मंगलवार, 20 नवंबर 2012

दाग अच्छे हैं

जब सूबे में सपा को स्पष्ट बहुमत मिली और मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश यादव सत्तासीन हुए तो प्रदेश की जनता में एक बेहतर युवा और ऊर्जा से लबरेज सरकार की उम्मीद बंधी. जो प्रदेश को विकास की मुख्यधारा के साथ ले जाने के प्रति कृतसंकल्पित दिखी. लेकिन सरकार से बंधी उम्मीदें, पहले दिन ही खण्ड-खण्ड हो गई. वास्तव में, लंबे समय से प्रदेश की जनता ने सूबे में राजनीतिक अस्थरिता को देखते हुए पिछले दो विधानसभा चुनावों से स्पष्ट बहुमत वाली सरकार चुनीं, लेकिन उसकी उम्मीदों पर न तो बसपा खरी उतरी और ना ही सपा. अखिलेश यादव के सामने पहले की तरह मिली-जुली सरकार के सामने आने वाली समस्याएं भी नहीं है लेकिन पिछले सात महीने से सूबे पर एकछत्र राज कर रहे मुख्यमंत्री सत्ता की सनक और हनक दोनों के शिकार होते दिख रहे हैं. चाहे वह कोसीकलां की घटना हो या फिर लखनऊ में बेरोजगारों का उग्र प्रदर्शन, इससे राजनीतिक अपरिपक्वता के साथ सरकार निपटने की कोशिश करती दिखी. अगर सरकार को एक अच्छी सरकार की तरह दिखनी है तो यह महती जिम्मेदारी अब समाजवादी पार्टी की है कि वह अपने पुराने चेहरे, चाल, चरित्र तीनों में बदलाव लाए. मुलायम के बजाय अखिलेश सिंह यादव एक नया उम्मीदों भरा चेहरा हैं, लेकिन उनकी आभा धुमिल होती जा रही है. सपा की सरकार बने सात माह हो चुके हैं परन्तु अभी तक प्रशासनिक काम-काज का ढर्रा वही पुराना चल रहा है. इन सात माह में अखिलेश सरकार पर सात दंगों का दाग तो लग ही गया है. उनके कार्यकाल में न तो समाजवाद की अवधारणा ही यथार्थ के धरातल पर उतर पा रही है और न ही युवा मुख्यमंत्री की ऊर्जा का लाभ प्रदेश को मिलता दिख रहा है. सपा के नेतृत्व में सरकार गठन के बाद ही प्रदेश में अपराधों की तादात बेतहाशा बढ़ी है, अपराधियों के हौसले बढ़े हैं. इसमें राजनीतिज्ञों का सांठगांठ उजागर हुआ है. अभी हाल में ही सीएमओ के अपहरण मामले में सरकार के एक मंत्री पंडित सिंह को इस्तीफा देना पड़ा था. सरकार की नाकामयाबियों को गिनाते हुए विधानसभा में नेता विपक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य कहते हैं, - सपा सरकार के साथ वही कहावत सही चरितार्थ हो रही है कि ..सौ दिन चले अढाई कोस.. अखिलेश यादव सरकार अपने सात महीने के कार्यकाल में पूरी तरह विफल है. अपराधियों का बोलबाला है. समाजवादी पार्टी के कई विधायक सांसद और कुछ मंत्री अपराधी किस्म के हैं. सरकार यही लोग चला रहे हैं, इसलिए अपराध लगातार बढ रहा है.पूरा प्रदेश जंगलराज में तब्दील हो गया है. विद्युत व्यवस्था चरमरा गयी है. बिजली-पानी के लिए लोग सडकों पर उतर रहे हैं. गेहूं क्रय केन्द्र बिचौलियों एवं घोटालेबाजों के चारागाह बन गये हैं . बेरोजगारी भत्ता. लैपटाप और टैबलेट की आस लगाए नौजवान अपने को ठगा महसूस कर रहे हैं . कर्जमाफी एवं नि.शुल्क बिजली पानी देने की घोषणा कर सपा सरकार किसानों को मूर्ख बना रही है. नौजवान और साफ सुथरी छवि के अखिलेश यादव की सरकार में अपराधियों के हौसले बुलंद है प्रदेश में जनता तो क्या जनता के दर्द को शासन प्रशासन तक पंहुचा कर उनकी लड़ाई लड़ने वाले मीडियाकर्मी तक सुरक्षित नहीं है जिसकी मिसाल है बाराबंकी जनपद के रामनगर इलाके में अवैध बालू खनन की सूचना पर कवरेज करने गए आधा दर्जन न्यूज चैनलों के पत्रकारों पर खनन माफिया के गुर्गो का हमला और उनका कैमरा छीनने की घटना. 