सोमवार, 16 नवंबर 2015

कितना दीर्घजीवी होगा बिहार के विहान का सौंदर्य


आठ नवंबर, 2015 की सुबह- बिजली गुल, लेकिन 50 वर्षीय रामेश्वर श्रीवास्तव सोलर बैटरी के सहारे चल रहे टीवी से चिपके हैं. बिहार के सीवान जिले के एक छोटे से कस्बे पंचरुखी में जगह-जगह दुकानों पर चार-पांच लोगों का समूह चुनावी रुझानों का विश्लेषण कर रहा है. सुबह की शुरुआत राजग की सीटों में बढ़त के साथ हुई लेकिन रामेश्वर को यह बेचैन नहीं कर रही थी, लेकिन घंटा-डेढ़ घंटा बीतते-बीतते पासा पलटता नजर आया और महागठबंधन विभिन्न सीटों पर बढ़त बनाने लगा. दोपहर बाद यह साफ हो गया कि महागठबंधन के हाथ बिहार की सत्ता की चाबी आ गयी है. नीतीश के नेतृत्व वाली जदयू की जीत रामेश्वर को सकून दे रहा था लेकिन इस सकून के नेपथ्य में लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक पुर्उत्थान ने उन्हें बेचैन कर दिया. उनके जेहन में अतीत के वे घटनाएं एक चलचित्र की तरह चलने लगी, जब बिहार में 20वीं सदी के अंतिम दशक की शुरुआत सामाजिक न्याय के झंडाबरदार लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व हुआ. तब लगा कि वास्तव में एक पिछड़े समुदाय से कोई उभर कर सामने आया है और आजादी के बाद सामंती मानसिकता वाले इस प्रदेश को समानता की परिभाषा से परिचित करायेगा. लालू प्रसाद का भदेसपन ने उन्हें जहां हर बिहारियों से गहरे जोड़ा, वहीं बिहार के पिछड़े वर्गों में एक सपना जगाया- आगे बढ़ने का, बराबरी का. लेकिन बिहारवासी कुछ ही वर्षों बाद खुद को अभागा मानने लगे, जब एक जाति विशेष समुदाय का सूबे के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हलके में दबदबा कायम होने लगा और राजनेताओं की सह पर अपराध बेतहासा बढ़ने लगा. जनसेवक राजनेता, बाहुबली बनने लगे. सड़कें खेत में तब्दील होने लगी और लालू के भदेसपन की शैली बिहारियों के लिए मजाक का औजार बनने लगा. आधारभूत संरचनाएं चरमराने लगी. पलायन बेतहासा बढ़ने लगा. स्कूटर पर सवार हो भैंसे पटना से रांची पहुंचने लगी. यह गड़बड़झाला तात्कालीन समय का सबसे बड़ा चारा घोटाला के रूप में सामने आया. परिवारवादी राजनीति का विरोध करने वाले लालू सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए पत्नी राबड़ी को कठपुतली मुख्यमंत्री बना दिये. मंडल-कमंडल को नारा बना कर बिहार के दलितों-पिछड़ों की दबी-कुचली भावनाओं को उभारा और अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत की. लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को रोक और गिरफ्तार कर राष्ट्रीय स्तर पर चमके तो वहीं बिहार के बंटवारे का विरोध करने वाले लालू के सामने ही झारखंड अस्तित्व में आया. फिर वह दौर भी आया जब नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजग की जीत से लालू का काउंटडाउन शुरु हुआ. समय बीतता गया, लालू घोटाले के मामले में सलाखों के पीछे गये, सांसदी गई, 10वर्षों तक चुनाव लड़ने से वंचित हुए. लालू की लालिमा खो चुकी थी. वह राजनीतिक तौर पर अछूत हो गये. लेकिन आठ नवंबर को लालू फिर अपनी पुरानी ठसक के साथ जब बिहार की सत्ता के सबसे बड़े भागीदार के तौर पर उभरे तो रामेश्वर बेचैन हो गये कि क्या सत्ता पर विकास और सुशासन के प्रतीक बने नीतीश की पकड़ मजबूत रहेगी या फिर वह अपने भागीदार के हाथों की कठपुतली बन जाएंगे. जंगल राज की फिर बिहार में वापसी नहीं होगी- क्या नीतीश इसकी गारंटी ले सकते हैं? उपरोक्त बातें सिर्फ रामेश्वर को ही नहीं बल्कि बिहार के एक तबके को बेचैन किये हुए हैं और उनकी बेचैनी को अब तक राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव या फिर जदयू के नेता व बिहार के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया है. इसके इतर, अगर हम इस चुनाव के राष्ट्रीय महत्व का विश्लेषण करें तो यह सोचने पर विवश करती है कि क्या बिहार के मतदाताओं ने उस मिथक को तोड़ने का प्रयास किया है, जहां राजनीति में विचारधारा का महत्व कम हो रहा है. गाय और हिंदुत्व के मुद्दे से अब चुनावी वैतरणी पार नहीं की जा सकती. बिहार चुनाव के परिणाम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधे चुनौती दी है. मोदी महज डेढ़ वर्ष पूर्व पूर्ण बहुमत से केंद्रीय सत्ता पर काबिज हुए थे और बिहार से भी प्रचंड वोट बटोरा था. इतने कम समय में ही बिहार में मोदी का जादू क्यों सीमट गया? सवाल बस यहीं नहीं है- कई और सवालों को जन्म देता है कि क्या नीतीश कुमार ने फिर से राजनीति में विचारधारा को स्थापित करने का प्रयास किया है और लालू यादव राजनीतिक वनवास ने निकल कर दिल्ली में कमजोर विपक्ष को ताकत देने के लिए कूच कर देंगे. बिहार के चुनाव परिणाम ने मोदी सरकार के सामने यह चुनौती भी रख दी है कि अगर अगले एक बरस में उसने विकास का कोई वैकल्पिक ब्लू प्रिंट देश के सामने नहीं रखा तो फिर 2019 तक देश में एक तीसरी धारा निकल सकती है. क्योंकि डेढ बरस के भीतर ही बिहार के आसरे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता ना सिर्फ एकजुट हो रहे हैं बल्कि उन नेताओं को भी आक्सीजन मिल गया है, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हार गये थे. तो क्या अब बीजेपी के भीतर अमित शाह को मुश्किल होने वाली है और प्रधानमंत्री मोदी को सरकार चलाने में मुश्किल आने वाली है. क्योंकि राज्यसभा में 2017 तक बीजेपी को बहुमत में आने की अब संभावना नहीं है. सवाल केवल बीजेपी पर नहीं उठ रहे बल्कि इन सवालों के घेरे में संघ परिवार की विचारधारा भी आ रही है, जो यहां हारी हुई दिखती है. क्योंकि संघ परिवार की छांव तले हिन्दुत्व की अपनी अपनी परिभाषा गढ कर सांसद से लेकर स्वयंसेवक तक के बेखौफ बोल डराने से नहीं चूक रहे हैं. खुद पीएम को स्वयंसेवक होने पर गर्व है. तो बिहार जनादेश का नया सवाल यही है कि बिहार के बाद असम, बंगाल, केरल , उडीसा, पंजाब और यूपी के चुनाव तक या तो संघ की राजनीतिक सक्रियता थमेगी या सरकार से अलग दिखेगी. हालांकि चुनाव नतीजों को विदेशी मीडिया ने जिस प्रकार कवर किया, उससे लगा कि यह नतीजा मोदी की विदेश नीति पर प्रभाव डालेगा लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्रिटेन यात्रा ने इस आशंका को सिरे से खारिज कर दिया है. लेकिन बीजेपी अपनी इस हार के लिए देर सबेर ही सहीं मंथन जरुर करेगी. भले ही मार्गदर्शक मंडल कुछ कहें या न कहें. देखना होगा कि बीजेपी अपनी भोथराई राजनीति को कैसे धार देती है.

