मंगलवार, 20 नवंबर 2012

इंसाफ के मायने

देश की न्यायपालिका दो ही अवसरों पर सुर्खियों में आती है. पहला, तब जब वह कोई ऐतिहासिक फैसला सुनाती है और दूसरा तब, जबकि लंबे समय तक ढेर सारे मामले विचाराधीन रह जाते हैं. न्याय प्रक्रिया के तहत अधिकतर मामलों में से शायद ही कोई सही समय पर अपने अंजाम तक पहुंच पाता है. अगर हम दीवानी मामलों का ही उदाहरण लें तो कमोबेश सभी सामाजिक समस्याएं इसमें शामिल हैं, मसलन जमीन-जायदाद, वैवाहिक विवाद, उधार लेन-देन. किसी भी विकासशील व गतिशील समाज में दीवानी मामलों के बढ़ने की आशंका हमेशा बनी रहती है. बावजूद इसके विपरीत देखा गया है कि कुछ राज्यों में दीवानी मामलों की संख्या में हाल के दिनों में गिरावट आई है. उदाहरण के तौर पर बिहार को ही लें. देश में प्रति दस हजार की आबादी पर दीवानी के औसतन 35 मामले अदालतों में पहुंचते हैं.जब कि बिहार में चार वर्ष पूर्व यह औसत मात्र पांच प्रतिशत था. देश के कई अन्य पश्चिमी राज्य भी इस मामले में बिहार से साथी हैं. वहां प्रति दस हजार की आबादी पर कम से कम 15 मामलों से कम हैं. दूसरे कुछ देशों में तो यह औसत 100 तक पहुंच गया है. दीवानी मामलों में कमी को एक अर्थ में यह कहा जा सकता है कि यह सकून देने वाला है. लेकिन काश, सच्चाई यहीं होती. वास्तव में, दीवानी मामलों के निपटारे या फिर न्याय मिलने में होने वाली देरी ने लोगों को अदालत तक पहुंचने से रोक रखा है. यह भी देखा जाता है कि अधिकांश मामलों को अदालत के बाहर ही सलटा लिया जाता है या लंबे समय तक अदालतों में लंबित रहने से मामले अपना औचित्य ही खो देते हैं और जब न्याय मिलता है, तब तक उसका कोई मतलब नहीं रह जाता. पश्चिमी राज्यों में अशिक्षा और जागरुकता में कमी तथा न्याय प्रक्रिया के बारे में अज्ञानता की वजह से अधिकतर फैसले रसूख वालों के पक्ष में चले जाते हैं.अगर दीवानी मामलों के निष्पादन में विलंब भारतीय समाज के विकास के रास्ते में रोड़ा बना है तो वहीं जनहित याचिकाओं ने भी काफी बदनामी फैलाई है. जनहित याचिका की मूल अवधारणा यह थी कि देश के नागरिक जब अपने मौलिक या सामाजिक अधिकारों पर संकट देखें तो वह व्यक्तिगत तौर पर सीधे अदालत तक पहुंच सकें. इस तरह के अनगिनत उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं, जब जनहित याचिका का जनता के लाभ या सामाजिक अधिकारों की रक्षा के लिए उचित प्रयोग किया गया. लेकिन यह बहुत जल्दी ही बीते दिन की बात हो गई. बीते कुछ सालों में जनहित याचिका व्यक्तिगत हित साधन और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का माध्यम बन कर रह गई है. वास्तव में जनहित याचिका का अभियान बिहार से ही शरू हुआ था- यह विचाराधिन कैदियों और बंधुआ मजदूरों की मुक्ति को लेकर था. लेकिन वर्तमान में जनहित याचिका की मूल प्रकृति अपने आप में पूरी तरह बदल चुकी है. यह आपसी दुश्मनी निकालने का भी हथियार बन गया है. देखा यह गया है कि ऐसे ज्यादातर मामलों में जिसमें समाज के ताकतवर और प्रभावशाली लोग शामिल होते हैं, उसमें गवाह अपना बयान बदल देते हैं. एचएस सब्बरवाल या जेसिका लाल या फिर संजीव नंदा के मामलों में यह देखा जा चुका है. आज तक गवाहों की सुरक्षा मुहैया कराने से संबंधित कोई कानून नहीं बनाया जा सका है. जबकि दुनिया के कई देशों खास कर विकसित देशों में ऐसे प्रावधान है कि या तो गवाहों की पहचान गुप्त रखी जाती है या फिर उन्हें सुरक्षित स्थान पर सरकार द्वारा बसा दिया जाता है. जबकि अपने देश में इस तरह की कहीं कोई व्यवस्था नहीं है और न ही इस दिशा में किसी तरह की पहल की कोई संभावना ही दिख रही है. ऐसे में वर्तमान न्याय प्रक्रिया से बहुत उम्मीदें नहीं लगायी जा सकती. (नई दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका प्राइड ऑफ बॉर्डर लाइन के नवंबर अंक में मेरे स्तंभ शब्दचित्र में प्रकाशित)

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