9 जून 2012 की रात करीब साढ़े नौ बजे हुई इस दुस्साहसिक वारदात के बाद पुलिस ने पत्रकारों की तहरीर पर बालू माफिया के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की कागजी खानापूर्ती तो कर ली लेकिन पुलिस ने घटना के आरोपी एक दर्जन से ज्यादा लोगो में से किसी को भी गिरफ्तार करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई उल्टा जनपद में तैनात कुछ भ्रष्ट्र अधिकारी खनन माफिया के साथ मिलकर पीड़ित पत्रकारों के खिलाफ ही साजिश का ताना बाना बुनने में जुट गए जिसके परिणाम स्वरूप खनन माफिया और उसके गुर्गो के हौसले इतने बुलंद है कि वो अब पीड़ित पत्रकारों के परिजनों को डराने धमकाने में जुटे हैं. इस पूरे प्रकरण में आश्चर्य की बात तो ये है कि खनन विभाग स्वयं उत्तर प्रदेश के ईमानदार और साफ सुथरी छवि के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के पास है ऐसे में सवाल ये है कि जब मुख्यमंत्री अपने खुद के ही विभाग में फैले भ्रष्टाचार और माफियावाद पर अंकुश लगाने में विफल साबित हो रहे हैं तो फिर बाकी विभागों पर उनका कितना बस चलता होगा. हालांकि यह बात सही है कि किसी भी सरकार के कामकाज के मूल्यांकन के लिए सात माह का समय अल्पकालीन ही होता है फिर भी इतने समय में सरकारी तंत्र की सक्रियता से लेकर उनकी जवाबदेहियों तक के बारे में एक निश्चित सोच का पता चलता है. अखिलेश यादव भले ही मुलायम सिंह के पुत्र होने की वजह से सूबे के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बन गए हों किन्तु अब तक प्रशासनिक व शासकीय स्तर पर उनकी वह पकड़ लक्षित नहीं हुई है जिसका ढोल समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता पीटे नहीं अघाते थे. बसपा के 5 वर्षों के कुशासन से त्रस्त जनता ने सपा को सरकार बनाने का मौका दिया था. प्रदेश की जनता हालांकि पूर्ववर्ती सपा सरकार में हुए अत्याचारों व गुंडागर्दी को भूली नहीं थी मगर बसपा के मुकाबले उन्हें सपा ही बेहतर विकल्प नजर आई. यह भी अघोषित रूप से तय था कि इस बार यदि सपा सरकार में आती है तो सूबे को युवा मुख्यमंत्री की सौगात मिल सकती है. अखिलेश को उत्तर प्रदेश की जनता ने सुनहरा मौका दिया है कि वे पूर्ववर्ती शासन के पाप धोते हुए सूबे को विकास पथ पर अग्रसर करें और ऐसा न कर पाने के एवज में उनकी भद पीटना तय है जिसका परिणाम 2014 में दिखेगा ही, भावी विधानसभा चुनावों में भी उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी. यह वक्त निश्चित रूप से अखिलेश के लिए अग्निपरीक्षा का है जिसमें तपकर ही वे मिसाल कायम कर सकते हैं वरना उनकी गिनती भी उन्हीं नेतापुत्रों में होगी जो राजनीति में पैराशूट के जरिये उतारे जाते हैं. अखिलेश पर राजनीतिक दबाव से इतर पारिवारिक दबाव स्पष्ट दृष्टिगत होता है. जहां तक राजनीतिक दबाव की बात है तो सूबे में मुख्य विपक्षी दल बसपा फिलहाल सदमे में है, कांग्रेस-भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल संगठनात्मक कमजोरियों से दो-चार हो रहे हैं और अन्य छोटे दलों की सपा के समक्ष फिलहाल विसात ही क्या है? फिर अखिलेश पर दबाव कहां है? (नई दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका प्राइड ऑफ बॉर्डर लाइन के नवंबर अंक में प्रकाशित)

राहुल की राह

