मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

बिहार में विहान

श्रीराजेश

- जेल में कैदियों ने किया उत्पात

- नक्सलियों के हमले में 13लोगों की मौत

- आयकर की छापामारी, कई बड़े अधिकारी घेरे में

- विकास की रफ्तार में बिहार अंतिम पायदान पर: रिपोर्ट

- प्रसव के दौरान होने वाली मौतें बिहार में सर्वाधिक

उपरोक्त समाचारों के शीर्षक देख कर एक झटके में ही कहा जा सकता था कि ये खबरें बिहार की है. चार-पांच वर्ष पहले तक अखबार इस तरह की खबरों से अटा रहता था, लेकिन अब हालात बदलते दिख रहे हैं. बयार पश्चिम से पूरब की ओर बहने लगी है. अब अखबारों में सकारात्मक खबरों के शीर्षक दिखने लगे है.

- आईआईएम के छात्र चले तरक्की पसंद बिहार की ओर

- यूएन के कैलेंडर पर छाई बिहार की बेटी

- बिहार को चमकाने आएंगे मारीशस के बिहारी

- बिहार का जेल विभाग राजस्व प्राप्ति में देशभर में अव्वल

- बच्चे ही चला रहे बिहार में अनोखा बैंक

कुछ महीने पहले एक खबर आई की बिहार विकास की गति तय करने में देश में दूसरे स्थान पर है,पहले स्थान पर गुजरात है. इस खबर खूब हलचल मचाई. इसने बीमारु प्रदेश के रुप में जाने जाने वाले राज्य बिहार के विषय नए सिरे से विचार करने में विवश कर दिया. आम लोगों से लेकर बुद्धिजीवियों ने इस बदलाव के लिए बेहतर प्रशासन की तारीफ की और इसके पहले सत्ता पर काबिज दलों की भत्र्सना भी. आज कम संसाधनों के बावजूद बिहार ने11.03 फीसदी विकास दर हासिल किया है तो इसमें राज्य की जद यू नीत राजग सरकार का कितना योगदान है, यह प्रश्न बाद में आता है. पहले यह बात सोचने को विवश करती है कि अचानक से बिहार के गांव-गांव में परिवर्तन की बयार क्यों बहने लगी. इसके कई कारण है. समाजशास्त्री प्रो. पी एस माधव के मुताबिक आज दुनिया सिमट कर एक गांव हो गई है. संचार की बेहतरीन सुविधा (राज्य सरकार की इसमें कोई भूमिका नहीं) ने दुनिया में कहां क्या हो रहा है से अवगत कराना शुरु कर दिया है. विदेशों की बात यदि छोड़ भी दें तो खुद देश में ही बिहारियों को अपमानित होना पड़ा है. इसके लिए मुख्य कारण राज्य में रोजगार के पर्याप्त अवसर का नहीं होना, लचर बनियादी ढांचे, अशिक्षा और गरीबी है. असम से लेकर महाराष्ट्र तक में बिहारी समुदाय के स्वाभिमान को ठेस लगती रही. और यही कारण धीरे-धीरे बिहार में नि:शब्द बदलाव लाने लगा है. इसका उदाहरण हम बिहार में देख सकते है.

दृश्य -1

मुजफ्फरपुर स्थित अमर शहीद खुदीराम बोस केंद्रीय कारा परिसर की खाली जमीन पर इन दिनों औषधीय पौधे लहलहा रहे हैं. पूरी तरह जवान हो चुके इन पौधों को पालपोस कर बड़ा किया है सजा काट रहे बंदियों ने. जेल प्रशासन इन पौधों को दवा बनाने के लिए बाहर भेजने की तैयारी कर रहा है. कारा अधीक्षक रूपक कुमार के अनुसार औषधीय पौधों की खेती के लिए 250 कैदियों को प्रशिक्षित किया गया था. यह प्रयोग सेंट्रल इंस्टीट्यूट आफ मेडिसिनल एवं एरोमेटिक प्लांट (सीमैप) के तकनीकी सलाहकार राजन कुमार सिंह और सदस्य पुनीत कुमार के सुझाव पर यह प्रयोग किया गया. कुमार कहते है- पौधा लगाने से पहले चयनित बंदियों को शिविर के जरिए खेती-बारी के तौर तरीकों से रू-ब-रू कराया गया मकसद यह था कि जेल से रिहा होने के बाद प्रशिक्षित बंदी अपने गांवों में औषधीय पौधों की खेती कर आर्थिक रूप से सशक्त हो सकें.

