मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

बिहार में विहान

श्रीराजेश

- जेल में कैदियों ने किया उत्पात

- नक्सलियों के हमले में 13लोगों की मौत

- आयकर की छापामारी, कई बड़े अधिकारी घेरे में

- विकास की रफ्तार में बिहार अंतिम पायदान पर: रिपोर्ट

- प्रसव के दौरान होने वाली मौतें बिहार में सर्वाधिक

उपरोक्त समाचारों के शीर्षक देख कर एक झटके में ही कहा जा सकता था कि ये खबरें बिहार की है. चार-पांच वर्ष पहले तक अखबार इस तरह की खबरों से अटा रहता था, लेकिन अब हालात बदलते दिख रहे हैं. बयार पश्चिम से पूरब की ओर बहने लगी है. अब अखबारों में सकारात्मक खबरों के शीर्षक दिखने लगे है.

- आईआईएम के छात्र चले तरक्की पसंद बिहार की ओर

- यूएन के कैलेंडर पर छाई बिहार की बेटी

- बिहार को चमकाने आएंगे मारीशस के बिहारी

- बिहार का जेल विभाग राजस्व प्राप्ति में देशभर में अव्वल

- बच्चे ही चला रहे बिहार में अनोखा बैंक

कुछ महीने पहले एक खबर आई की बिहार विकास की गति तय करने में देश में दूसरे स्थान पर है,पहले स्थान पर गुजरात है. इस खबर खूब हलचल मचाई. इसने बीमारु प्रदेश के रुप में जाने जाने वाले राज्य बिहार के विषय नए सिरे से विचार करने में विवश कर दिया. आम लोगों से लेकर बुद्धिजीवियों ने इस बदलाव के लिए बेहतर प्रशासन की तारीफ की और इसके पहले सत्ता पर काबिज दलों की भत्र्सना भी. आज कम संसाधनों के बावजूद बिहार ने11.03 फीसदी विकास दर हासिल किया है तो इसमें राज्य की जद यू नीत राजग सरकार का कितना योगदान है, यह प्रश्न बाद में आता है. पहले यह बात सोचने को विवश करती है कि अचानक से बिहार के गांव-गांव में परिवर्तन की बयार क्यों बहने लगी. इसके कई कारण है. समाजशास्त्री प्रो. पी एस माधव के मुताबिक आज दुनिया सिमट कर एक गांव हो गई है. संचार की बेहतरीन सुविधा (राज्य सरकार की इसमें कोई भूमिका नहीं) ने दुनिया में कहां क्या हो रहा है से अवगत कराना शुरु कर दिया है. विदेशों की बात यदि छोड़ भी दें तो खुद देश में ही बिहारियों को अपमानित होना पड़ा है. इसके लिए मुख्य कारण राज्य में रोजगार के पर्याप्त अवसर का नहीं होना, लचर बनियादी ढांचे, अशिक्षा और गरीबी है. असम से लेकर महाराष्ट्र तक में बिहारी समुदाय के स्वाभिमान को ठेस लगती रही. और यही कारण धीरे-धीरे बिहार में नि:शब्द बदलाव लाने लगा है. इसका उदाहरण हम बिहार में देख सकते है.

दृश्य -1

मुजफ्फरपुर स्थित अमर शहीद खुदीराम बोस केंद्रीय कारा परिसर की खाली जमीन पर इन दिनों औषधीय पौधे लहलहा रहे हैं. पूरी तरह जवान हो चुके इन पौधों को पालपोस कर बड़ा किया है सजा काट रहे बंदियों ने. जेल प्रशासन इन पौधों को दवा बनाने के लिए बाहर भेजने की तैयारी कर रहा है. कारा अधीक्षक रूपक कुमार के अनुसार औषधीय पौधों की खेती के लिए 250 कैदियों को प्रशिक्षित किया गया था. यह प्रयोग सेंट्रल इंस्टीट्यूट आफ मेडिसिनल एवं एरोमेटिक प्लांट (सीमैप) के तकनीकी सलाहकार राजन कुमार सिंह और सदस्य पुनीत कुमार के सुझाव पर यह प्रयोग किया गया. कुमार कहते है- पौधा लगाने से पहले चयनित बंदियों को शिविर के जरिए खेती-बारी के तौर तरीकों से रू-ब-रू कराया गया मकसद यह था कि जेल से रिहा होने के बाद प्रशिक्षित बंदी अपने गांवों में औषधीय पौधों की खेती कर आर्थिक रूप से सशक्त हो सकें.

दृश्य -2

मुजफ्फरपुर जिले में ही एक ऐसा बैंक बनाया गया है जिसे बच्चे चलाते हैं और जिसमें सिर्फ गरीब बच्चे ही पैसे जमा कर सकते हैं. इतना ही नहीं इस बैंक से बच्चे छोटे-मोटे काम के लिए लोन भी ले सकते हैं. आशना बताती है कि इस बैंक की मदद से उसने अपने पिरवार को डूबने से बचा लिया. उसके पिता काफी बीमार थे और उसकी दुकान बंद होने के कगार पर थी. ऐसे मुश्किल घड़ी में विकास खजाना बैंक उसकी मदद को आगे आया. 16 साल की आशना बताती है कि उसे बैंक ने2500 रुपए लोन दिया जिससे उसके पिता की दुकान अब ठीक-ठाक चल रही है. बाल विकास खजाना एक छोटा सा कोपरेटिव बैंक है जिसे बच्चों के लिए बच्चों द्वारा ही चलाया जाता है. ये बैंक उन गरीब बच्चों के लिए शुरू किया गया है जो मजदूरी करते हैं,कूड़ा बीनते हैं या फिर फैक्ट्रियों में काम करते है.

