शनिवार, 30 अप्रैल 2011

जिसमें दम, उसे नहीं गम

विधायक पर नाबालिग से दुष्कर्म का आरोप/ फिर दिखी विधायक की दबंगई / हत्या के आरोप में विधायक गिरफ्तार / मायावती ने कहा, सब पर होगी कार्रवाई / कोर्ट ने विधायक को हिरासत में भेजा.

इस तरह के शीर्षक वाली खबरें उत्तर प्रदेश के अखबारों और पाठकों के लिए नई नहीं हैं. इस तरह की खबरें अब कोई हलचल नहीं पैदा करतीं. जनता भी लंबे समय से राजनीतिक संरक्षण में पल रहे अपराध को देखने-सुनने की अभ्यस्त हो गई है. इन सब से बेफिक्र हो कर जनता और राजनेता अपने रुटीन के कामों में मस्त हैं. हां, कभी-कभार कोई जागरूक मतदाता या राजनीतिक दल राजनीति के अपराधीकरण की कड़े शब्दों में भत्र्सना कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं. सूबे में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. चुनावी तैयारियां शुरूहो गई हैं. उम्मीदवारों की सूची बनने लगी है. ऐसे में जिताऊ प्रत्याशियों की तलाश सभी दलों को है. सभी दलों के मुद्दे अलग हैं, सिद्धांत अलग हैं, शैली अलग है, लेकिन जिस चीज की सबमें समानता है, वह है जिताऊ प्रत्याशियों को मैदान में उतारने की होड़. इस कवायद में नैतिकता और आदर्श जैसी चीजें ताक पर रख दी जाती हैं. यह परंपरा दशकों से अपनी जड़ें जमाते-जमाते अब इतनी मजबूत हो गई है कि इससे मुक्ति की कोई उम्मीद नहीं दिखती.
चुनाव के पहले सभी दल, राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर चिंता जताते हुए इससे छुटकारा पाने की कसमें खाते हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में भी इस तरह की चिंता जताई गई थी, लेकिन किसी भी दल ने अपराधी पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों को टिकट देने में कोई कोताही नहीं की. इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि वर्तमान विधानसभा में बसपा के 68, सपा के 47, भाजपा के 18 विधायक ऐसे हैं जिन पर आपराधिक वारदातों को अंजाम देने, कराने या अप्रत्यक्ष रूप से संलिप्त होने के आरोप हैं. इसके अलावा विधानसभा में नौ निर्दलीय विधायक भी इसी तरह की पृष्ठभूमि वालेहैं.
उल्लेखनीय है कि 2007 के विधानसभा चुनाव में विभिन्न दलों के कुल 882 ऐसे उम्मीदवार किस्मत आजमा रहे थेे, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन 882 में उम्मीदवारों में से 142 विधानसभा में पहुंचने में कामयाब भी रहे. उसके पहले विधानसभा में विभिन्न दलों के 206 विधायक निर्वाचित हो कर आए थे, जिन पर हत्या, अपहरण सहित कई अन्य आपराधिक मामले दर्ज थे. इसी तरह 2012 के विधानसभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी ने अभी ही 162 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है. इनमें से 44 उम्मीदवार अपराधी पृष्ठभूमि के बताए जा रहे हैं, जिनमें सूबे के बाहुबली ब्रजेश सिंह के भतीजे सुशील सिंह को चंदौली से टिकट दिया गया है. इन पर कई धाराओं के अंतर्गत आपराधिक मामले दर्ज हैं. इसके अलावा सपा की ओर से प्रदेश के पूर्व मंत्री नंद गोपाल नंदी की हत्या मामले के अभियुक्त विजय मिश्रा को भदोही से टिकट दिया गया है. वहीं बसपा ने भी लगभग सभी सीटों के लिए सूची तैयार कर ली है, लेकिन वह भी ऐसे उम्मीदवारों से अछूती नहीं है. बसपा की उम्मीदवारों की सूची में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के घर आगजनी के मामले में आरोपी विजेंद्र प्रताप सिंह ऊर्फ बबलू का नाम फैजाबाद से तय है. यह तो सिर्फ बानगी भर है.