दृश्य -2

मुजफ्फरपुर जिले में ही एक ऐसा बैंक बनाया गया है जिसे बच्चे चलाते हैं और जिसमें सिर्फ गरीब बच्चे ही पैसे जमा कर सकते हैं. इतना ही नहीं इस बैंक से बच्चे छोटे-मोटे काम के लिए लोन भी ले सकते हैं. आशना बताती है कि इस बैंक की मदद से उसने अपने पिरवार को डूबने से बचा लिया. उसके पिता काफी बीमार थे और उसकी दुकान बंद होने के कगार पर थी. ऐसे मुश्किल घड़ी में विकास खजाना बैंक उसकी मदद को आगे आया. 16 साल की आशना बताती है कि उसे बैंक ने2500 रुपए लोन दिया जिससे उसके पिता की दुकान अब ठीक-ठाक चल रही है. बाल विकास खजाना एक छोटा सा कोपरेटिव बैंक है जिसे बच्चों के लिए बच्चों द्वारा ही चलाया जाता है. ये बैंक उन गरीब बच्चों के लिए शुरू किया गया है जो मजदूरी करते हैं,कूड़ा बीनते हैं या फिर फैक्ट्रियों में काम करते है.

दृश्य -3

उनके प्रभु आकाश में नहीं रहते, न ही वे सूली पर लटके हैं. उनके प्रभु उनके आश्रम में ही रहते हैं. वे ऐसे लोग हैं जिन्हें अन्य लोग छूना भी नहीं चाहते क्योंकि वे कुष्ठ रोग से ग्रस्त हैं, लेकिन क्रिस्टुदा को उनसे कोई परहेज नहीं. बिहार की नेपाल से लगती सीमा पर स्थित रक्सौल के निकट सुंदरपुर गांव स्थित अपने आश्रम के आंगन में एक कुर्सी डाले क्रिस्टुदा अलसुबह कुष्ठ रोगियों से घिर जाते हैं. उनके चेहरे पर परेशानी का कोई भाव नहीं होता बल्कि कई लोगों से एक साथ बात करते हुए भी उनके चेहरे पर एक आत्मसंतोषी मुस्कान खेलती रहती है. क्योंकि पिछले चालीस वर्षो से कुष्ठ रोगियों का इलाज करते-करते एक बार वे स्वयं कुष्ठ रोग का शिकार हो चुके हैं. तब मदर टेरेसा जिंदा थीं. उन्हें कोलकाता के अपने आश्रम में रखकर क्रिस्टुदा का इलाज कराया. ठीक होने के बाद वे फिर इसी काम में लग गए.

दृश्य - 4

अक्सर लोग सेवानिवृत्ति के बाद आराम और सुकून की जिंदगी जीना चाहते हैं, लेकिन बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में ही एक शिक्षक ऐसे भी हैं जो सेवानिवृत होकर भी शिक्षा की अलख जगा रहे हैं. 87 वर्ष की उम्र में भी वे150 नौनिहालों को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित कर रहे हैं. जयकांत ठाकुर को सेवानिवृत्त हुए 27 वर्ष गुजर गए हैं, लेकिन उनमें लोगों को पढ़ाने का जज्बा अब भी बरकरार है. ठाकुर ने वर्ष 1950 में समस्तीपुर में ताजपुर के एक विद्यालय में बतौर शिक्षक नौकरी प्रारंभ की थी. 27 वर्ष पूर्व वे मीनापुर उच्च विद्यालय से प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत्त हुए. सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने विद्यालय जाना तो बंद कर दिया,लेकिन शिक्षा दान देने का सिलसिला बंद नहीं किया. सेवानिवृत्ति के बाद वे ऐसे घरों में शिक्षा का दीप जलाने में जुट गए. ठाकुर ने अखाड़ाघाट में दलित बस्ती के एक पीपल के पेड़ के नीचे अपने दोस्त धनुषधारी ठाकुर के सहयोग से दलित बस्तियों के बच्चों को पढ़ाना प्रारंभ किया था. प्रारंभ में इन्हें कई अभिभावकों ने बुरा-भला भी कहा, परंतु अपने जुनूनी तेवर के लिए मशहूर इस शिक्षक ने हार नहीं मानी और आज पीपल के पेड़ के नीचे बांस-फूस का झोपड़ीनुमा विद्यालय बन गया है. यहां आज भी 150 बच्चे नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं.