दृश्य -3

उनके प्रभु आकाश में नहीं रहते, न ही वे सूली पर लटके हैं. उनके प्रभु उनके आश्रम में ही रहते हैं. वे ऐसे लोग हैं जिन्हें अन्य लोग छूना भी नहीं चाहते क्योंकि वे कुष्ठ रोग से ग्रस्त हैं, लेकिन क्रिस्टुदा को उनसे कोई परहेज नहीं. बिहार की नेपाल से लगती सीमा पर स्थित रक्सौल के निकट सुंदरपुर गांव स्थित अपने आश्रम के आंगन में एक कुर्सी डाले क्रिस्टुदा अलसुबह कुष्ठ रोगियों से घिर जाते हैं. उनके चेहरे पर परेशानी का कोई भाव नहीं होता बल्कि कई लोगों से एक साथ बात करते हुए भी उनके चेहरे पर एक आत्मसंतोषी मुस्कान खेलती रहती है. क्योंकि पिछले चालीस वर्षो से कुष्ठ रोगियों का इलाज करते-करते एक बार वे स्वयं कुष्ठ रोग का शिकार हो चुके हैं. तब मदर टेरेसा जिंदा थीं. उन्हें कोलकाता के अपने आश्रम में रखकर क्रिस्टुदा का इलाज कराया. ठीक होने के बाद वे फिर इसी काम में लग गए.

दृश्य - 4

अक्सर लोग सेवानिवृत्ति के बाद आराम और सुकून की जिंदगी जीना चाहते हैं, लेकिन बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में ही एक शिक्षक ऐसे भी हैं जो सेवानिवृत होकर भी शिक्षा की अलख जगा रहे हैं. 87 वर्ष की उम्र में भी वे150 नौनिहालों को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित कर रहे हैं. जयकांत ठाकुर को सेवानिवृत्त हुए 27 वर्ष गुजर गए हैं, लेकिन उनमें लोगों को पढ़ाने का जज्बा अब भी बरकरार है. ठाकुर ने वर्ष 1950 में समस्तीपुर में ताजपुर के एक विद्यालय में बतौर शिक्षक नौकरी प्रारंभ की थी. 27 वर्ष पूर्व वे मीनापुर उच्च विद्यालय से प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत्त हुए. सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने विद्यालय जाना तो बंद कर दिया,लेकिन शिक्षा दान देने का सिलसिला बंद नहीं किया. सेवानिवृत्ति के बाद वे ऐसे घरों में शिक्षा का दीप जलाने में जुट गए. ठाकुर ने अखाड़ाघाट में दलित बस्ती के एक पीपल के पेड़ के नीचे अपने दोस्त धनुषधारी ठाकुर के सहयोग से दलित बस्तियों के बच्चों को पढ़ाना प्रारंभ किया था. प्रारंभ में इन्हें कई अभिभावकों ने बुरा-भला भी कहा, परंतु अपने जुनूनी तेवर के लिए मशहूर इस शिक्षक ने हार नहीं मानी और आज पीपल के पेड़ के नीचे बांस-फूस का झोपड़ीनुमा विद्यालय बन गया है. यहां आज भी 150 बच्चे नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं.

दृश्य - 5

औरंगाबाद जिले के मदनपुर प्रखंड में कभी उग्रवादियों के भय से घरों में छिपी रहने वाली महिलाओं ने खुद का बैंक संचालित करके बड़े पैमाने पर चल रहे सूदखोरी के धंधे पर हमला बोल दिया है. इन महिलाओं ने केन्द्र प्रायोजित स्वयं सहायता समूहों के फेडरेशन के माध्यम से यह कारनामा कर दिखाया है. ये निरक्षर ग्रामीण महिलाएं खुद का बैंक संचालित कर न केवल निर्धन महिलाओं की जरुरतें पूरी कर रही है बल्कि इससे उनकी आर्थिक स्थिति भी काफी हद तक सुधर रही है. महिलाओं के बैंक के संचालन से मदनपुर प्रखंड की लगभग तीन हजार महिलाओं को सूदखोरों से छुटकारा मिला है और अब यह महिलाएं घरेलू सामान, साड़ी आदि खरीदने के अलावा अपनी बेटियों के हाथ पीले करने के लिए भी इन बैंकों से सहायता ले रही है. मदनपुर प्रखंड के लगभग सौ से अधिक गांवों में चल रहे समूहों में महिलाएं एकत्र होकर एक कोष का गठन करती हैं और 12 से 20महिलाओं की एक समिति बनाई जाती है. समिति की प्रत्येक महिला स्वेच्छा से 10 से 15 रुपए जमा करती हैं और कठिन परिस्थतियों में संस्था की महिलाओं को न्यूनतम सूद पर ऋण प्रदान करती है. उग्रवाद प्रभावित मदनपुर प्रखंड के सहियार, सहजपुर, कानीडीह,गुरमीडीह, कोइलवा, बेलवा, आजाद बिगहा, बादम, छालीडोहर, नीमा आंजन, दलेरबिगहा, बढ़ईबिगहा,ईटकोहिया, रुनियां, गांधीनगर, नीमा,सलपुरा, दधपी, ताराडीह, उमगा,भेलीबांध ऐसे कई अन्य गांवों की सैकड़ों महिलाएं हैं जो समूह से जुडक़र अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने में लगी है.