जागे हुए सपनों की दुनिया


इसे भारत की महीन कूटनीति ही कही जाएगी कि भारत-अफ्रीका शिखर सम्मेलन का आयोजन नई दिल्ली में तब किया गया, जब महात्मा गांधी की दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश वापसी के 100 साल पूरे हुए हैं। गांधीजी के चलते अफ्रीका और दुनिया के किसी भी भाग में बसे अफ्रीकी मूल के लोग भारत को लेकर कृतज्ञता का भाव रखते हैं। बापू ने दक्षिण अफ्रीका के अपने करीब दो दशकों के प्रवास के दौरान अश्वेतों के हक के लिए जुझारू प्रतिबद्धता से लड़ाई लड़ी। गांधी जी और अफ्रीका के बीच के इसी संबंध के जरिये भारत अफ्रीकी देशों के साथ भावनात्मक और राजनीतिक संबंधों को नई उड़ान देना चाहता है। इसी तरह एक और वाकये का जिक्र करना जरूरी हो गया है कि सम्मेलन के दौरान नई दिल्ली पहुंचे सूडान के राष्ट्रपति को "सम्मानित मेहमान" बताकर भारत ने गिरफ्तार करने से इनकार कर दिया था। इस तरह भारत सरकार ने संकेत दिया कि वह अफ्रीकी नेताओं के हितों की रक्षा करेगी। दरअसल, तीसरे और अब तक के सबसे बड़े भारत-अफ्रीका शिखर सम्मेलन में सूडान के राष्ट्रपति ओमर अल बशीर भी पहुंचे थे। बशीर के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत वारंट जारी कर चुकी है। अदालत ने भारत से बशीर को गिरफ्तार करने की मांग भी की। लेकिन इसे ठुकराते हुए नई दिल्ली ने कहा कि भारत ने आईसीसी को बनाने वाले रोम समझौते पर दस्तखत नहीं किये हैं। बशीर को "सम्मानित मेहमान" बताते हुए भारत ने सूडान के राष्ट्रपति को गिरफ्तार करने से इनकार कर दिया। भारत-अफ्रीकी शिखर सम्मेलन में तकरीबन सभी अफ्रीकी देशों के प्रतिनिधि आये। इनमें अनेक देशों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री शामिल रहे। यह सम्मेलन अफ्रीका से बाहर होने वाले अफ्रीकी देशों के सबसे बड़े समारोहों में से है। बेशक, यह सम्मेलन भारत-अफ्रीका के बीच व्यापारिक संबंधों को और मजबूती देने पर ही ध्यान केंद्रित रहा। सम्मेलन के आखिरी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफ्रीकी नेताओं के सामने भविष्य की योजनाओं का खाका खींचा। अफ्रीका के 40 से ज्यादा देशों के नेताओं को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा, "एक तिहाई मानवता के सपने एक छत के नीचे आ चुके हैं। यह स्वतंत्र देशों और जाग चुके सपनों की दुनिया है। हमारे संस्थान हमारी दुनिया के प्रतिनिधि नहीं हो सकते, अगर वे अफ्रीका की आवाज को जगह नहीं देंगे, जहां एक तिहाई से ज्यादा संयुक्त राष्ट्र सदस्य हैं या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को, जिसमें इंसानियत का छठा हिस्सा है।" भारत एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। कई दशकों तक गुट निरपेक्ष आंदोलन की धुरी रहा भारत अब धीरे-धीरे विदेश नीति बदल रहा है। कभी अलग-थलग रहने वाला देश अब वैश्विक खिलाड़ी बनना चाहता है। इसके लिए भारत को अफ्रीका की जरूरत है। फिलहाल भारत और अफ्रीका के बीच 72 अरब डॉलर का कारोबार होता है। चीन की तुलना में यह एक तिहाई है। भारत अफ्रीका में बड़ा निवेशक है, भारतीय निवेश ने अफ्रीका में नौकरियों के लिए महती योगदान दिया है। अफ्रीका में टाटा, महिन्द्रा, भारती एयरटेल, बजाज आटो, ओएनजीसी जैसी प्रमुख भारतीय कंपनियां कारोबार कर रही हैं। भारती एयरटेल ने अफ्रीका के करीब 17 देशों में दूरसंचार क्षेत्र में 13 अरब डॉलर का निवेश किया है। कुछ समय पहले मोजाम्बिक में जिंदल साउथ वेस्ट ने कोल ब्लाक लिए हैं। भारतीय कंपनियों ने कोयला, लोहा और मैगनीज खदानों के अधिग्रहण में भी अपनी गहरी रुचि जताई है। इसी तरह भारतीय कंपनियां दक्षिण अफ्रीकी कंपनियों से यूरेनियम और परमाणु प्रौद्योगिकी प्राप्त करने की राह देख रही हैं। दूसरी ओर, अफ्रीकी कंपनियां एग्रो प्रोसेसिंग व कोल्ड चेन, पर्यटन व होटल और रिटेल क्षेत्र में भारतीय कंपनियों के साथ सहयोग कर रही हैं। इसके अलावा अफ्रीकी बैंकों, बीमा और वित्तीय सेवा कंपनियों ने भारत में अपने आने का रास्ता बनाने और उपस्थिति बढ़ाने के लिए भारत केंद्रित रणनीतियां तैयार की हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था बीते दो दशकों से तेज विकास कर रही है। मोदी भारत के लिए अफ्रीका में बाजार खोजना चाहते हैं। इस साल दिसंबर में केन्या की राजधानी नैरोबी में विश्व व्यापार संघ की मंत्री स्तर की बैठक होगी। भारतीय प्रधानमंत्री ने अफ्रीकी नेताओं से इस मौके पर भारत और अफ्रीका के बीच मुक्त व्यापार की संभावनाएं तलाशने की अपील की। भारत और अफ्रीका गरीबी से भी जूझ रहे हैं। अफ्रीकी नेता अपने यहां निवेश चाहते हैं। 