दृश्य - 5

औरंगाबाद जिले के मदनपुर प्रखंड में कभी उग्रवादियों के भय से घरों में छिपी रहने वाली महिलाओं ने खुद का बैंक संचालित करके बड़े पैमाने पर चल रहे सूदखोरी के धंधे पर हमला बोल दिया है. इन महिलाओं ने केन्द्र प्रायोजित स्वयं सहायता समूहों के फेडरेशन के माध्यम से यह कारनामा कर दिखाया है. ये निरक्षर ग्रामीण महिलाएं खुद का बैंक संचालित कर न केवल निर्धन महिलाओं की जरुरतें पूरी कर रही है बल्कि इससे उनकी आर्थिक स्थिति भी काफी हद तक सुधर रही है. महिलाओं के बैंक के संचालन से मदनपुर प्रखंड की लगभग तीन हजार महिलाओं को सूदखोरों से छुटकारा मिला है और अब यह महिलाएं घरेलू सामान, साड़ी आदि खरीदने के अलावा अपनी बेटियों के हाथ पीले करने के लिए भी इन बैंकों से सहायता ले रही है. मदनपुर प्रखंड के लगभग सौ से अधिक गांवों में चल रहे समूहों में महिलाएं एकत्र होकर एक कोष का गठन करती हैं और 12 से 20महिलाओं की एक समिति बनाई जाती है. समिति की प्रत्येक महिला स्वेच्छा से 10 से 15 रुपए जमा करती हैं और कठिन परिस्थतियों में संस्था की महिलाओं को न्यूनतम सूद पर ऋण प्रदान करती है. उग्रवाद प्रभावित मदनपुर प्रखंड के सहियार, सहजपुर, कानीडीह,गुरमीडीह, कोइलवा, बेलवा, आजाद बिगहा, बादम, छालीडोहर, नीमा आंजन, दलेरबिगहा, बढ़ईबिगहा,ईटकोहिया, रुनियां, गांधीनगर, नीमा,सलपुरा, दधपी, ताराडीह, उमगा,भेलीबांध ऐसे कई अन्य गांवों की सैकड़ों महिलाएं हैं जो समूह से जुडक़र अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने में लगी है.

दृश्य - 6

बिहार के पूर्णिया जिले का एक गांव ऐसा भी है, जहां लड़कियों के जन्म पर खुशियां मनाई जाती हैं और दहेज लेना और देना अभिशाप समझा जाता है. पूर्णिया जिला मुख्यालय से पांच किलोमीटर दूर बर्माटोला एक ऐसा गांव है, जहां दहेज लेना और देना गांव के लिए अभिशाप माना जाता है. अगर कोई व्यक्ति दहेज लेता या देता है तो उसके खिलाफ सामाजिक बहिष्कार से लेकर आर्थिक दंड तक की सजा सुनाई जाती है. इस गांव में यह चलन पांच-छह दशक पूर्व से ही प्रारंभ हुआ जो अब तक बदस्तूर जारी है. इस गांव का असर अब आसपास के गांवों में भी देखने को मिल रहा है. ग्रामीण बताते हैं कि पूर्व में यहां के लोग भी बेटियों की शादी में दहेज देते थे, परंतु ग्रामीणों ने सामूहिक निर्णय करते हुए दहेज लेने और देने पर प्रतिबंध लगा दिया.