दृश्य - 6

बिहार के पूर्णिया जिले का एक गांव ऐसा भी है, जहां लड़कियों के जन्म पर खुशियां मनाई जाती हैं और दहेज लेना और देना अभिशाप समझा जाता है. पूर्णिया जिला मुख्यालय से पांच किलोमीटर दूर बर्माटोला एक ऐसा गांव है, जहां दहेज लेना और देना गांव के लिए अभिशाप माना जाता है. अगर कोई व्यक्ति दहेज लेता या देता है तो उसके खिलाफ सामाजिक बहिष्कार से लेकर आर्थिक दंड तक की सजा सुनाई जाती है. इस गांव में यह चलन पांच-छह दशक पूर्व से ही प्रारंभ हुआ जो अब तक बदस्तूर जारी है. इस गांव का असर अब आसपास के गांवों में भी देखने को मिल रहा है. ग्रामीण बताते हैं कि पूर्व में यहां के लोग भी बेटियों की शादी में दहेज देते थे, परंतु ग्रामीणों ने सामूहिक निर्णय करते हुए दहेज लेने और देने पर प्रतिबंध लगा दिया.

दृश्य - 7

बेगूसराय जिले के बछवारा थाना क्षेत्र में बन रहे एक शिव मंदिर के निर्माण के लिए न केवल मुसलमानों ने अपनी जमीन दान में दी, बल्कि इस मंदिर के निर्माण में और भी मदद देने का निर्णय कर सांप्रदायिक एकता की मिसाल पेश की है. तेघरा के अनुमंडल पुलिस अधिकारी अमृतेन्दु शेखर ठाकुर का कहना है कि मुस्लिम संप्रदाय के लोगों ने मंदिर के लिए न केवल अपनी जमीन दान दी,बल्कि यह आश्वासन भी दिया है कि इस मंदिर को बनवाने में उनसे जो भी मदद बन पड़ेगी, वे करेंगे.

दृश्य - 8

इसी तरह राजधानी पटना के फुलवारी शरीफ इलाके के रहने वाले युवक अमित कुमार खुद पोलियो से ग्रस्त हैं लेकिन वह नहीं चाहते कि और बच्चे भी इस रोग से ग्रसित हों. इसलिए वह पोलियो उन्मूलन अभियान से जुड़ गए. अमित का कहना है कि वह जिन समस्याओं से जुझता है उसके दर्द को वह बेहतर तरीके से समझता है और वह नहीं चाहता कि उसकी तरह लोग किसी अन्य बच्चे को अपाहिज कहे. वह कहता है कि वह निम्न मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखता है उसके पास इतनी सामर्थ नहीं है कि वह कोई बड़ा काम कर सके लेकिन छोटे स्तर पर ही सही जितना हो सकता है वह उसमें जी जान से जुटा है.

राज्य में बगैर प्रत्यक्ष सरकारी सहायता के हो रहे सामाजिक बदलाव और विकास दर के इन आंकड़ों ने बिहार की सरकार व यहां के मेहनती लोगों का मनोबल बढ़ाया है. सेंट्रल स्टेटस्टिकल आर्गेनाईजेशन यानी सीएसओ के इन्हीं आंकड़ों को आधार मान कर केंद्र सरकार की योजनाएं बनती हैं. यह भी याद रखने की बात है कि सीएसओ एक पेशेवर ढंग से काम करने वाला संगठन है. इस संगठन ने बिहार की मौजूदा विकास दर11.03 प्रतिशत बताई है जबकि पहले स्थान पर गुजरात है और इसने विकास दर 11.05 हासिल की है. इस संबंध में लेखक व समाजशास्त्री प्रसन्न कुमार चौधरी कहते हैं कि जो समाजिक बदलाव दिख रहा है वह कोई एक दिन का प्रयास नहीं है, लंबे समय से इस प्रकार की प्रक्रिया चलती रही है और अब यह सामने दिख रहा है. यदि प्रत्यक्ष तौर पर सरकार मदद करे तो इसमें गुणात्मक बदलाव आएगा. उन्होंने कहा, - कल्पना कीजिए कि बिहार को उतनी ही बिजली उपलब्ध होती जितनी गुजरात को मिलती है तो बिहार की विकास दर कहां तक पहुंच चुकी होती. ध्यान रहे कि बिहार ने यह कमाल महज हजार मेगावाट बिजली की उपलब्धता के बल परदिखाया है. अधिक योगदान तो खेती की उपज का है जिसका अधिकांश अब भी वर्षा पर निर्भर है. सरकारी तंत्र में भारी भ्रष्टाचार है. प्रशासन में हर स्तर पर अनेक छोटे बडे पद खाली हैं. काहिली की अभ्यस्त ब्यूरोक्रेसी से अधिक काम लेना भी कठिन है. दरअसल नई परिस्थितियों के साथ खुद को एडजस्ट करने में हमें समय लग रहा है. राज्य ने उल्लेखनीय विकास दर हासिल कर व सामाजिक परिवर्तन की राह में अग्रसर हो कर अपनी क्षमता दिखा दी है. यदि केंद्र सरकार नए बिजली उत्पादन केंद्रों की स्थापना में बिहार को मदद करे और बिहार विशेष अदालत विधेयक 2009 पर राष्ट्रपति की मंजूरी दिलवा दे तो बिहार के एक बार फिर गौरवशाली राज्य बना देने में सुविधा हो जाएगी.