2008 में हुए पहले भारत अफ्रीका शिखर सम्मेलन के बाद से भारत अब तक अफ्रीका को 7.4 अरब डॉलर का सस्ता कर्ज दे चुका है। इस बार नई दिल्ली ने 10 अरब डॉलर के नए कर्ज का वादा किया है। अफ्रीका दुनिया का दूसरा बड़ा महद्वीप है, लेकिन वहां के ज्यादातर देशों के बीच बहुत ज्यादा आपसी और जातीय मतभेद हैं। यही वजह है कि अक्सर संयुक्त राष्ट्र या दूसरे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अफ्रीकी नेता एक आवाज में नहीं बोल पाते। भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट के लिए अफ्रीकी देशों का समर्थन चाहता है। नई दिल्ली का कहना है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया काफी बदल चुकी है और सुरक्षा परिषद को बदलाव के मुताबिक बनाया जाना चाहिए। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भी मोदी अफ्रीका को साथ लाना चाहते हैं। उनके मुताबिक, "जब सूरज डूबता है, भारत और अफ्रीका के एक करोड़ घर अंधेरे में डूब जाते हैं।" दिसंबर में पेरिस में होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन का हवाला देते हुए मोदी ने कहा, "हम इसे ऐसे बदलना चाहते हैं कि किलीमंजारों की बर्फ भी न पिघले, गंगा का पानी देने वाला ग्लेशियर न खिसके और हमारे द्वीप भी न डूबें।" भारत ने अफ्रीका को सौर ऊर्जा वाले देशों के गठबंधन से जुड़ने का भी न्योता दिया है। दूसरी ओर देखे तो भारत को लेकर समूचे अफ्रीका में सद्भा वना रही, फिर भी भारत ने इतने बड़े क्षेत्र को कमोबेश नजरअंदाज ही किया। हमारा सारा ध्यान व्यापार के स्तर पर अमेरिका, खाड़ी और यूरोपीय देशों तक ही सीमित रहा। भारत का अफ्रीकी संघ के देशों के साथ 1990 तक व्यापारिक कारोबार मात्र एक अरब डॉलर तक ही था। यह भारत के कुल विदेशी व्यापार का मात्र दो फीसदी था। साल 2005 से लेकर साल 2010 तक दोतरफा व्यापार का आंकड़ा 40 बिलियन डॉलर को पार कर गया है। भारत चाहता है कि भारत व अफ्रीका के बीच द्विपक्षीय व्यापार को 2020 तक बढ़ाकर 200 अरब डालर तक किया जाए। भारत की ऊर्जा क्षेत्र में तेजी से बढ़ती जरूरतों की रोशनी में भी अफ्रीका अहम है। नाइजीरिया उन देशों में शामिल है, जिनसे भारत सर्वाधिक कच्चे तेल का आयात कर रहा है। पेट्रोलियम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2012-13 में अफ्रीका से भारत को 3.1 करोड़ टन कच्चे तेल की आपूर्ति हुई जबकि केवल नाइजीरिया से ही 1.23 करोड़ टन तेल का आयात किया गया। भारतीय नाइजीरिया में उस तरह से निवेश नहीं कर रहे हैं जैसा कि वो दूसरी जगह करते हैं। नाइजीरिया की ख्वाहिश है कि वहां भारत की मौजूदगी और दिखे। अफ़्रीका को अगले दशक के लिए वैश्विक आर्थिक वृद्धि के इंजन के तौर पर देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि अफ़्रीका अपनी प्रचुर प्राकृतिक संपदा और विविधताभरी आबादी के बूते पूरे महाद्वीप को एक ऐसे इंजन में तब्दील कर देगा जिससे उसकी अर्थव्यवस्था चीन, ब्राज़ील और भारत से कहीं अधिक रफ़्तार से आगे बढ़ेगी। बीते दशक में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में औसतन 7.4 प्रतिशत की बढ़त दर्ज हुई है, जबकि अफ़्रीका इस मामले में 5.7 प्रतिशत की विकास दर से बढ़ा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का पूर्वानुमान है कि वर्ष 2012 से वर्ष 2017 के बीच विश्व की सर्वाधिक तेज़ी से बढ़ती 10 अर्थव्यवस्थाओं में से छह अफ़्रीकी देशों की होंगी। भारत और अफ़्रीका में मध्यवर्ग तेज़ी से बढ़ रहा है जहां शहरीकरण के साथ आमदनी और कनेक्टिविटी भी बढ़ी है जिसने अप्रत्याशित आर्थिक गतिविधियों को जन्म दिया है जो धरती के इन दोनों ही हिस्सों को आगे बढ़ाने में मदद कर रही हैं। भारतीय और अफ़्रीकी कारोबार उतना ही पुराना है जितना इतिहास। इस बात के काफ़ी सबूत हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता के अरब सागर के रास्ते अफ़्रीकी देशों से कारोबारी संबंध थे। अफ़्रीका ने भारतीय आबादी को भी आकर्षित किया, हालांकि कुछ को जबरन वहां भेजा गया। लेकिन वो भी अब अफ़्रीका का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं जो वहां कारोबार, सरकार और अन्य क्षेत्रों में अहम भूमिका अदा कर रहे हैं। अफ़्रीका के साथ भारत का आधुनिक युग में मौजूदा द्विपक्षीय व्यापार तुलनात्मक रूप से देर से शुरू हुआ, लेकिन इसके बावजूद रफ़्तार पकड़ने में देर नहीं लगी। अफ़्रीका के 54 में से 40 देशों के साथ भारत कारोबारी लाभ की स्थिति में है जहां उसका आयात कम और निर्यात अधिक है। क्षेत्रफल और आबादी के हिसाब से अफ़्रीका दूसरा सबसे बड़ा महाद्वीप है। वर्ष 2015 में अफ़्रीका की अनुमानित आबादी 1.166 अरब है। ख़ास बात ये है कि अफ़्रीका की आबादी बीते तीन दशकों में दोगुनी से भी अधिक हो गई है जिसकी वजह से यहां आबादी का एक बड़ा हिस्सा युवाओं का है। आधी से अधिक आबादी 25 साल से कम उम्र की है। भारत भी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है जिसे