शुक्रवार, 13 मई 2011

आखिर छलछलाए आंखों को मिला सुकून

नंदीग्राम से सटे शुनिया चार के शुभोजीत मंडल अपनी खुशी नहीं छिपा पाये, 10.30 बजे के लगभग उनका फोन आया. कहने लगे- आखिर पाप का घड़ा फूटने लगा है. हमारे गांव में लोग खुश हैं लेकिन इसलिए नहीं कि ममता बनर्जी जीत रही हैं, उनकी पार्टी जीत रही है, बल्कि इसलिए कि वाममोर्चा अब सत्ता से बेदखल हो रही है. उनके आंखों को सकून मिल रहा है, चार सालों बाद. यहीं आंखें चार साल पहले छलछला रही थीं, यहीं आंखें उनसे अपने बेटे, पति और भाई की जान बख्शने के लिए आग्रह कर रही थीं, लेकिन उन आंखों के दर्द को वामपंथी काडरों ने पुलिस प्रशासन के साथ मिल कर जिस तरह और गहरा किया, वह 13 मई 2011 को इस रूप में सामने आ रहा है कि पश्चिम बंगाल से वामपंथ का लालकिला ढह रहा है, अपने सारे साजो-समान के साथ. शुभोजीत की बातों से ऐसा लग रहा था कि वह खुश होने के साथ ही बेचैन भी हैं. सुबह 10.40 बजे तक कांग्रेस- तृणमूल गठबंधन 203 सीटों पर बढ़त बनाये हुए थी वहीं वाममोर्चा 66 सीटों पर आगे थी.
समय कुछ बीता, तृणमूल कांग्रेस जीत गई, सत्ता की चाबी अब उसके कब्जे में थी. दोपहर 10.30 बजे वामपंथ का जो लालकिला ढह रहा था अब, दोपहर 12.10 बजे ढह गया. दो तिहाई बहुमत के साथ तृणमूल कांग्रेस पहली बार सत्ता में आई. 34 साल के वामशासन का अंत हुआ. अगर ममता मुख्यमंत्री बनती हैं तो राज्य को आजादी के बाद पहली बार कोई महिला मुख्यमंत्री के रूप में मिलेगी. ममता ने कहा है कि यह लोकतंत्र की जीत है. वाकई, वैसा राज्य जहां सुनियोजित तरीके से लोकतांत्रिक मूल्यों को खत्म करने की कोशिशे पिछले कई वर्षों से हो रही थी. उन कोशिशों का खात्मा हुआ. एक इतिहास बना, भविष्य के प्रति अनगिनत सपनों के साथ. भलेहीं इससे माकपा सांसद सलीम सहमत न हो और लालकिला के ढहने के संदर्भ को रुस के कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ व्याख्या कर रहे हो. लेकिन सच – सच के रूप में सामने था हालांकि अवशेष बरकार थे, पुनः किला बनने की उम्मीद के साथ.
अब देखना होगा जिस ममता बनर्जी ने अकेले दम पर वाममोर्चा जैसी सांगठनिक रूप से सशक्त दल को दहाई के आंकड़े पर समेट दिया. उनका कार्यकाल बंगाल को किस दिशा में ले जा रहा है. हालांकि अभी कुछ भी कहना न केवल जल्दबाजी होगी बल्कि अन्याय भी होगा. लेकिन राजनीतिक विश्लेषक यह कहने से नहीं हिचकते कि तृणमूल कांग्रेस वन मैन आर्मी है. ममता के अलावा पार्टी में कोई और नाम ऐसा नहीं है जो कि राज्य की राजनीति में खासी दखल रखता हो. एक जुमला बंगाल में बहुत पहले से प्रसिद्ध है - वाममोर्चा गलत काम भी सिस्टमेटिक ढंग से करता है, जब कि तृणमूल कांग्रेस या फिर ममता का हर सही काम भी अनसिस्टमेटिक होता है. ऐसे में राज्य की सत्ता भले बदल गई लेकिन राज्य की विकास की रफ्तार अचानक बहुत तेज हो जाएगी. इसकी उम्मीद भी नहीं है. हां, वाममोर्चा के हेठपन को एक धक्के की जरुरत थी और वह पूरा हुआ. उसकी निरंकुश प्रवृति स्याह हुई.
वाममोर्चा के हार के बाद नदिया जिले के चकदह और कृष्णनगर में हरा गुलाल खूब उड़ा और हरे रसगुल्ले से लोगों ने मुंह मीठा किया. बंगाल का लाल रंग अब हरा हो गया. जो टहटह लाल था वह अब गहरा हरा हो गया. स्थिति यह है कि न हारने वाले के मुंह से बोल फूट रहे हैं और न ही जीतने वाला कुछ कह पा रहा है. एक अजीब सी स्तब्धता अंदरखाने में पसरी है. इसकी व्याख्या के कई विंदु है. इस जीत के जश्न के साथ ही लोगों के मन में एक भय भी सताने लगा है कि क्या एक बार फिर शस्य श्यामला क्रांति भूमि बंगाल की धरती खून से लथपथ तो नहीं हो जाएगी? एकबारगी इससे असहमत होना संभव नहीं. राजनीतिक हिंसा के लिए कुख्यात रहे इस राज्य का भविष्य सुखद हो, इसकी कामना हर कोई करता है लेकिन फिर से राजनीतिक हिंसा वह भी बड़े पैमाने पर होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. बंगालवासियों को नई सरकार की मुबारकबाद.