मिसरी से भी मीठी होती है अपनी भाषा

भोजपुरी गायन में पुरबी को प्रधानता दिलाने वाले गायक भरत शर्मा नवागंतुक भोजपुरी गायकों के लिए प्रेरणा बन गए हैं. भोजपुरी गानों में अश्लीलता व फूहड़पन को खत्म करने के लिए उन्होंने अभियान चला रखा है. भोजपुरी भाषा-संस्कृति और गीतों के संबंध में हमने उनसे की गई बातचीत.

भोजपुरी गायन के क्षेत्र में आपने आज जो मुकाम हासिल किया है, उसके लिए आप किन कारकों को महत्वपूर्ण मानते हैं?

दरअसल, हमारा करियर कभी गायक के रूप में होगा. इसकी कल्पना मैने कभी नहीं की थी. हां हमारे पिता राजेश्वर शर्मा गायक थे. इसलिए गाने-बजाने का माहौल हमें विरासत में मिला. मैंने गांव-देहात में शौकिया रामायण गाना शुरू कर दिया और बस इस सफऱ पर निकला तो अब तक बढ़ रहा हूं.

आपने गायन के लिए भोजपुरी भाषा का ही चयन क्यों किया?

देखिए, मैं ठेठ गांव देहात का रहने वाला हूं, बिहार के भोजपुरी बहुल क्षेत्र से, हमारी बोली, भाषा, उठना-बैठना, हंसना-रोना सब कुछ भोजपुरी ही है. मां की गोद से गांव जवार तक भोजपुरी से ही हमारा वास्ता रहा. वैसे भी मैं बहुत कम पढ़ा लिखा हूं. अपनी भाषा की मिठास मिसरी से भी अधिक मीठी लगती है मुझे.

अब भोजपुरी गांव-घर की भाषा की सीमा लांघ कर बाजार की भाषा के रूप में स्थापित हो गई है. इसमें भोजपुरी गीतों व फिल्मों का कितना योगदान है?

कहा जाता है कि संगीत की अपनी कोई भाषा नहीं होती, सुर, ताल और लयात्मकता उसे सहज संप्रेषणीय बना देते हैं. यही चीज भोजपुरी गीतों के साथ हुआ. इस भाषा और इसके संगीत के माधुर्य ने अपनी जगह बना ली. वैसे लोग भी भोजपुरी गीतों को गुनुनाते मिल जाते हैं, जिन्हें भोजपुरी नहीं आती. यहीं हाल फिल्मों के साथ भी हुआ, लेकिन इसकी गति धीमी थी. जैसे जैसे तकनीक विकसित हुआ, टीवी चैनल आए, आडियो-वीडियो का जमाना आया इस भाषा और संगीत की विकास यात्रा उत्तरोतर बढ़ती गई.

आप भोजपुरी संगीत में अश्लीलता और द्विअर्थी गीतों के विरोधी रहे हैं, अच्छे खासे तादाद में लोग आपके इस मुहिम में साथ हैं. लेकिन यह समस्या जस की तस बरकरार है, क्या इससे भोजपुरी संगीत, समाज और संस्कृति पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता...

बिल्कूल पड़ता है. लेकिन इस समस्या से निजात के लिए मुट्ठी भर लोग काफी नहीं है. पूरे भोजपुरी समुदाय को इसके बारे में जागरुक होना होगा. लोगों को अश्लीलता और द्विअर्थी गीतों को नकारना होगा, जो सस्ती लोकप्रियता के लिए एक समृद्ध भाषा-संस्कृति की गरीमा के साथ खिलवाड़ करते हैं.

आखिर भोजपुरी में अश्लील गीतों का प्रचन बढ़ा कैसे?

भोजपुरी सिर्फ एक भाषा नहीं है, इसकी अपनी संस्कृति, संस्कार और सभ्यता है, भोजपुरी के लोकगायन में विरह-वेदना, पुरबी, सोहर, झुमर, निर्गुन जैसे राग है. इन रागों के आधार पर गीतों को श्रृंगार रस में परोसने की प्रक्रिया में कुछ लोग अतिवाद के शिकार हो गए. 80 के दशक के मध्य से हमारे एक समकक्ष गायक ने अश्लील और द्विअर्थी गीत गाना आरंभ किया और आज इसने संक्रमण का रूप ले लिया है. शुरुआत में लोग मजे लेकर सुनते थे लेकिन इस तरह के गीत-संगीत कालजयी नहीं होते. अब लोग नकारने लगे हैं.

