शनिवार, 18 जुलाई 2009

दलितों के लिए खतरा बन रहे दलित नेता

- श्रीराजेश-
वर्तमान समय में दलित आंदोलन एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां उसे अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए एक रास्ता चुनना होगा, सिर्फ एक. इस आंदोलन को जहां एक ओर इस समुदाय के बुद्धिजीवी अपनी ऊर्जा से मुकाम तक पहुंचाने के लिए लगे हैं, वहीं दलित जनता के तथाकथित राजनीतिक मसीहा इनके वोटो को झटक कर दलित आंदोलन और इनके उत्थान की बातें करते अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं. हालांकि ऐसे राजनीतिक दल और नेताओं की कलई खुलने लगी है और दलित जनता इनके झांसे से बाहर आने लगी है. इसका उदाहरण 15 वीं लोकसभा में घटी दलित नेताओं की संख्या है. जहां 14वीं लोकसभा में दलित वर्ग की राजनीतिक पार्टी के रूप में स्वयं को पेश करने वाले दलों के प्रतिनिधियों की संख्या 24 थी, वह इस बार 15 वीं लोकसभा में घट कर 21 तक पहुंच गयी है. हालांकि इस मामले पर लोगों के विचार अलग-अलग है. कुछ लोगों का कहना है कि दलित कार्ड खेल कर संसद तक पहुंचने और फिर इस समुदाय की जनाकांक्षा के साथ खिलवाड़ करने वाले नेता यदि संसद तक नहीं पहुंचे तो यह अच्छी बात है. लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान लंबे समय तक केंद्रीय राजनीति के धुरी रहे और खुद को दलित नेता के रूप में प्रस्तुत करते रहे लेकिन इन्होंने दलितों के लिए क्या किया ? उत्तर ढूंढते रह जायेंगे. इसी तरह उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के बाद बसपा केंद्र में महत्वपूर्ण पारी शुरू करने का मंसूबा बनी रही था जो कामयाब नहीं हुआ. बसपा सुप्रीमो मायावती को चुनाव पूर्व लगा कि वह सिर्फ दलितों के वोट से केंद्र में शक्तिशाली नहीं हो सकती तो उन्होंने सोशल इंजीनियरिंगा फार्मूला निकाला और वह टांय-टांय, फिस्स हो गया. हाल के घटनाक्रम दर्शाते है कि खुद को दलित नेता के रूप में पेश करने वाले नेता अपना वजूद बनाये रखने के लिए संघर्षरत है. इसका ताजा उदाहरण भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती है. वह हजारो करोड़ रुपये खर्च कर अपनी मूर्तियां प्रदेश भर में लगाने की कवायद शुरू कर दी है, हालांकि इस पर काफी बवाल हो चुका है लेकिन मायावती कि इस हास्यासपद कवायद सबसे अधिक नुकसान दलित आंदोलन को पहुंचा रहा है और आश्चर्य है कि इस आंदोलन के कर्ताधर्ताओं की ओर से अब तक इस मुद्दे पर किसी तरह का बयान नहीं है. एक तरफ डा. भीमराम अबेडकर के प्रयास दलितों को राजनीति की मुख्यधारा में लाया, वहीं मायावती ने अंबेडकर के प्रयासों को अपने कृत्यों से शर्मसार और हास्यास्पद बना दिया है. इसके साथ ही किसी भी अन्य व ईमानदार दलित नेतृत्व को उभरने की राह में रोड़े खड़े कर दिये है. अन्य वर्गों की बात छोड़ दी जाय तो देखा यह जाता है कि दलित राजनीति के उभरे नेताओं ने बार-बार दलितों के साथ छल किया है. कोई नया नेतृत्व यदि उभरता भी है तो उसे दलितों का विश्वास अर्जित करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. हाल में ही उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने बलात्कार पीड़ितो को आर्थिक मुआवजा देने की घोषणा की और इसका विरोध भी हुआ. खैर होना भी चाहिए. किसी पीड़िता के जख्मों को महज आर्थिक मुआवजा से नहीं भरा जा सकता, बल्कि बालात्कारी को दंडित कर त्वरित न्याय ही एक मात्र विकल्प है. इस मामले में रिता जोशी बहुगुणा के बयान पर बवाल माचने के बाद राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने लगे हैं, यह अलग बात है लेकिन रिता जोशी के बयान को दूसरे अर्थों में भी समझने की जरुरत है. मायावती द्वारा बलात्कार पीड़िताओं के लिए मुआवजा योजना ने सिर्फ बलात्कार पीड़िता को और दलित वर्ग की महिलाओं को ही नहीं बल्कि पूरी महिलाओं के स्वाभिमान और उनके आत्मसम्मान का निरादर है और इससे उत्पन्न आक्रोश के रूप में रिता जोशी का बयान है.