अफ़्रीका से काफ़ी माल की ज़रूरत है और उस माल की क़ीमत चुकाने के लिए अफ़्रीकी बाज़ार पर भी भारत की नज़र है। इस तरह अफ़्रीका में भारत के लिए आर्थिक संभावनाएं कूट-कूटकर भरी हैं और इसी वजह से भारत उसके साथ आर्थिक संबंध बढ़ा रहा है। वैश्विक परिदृश्य में बात करें तो भारत अपने लिए अधिक महत्वपूर्ण भूमिका तलाश रहा है। ऐसे में भारत, अफ़्रीका के उन 54 देशों से अलहदा नहीं रह सकता जो संयुक्त राष्ट्र के सदस्य भी हैं। याद रखिए कि संबंधों और मैत्री में सिर्फ व्यापार ही सब कुछ नहीं होता। भारत सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि यहां रहने वाले हजारों भारतीय नागरिकों के साथ रंगभेद की नीति न अपनाई जाए। भारत-अफ्रीका संबंधों के बीच चीन भी अब आ गया है। वह नाइजीरिया में निवेश बढ़ाता जा रहा है। नाइजीरिया में चीन की बढ़ती मौजूदगी के लिए भारत को ही दोषी माना रहा है। कई नाइजीरियाई जानकार कहते रहे हैं कि चूंकि भारत उनके देश में नहीं आया तो चीन ने दस्तक दे दी। अब तो आपको अफ्रीका में चीन के साथ मुक़ाबला करना होगा। हां, आईटी सेक्टर में भारत की बड़ी ताकत के आगे चीन फेल है, अफ्रीका में भी। कुल मिलाकर माना जा सकता है कि भारत को लेकर अफ्रीका में तमाम संभावनाएं मौजूद हैं। जो अवरोध हैं, उन्हें दूर किया जा सकता है।

गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

किस-किसने कराई नेताजी की जासूसी ?


सात दशक बीत गये। 18 अगस्त 1945 को द्वितीय विश्वयुद्ध के धुंधलके के बीच जब यह खबर आई कि इंडियन नेशनल आर्मी के ओजस्वी नेता सुभाषचंद्र बोस को ले जा रहा विमान ताइपेई में दुर्घटनाग्रस्त हो गया है तो न केवल परतंत्र हिंदुस्तान में बल्कि दुनिया भर में नेताजी के संबंध में जानने की एक बेचैन जिज्ञासा उत्पन्न हुई लेकिन उस दुर्घटना के बाद के कथानक केवल दो शब्दों - ‘मृत’ और ‘लापता’ के बीच उलझ कर रह गये। अब भी यह रहस्य, रहस्य ही है। नेताजी मौत के रहस्य को सुलझाने के लिए तीन समितियां बनीं, सबने अपनी-अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंपी लेकिन रहस्य से पर्दा नहीं उठा। मामला फिर गरमाया कि नेताजी के परिवार वालों की 1948 से लेकर 1968 तक गुप्त ढंग से निगरानी की गई थी। ऐसी क्या बात रही कि स्वतंत्र हिंदुस्तान को भी अपने नेता के परिजनों की जासूसी करनी पड़ी। इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए हमें नेपथ्य में अर्थात वर्ष 1945 में जाना होगा और जानना होगा कि उस समय की सत्ता क्या थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के आत्मसमर्पण करने के बस तीन दिन बाद ही यह दुर्घटना घटी थी। जब संयुक्त राष्ट्र (जो अमेरिका, सोवियत संघ और ब्रिटेन के नेतृत्व वाले मित्र राष्ट्रों का एक औपचारिक गुट भर था) द्वारा जर्मनी, जापान और इटली के नेतृत्व वाले धुरी राष्ट्रों पर विजय की घोषणा की जा सकती थी। ब्रिटिश राज के अंतर्गत आने वाला भारत भी एक सहयोगी था, हालांकि गांधी जी ने युद्ध से कांग्रेस का समर्थन इस आधार पर वापस ले लिया था कि इसमें भारतीयों की राय नहीं ली गयी थी। लेकिन ब्रिटिश राज, जो भारत का वैधानिक शासन था, उसने भारतीय सेना और रजवाड़ों के रक्षा बलों को युद्ध में शामिल कर लिया था। भारतीय सेना अफ्रीका में जर्मनों के विरुद्ध और दक्षिण-पूर्व एशिया में जापान के विरुद्ध लड़ी थी। औपचारिक विरोध के बावजूद कांग्रेस ने सैन्य बलों में विद्रोह भड़का कर ब्रिटेन के प्रयासों को अवरुद्ध करने की कोई कोशिश नहीं की। जिस व्यक्ति ने ऐसा किया, वे सुभाषचंद्र बोस ही थे, जिन्होंने 1939 में गांधी और कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया था। जब द्वितीय विश्व युद्ध लगभग खत्म होने के कगार पर था तब अंग्रेज भारत छोड़ने के लिए तैयार हो रहे थे, पर वे जिस भारत को छोड़ कर जा रहे थे, उसके लिए उनकी कुछ योजनाएं भी थीं। इस परिस्थिति में विभिन्न राजनीतिक शक्तियों के एक दिलचस्प गठजोड़ का एक उद्देश्य समान था- सुभाषचंद्र बोस की अनुपस्थिति। ब्रिटिश शासन का बोस से पूरी तरह वैमनस्य था। अंग्रेज कांग्रेस को वश में कर सकते थे, किंतु बोस को नहीं। मुस्लिम लीग को बोस स्वीकार्य नहीं हो सकते थे, क्योंकि जिस अनुकरणीय स्वरूप में उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी में हिंदू-मुस्लिम-सिख एकता की स्थापना की थी, वह उस भारत का खाका था, जो वह बनाना चाहते थे। दक्षिण-पूर्व एशिया से प्रसारित अपने रेडियो संबोधनों में बोस ने जिन्ना और पाकिस्तान की संभावना की कठोरता से आलोचना की थी। अगर बोस भारत में उपस्थित होते, तो वे विभाजन के जोशीले विरोधी होते। कांग्रेस स्वाभाविक कारणों से बोस को पसंद नहीं करती थी। क्यों कि वे उस सत्ता के दावेदार होते, जिसकी आकांक्षा पार्टी और उसके नेता