इसके बावजूद.....

हां, हां, आगे की बात बता रहा हूं. आज पंद्रह से 20 साल के लड़के गीत लिख रहे हैं. उन्हें अभी जीवन के वसंत और पतझड़ का कोई अनुभव नहीं है. बस युवा उम्र के उच्छवास से प्रेरित हो कर वे अश्लीलता की ओर बढ़ जाते हैं. उनमें परिपक्वता की कमी है.

महेंद्र मिश्र और भिखारी ठाकुर जैसे भोजपुरी के पुरोधाओं ने भोजपुरी साहित्य संगीत को काफी समृद्ध किया, लेकिन उनकी परपंरा को कोई आगे नहीं बढ़ा सका.

इससे भला कोई कैसे इनकार कर सकता है. जहां तक रही उनकी परंपरा को आगे बढ़ाने की बात, तो ऐसा नहीं है कि उस दिशा में काम नहीं हुआ, लेकिन उस समय में तकनीक का विकास उतना नहीं हुआ था, इसलिए बहुत सारी चीजे सामने नहीं आ सकी.

आपने गायन का प्रशिक्षण कहां से लिया? पहले तो आप सिर्फ रामायण गाया करते थे फिर लोकगायन के क्षेत्र में कैसे बढ़े?

विधिवत रूप से मैने गायन का कोई प्रशिक्षण नहीं लिया लेकिन हमारे गुरु जगदिश सिंह ने बहुत गुर सीखाए है. रामायण में भी दो गुटों के बीच गायन का दंगल होता था और उसमें रामायण के साथ अश्लील गानों की भी भरमार होती थी. यदि उसमें टिकना है तो उस माहौल के साथ तारतम्य बैठाना होगा, जो मुझे कबूल नहीं था. इसलिए मैं लोकगायन के क्षेत्र में बढ़ा.

आपकी पहली आडियो कैसेट कब बाजार में आई?

1989 में,

आप अपने शुरुआती दिनों के संघर्ष के बारे बताए.

वर्ष 1971 से हमने गायकी की शुरआत की. हम अपने गांव नगपुरा से कोलकाता गए और रामायण गाने लगे. वहीं हिन्दुस्तान मोटर्समें नौकरी भी लगी. जिन्दगी अपनी रौ में चलने लगी. लेकिन मेरा उद्देश्य कुछ अलग था. उस जमाने में कोलकाता सांस्कृतिक कर्मियों के लिए एक बेहतर मंच था. हमने सोचा कि वहां लोगों की संगत में हम भी कुछ सीख लेंगे. 1976 में हम धनबाद आ गये. तब तक रामायण की गायकी में हमने खासी शोहरत हासिल कर ली थी. हमारे समकक्ष उस समय शारदा सिन्हा और बालेश्वर थे. लेकिन उस समय तक हमारी कोई कैसेट बाजार में नहीं आई थी. मेरी पहली कैसेट आर-सिरीज से आई. पहला कैसेट दाग कहाँ से पडी”, था. इसके अलावा और एक कैसेट था. दोनों के लिए मुझे बतौर पारिश्रमिक 1000 रुपये मिले थे. वे दिन मेरे लिए संघर्ष के थे. टी-सिरीज से पहली बार 1989 में राजा, पिय जन गांजा”, “अइले मोर सजनवा”, और राम जानेतीन कैसेट आए. और इसी तरह जिन्दगी का सफर धूप-छाव के बीच गुजरता रहा.

आपने गायन के अलावा फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम बढ़ाए हैं, इसका कारण?

देखिए, मेरे उद्देश्य रहा है कि मैं भोजपुरी संस्कृति को आगे ले जाने के लिए अपने स्तर पर जिनता कर सकता हूं करु. तकनीक विकसित होता गया तो इसके लिए माध्यम सुलभ हुए और मैं इसका फायदा उठाना चाहता था. जो बाते संगीत के माध्यम से उतने बेहतर तरीके से संप्रेषित नहीं कि जा सकती थी उसे फिल्म के माध्यम से संप्रेषित करने की कोशिश की.

क्या भोजपुरी गीतों में अश्लीलता और फूहड़पन यूं ही बरकरार रहेगा?

नहीं, बिल्कूल नहीं, अब इसके दिन लदने वाले है. भोजपुरियां संगीत प्रेमी अब इसे नकार रहे हैं. उन्हें स्वस्थ व स्वच्छ चीजे चाहिए. आप देख सकते हैं कि जो लोग इस तरह के गाने ले कर आए, साल दो साल के बाद बाजार से बाहर हो गये. यह बताता है कि यदि टिके रहना है तो अश्लीलता और फूहड़पन का दामन छोड़ना होगा.

भोजपुरी प्रदेश की मांग लंबे समय से की जा रही है, हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने पूर्वांचल के गठन का प्रस्ताव रखा था. इसे आप किस रूप में देखते हैं?