एक बार राहुल गांधी से पूछा गया कि आपका धर्म क्या है? तो उन्होंने छूटते ही जवाब दिया- भारतीय तीरंगा. यह जवाब उस समय का है जब राहुल लंदन से वापस आये थे और राजनीति में सक्रिय नहीं थे. एक वैसे परिवार के युवा सदस्य से इस तरह का उत्तर अपेक्षित था, जो कि भारतीय राजनीति का बीते सौ वर्षों से धुरी रहा है. यह जवाब राहुल के परिपक्व सोच को दर्शाता है और उन आरोपों को खारिज करता है- जो कि यदा-कदा उनके राजनीतिक अपरिपक्वता को लेकर लगते रहे हैं. एकांतप्रिय और कम बोलने वाले राहुल की राजनीतिक दूरदर्शिता को आरती रामचंद्रन ने अपनी किताब ‘डिकोडिंग राहुल गांधी ’ में बड़ी संजीदगी से रेखांकित किया है. इसका उदाहरण देते हुए रामचंद्रन ने उस साक्षात्कार का उल्लेख किया है, जिसे राहुल ने वर्ष 2010 में अपने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के सहपाठी ऐशले लैमिंग को दिया था, इस साक्षात्कार में राहुल ने बड़ी स्पष्टता के साथ कहा था कि भारतीय शिक्षा प्रणाली ब्रितानी शिक्षा प्रणाली से 800 साल पीछे है. शिक्षा प्रणाली को आधुनिक बनाने के लिए ज्ञान पर एकाधिकार खत्म करना होगा. छात्र विभिन्न स्रोतों से ज्ञान अर्जित कर सकें और वे स्वयं सूचना के प्रतिस्पर्धी स्रोतों का मूल्यांकन कर निर्णय ले सकें. कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से विकास अध्ययन में एमफिल करने वाले राहुल वहां पढ़े गए आर्थिक सिद्धांतों से काफी प्रभावित थे. वे आर्थिक शब्दावलियों के प्रयोग में सिद्धहस्त तो हैं ही साथ ही वह अपनी राय के पक्ष में तर्क देने में भी सक्षम हंै. आपूर्ति और मांग की समस्याओं के मद्देनजर दलितों और महिलाओं के लिए, जिनका कि वह समर्थन करते हैं, इस मुद्दे पर वह लंबी व तार्किक ढंग से अपनी बातों को रखते हैं. स्क्वैश और मुक्केबाजी के शौकीन राहुल की निजी जिंदगी एक आवरण के पीछे है. इस आवरण को न तो उनके परिवार ने कभी सरकाने की कोशिश की और न ही राहुल ने स्वयं. राहुल तो यहां तक मानते हैं कि किसी भी व्यक्ति की निजता उसकी व्यक्तिगत थाती होती है और उसे आवरण में ही रहने दिया जाना चाहिए. हालांकि वे जिस पारिवारिक पृष्ठभूमि से हैं, उसकी वजह से उनकी निजी जिंदगी किसी सेलिब्रिटी से कम नहीं है और उसका कारण भी है, वे भी एक राजनीतिक सेलिब्रिटी हैं. राजनीतिज्ञों के साथ विवादों का चोली-दामन का रिश्ता होता है और इस रिश्ते की वजह से राहुल भी विवादों से नहीं बचे. कभी अपने व्यवसाय को लेकर मीडिया के निशाने पर आए तो कभी अपने प्रेमप्रसंग को लेकर. 40 वर्षीय राहुल मानते हैं कि मन में आए बुरे ख्याल आपके सफर को गलत दिशा में मोड़ देता है. इसलिए बुरे ख्याल को दूर रखने के लिए कंपास रूपी सकारात्मक विचारों के सृजन को बल देना चाहिए. इसकी बानगी भी उनके कथन से ही मिल जाती है. वर्ष 2010 के नवंबर महीने में वह एक स्कूल के विज्ञान मेले के उद्घाटन में गए थे. वहां उन्होंने स्कूली छात्रों से बातचीत की. बातचीत में वह उन छात्रों में सकारात्मक विचार सृजित करने की कोशिश करते दिखे. इसी कोशिश के मद्देनजर उन्होंने छात्रों से कहा था कि उन्हें अपने बचपन के दौरान अंधेरे से भय लगता था, और इस भय का कारण था कि वह मानते थे कि अंधेरे में बुरी आत्माएं और भूत-पिसाच रहते हैं. इस बात को उन्होंने कभी अपनी दादी इंदिरा गांधी से कही. तब उनकी दादी ने उन्हें कहा कि क्या उन्होंने किसी बुरी आत्मा या फिर किसी भूत को अंधेरे में देखा है, तब राहुल ने ना में जवाब दिया. फिर उनकी दादी ने कहा कि पहले अंधेरे में जाओ और देखो कि वहां सही मायने में कुछ है या कि यह तुम्हारा केवल भ्रम है. और राहुल डरते-डरते अपने बंगले के अंधेरे बगीचे में गए, लेकिन उस अंधेरे में उन्हें ऐसा कुछ भी नहीं दिखा, जिससे कि उन्हें डर लगे. और सारी भ्रांतियां दूर हुईं. वास्तव में राहुल अपना करियर एक मैनेजमेंट