हुआ बाबा को। कबो पयलगी करने पर- जय,जय कहना नहीं भूलते। आज इसके बजाय सुराजी के बारे में काहे पूछ रहे हैं। मन में बेचनी हुलेर मारने लगती है। बाभन और देव की जुबान- राम, सब कुछ ठीके-ठाक हो। आशंका के भाव लछमिया के चेहरे पर घुंघट के भीतर छाप छोड़ रही थी। अब रहा नहीं जा रहा था। सिरामन बाबा उससे कवनो ठिठोली तो करेंगे नहीं। गांव के रिश्ते से बहुरिया जो उनकी है। ओइसे भी सिरामन बाबा टोला -मोहल्ला के बड़े बुजुर्ग हैं और उनका व्यवहार भी उसी तरह होता है, वात्सल्य भाव से ओत-प्रोत। खैर, लछमिया घर जा के डोमा के मोबाइल से फोन कर लेगी, सुराजी को। मां की ममता है- बेटा सकुशल हो, खबर मिल जाए। अउर का चाहिए। तबो लछमिया बात को घुमाने के लिए बोली- बाबा चाय पी लिजिए, बनी है, ठंडी हो जाएगी। बाबा भड़क उठते हैं- तोहके चाय के ठंडी होने की चिंता है, इहा सवसे देश ठंड पड़ा जा रहा है। इसकी फिकर किसी को नहीं है। रत्ती भर परवाह तो कर। बाकिर तू का समझेगी ई सब बात। ना तो तू इतनी पढ़ी-लिखी है, ना तू गान्ही बाबा के जमाने को देखी है। ठीक है, तू चाय पी। हम आते हैं। बाबा फिर उसी तेजी से बधार की ओर रुख करते हैं, सोचते हुए कि गान्ही बाबा गांव को विकसित कर इसे ही रहने, रोजगार लायक बनाना चाहते थे। बाकिर किसी ने उनकी ना सुनी। शहर में भागे और अइसे भागे कि ओइजो धक्कमपेल पड़ गई अब उ रहने लायक नहीं रह गया। सुनते हैं मशीन खूब घरघराती है, का तो उससे ध्वनि प्रदूषण होता है, अखबार में अक्सर खबर छपती है। शहर वालों के चोंचले बेसी हैं। भला थोड़ा आवाजे हो गया तो का कान फट थोड़े जाएगा। हां, शहर में गाड़ी-बस ज्यादा चलते हैं। धुआं निकलता है, उससे सांस लेने में दिक्कत होती है। ई बात समझ में आती है। साथहीं पीने के पानी में कवन-कवन रसायन होते हैं, ओकरा से पानियो जहर बन जाता है। अब बताओ कि शहर में आबादी के बोझ से नोकरी नहीं मिल रहा। भोजन-भाजन का इंतजाम कइसे होगा? भगवान का दिया हवा-पानी उहो कवनो काम का नहीं है। जियेंगे कइसे शहर में। ई बात अइसहीं गान्ही बाबा नहीं सोचे थे। आगे की सोच वाले आदमी थे, सबका अंदाजा लगा लिये थे। आज तक उनकी कवनो नहीं सुना अब भुगतो। ये बाते बुदबुदाते-बुदबुदाते उनके मन में चल रही उथल-पुथल अब थोड़ी शांत हो चली थी। चवर भी आधा पार कर चुके थे। जीन बाबा के चबूतरा पर बइठ के खैनी मलने का विचार आया। इसी बहाने जीन बाबा के स्थान पर एक खिली खैनी चढ़ा देंगे। सावन की फूहार हल्की पड़ी थी। चबूतरा का पक्का थोड़ा भींग गया था। एक कोने में पिपर के गच्छिन डाड़ के नीचे पक्का सूखा था, वहीं बइठ गये। फिर अतीत के कुछ देखे, सुने याद दिमाग में दलघोटनी की तरह मथने लगी। वारेन हेस्टिंग कहता भी था कुटीर उद्योग को धीरे-धीरे मारो। लोहार, कुम्हार, धुनिया, इन्हें खत्म करो। अब गांव को शहर बनाया जायेगा। बताओ, जब गांव शहर बन जायेगा, तो देश कहां जायेगा? तभी उन्हें छह दशक पुरानी बात इयाद हो आई, उनके हमउम्र दशरथ लोहार हंसते-हंसते कहा था गांव शहर बनी तबे ना गोरी-गोरी मेम देखे के मिलिहें। सिरामन बाबा बांस की कोइन की छड़ी को चबूतरे के दीवार से टिकाये और धोती के खूंट से कागद की एक पुड़िया निकाले। उसमें खैनी थी, सफेदी के लिए धोती की दूसरी चेट बार-बार खोल रहे थे, आखिर गई कहां? सिरामन बाबा की तरह आज पूरा देश सफेदी तलाश रहा है- कहां है?