भोजपुरी की अपनी समृद्ध परंपरा, संस्कृति-सभ्यता रही है. भोजपुरी प्रदेश का अवश्य गठन होना चाहिए, इसे नाम चाहे जो दिया जाए. बिहार के बक्सर से लेकर उत्तर प्रदेश के फैजाबाद तक भोजपुरी बोली जाती है. इस भाषा के साथ करोड़ों लोगों की भावनाएं जुड़ी हुई लेकिन अब देखा जा रहा है राजनेता अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए इनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हैं. ऐसा नहीं होना चाहिए. यदि मायावती सही मायने में इस ओर सकारात्मक कदम उठाती है तो स्वागत योग्य है. हम उनका समर्थन करते हैं.

भोजपुरी में कई टीवी चैनल आ गए, पत्रिका प्रकाशित हो रही है, फिल्मों और गानों का विस्तृत बाजार मौजूद है. इसके बावजूद इस भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में अब तक शामिल नहीं किया गया. इसके बारे में आपकी क्या राय है?

निश्चित रूप से भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करना चाहिए. इसके लिए कई संगठन काम कर रहे हैं, लेकिन इस क्षेत्र के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की रवैया उपेक्षापूर्ण है. हमलोग अखिल विश्व भोजपुरी समाज मंच के बैनर तले इसके लिए प्रयास कर रहे हैं. इस संगठन का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते मैं चाहता हूं कि ब्लॉक स्तर पर इसकी सब कमेटी बनाई जाए और लोगों में अपनी भाषा के प्रति जागरुकता ला कर इस भाषा आंदोलन को सशक्त बनाया जाए.

आप भोजपुरी के आईकान बन गए हैं. ऐसी स्थिति में आपके सार्वजनिक और निजी जीवन में क्या अंतर है.

अब हम लोगों का कुछ भी निजी नहीं है, जो है सो सब सार्वजनिक ही है.

आप अपने परिवार के विषय में कुछ बताना चाहेंगे?

परिवार के विषय में बताने लायक वैसा कुछ नहीं है.

(यह साक्षात्कार श्रीराजेश ने द संडे इंडियन पत्रिका के भोजपुरी संस्करण के लिए लिया था)