कंसल्टेंट के रूप में निखारना चाहते थे. इस लिए उन्होंने लंदन में माइकल पोर्टर की कंपनी मॉनिटर के लिए काम किया. हालांकि उस कंपनी के लिए काम करते हुए उन्होंने अपने वास्तविक पहचान को छिपाए रखा. बाद में इसके बारे में अनाधिकृत स्पष्टीकरण आया कि भारत के सबसे बड़े राजनीतिक रसूख वाले परिवार के सदस्य होने की वजह से व्यावसायिक क्षेत्र में इसका गलत फायदा उठाया जा सकता था. बाद में लंदन से वापसी के बाद 2002 में राहुल ने बैकॉप्स नाम की एक कंसल्टेंसी कंपनी स्थापित की. इस कंपनी को इंजीनियरिंग डिजाइन आउटसोर्सिंग कंपनी के रूप में बाजार में स्थापित किया गया. हालांकि जिस तरह गांधी परिवार की निजता को गोपनीय रखा जाता है, वही रवैया इस कंपनी और राहुल के बीच अपनाया गया. पहली बार लोग तब इस कंपनी के बारे में जाने, जब मुंबई के दैनिक मिड-डे ने राहुल और बैकॉप्स के संबंधों को उजागर किया. बाद में इस कंपनी को मिले कई बड़ी परियोजनाओं के ठेके को लेकर बवाल भी हुआ. जबकि राहुल ने कंपनी के राजस्व को एक लाख डॉलर से कम बता कर इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया. जैसे -जैसे राजनीति में उनकी सक्रियता बढ़ती गई, वह कंपनी के कामकाज से दूर होते गए. उन्होंने 2009 में कंपनी के निदेशक पद से इस्तीफा दे कर अपनी बहन प्रियंका गांधी को निदेशक के तौर पर नियुक्त कर दिया, अब राहुल का इस कंपनी से कोई रिश्ता नहीं रह गया है. 40 वर्षीय राहुल के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने आजीवन कुंवारा रहने का निर्णय किया है लेकिन उनकी प्रेम कहानी को कई अटकलों का सामना करना पड़ा है. भले ही राहुल को राजनीति की विरासत सोने की थाल में परोसी मिली हो. लेकिन यह राह इतना आसान नहीं था. एक तरफ चापलूस और चाटुकार किस्म के लोगों का घेरा तो वहीं दूसरी ओर देश को, देश की जनता को देखने और समझने की जरुरत थी. युवा कांग्रेस में सक्रिय होने के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश सहित देश के विभिन्न हिस्सों का दौरा किया साथ ही हांसिये पर रह रहे लोगों के साथ बातचीत कर उन्होंने देश की जमीनी हकीकत को जानने की कोशिश की. चाहे उत्तर प्रदेश की दलित महिला के घर रोटी खाने की बात या फिर भट्टा-पारसौल का आंदोलन जिसे लेकर मीडिया में काफी चर्चा हुई लेकिन यह उनके कैंब्रिज में अध्ययन के दौरान अपनाई गई जीवन शैली को प्रतिबिंवित करता है. राहुल कहते भी हैं कि मैने कभी आरामदेह जीवनशैली नहीं अपनाई. लंदन में नौकरी के दौरान भी मैं लंबे समय तक काम करता था. असल में कठिन परिश्रम की प्रवृति मेरी रगों में है और मैं मानता हूं कि यही प्रवृति हमें राजनीति में भी बनाए रखनी होगी. राहुल उतार-चढ़ाव भरे राजनीतिक दौर में अपनी खुद की एक पहचान बनाते हुए कांग्रेस में बड़ी जिम्मेदारी के निर्वाह के लिए तैयार हैं. वह पार्टी की भावना और समर्थन के लिए पार्टी के कार्यकर्ताओं के प्रति आभार जताते हुए यह वादा भी करते हैं कि उन्हें कभी नतमस्तक नहीं होने देंगे. यह वादा उनके जज्बातों और उनकी कल्पनाशीलता को मजबूती से स्थापित करता है. (नई दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका प्राइड ऑफ बॉर्डर लाइन के नवंबर अंक में प्रकाशित)

इंसाफ के मायने

