सोमवार, 16 नवंबर 2015

कितना दीर्घजीवी होगा बिहार के विहान का सौंदर्य


आठ नवंबर, 2015 की सुबह- बिजली गुल, लेकिन 50 वर्षीय रामेश्वर श्रीवास्तव सोलर बैटरी के सहारे चल रहे टीवी से चिपके हैं. बिहार के सीवान जिले के एक छोटे से कस्बे पंचरुखी में जगह-जगह दुकानों पर चार-पांच लोगों का समूह चुनावी रुझानों का विश्लेषण कर रहा है. सुबह की शुरुआत राजग की सीटों में बढ़त के साथ हुई लेकिन रामेश्वर को यह बेचैन नहीं कर रही थी, लेकिन घंटा-डेढ़ घंटा बीतते-बीतते पासा पलटता नजर आया और महागठबंधन विभिन्न सीटों पर बढ़त बनाने लगा. दोपहर बाद यह साफ हो गया कि महागठबंधन के हाथ बिहार की सत्ता की चाबी आ गयी है. नीतीश के नेतृत्व वाली जदयू की जीत रामेश्वर को सकून दे रहा था लेकिन इस सकून के नेपथ्य में लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक पुर्उत्थान ने उन्हें बेचैन कर दिया. उनके जेहन में अतीत के वे घटनाएं एक चलचित्र की तरह चलने लगी, जब बिहार में 20वीं सदी के अंतिम दशक की शुरुआत सामाजिक न्याय के झंडाबरदार लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व हुआ. तब लगा कि वास्तव में एक पिछड़े समुदाय से कोई उभर कर सामने आया है और आजादी के बाद सामंती मानसिकता वाले इस प्रदेश को समानता की परिभाषा से परिचित करायेगा. लालू प्रसाद का भदेसपन ने उन्हें जहां हर बिहारियों से गहरे जोड़ा, वहीं बिहार के पिछड़े वर्गों में एक सपना जगाया- आगे बढ़ने का, बराबरी का. लेकिन बिहारवासी कुछ ही वर्षों बाद खुद को अभागा मानने लगे, जब एक जाति विशेष समुदाय का सूबे के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हलके में दबदबा कायम होने लगा और राजनेताओं की सह पर अपराध बेतहासा बढ़ने लगा. जनसेवक राजनेता, बाहुबली बनने लगे. सड़कें खेत में तब्दील होने लगी और लालू के भदेसपन की शैली बिहारियों के लिए मजाक का औजार बनने लगा. आधारभूत संरचनाएं चरमराने लगी. पलायन बेतहासा बढ़ने लगा. स्कूटर पर सवार हो भैंसे पटना से रांची पहुंचने लगी. यह गड़बड़झाला तात्कालीन समय का सबसे बड़ा चारा घोटाला के रूप में सामने आया. परिवारवादी राजनीति का विरोध करने वाले लालू सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए पत्नी राबड़ी को कठपुतली मुख्यमंत्री बना दिये. मंडल-कमंडल को नारा बना कर बिहार के दलितों-पिछड़ों की दबी-कुचली भावनाओं को उभारा और अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत की. लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को रोक और गिरफ्तार कर राष्ट्रीय स्तर पर चमके तो वहीं बिहार के बंटवारे का विरोध करने वाले लालू के सामने ही झारखंड अस्तित्व में आया. फिर वह दौर भी आया जब नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजग की जीत से लालू का काउंटडाउन शुरु हुआ. समय बीतता गया, लालू घोटाले के मामले में सलाखों के पीछे गये, सांसदी गई, 10वर्षों तक चुनाव लड़ने से वंचित हुए. लालू की लालिमा खो चुकी थी. वह राजनीतिक तौर पर अछूत हो गये. लेकिन आठ नवंबर को लालू फिर अपनी पुरानी ठसक के साथ जब बिहार की सत्ता के सबसे बड़े भागीदार के तौर पर उभरे तो रामेश्वर बेचैन हो गये कि क्या सत्ता पर विकास और सुशासन के प्रतीक बने