गुरुवार, 13 अगस्त 2009

पत्रकार अलोक मेहता के नाम खुला पत्र

परम आदरणीय पद्मश्री आलोक मेहता जी,
आजकल आपकी चर्चा सरेआम है। सुना है आप राज्यसभा जा रहे हैं, चलिए मैं बहुत खुश हूं। किसी से यह भी सुना है कि कांग्रेस आपकी पार्टी के प्रति निष्ठा से प्रभावित है और यदि किसी कारणवश राज्यसभा न भेज सकी तो किसी राज्य का महामहिम बना देगी। सच बताऊं तो अब आपकी उम्र कलम घिसने के बजाय अब तक से गये कलम की स्याही की कीमत वसूलने की हो गयी है और आप सही दिशा में अग्रसर हैं। बधाई हो।
लेकिन जब कुछ लोग कांग्रेस के प्रति आपकी निष्ठा को ले कर जुगाली करते हैं तो मुझे लगता है कि खुद तो वे कुछ कर नहीं सकते, लगते हैं उपदेश देने। कोई किसी को तभी उपकृत कर सकता है या निष्ठा प्रदर्शित कर सकता है, जबकि उसके पास संसाधन हो। आप कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ता हैं, बगैर किसी संदेह के। आपने कांग्रेस की कई मुद्दों पर थोथी दलीलों को सही साबित कर दिया है – यह आपकी तर्क क्षमता, बुद्धिमत्ता, संसाधन संपन्नता प्रदर्शित करता है। इसे लेकर लोगों के पेट में दर्द क्यों उठने लगता है, यह समझ से परे है।
उस दिन अंरुधती ने अपनी बात रखी और कहा कि पत्रकारिता अपने रास्ते से भटक गयी है और पत्रकार खबरों के बजाय विज्ञापन के लिए दौड़ रहे हैं। मीडिया बाज़ार का अनुसरण करने लगी है। अब अरुंधती जी को कौन समझाये? हालांकि आपने अपने लेखन के जरिये उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की है, अब उन्हें समझ भी जाना चाहिए। अरे बाज़ार है तो अख़बार है, खबरिया चैनल है और आप जैसे संपादक हैं। कोई अंरुधती जी को कैसे समझाये कि कंधे पर झोला लटकाये और पदयात्रा करते किसी विचार गोष्ठी में जाने वाले संपादकों का जमाना नहीं रहा, अगर वह इस वेश में किसी पांचसितारा होटल चले गये तो गेट से चौकीदार गर्दनिया देगा। अब ज़माना काफी आगे बढ़ चुका है। कार ज़रूरी है, मोटी तनख्वाह ज़रूरी है। अख़बार निकालने के लिए विज्ञापन ज़रूरी है और विज्ञापन तो उद्योगपतियों से ही न मिलेगा।
अब छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की ख़बर छाप कर अखबार क्या काला करे, कोई क्रांति तो होने से रही। अलबत्ता वह जगह भी बेकार जाएगी, जहां दो या तीन कालम में ख़बर छपेगी। वहां किसी धन्ना सेठ की खबर छाप दी जाए तो दूसरे दिन वह खुश हो कर कुछ विज्ञापन दे देगा और नहीं तो कांग्रेस की खबर छप जाए तो आपकी राज्यसभा की उम्मीदवारी और पक्की।
अब एक और बात, आजकल स्टार प्लस पर एक रियलिटी शो सच का सामना चल रहा है। इसे लेकर लोग बवाल मचाये हुए हैं। जब उस कार्यक्रम में भाग लेने वाले व्यक्ति को एंकर बार-बार कहता है कि अब आपसे पूछे जाने वाले सवाल नितांत निजी हो सकते हैं, और यदि आप चाहें तो अब तक जो रकम आपने जीती है उसे लेकर वापस जा सकते हैं – इसके बावजूद लोगों को सच का सामना करने का जूनून सवार है, तो इसमें इस रियलिटी शो आर्गेनाइज़ करने वाले निर्माता का क्या दोष। इसी तरह छत्तीसगढ़ में पत्रकारों द्वारा विज्ञापन वसूली की बात पर आपका नाराज़ होना स्वाभाविक है क्योंकि आप सच का सामना करने वालों की तरह थोड़े ही हैं। उनकी और आपसे तुलना कत्तई नहीं। अरे भाई, आपने कहा भी कि हिंदी अख़बार वालों के पास संसाधन पर्याप्त नहीं हैं। ऐसे में किसी पत्रकार को बगैर पारिश्रमिक या थोड़े बहुत पारिश्रमिक दे कर उसकी लेखन क्षमता को बचाये रखने के लिए आप या आपके जैसे दूसरे संपादक (ऐसे संपादकों की कमी नहीं है, इसलिए इसे अन्यथा न लिया जाय) ने अवसर दे कर उल्लेखनीय कार्य किया है। अब जहां तक उनकी रोज़ी-रोटी की बात है, तो अखबार के लिए विज्ञापन जुटाना गुनाह थोड़े ही है। हां, इसके लिए पत्रकारों को थोड़ा ध्यान रखना पड़ता है कि विज्ञापन देने वाले साहूकारों के खिलाफ ख़बरें न छप जाए और मैं समझता हूं कि इनके ख़‍िलाफ ख़बरें छापने से कोई क्रांति तो होने नहीं जा रही और न ही आदिवासियों की खबरें छापने से उनकी स्थिति में कोई आमूलचूल परिवर्तन आने वाला है। अधिकांश तो ऐसे भी हैं, जो अपने विषय में छपी ख़बर पढ़ नहीं सकते। ऐसे में किसी अखबार के लिए उनसे संबंधित खबर का क्या औचित्य।
आलोक जी, आप बड़े पत्रकार है और देशवासी आपकी बातों को गंभीरता से लेते हैं। भले ही कुछ टर्टा टाइप के लोग हैं जिनकी आदत हर किये में टांग अड़ाने की है, सुबह भकुआये उठते हैं और उनींदी आंखों के साथ ही इस तरह की चर्चा में लग जाते हैं। इन पर ध्यान न दें। आप सिर्फ अपने स्वास्थ्य और राज्यसभा की टिकट पर ध्यान केंद्रित करें।
आपका शुभचितंक
श्रीराजेश