जवाहरलाल नेहरू को अपने लिए थी। यदि पंडित नेहरू इस बात को लेकर निश्चिंत थे कि बोस की मृत्यु हो चुकी है, तो फिर बोस के परिवार पर उन्होंने निगरानी करना क्यों जारी रखा था? जैसा कि दस्तावेजों से जाहिर होता है, 1957 में जापान की यात्रा के दौरान नेहरू परेशान क्यों हो गये थे? ये प्रश्न अभी उत्तर की प्रतीक्षा में हैं। बहरहाल, अभी तक गोपनीय रखी गई फाइलों के सार्वजनिक होने से पहले हम कुछ भी भरोसे के साथ कहने की स्थिति में नहीं है। इस संबंध में राजनीतिक समीकरण बहुत सरल है। सुभाषचंद्र बोस उम्र के हिसाब से जवाहरलाल नेहरू से आठ वर्ष छोटे थे। उनके पास समय था। बोस या उनकी पार्टी 1952 तक बंगाल और उड़ीसा में चुनाव जीत सकते थे। राष्ट्रीय स्तर पर बोस विपक्षी पार्टियों के गंठबंधन की धुरी बन सकते थे। यह गंठबंधन 1957 में कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकता था और 1962 के आम चुनाव में पराजित कर सकता था लेकिन यह बात निर्विवाद तौर पर कही जा सकती है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास की कहानी तब बिल्कुल अलग होती। वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर ने 1988 में एक किताब लिखी थी ‘नेहरू : द मेकिंग ऑफ इंडिया’ इसमें उन्होंने नेहरू के शुक्लपक्ष को बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत किया था लेकिन हाल ही में उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी अब भी ऐसी 87 फाइलें हैं, जिनका भारत सरकार खुलासा नहीं करेगी। उन्होंने सवाल उठाया कि ऐसा क्यों है? वे यह भी जानना चाहते हैं कि क्या नेहरू ने जान-बूझकर इन्हें इसलिए छुपाया ताकि लोग उन पर स्टालिन की एक जेल में नेताजी के कथित रूप से कैद होने संबंधी बातों पर पर्दा डालने का आरोप ना लगाएं? इस तरह मानो उन्होंने यह जताने की कोशिश की कि नेहरू और स्टालिन साजिशकर्ता थे। यह सही है कि गांधी और नेहरू दोनों ही सुभाषचंद्र बोस को पसंद नहीं करते थे। लेकिन नेताजी को लेकर जो रहस्य बरकरार है, उस पर से पर्दा उठाने को लेकर सभी सरकारें, लगभग कन्नी काटती रही हैं। केंद्र में सर्वाधिक समय तक कांग्रेस की ही सरकारें रही है। तो क्या इन रहस्यों से पर्दा उठने पर वर्तमान में खस्ताहाल कांग्रेस और पस्त नहीं हो जाएगी? कांग्रेस के पित पुरुष नेहरू की आभा घूमिल नहीं हो जाएगी? खैर, यह तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस से संबंधित देश की अंदरुनी स्थितियों का आकलन है लेकिन उन पर नजर रखने के लिए जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने भी स्वयं एक महिला गुप्तचर की नियुक्ति करायी थी। हालांकि हिटलर - नेताजी के संबंध की घनिष्ठता जगजाहिर है। यह महिला एमिली शैंकी थी।
नेताजी और एमिली शैंकी की इकलौती संतान अनिता बोस हैं, जिनका जन्म 29 नवंबर, 1942 को वियना में हुआ था। अनिता बोस छह फरवरी, 2013 को नई दिल्ली आई थीं। नेताजी की जीवनी पर आधारित पुस्तक ‘फ्रीडम स्ट्रगल ऑफ इंडिया’ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भेंट की थी। तब भी अनिता बोस ने या उनके पति मार्टिन फाफ, उनके तीनों बच्चे पीटर अरुण, थॉमस कृष्णा और माया करीना ने जासूसी की शिकायत नहीं की। अनिता बोस को मोदी सरकार से भी बोस परिवार की कथित जासूसी को लेकर कोई शिकायत नहीं है। न ही अनिता बोस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बर्लिन में मिलने में कोई दिलचस्पी दिखाई। ऐसे में, आशंका यह भी उठती है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि नेताजी को लेकर बोस परिवार के भीतर ही राजनीति हो रही हो? सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई शरत चंद्र बोस के पोते सूर्य कुमार बोस की प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात कराने में बर्लिन स्थित भारतीय दूतावास की इतनी दिलचस्पी क्यों रही? इस सवाल का उत्तर शायद समय आने पर मिले। नेताजी के भतीजे अमिय नाथ बोस के बेटे सूर्य कुमार बोस जर्मनी के हैम्बर्ग शहर में आईटी प्रोफेशनल हैं और वहां 1972 से रह रहे हैं। सूर्य कुमार बोस हैम्बर्ग में इंडो-जर्मन एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। सूर्य कुमार बोस के अनुसार, ‘यह सिलसिला 1978 में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद रुक गया।’ गौर करने वाली बात यह है कि इन्हीं सूर्य कुमार बोस के दूसरे भाई चंद्र कुमार बोस 09 अप्रैल, 2014 को गांधी नगर जाकर तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले, और उन्हें परिवार के 24 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित पत्र दिया और कहा कि नेताजी की मौत पर साल 2006 में जस्टिस मुखर्जी कमीशन की रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए, जिसमें कहा गया था कि उनकी मृत्यु हवाई दुर्घटना में नहीं हुई थी। इससे पहले 1955 में शाह नवाज कमेटी, और 1970 में खोसला आयोग की रिपोर्टों पर चंद्र कुमार बोस को भरोसा नहीं था, जिनमें माना गया था कि नेताजी की मौत हवाई दुर्घटना में हुई थी। सवाल यह है कि नेताजी के बड़े भाई शरतचंद्र बोस की चौथी पीढ़ी को क्यों लगा कि इस मामले में किसी राज्य का मुख्यमंत्री कुछ कर सकता है? लेकिन बात सिक्के के दूसरे पहलू पर भी होनी चाहिए। अनिता बोस ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया था कि नेताजी वियना इलाज के सिलसिले में गए थे, वहां उन्हें अपनी पुस्तक ‘द इंडियन स्ट्रगल’ लिखने के लिए एक सहयोगी की जरूरत थी, और उसी क्रम में एमिली शैंकी से उनकी मुलाकात कराई गई थी। 29 अप्रैल, 1941 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रिबेनट्राप से वियना के होटल इंपीरियल में मुलाकात होती है, और इसके प्रकारांतर एमिली शैंकी, नेताजी के एक खास दोस्त ओटो फाल्टिस के साथ वियना से बर्लिन आती हैं। मिहिर बोस की पुस्तक ‘राज, सीक्रेट, रिवॉल्यूशन’ में इसकी चर्चा है कि एमिली शैंकी की सुभाष चंद्र बोस से मुलाकात संयोग नहीं था, उसे कुख्यात गुप्तचर संगठन ‘गेस्टापो’ ने नेताजी पर नजर रखने के लिए ‘प्लांट’ कराया था। नेताजी, अपनी ‘संगिनी’ एमिली के हिटलर के प्रति समर्पण को देखकर अक्सर तंज भी करते थे, ‘योर हिटलर!’ इस तथ्य का पता इतालवी विदेश मंत्री सिएनो की डायरी से चलता है। सुभाष चंद्र बोस, सिएनो से 06 और 29 जून 1941 को रोम में मिले थे। नेताजी को सिएनो ने कुछ समय के लिए नजरबंद भी कर लिया था। फ्रीडा क्रेत्शमार, एक और सचिव थी, जिसे जर्मन खुफिया संस्था ‘गेस्टापो’ ने नेताजी पर नजर रखने के लिए ‘माताहारी’ के रूप में नियुक्त कराया था। तो क्या अब, जब नेताजी के परिजनों और उनसे जुड़ी खुफिया जानकारियों को सार्वजनिक किया जाए या नहीं, इसपर फैसला करने के लिए केंद्र सरकार ने एक समिति गठित की है, तो उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि हाल ही में जर्मनी की यात्रा कर लौटे प्रधानमंत्री मोदी नेताजी से जुड़े तमाम तथ्यों, दस्तावेजों और तस्वीरों की मांग वह जर्मन चांसलर अंगेला मर्केल से करें। बगैर इसके नेताजी के संबंध में अगर कोई जानकारी सामने आती है तो वह अधकचरी ही होगी और सवाल जस के तस अर्थात शाश्वत बने रहेंगे।

जर्मनी, फ्रांस व कनाडाः मोदी पर मेहरबान


जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर के साथ यूरेनियम आपूर्ति सुनिश्चत कर रहे थे, तभी टाइम पत्रिका ने उन्हें दमदार नेता बताते हुए दुनिया के 100 प्रभावशाली लोगों में शामिल करने की घोषणा की तो वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने उन्हें भारत का मुख्य सुधारक कहा। वास्तव में, बीते एक दशक से भारत की सत्ता में रही यूपीए की सरकार ने एक ‘उदासीन सरकार’ की छवि बनाई थी, यह छवि न केवल देश में बल्कि पूरी दुनिया में बनी। दुनिया की तमाम रेटिंग एजेंसियों ने भारत को सुस्त अर्थव्यवस्था करार दे दी थी, लेकिन परिदृश्य बीते 11 महीने में बदले हैं, रेटिंग एजेंसियों का भारत के प्रति नजरिया भी बदला है। वैसे भी किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था वहां की उत्पादकता पर तो निर्भर करती ही है, लेकिन इसके लिए मानव संसाधन, तकनीक और संयंत्र की आवश्यकता होती है। इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भारी निवेश की आवश्यकता होती है। विकासशील देश में निवेश के लिए अवसरों की भारी गुंजाइश होती है लेकिन इसके लिए उपयुक्त वातारण सबसे अहम तत्व बनता है। बीते 11 महीने के शासन में मोदी सरकार ने निवेश के लिए अनुकुल माहौल सृजित करने की मैराथन कोशिशे की है और कुछ हद तक इसमें सफलता भी मिली है, अगर भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर सरकार की हो रही छिछालेदर को दरकिनार कर दे तो... कहावत है कि प्रतिष्ठा पाने के लिए सबसे पहली आवश्यक शर्त होती है कि हम दूसरे को प्रतिष्ठित करें। इस मामले में नरेंद्र मोदी काफी आगे हैं। हम इसका नजारा चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे के दौरान उनके स्वागत के रूप में देख चुके हैं। इसी तरह गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति का भी भव्य स्वागत किया गया। वास्तव में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के परिप्रेक्ष्य में इस ‘स्वागत कूटनीति’ का महत्व अलग होता है औऱ इसका सीधा मतलब व्यापार, कूटनीति, तकनीक हस्तानांतरण, शिक्षा औऱ द्वीपक्षीय संबंधों की प्रगाढता से है। 