दृश्य - 7

बेगूसराय जिले के बछवारा थाना क्षेत्र में बन रहे एक शिव मंदिर के निर्माण के लिए न केवल मुसलमानों ने अपनी जमीन दान में दी, बल्कि इस मंदिर के निर्माण में और भी मदद देने का निर्णय कर सांप्रदायिक एकता की मिसाल पेश की है. तेघरा के अनुमंडल पुलिस अधिकारी अमृतेन्दु शेखर ठाकुर का कहना है कि मुस्लिम संप्रदाय के लोगों ने मंदिर के लिए न केवल अपनी जमीन दान दी,बल्कि यह आश्वासन भी दिया है कि इस मंदिर को बनवाने में उनसे जो भी मदद बन पड़ेगी, वे करेंगे.

दृश्य - 8

इसी तरह राजधानी पटना के फुलवारी शरीफ इलाके के रहने वाले युवक अमित कुमार खुद पोलियो से ग्रस्त हैं लेकिन वह नहीं चाहते कि और बच्चे भी इस रोग से ग्रसित हों. इसलिए वह पोलियो उन्मूलन अभियान से जुड़ गए. अमित का कहना है कि वह जिन समस्याओं से जुझता है उसके दर्द को वह बेहतर तरीके से समझता है और वह नहीं चाहता कि उसकी तरह लोग किसी अन्य बच्चे को अपाहिज कहे. वह कहता है कि वह निम्न मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखता है उसके पास इतनी सामर्थ नहीं है कि वह कोई बड़ा काम कर सके लेकिन छोटे स्तर पर ही सही जितना हो सकता है वह उसमें जी जान से जुटा है.

राज्य में बगैर प्रत्यक्ष सरकारी सहायता के हो रहे सामाजिक बदलाव और विकास दर के इन आंकड़ों ने बिहार की सरकार व यहां के मेहनती लोगों का मनोबल बढ़ाया है. सेंट्रल स्टेटस्टिकल आर्गेनाईजेशन यानी सीएसओ के इन्हीं आंकड़ों को आधार मान कर केंद्र सरकार की योजनाएं बनती हैं. यह भी याद रखने की बात है कि सीएसओ एक पेशेवर ढंग से काम करने वाला संगठन है. इस संगठन ने बिहार की मौजूदा विकास दर11.03 प्रतिशत बताई है जबकि पहले स्थान पर गुजरात है और इसने विकास दर 11.05 हासिल की है. इस संबंध में लेखक व समाजशास्त्री प्रसन्न कुमार चौधरी कहते हैं कि जो समाजिक बदलाव दिख रहा है वह कोई एक दिन का प्रयास नहीं है, लंबे समय से इस प्रकार की प्रक्रिया चलती रही है और अब यह सामने दिख रहा है. यदि प्रत्यक्ष तौर पर सरकार मदद करे तो इसमें गुणात्मक बदलाव आएगा. उन्होंने कहा, - कल्पना कीजिए कि बिहार को उतनी ही बिजली उपलब्ध होती जितनी गुजरात को मिलती है तो बिहार की विकास दर कहां तक पहुंच चुकी होती. ध्यान रहे कि बिहार ने यह कमाल महज हजार मेगावाट बिजली की उपलब्धता के बल परदिखाया है. अधिक योगदान तो खेती की उपज का है जिसका अधिकांश अब भी वर्षा पर निर्भर है. सरकारी तंत्र में भारी भ्रष्टाचार है. प्रशासन में हर स्तर पर अनेक छोटे बडे पद खाली हैं. काहिली की अभ्यस्त ब्यूरोक्रेसी से अधिक काम लेना भी कठिन है. दरअसल नई परिस्थितियों के साथ खुद को एडजस्ट करने में हमें समय लग रहा है. राज्य ने उल्लेखनीय विकास दर हासिल कर व सामाजिक परिवर्तन की राह में अग्रसर हो कर अपनी क्षमता दिखा दी है. यदि केंद्र सरकार नए बिजली उत्पादन केंद्रों की स्थापना में बिहार को मदद करे और बिहार विशेष अदालत विधेयक 2009 पर राष्ट्रपति की मंजूरी दिलवा दे तो बिहार के एक बार फिर गौरवशाली राज्य बना देने में सुविधा हो जाएगी.


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