देश की न्यायपालिका दो ही अवसरों पर सुर्खियों में आती है. पहला, तब जब वह कोई ऐतिहासिक फैसला सुनाती है और दूसरा तब, जबकि लंबे समय तक ढेर सारे मामले विचाराधीन रह जाते हैं. न्याय प्रक्रिया के तहत अधिकतर मामलों में से शायद ही कोई सही समय पर अपने अंजाम तक पहुंच पाता है. अगर हम दीवानी मामलों का ही उदाहरण लें तो कमोबेश सभी सामाजिक समस्याएं इसमें शामिल हैं, मसलन जमीन-जायदाद, वैवाहिक विवाद, उधार लेन-देन. किसी भी विकासशील व गतिशील समाज में दीवानी मामलों के बढ़ने की आशंका हमेशा बनी रहती है. बावजूद इसके विपरीत देखा गया है कि कुछ राज्यों में दीवानी मामलों की संख्या में हाल के दिनों में गिरावट आई है. उदाहरण के तौर पर बिहार को ही लें. देश में प्रति दस हजार की आबादी पर दीवानी के औसतन 35 मामले अदालतों में पहुंचते हैं.जब कि बिहार में चार वर्ष पूर्व यह औसत मात्र पांच प्रतिशत था. देश के कई अन्य पश्चिमी राज्य भी इस मामले में बिहार से साथी हैं. वहां प्रति दस हजार की आबादी पर कम से कम 15 मामलों से कम हैं. दूसरे कुछ देशों में तो यह औसत 100 तक पहुंच गया है. दीवानी मामलों में कमी को एक अर्थ में यह कहा जा सकता है कि यह सकून देने वाला है. लेकिन काश, सच्चाई यहीं होती. वास्तव में, दीवानी मामलों के निपटारे या फिर न्याय मिलने में होने वाली देरी ने लोगों को अदालत तक पहुंचने से रोक रखा है. यह भी देखा जाता है कि अधिकांश मामलों को अदालत के बाहर ही सलटा लिया जाता है या लंबे समय तक अदालतों में लंबित रहने से मामले अपना औचित्य ही खो देते हैं और जब न्याय मिलता है, तब तक उसका कोई मतलब नहीं रह जाता. पश्चिमी राज्यों में अशिक्षा और जागरुकता में कमी तथा न्याय प्रक्रिया के बारे में अज्ञानता की वजह से अधिकतर फैसले रसूख वालों के पक्ष में चले जाते हैं.अगर दीवानी मामलों के निष्पादन में विलंब भारतीय समाज के विकास के रास्ते में रोड़ा बना है तो वहीं जनहित याचिकाओं ने भी काफी बदनामी फैलाई है. जनहित याचिका की मूल अवधारणा यह थी कि देश के नागरिक जब अपने मौलिक या सामाजिक अधिकारों पर संकट देखें तो वह व्यक्तिगत तौर पर सीधे अदालत तक पहुंच सकें. इस तरह के अनगिनत उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं, जब जनहित याचिका का जनता के लाभ या सामाजिक अधिकारों की रक्षा के लिए उचित प्रयोग किया गया. लेकिन यह बहुत जल्दी ही बीते दिन की बात हो गई. बीते कुछ सालों में जनहित याचिका व्यक्तिगत हित साधन और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का माध्यम बन कर रह गई है. वास्तव में जनहित याचिका का अभियान बिहार से ही शरू हुआ था- यह विचाराधिन कैदियों और बंधुआ मजदूरों की मुक्ति को लेकर था. लेकिन वर्तमान में जनहित याचिका की मूल प्रकृति अपने आप में पूरी तरह बदल चुकी है. यह आपसी दुश्मनी निकालने का भी हथियार बन गया है. देखा यह गया है कि ऐसे ज्यादातर मामलों में जिसमें समाज के ताकतवर और प्रभावशाली लोग शामिल होते हैं, उसमें गवाह अपना बयान बदल देते हैं. एचएस सब्बरवाल या जेसिका लाल या फिर संजीव नंदा के मामलों में यह देखा जा चुका है. आज तक गवाहों की सुरक्षा मुहैया कराने से संबंधित कोई कानून नहीं बनाया जा सका है. जबकि दुनिया के कई देशों खास कर विकसित देशों में ऐसे प्रावधान है कि या तो गवाहों की पहचान गुप्त रखी जाती है या फिर उन्हें सुरक्षित स्थान पर सरकार द्वारा बसा दिया जाता है. जबकि अपने देश में इस तरह की कहीं कोई व्यवस्था नहीं है और न ही इस दिशा में किसी तरह की पहल की कोई संभावना ही दिख रही है. ऐसे में वर्तमान न्याय प्रक्रिया से बहुत उम्मीदें नहीं लगायी जा सकती. (नई दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका प्राइड ऑफ बॉर्डर लाइन के नवंबर अंक में मेरे स्तंभ शब्दचित्र में प्रकाशित)