
श्रीराजेश
हालमें नक्सलियों द्वारा दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ पर किए गए जघन्य हमले के बाद नक्सलवाद और उससे निपटने के मुद्दों पर फिर बहसें तेज हो गई हैं. इनमें नक्सलियों से निपटने के लिए सेना का इस्तेमाल किये जाने की जरुरत पर भी एक तबका बल दे रहा है. वहीं दूसरी ओर जाने अनजाने में सरकार व नक्सलवाद के बारे में नरम रुख रखने वाले उसे आदिवासियों का नुमाइंदा घोषित कर चुके हैं और यहीं दो कारण आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती व नक्सलियों की रणनीति के लिए वरदान साबित हो रही है.
दरअसल, सेना का काम देश के दुश्मनों खास कर विदेशी ताकतों से देश की सीमाओं की रक्षा का है. उनके बल का प्रयोग अपनों पर न कि बाहरियों पर किया जाता है और यही उसका औचित्य भी है. बावजूद इसके देश के भीतर भी कई ऐसे मामले हुए जिनमें बाध्य हो कर सेना की मदद लेनी पड़ी है. सेना को अपने ही लोगों पर बल प्रयोग करना पड़ा. गुजरात में गोधरा दंगा, कोलकाता में सांप्रदायिक तनाव, दार्जिलिंग में अलगाववादियों के खिलाफ व असम के जोरहाट, धुबड़ी सहित चार जिलों में उल्फा अन्य उग्रवादी संगठनों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल किया गया. अब सवाल उठता है कि क्या नक्सलियों के खिलाफ भी सेना का इस्तेमाल किया जाएगा? अगर सेना का इस्तेमाल किया जाता है तो यह कितना जायज होगा? देश की सीमाओं के भीतर सेना का इस्तेमाल कमजोर लोकतांत्रिक ढांचा और प्रशासनिक व्यवस्था का द्योतक होता है. क्या भारत का लोकतंत्र भी शनैः शनैः कमजोर पड़ता जा रहा है कि सेना की मदद एक भविष्य का महाशक्ति होने का दावा करने वाला देश लेने पर विचार कर रहा है? क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि नक्सली अपने मंसूबे में कामयाबी की दिशा में बढ़ रहे हैं और सत्ता तंत्र नख शिख विहिन होते जा रहा है? यह विचारणीय है.
अब दूसरे मुद्दे पर बात करने के पहले इस बात पर गौर करने की जरुरत है कि नक्सली स्वयं को वंचितों के रखवाले के रूप में पेश करते रहे हैं और यहीं उनकी गहरी पैठ का राज भी है. बिहार में वर्ग संघर्ष से पनपे नक्सली आंदोलन सरकारी तंत्र की विफलताओं के परिप्रेक्ष्य में जाति गत संघर्ष में बदल गया. इसमें काफी हद तक निजी सेनाओं की भूमिका भी है. सवर्णों द्वारा ब्रह्मर्षी सेना व रणवीर सेना की खिलाफत में नक्सलियों का लाल सेना अस्तित्व में आया. सरकारी तंत्र की विफलता और नक्सलियों का उद्देश्य से भटकाव ने एक नई तरह के खूनी संघर्ष को जन्म दिया. इसी के नतीजे के रूप में बिहार के जहानाबाद में नक्सलियों ने 35 भूमिहारों की हत्या की थी. उसी दौरान बिहार के कई जिलों में नक्सलवाद ने बड़ी तेजी से पैर फैलाये.
इसी तरह जंगल वाले इलाकों में जब नक्सलियों ने अपना वर्चस्व स्थापित करना शुरू किया तो उन लोगों ने सबसे पहले आदिवासियों को विश्वास में लिया कि वे उनके रक्षक होंगे. उन्होंने जल, जंगल और जमीन की रक्षा के नाम लड़ाई का सूत्रपात किया. सरकार ने भी उनके इस प्रोपगैंडा को जाने-अनजाने प्रचारित किया. इन सबके बावजूद यहां यह विचार करना जरूरी हो गया कि क्या वास्तव में नक्सलियों द्वारा किये जा रहे कृत्य इन वंचितों और आदिवासियों के हित के लिए है. यदि ऐसा है तो क्यों जंगलों और पिछड़े इलाके के लगभग ढाई लाख बच्चे स्कूल का मुंह नहीं देख पा रहे हैं. वजह साफ है कि इन नक्सलियों ने जब से स्कूलों को निशाना बनाना शुरू किया लोग डर के मारे अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतराने लगे हैं. इसी तरह क्या सिर्फ सड़कों के विकास, बिजली के तारों के लटकाने और नलकूप लगा देने से किसी क्षेत्र का विकास हो जाता है. यदि इन बुनियादी ढांचों का विकास कर दिया जाये तो भी वहां यदि उद्योग या कृषि को बढ़ावा नहीं दिया जाये या फिर नये उद्योग स्थापित न की जाए तो इन विकास का कोई मतलब नहीं. जंगलों में नक्सलियों का वर्चस्व बरकार रहे इसलिए वे इन क्षेत्रों का विकास नहीं होने देते. विकास संबंधी कार्यों में रोड़े अटकाते हैं. दूसरी सरकार की ब्यूक्रेसी के भ्रष्ट्र होने का भी इन्हें भरपूर फायदा मिलता है. कभी सेज के विरोध के नाम पर तो कभी कुछ दूसरे मुद्दों पर नक्सली भोले-भाले ग्रामीणों को बरगला कर अपना स्वार्थ साध रहे हैं. यह इसी बात से प्रमाणित होता है कि जंगलों में नक्सलियों द्वारा प्रतिबंधित अफीम की खेती इन ग्रामीणों से करा उससे मोटी कमाई करते हैं और उसी धन से जो हथियार खरीदते है उसे उनके खिलाफ ही इस्तेमाल करते हैं. कुल मिला कर सरकारी उदासीनता, नक्सलवाद के खिलाफ एकजुटता की कमी और कम विकसित रणनीति ने देश की आंतरिक सुरक्षा को चरमरा दिया है. अब इससे उबरने के लिए टोस कदम उठाये जाने की जरुरत है और यह कदम सिर्फ और सिर्फ सरकार को ही उठाना होगा.
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