मायावती के शासनकाल में पार्टी के कई विधायकों ने अपने आपराधिक कृत्य से बसपा को शर्मसार किया है. इनमें पुरुषोत्तम द्विवेदी, योगेंद्र सागर, गुड्डू पंडित, आनंद सेन यादव सहित विजेंद्र प्रताप सिंह शामिल हैं. हालांकि मायावती ने हत्या के एक मामले में यमुना निषाद को न केवल मंत्रिमंडल से बाहर किया, बल्कि पार्टी से निलंबित भी कर दिया, जिनकी बाराबंकी में हुई दुर्घटना में मौत हो गई. इसी तरह मुख्यमंत्री मायावती ने फैजाबाद से विधायक आनंद सेन यादव द्वारा एक दलित समुदाय की लड़की सेदुष्कर्म करने तथा उसकी बाद में हत्या किए जाने के मामले में उन्हें पार्टी से निलंबित किया. वर्तमान में बसपा के आनंद सेन यादव, शेखर तिवारी, पुरुषोत्तम द्विवेदी, योगेंद्र सागर, गुड्डू पंडित, विजेंद्र प्रताप सिंह जेल में विभिन्न अपराधों की सजा काट रहे हैं, वहीं सपा के अमरमणि त्रिपाठी, विजय मिश्रा भी जेल की सलाखों के पीछे हैं. कभी बसपा में अपने बाहुबल के बल पर कद्दावर रहे मुख्तार अंसारी कुछ दिन पहले ही जेल से बाहर आए हैं, लेकिन उन्होंने बसपा से अब दूरी बना ली है और हिंदू-मुस्लिम एकता पार्टी नामक एक दल का गठन किया है.
बनारस में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार बद्री विशाल इसके लिए मतदाता भी उतना ही दोषी मानते हैं. अपनी बात को विस्तार देते हुए वह कहते हैं, ‘सत्ता पर मजबूत पकड़ के लिए एक-एक सीट महत्वपूर्ण होती है, बात चाहे किसी भी दल की हो. इसलिए बाहुबलियों का दामन थामने के लिए वे बाध्य होते हैं. दूसरी तरफ बाहुबली अपने आपराधिक कृत्यों की सजा से बचने के लिए राजनीतिक दलों की शरण में जाते हैं. और इन सबमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मतदाता भी बिरादरी तथा अन्य निजी हितों को ध्यान में रख योग्य उम्मीदवारों की बजाय बाहुबलियों को चुन कर भेजते हैं. यहां सबके लिए निजी हित ही सर्वोपरि हो जाता है.’
बद्री विशाल की बात से इस्तेफाक रखने वाले समाजशास्त्री मानवेंद्र उपाध्याय कहते हैं,  ‘वास्तव में लंबे समय से चली आ रही इस परंपरा की वजह से नई पीढ़ी इसकी अभ्यस्त हो चुकी है. वह मानसिक रूप से इससे छुटकारा पाने के लिए तैयार भी नहीं है, राजनीति के अपराधीकरण से मुक्ति के लिए राजनीतिक पार्टियों या फिर मतदाताओं द्वारा स्वत: पहल की उम्मीद पालना बेमानी है. इसके लिए जरूरी है कि कोई संस्था या संगठन निष्पक्ष रूप से मतदाताओं को इसके नकारात्मक पहलू को सामने रख कर उन्हें जागरूक बनाए और  इसके लिए मानसिक तौर पर उन्हें तैयार करें. तभी कुछ हो सकता है.’
राजनीति का अपराधीकरण प्रदेश को लगातार नुकसान पहुंचा रहा है, जबकि प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती कहती हैं कि जब तक किसी अभियुक्त पर अपराध सिद्ध नहीं हो जाता, उसे सजा नहीं हो जाती, तब तक उसे चुनाव लडऩे से वंचित किया जाना उचित नहीं है. कई ऐसे विधायक हैं, जिनके खिलाफ अपराधिक मामले तो दर्ज नहीं हैं, लेकिन उनकी दबंगई और अपराधियों की शह उनकी विजय में मददगार बनती है. अगर इस गंभीर और जनहितकारी मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया गया तो खतरा यह है कि आगामी विधानसभा में आपराधिक छवि के सदस्यों की संख्या और अधिक हो सकती हैं .
पहले राजनैतिक दल अपनी सोच और नीतियों के साथ जनता के बीच जाते थे. यह राजनीति का सुखद पहलू था. चुनाव सुधारों के बारे में मुख्य निर्वाचन आयुक्त डॉ. एसवाई कुरैशी ने कई बार राजनीति में अपराधीकरण पर अपनी चिंता जाहिर की है.  
1985 के विधानसभा चुनाव में 35 विधायक आपराधिक चरित्र के थे. 1989 के चुनाव में इनकी संख्या बढ़कर 50 हो गई. उसके बाद 1991 में हुए मध्यावधि चुनाव में इनकी संख्या बढ़कर 133 हो गई. और उसके बाद यह संख्या लगातार बढ़ती ही गई. लखनऊ के रह कर चुनाव सुधार के लिए मुहिम चला रहे प्रोफेसर डीपी सिंह कहते हैं, ‘यह राजनीति के पराभव का काल है. पहले जनप्रतिनिधि चुने जाते थे जो वास्तव में जनता की सेवा करते थे. 25 वर्ष पहले के अधिकतर जनप्रतिनिधियों का जीवन सादा होता था. लेकिन आज दिखावे की राजनीति और उसमें बढ़ते धन-बल के प्रभाव तथा अपराधियों की सामाजिक स्वीकार्यता ने स्थिति को खराब किया है. जब तक राजनैतिक दल और जनता दोनों ही इस पर ध्यान नहीं देंगे, बदलाव आसान न होगा.’

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