दलितों को नुकसान दलित नेताओं द्वारा कैसे किया जा रहा है इसकी बानगी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी के 13 जुलाई को लिखे ब्लाग से समझा जा सकता है जिसमें में उन्होंने बड़े बेबाक ढंग से कई तथ्यों को उकेरा है. उन्होंने लिखा है – “आंबेडकर से मायावती वाया कांशीराम का यह रास्ता करीब सत्तर साल बाद दलित को उसी मीनार पर बैठाने पर आमादा है, जिस पर हिन्दुओं को बैठा देखकर आंबेडकर संघर्ष की राह पर चल पड़े थे। सत्ता कैसे चमचा बनाती है और कैसे किसे औजार बनाती है, इसे मायावती की सत्ता के अक्स में ही देखने से पहले औजार और चमचा की थ्योरी को समझना भी जरुरी है.....”

आगे और लिखा है- ”मायावती इस सच को ना समझती हो ऐसा हो नहीं सकता. लेकिन बहुजन के संघर्ष से सर्वजन की सोशल इंजिनियरिंग का खेल मायावती की सत्ता कैसे औजार और चमचो में सिमटी है यह समझना जरुरी है. मायावती सत्ता चलाने में दक्ष है इसलिये अपने हर कदम को राज्य के निर्णय से जोड़कर चलती है. बुत या प्रतिमा प्रेम मायावती का नहीं राज्य का निर्णय है, इसलिये सुप्रीम कोर्ट भी मायावती की प्रतिमाओ को लगाने से नहीं रोक सकता. चूंकि आंबेडकर-कांशीराम-मायावती के बुत समूचे राज्य में अभी तक जितने लगे है, अगर उनकी जगहो पर आंबेडकर की शिक्षा पर जोर देने वाले सच के दलित उत्थान को पकड़ा जाता तो संयोग से राज्य में उच्च शिक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तीन यूनिवर्सिटी और राज्य के हर गांव में एक प्राथमिक स्कूल खुल सकता था. लेकिन बुत लगाना कैबिनेट का निर्णय है और कैबिनेट राज्य की जरुरत को सबसे ज्यादा समझती है, क्योंकि जनता ने ही इस सरकार को चुना है, जिसकी कैबिनेट निर्णय ले रही है तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है..”

इस तरह के विचार देश के लेखकों और पत्रकारों द्वारा मायावती के कृत्यों के परिपेक्ष्य में दिये जा रहे है, जो साफ तौर पर दर्शाता है कि राजनीतिक दल और उसके नेता अंबेडकर को आदर्श बताते हुए किस तरह दलितों का और दलित आंदोलनों का नुकसान कर रहे हैं. अब समय की मांग है कि दलित आंदोलन के बुद्धिजीवियों को अब ठोस पहल करनी होगी और उन्हें सड़कों पर उतरना होगा, गांवों और कस्बों का चक्कर लगा तक सबसे पहले ऐसे मुखौटाधारी दलित नेताओं की पोल दलित जनता के सामने खोलनी होगी, उसके बाद आंदोलन को गति देने की प्रक्रिया शुरू करनी होगी. निश्चित तौर प दलित आंदोलन को और तेज करने की जरुरत है ताकि देश में वर्ण समानता का माहौल बन सके, लेकिन यह तभी संभव है जब नेताओं को इस समुदाय के लोगों का शोषण और दोहन करने की इजाजत न दी जाय.

4 टिप्‍पणियां:

  1. सही कह रहे हो मित्र..दतित दलित नहीं है वे तो बस वोट बैंक हैं..उनकी स्थिति में सुधार कोई नहीं चाहता..

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  2. शोषितों के दलित, महिला और इसी तरह के उपवर्ग जब भी बनेंगे वे मौजूदा शोषकों की राजनीति के लिए इस्तेमाल होते रहेंगे। सभी शोषितों को एक होना पड़ेगा तभी सब की मुक्ति संभव है।

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  3. दलितों की लड़ाई दलितवाद के संकीर्ण नजरिए से कभी नहीं जीती जा सकती। जाति, धर्म से परे गरीबों की वर्गएकता ही इसका समाधान हो सकता है।

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  4. क्या बकवास कर रहे हैं. आपको नहीं मालूम है कि दलितों का नाम लेना गुनाह हैं. मायावती की सरकार है. आपको डर नहीं लगता. जेल जाने का मन बना चुके हैं क्या? चलिए हम भी आते हैं...

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