नीतीश की पकड़ मजबूत रहेगी या फिर वह अपने भागीदार के हाथों की कठपुतली बन जाएंगे. जंगल राज की फिर बिहार में वापसी नहीं होगी- क्या नीतीश इसकी गारंटी ले सकते हैं? उपरोक्त बातें सिर्फ रामेश्वर को ही नहीं बल्कि बिहार के एक तबके को बेचैन किये हुए हैं और उनकी बेचैनी को अब तक राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव या फिर जदयू के नेता व बिहार के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया है. इसके इतर, अगर हम इस चुनाव के राष्ट्रीय महत्व का विश्लेषण करें तो यह सोचने पर विवश करती है कि क्या बिहार के मतदाताओं ने उस मिथक को तोड़ने का प्रयास किया है, जहां राजनीति में विचारधारा का महत्व कम हो रहा है. गाय और हिंदुत्व के मुद्दे से अब चुनावी वैतरणी पार नहीं की जा सकती. बिहार चुनाव के परिणाम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधे चुनौती दी है. मोदी महज डेढ़ वर्ष पूर्व पूर्ण बहुमत से केंद्रीय सत्ता पर काबिज हुए थे और बिहार से भी प्रचंड वोट बटोरा था. इतने कम समय में ही बिहार में मोदी का जादू क्यों सीमट गया? सवाल बस यहीं नहीं है- कई और सवालों को जन्म देता है कि क्या नीतीश कुमार ने फिर से राजनीति में विचारधारा को स्थापित करने का प्रयास किया है और लालू यादव राजनीतिक वनवास ने निकल कर दिल्ली में कमजोर विपक्ष को ताकत देने के लिए कूच कर देंगे. बिहार के चुनाव परिणाम ने मोदी सरकार के सामने यह चुनौती भी रख दी है कि अगर अगले एक बरस में उसने विकास का कोई वैकल्पिक ब्लू प्रिंट देश के सामने नहीं रखा तो फिर 2019 तक देश में एक तीसरी धारा निकल सकती है. क्योंकि डेढ बरस के भीतर ही बिहार के आसरे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता ना सिर्फ एकजुट हो रहे हैं बल्कि उन नेताओं को भी आक्सीजन मिल गया है, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हार गये थे. तो क्या अब बीजेपी के भीतर अमित शाह को मुश्किल होने वाली है और प्रधानमंत्री मोदी को सरकार चलाने में मुश्किल आने वाली है. क्योंकि राज्यसभा में 2017 तक बीजेपी को बहुमत में आने की अब संभावना नहीं है. सवाल केवल बीजेपी पर नहीं उठ रहे बल्कि इन सवालों के घेरे में संघ परिवार की विचारधारा भी आ रही है, जो यहां हारी हुई दिखती है. क्योंकि संघ परिवार की छांव तले हिन्दुत्व की अपनी अपनी परिभाषा गढ कर सांसद से लेकर स्वयंसेवक तक के बेखौफ बोल डराने से नहीं चूक रहे हैं. खुद पीएम को स्वयंसेवक होने पर गर्व है. तो बिहार जनादेश का नया सवाल यही है कि बिहार के बाद असम, बंगाल, केरल , उडीसा, पंजाब और यूपी के चुनाव तक या तो संघ की राजनीतिक सक्रियता थमेगी या सरकार से अलग दिखेगी. हालांकि चुनाव नतीजों को विदेशी मीडिया ने जिस प्रकार कवर किया, उससे लगा कि यह नतीजा मोदी की विदेश नीति पर प्रभाव डालेगा लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्रिटेन यात्रा ने इस आशंका को सिरे से खारिज कर दिया है. लेकिन बीजेपी अपनी इस हार के लिए देर सबेर ही सहीं मंथन जरुर करेगी. भले ही मार्गदर्शक मंडल कुछ कहें या न कहें. देखना होगा कि बीजेपी अपनी भोथराई राजनीति को कैसे धार देती है.

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