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद नरेंद्र मोदी 15 देशों का दौरा कर चुके हैं। उनके विदेश दौरे का खास मकसद है कि विदेशी निवेश को आकर्षित किया जाए जिससे देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिल सके। मोदी अपनी तीन देशों फ्रांस, जर्मनी और कनाडा का दौरा संपन्न कर लौटे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूरोप और कनाडा यात्रा के राजनीतिक एवं आर्थिक महत्व के बरक्स तकनीकी, वैज्ञानिक और सामरिक महत्व भी कम नहीं है। इन देशों के पास भारत की ऊर्जा जरूरतों की कुंजी भी है। इस यात्रा के दौरान ‘मेक इन इंडिया’ अभियान, स्मार्ट सिटी और ऊर्जा सहयोग महत्वपूर्ण विषय बन कर उभरे हैं। परमाणु ऊर्जा में फ्रांस और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में जर्मनी आगे हैं। इन सबके अलावा अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद भी इन देशों की चिंता का विषय है। सामरिक दृष्टि से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की पहलकदमी में कनाडा की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। आण्विक ऊर्जा को लेकर भारत का शुरुआती सहयोगी देश कनाडा ही था। साल 1974 में भारत के पहले आण्विक परीक्षण के लिए आण्विक सामग्री जिस ‘सायरस’ रिएक्टर से प्राप्त हुई थी, वह कनाडा के सहयोग से लगा था। इस विस्फोट के बाद अमेरिका और कनाडा के साथ भारत के नाभिकीय सहयोग में खटास आयी, जो 2008 के भारत-अमेरिका और 2010 के भारत-कनाडा परमाणु सौदा के बाद खत्म हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी कनाडा यात्रा के दौरान एक अहम करार पर हस्ताक्षर किए। इस नए करार के तहत अगले पांच वर्षों में भारत, कनाडा से तीन हज़ार टन से ज़्यादा यूरेनियम खरीदेगा। इसका इस्तेमाल भारत के परमाणु कार्यक्रम में किया जाएगा। इन सब कुछ प्रमुख उपलब्धियों और समझौतों के अलावा मोदी ने छोटे-छोटे स्तर के कई समझौते किए। रेलवे, सुरक्षा, नागरिक विमानन, शिक्षा एवं कौशल का विकास, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता आदि को लेकर कई महत्वपूर्ण समझौते हुए। मोदी ने भी अपनी इस यात्रा को काफी सफल बताया। अब यह देखना होगा कि किया गया समझौता और दिया गया भरोसा कितना और कितनी जल्दी भलीभूत होता है। इसके पहले सामरिक दृष्टि से फ्रांस के साथ राफेल लड़ाकू विमान का सौदा इस यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण घटना है। एक तरह से इस सौदे को नये ढंग से परिभाषित किया गया है। पहले इस सौदे के तहत 18 तैयारशुदा विमान फ्रांस से मिलते। शेष 108 विमानों के लिए फ्रांस तकनीकी जानकारी हमें उपलब्ध कराता। उन्हें एचएएल में बनाने की योजना थी। अब 36 विमान सीधे वहीं से तैयार हो कर आयेंगे। तो क्या मोदी सरकार ‘मेक इन इंडिया’ नीति से हट रही है? जबकि फ्रांस सरकार किसी भारतीय कंपनी के सहयोग से निजी क्षेत्र में भी इस विमान को तैयार कर सकती है। इस व्यवस्था में भारतीय कंपनी की हिस्सेदारी 51 फीसदी की होगी। राफेल विमानों को लेकर फिलहाल एक अनिश्चितता खत्म हुई, पर यह समस्या का समाधान नहीं है। हमारे फाइटर स्क्वॉड्रन कम होते जा रहे हैं। आदर्श रूप से हमारे पास 45 स्क्वॉड्रन होने चाहिए, पर उनकी संख्या 36 के आसपास हो जाने का अंदेशा है। हमें केवल विमान ही नहीं, बल्कि उसे बनाने की तकनीक भी चाहिए। और तकनीक केवल पैसे से नहीं, कूटनीति से मिलती है। राफेल दो इंजन का फ्रंटलाइन फाइटर विमान है। इसके लिए टेंडर 2007 में निकला था। भारत अपनी सेनाओं के आधुनिकीकरण में लगा है। लगभग 100 अरब डॉलर के इस कार्यक्रम के लिए धन से ज्यादा तकनीक हासिल करने की चुनौती है। तकनीक पैसा देने पर भी नहीं मिलती। सैन्य तकनीक पर सरकारों का नियंत्रण होता है। उसे हासिल करने के दो ही तरीके हैं। पहला, हम अपनी तकनीकी शिक्षा का स्तर सुधारें। दूसरा, हम मित्र बनायें और तकनीक हासिल करें। यह तय है कि जब तक हमारे पास तकनीक नहीं होगी, हम स्वावलंबी नहीं हो पायेंगे। महाराष्ट्र के जैतापुर में परमाणु संयंत्र लगाने को लेकर भी फ्रांस के साथ नए सिरे से सहमति बनी। जैतापुर में फ्रांस की कंपनी एरेवा की मदद से छह परमाणु संयंत्र शुरू होंगे। भारत में लगने वाले इन संयंत्रों से दस हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन होना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी पहल ‘मेक इन इंडिया’ में फ्रांस की कई कंपनियों ने रुचि दिखाई। उनमें फ्रांस की प्रमुख विमानन कंपनी एयरबस भी शामिल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तुलूज एयरबस संयंत्र का दौरा करने के बाद मेक इन इंडिया का समर्थन करते हुए एयरबस ने कहा कि वह भारत में विमान बनाने को तैयार है। जर्मनी अक्षय ऊर्जा, ऑटोमोबाइल्स और भारी इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अग्रणी देश है। जर्मनी, पूरे यूरोप में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। कोई एक हजार जर्मन कंपनियां 16।