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

नक्सली, सेना और सरकार


श्रीराजेश
हालमें नक्सलियों द्वारा दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ पर किए गए जघन्य हमले के बाद नक्सलवाद और उससे निपटने के मुद्दों पर फिर बहसें तेज हो गई हैं. इनमें नक्सलियों से निपटने के लिए सेना का इस्तेमाल किये जाने की जरुरत पर भी एक तबका बल दे रहा है. वहीं दूसरी ओर जाने अनजाने में सरकार व नक्सलवाद के बारे में नरम रुख रखने वाले उसे आदिवासियों का नुमाइंदा घोषित कर चुके हैं और यहीं दो कारण आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती व नक्सलियों की रणनीति के लिए वरदान साबित हो रही है.
दरअसल, सेना का काम देश के दुश्मनों खास कर विदेशी ताकतों से देश की सीमाओं की रक्षा का है. उनके बल का प्रयोग अपनों पर न कि बाहरियों पर किया जाता है और यही उसका औचित्य भी है. बावजूद इसके देश के भीतर भी कई ऐसे मामले हुए जिनमें बाध्य हो कर सेना की मदद लेनी पड़ी है. सेना को अपने ही लोगों पर बल प्रयोग करना पड़ा. गुजरात में गोधरा दंगा, कोलकाता में सांप्रदायिक तनाव, दार्जिलिंग में अलगाववादियों के खिलाफ व असम के जोरहाट, धुबड़ी सहित चार जिलों में उल्फा अन्य उग्रवादी संगठनों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल किया गया. अब सवाल उठता है कि क्या नक्सलियों के खिलाफ भी सेना का इस्तेमाल किया जाएगा? अगर सेना का इस्तेमाल किया जाता है तो यह कितना जायज होगा? देश की सीमाओं के भीतर सेना का इस्तेमाल कमजोर लोकतांत्रिक ढांचा और प्रशासनिक व्यवस्था का द्योतक होता है. क्या भारत का लोकतंत्र भी शनैः शनैः कमजोर पड़ता जा रहा है कि सेना की मदद एक भविष्य का महाशक्ति होने का दावा करने वाला देश लेने पर विचार कर रहा है? क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि नक्सली अपने मंसूबे में कामयाबी की दिशा में बढ़ रहे हैं और सत्ता तंत्र नख शिख विहिन होते जा रहा है? यह विचारणीय है.
अब दूसरे मुद्दे पर बात करने के पहले इस बात पर गौर करने की जरुरत है कि नक्सली स्वयं को वंचितों के रखवाले के रूप में पेश करते रहे हैं और यहीं उनकी गहरी पैठ का राज भी है. बिहार में वर्ग संघर्ष से पनपे नक्सली आंदोलन सरकारी तंत्र की विफलताओं के परिप्रेक्ष्य में जाति गत संघर्ष में बदल गया. इसमें काफी हद तक निजी सेनाओं की भूमिका भी है. सवर्णों द्वारा ब्रह्मर्षी सेना व रणवीर सेना की खिलाफत में नक्सलियों का लाल सेना अस्तित्व में आया. सरकारी तंत्र की विफलता और नक्सलियों का उद्देश्य से भटकाव ने एक नई तरह के खूनी संघर्ष को जन्म दिया. इसी के नतीजे के रूप में बिहार के जहानाबाद में नक्सलियों ने 35 भूमिहारों की हत्या की थी. उसी दौरान बिहार के कई जिलों में नक्सलवाद ने बड़ी तेजी से पैर फैलाये.
इसी तरह जंगल वाले इलाकों में जब नक्सलियों ने अपना वर्चस्व स्थापित करना शुरू किया तो उन लोगों ने सबसे पहले आदिवासियों को विश्वास में लिया कि वे उनके रक्षक होंगे. उन्होंने जल, जंगल और जमीन की रक्षा के नाम लड़ाई का सूत्रपात किया. सरकार ने भी उनके इस प्रोपगैंडा को जाने-अनजाने प्रचारित किया. इन सबके बावजूद यहां यह विचार करना जरूरी हो गया कि क्या वास्तव में नक्सलियों द्वारा किये जा रहे कृत्य इन वंचितों और आदिवासियों के हित के लिए है. यदि ऐसा है तो क्यों जंगलों और पिछड़े इलाके के लगभग ढाई लाख बच्चे स्कूल का मुंह नहीं देख पा रहे हैं. वजह साफ है कि इन नक्सलियों ने जब से स्कूलों को निशाना बनाना शुरू किया लोग डर के मारे अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतराने लगे हैं. इसी तरह क्या सिर्फ सड़कों के विकास, बिजली के तारों के लटकाने और नलकूप लगा देने से किसी क्षेत्र का विकास हो जाता है. यदि इन बुनियादी ढांचों का विकास कर दिया जाये तो भी वहां यदि उद्योग या कृषि को बढ़ावा नहीं दिया जाये या फिर नये उद्योग स्थापित न की जाए तो इन विकास का कोई मतलब नहीं. जंगलों में नक्सलियों का वर्चस्व बरकार रहे इसलिए वे इन क्षेत्रों का विकास नहीं होने देते. विकास संबंधी कार्यों में रोड़े अटकाते हैं. दूसरी सरकार की ब्यूक्रेसी के भ्रष्ट्र होने का भी इन्हें भरपूर फायदा मिलता है. कभी सेज के विरोध के नाम पर तो कभी कुछ दूसरे मुद्दों पर नक्सली भोले-भाले ग्रामीणों को बरगला कर अपना स्वार्थ साध रहे हैं. यह इसी बात से प्रमाणित होता है कि जंगलों में नक्सलियों द्वारा प्रतिबंधित अफीम की खेती इन ग्रामीणों से करा उससे मोटी कमाई करते हैं और उसी धन से जो हथियार खरीदते है उसे उनके खिलाफ ही इस्तेमाल करते हैं. कुल मिला कर सरकारी उदासीनता, नक्सलवाद के खिलाफ एकजुटता की कमी और कम विकसित रणनीति ने देश की आंतरिक सुरक्षा को चरमरा दिया है. अब इससे उबरने के लिए टोस कदम उठाये जाने की जरुरत है और यह कदम सिर्फ और सिर्फ सरकार को ही उठाना होगा.

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

क्या है नक्सलियों का उद्देश्य?


श्रीराजेश
क्या भारतीय नक्सलवाद नेपाली माओवादियों की राह पर चल रहा है? अब यह प्रश्न उठने लगा है. पिछले दो वर्षों के दौरान नक्सलियों ने जिस कदर हिंसा का तांडव मचाया है, उससे यह बात उभर कर सामने आने लगी है. लंबे अर्से से यह कहा जाता है कि आजादी के बाद से ही देश के जंगली इलाकों और आदिवासी बहुल क्षेत्रों की घोर उपेक्षा की गई और यहां के विकास पर ध्यान नहीं दिया गया. जिसकी वजह से यहां के लोगों में असंतोष घर कर गया और ये अपने हक के लिए माओवाद की राह पकड़ बंदूक थाम लिए. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन मामला इतना साफ भी नहीं लगता. अब नक्सली आंदोलन को शुरू करने वाले कई नक्सली नेताओं की ओर से भी बयान आने लगे हैं कि जब यह आंदोलन शुरू हुआ था तो इसके मूल में था कि भले ही नक्सली अपने हक के लिए हथियार का इस्तेमाल करेंगे लेकिन इनके हथियार बेकसूरों के खून से नहीं रंगेंगे. लेकिन हो इसके उल्टा रहा है. दंतेवाड़ा कांड अब तक नकसलियों द्वारा अंजाम दी गई सबसे बड़ी घटना है लेकिन इसकी परिणति क्या होगी. नक्सली आंदोलन और नक्सलवाद के जानकारों का कहना है कि भारतीय नक्सली वर्ष 2050 तक भारत की सत्ता पर कब्जा जमाने के उद्देश्य को लेकर चल रहे हैं. इसी उद्देश्य के तहत देश के 17 राज्यों के 220 जिलों में अपनी पैठ बना चुके हैं. यदि नेपाल के माओवादियों के इतिहास पर नजर डाले तो बात और साफ हो जाती है. नेपाल में किस तरह लाल दस्ते ने सत्ता पर अपनी पकड़ कायम की यह किसी से छिपा नहीं है. लगभग उसी रास्ते पर भारतीय नक्सली भी अग्रसर हैं. अब सवाल उठता है कि क्या भारत सरकार को नक्सलियों के इस मंसूबे के बार में पता है या नहीं. यदि पता है कि सरकारी तंत्र कर क्या रहा है और यदि नहीं है, तो सरकारी खुफिया एजेंसियों का काम क्या है? पिछले दिनों पश्चिम बंगाल के लालगढ़ जाकर गृहमंत्री पी. चिंदंबरम में नक्सलियों को कायर करार देते हुए उन्हें बातचीत करने का न्यौता दिया. फिर कहा कि दो-तीन वर्षों के भीतर सरकार देश से नक्सलियों का नामोनिशां मिटा देगी. इस परस्पर विरोधाभासी बयानों का निहितार्थ क्या है? हालांकि ठीक उसी दिन नक्सलियों ने उड़ीसा में लैंडमाइन विस्फोट कर 10 लोगों की जान ले ली. उसके बाद दंतेवाड़ा में इतनी बड़ी घटना को अंजाम दिया.
जिस देश में अर्द्ध सैन्य बल सरकार से नक्सलवादियों पर हमला करने की इजाज़त मांगे, तब तक उस पर हमला हो जाएं, और वे अपनी जान गंवा दें, तो स्थिति की भयावहता का अनुमान लगाया जा सकता है. यह भी विचारणीय है कि क्यों ऐसी स्थिति आई कि देश के वंचित तबकों ने जगह-जगह हथियार उठा लिए और हमारी पुलिस, अर्द्ध सैन्य बल उनका मुक़ाबला नहीं कर पा रहे हैं? हम पाक पर आरोप लगाते है कि वह कश्मीर व देश के विभिन्न हिस्सों में आंतकवाद को शह दे रहा है इसलिए भारत में आतंकी वारदातों की संख्या बढ़ी है लेकिन आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार में क्या हो रहा है? सारे उत्तर-पूर्वी राज्य, असम सहित उग्रवादियों के क़ब्ज़े में हैं. इन प्रदेशों के बहुत से क्षेत्रों में शाम होते ही लोग बाहर निकलना बंद कर देते हैं. इन क्षेत्रों को नक्सलवादी प्रभाव वाले क्षेत्र कहा जाता है, ये कौन लोग हैं जिन्होंने सरकार के ख़िला़फ हथियार उठा लिए हैं, जो जीने से ज़्यादा मरने में यक़ीन करते हैं. शिक्षा पाए अच्छे परिवारों के लड़के-लड़कियां, बड़े प्रतिष्ठित स्कूलों की पैदाइश एक अच्छी ख़ासी संख्या में गांवों में नक्सलवादियों के साथ घूम रही है और कह रही है कि व्यवस्था बदलो. व्यवस्था बदलो का मतलब सरकार क्यों नहीं समझ रही है? हमारे गृह मंत्री नक्सलवाद को हथियारों से कुचलना चाहते हैं, वे कुचल सकते हैं, कम से कम कोशिश कर सकते हैं. आज तक का अनुभव बतलाता है कि ऐसी कोशिशें जब भी हुई हैं, निर्दोषों का ख़ून ज़्यादा बहा है. एक मरता है, चार खड़े हो जाते हैं. हमारे प्रधानमंत्री नक्सलवाद को सबसे बड़ा ख़तरा बताते हैं, पर अर्थशास्त्र के ज्ञाता यह भूल जाते हैं कि इसके कारण भी तो उन्हें बताने हैं. वे बता नहीं पाएंगे, क्योंकि दरअसल जिस अर्थशास्त्र के वे ज्ञाता हैं, वही अर्थशास्त्र इस समस्या की जड़ है.
खैर सरकार को योजना आयोग द्वारा 2008 में जारी की गई उस रिपोर्ट पर गंभीरता से पहल करनी होगी जिसमें यह कहा गया है कि नक्सलवाद पर काबू पाने के लिए सरकार दो दिशाओं से एक साथ काम शुरू करने होंगे. एक तो उन इलाकों के विकास के लिए सिद्दत से काम करना होगा वहीं खुफिया तंत्र को और मजबूत बना कर नक्सलियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी होगी. इन दोनों कार्यों के समानांतर लोगों में जागरुकता लाने और उनके नागरिक अधिकारों की बहाली की दिशा में सार्थक प्रयास करनी होगी. दरअसल, सरकारी योजनाएं असफल, सरकार का विकास अधूरा, ग़रीब को अर्थव्यवस्था में हिस्सा ही नहीं देना, यही अर्थशास्त्र लोगों को बांटता है. यह ज़मीन है जो नक्सलवाद को पैदा करती है. कृपया इसे सरकार खत्म करे, नक्सलवाद भी स्वतः खत्म हो जाएगा.