1 अरब डॉलर का सालाना कारोबार भारत से कर रही हैं। जर्मनी जितनी मशीनरी दुनिया भर में निर्यात करता है, उसका 33 प्रतिशत भारत भेजता है। क्या इन जर्मन कंपनियों को मोदी जी ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम की ओर मुखातिब कर पायेंगे? जर्मनी की दिलचस्पी भारत में हाईस्पीड रेल, इंश्योरेंस सेक्टर से मुद्रा उगाही, इंडस्ट्रियल कॉरीडोर और स्मार्ट सिटी बनाने में है। लेकिन, जर्मनी का सरोकार भारत में ईसाइयों की सुरक्षा से भी है। 28 देशों का समूह, यूरोपीय संघ से भारत का 73 अरब यूरो का व्यापार है, मगर यूरोपीय संघ से मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) कई वर्षो से टलता रहा है। मोदी संभवत: इस वजह से ब्रसेल्स जाना टाल गये कि कहीं ‘एफटीए’ पर बात नहीं बनी, तो जगहंसाई होगी। यूरोपीय थिंक टैंक ‘फ्रीद’ के अनुसार, ‘यूरोप को वैसी प्राथमिकता नहीं मिल रही है, जो पिछली सरकारों ने दी थी। मोदी जब से सत्ता में आये, उनकी ‘यात्रा’ में यूरोप नहीं रहा है, उनका ज्यादा ध्यान ‘हिंद-प्रशांत’ कूटनीति पर केंद्रित रहा है। यह बात बहुत हद तक सही है। ऐसा ही पेच कनाडा के साथ फंसा है। कनाडा से आर्थिक सहयोग समझौते (सीइपीए) के वास्ते 19-20 मार्च, 2015 को बैठक हुई थी, लेकिन इसमें ‘मेक इन इंडिया’ की जगह कितनी है, यह मोदी के कनाडा दौरे के बाद भी बंद मुठ्ठी की तरह ही है। यह आने वाले कुछ महीने के बाद पता चल पाएगा कि कनाडा ‘मेक इन इंडिया’ में कितना सहभागी बनता है।

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

कहीं प्रहसन ना बन जाये विलय


पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने एक बार कहा था कि भारतीय राजनीति में एक तीसरा मोर्चा हमेशा रहेगा, भले ही उसके रूप समय – समय पर बदलें। दरअसल आजादी के बाद से ही देश की सत्ता और राजनीति की मुख्यधारा कांग्रेस के ईर्द-गिर्द घूमती रही, लेकिन बीते दो दशकों में कांग्रेस के आभा में क्षरण हुआ और ठीक लगभग इसी दौर में क्षेत्रीय स्तर पर राजनीतिक क्षत्रपों का वर्चस्व बढ़ा। 2014 के आम चुनाव में जिस प्रकार नरेंद्र मोदी के आक्रामक आवग से राजनीतिक समीकरण बदले हैं, ऐसे में देश में विपक्ष क्षतविक्षत तो हुआ ही है औऱ कई दलों के सामने स्वयं को अप्रासंगिक होने का खतरा भी खड़ा हो गया है। 90 के दशक तक तीसरे मोर्चे का मतलब ही वाम दलों की अगुआई में बनने वाला कुनबा होता था, लेकिन वाम दलों के सिकुड़ने और फिर क्षत्रपों के बढ़ते प्रभाव ने तीसरे मोर्चे की धुरी बदल दी। एक तरह से देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अस्त-पस्त है, तो मोदी लहर का डर इन क्षत्रपों को मजबूती खुंटा से गांड़ने के लिए विवश कर दिया है। 1975 में इंदिरा गांधी की कथित तानाशाही शासन के खिलाफ लोकनायक जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुए संपूर्ण क्रांति की कोख से निकली जनता पार्टी का इतिहास काफी उतार –चढ़ाव भरा रहा है। इन 40 सालों में ‘जनता पार्टी’ के मिलने–बिछड़ने-टूटने की क्रमवार कहानियां है। आज फिर से जनता परिवार के पुराने छह दलों का विलय हुआ है। यह विलय क्यों, कैसे और किसलिए हुआ? इस प्रश्न का उत्तर बिल्कुल सीधा और सपाट है। राजनीति में अवसरवाद, एक तरह से कहा जाय तो दोनों में चोली-दामन का संबंध है। अवसरों का लाभ राजसत्ता हासिल करने के लिए किया जाना तार्किक तौर पर अनैतिक नहीं है, लेकिन राजसत्ता, जनउपेक्षा के साथ अवसरों के सहारे हासिल करने की कवायद, इसे न केवल निकृष्ट बनाती है बल्कि यह घोर अनैतिक भी हो जाता है। वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में देखें तो देश की राजनीति आजादी के बाद से काफी परिपक्व व पुष्ट हुई है। ऐसे वक्त में जब देश की राजनीति ने धारा बदली तो क्षेत्रीय दलों को अपने के अस्तीत्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। बीते आम चुनाव में भाजपा के हाथों मिली करारी हार के बाद बिखरे हुए जनता दल परिवार के नेताओं को अपने परिवार को फिर याद आई। दरअसल यह एकता नरेंद्र मोदी के हाथों हार का कड़वा स्वाद चखने के बाद याद आई। जातिवाद और धर्म की राजनीति करने वाले इस परिवार को समन्वय की याद आने का सबसे बड़ा कारण अपने अप्रासंगिक होने का दुख है। मोदी ने जिस विकास के सहारे अपनी जीत दर्ज कराई है वह इस देश की राजनीति का यू टर्न बन गई है। सवाल यह खड़ा हो रहा है कि आखिर यह याद आज ही क्यों आई। क्या वे मोदी के मैजिक से पार पाने का जुगाड़ कर रहे हैं या फिर उनमें राजनीति के माध्यम से समाज सेवा का नया भाव उदय हुआ है। इस एका में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल(यू), जनता दल (एस) और इंडियन नेशनल लोकदल शामिल हुए। जनता दल में शामिल रहे सभी गुटों की एकता के नाम पर भारत की समकालीन राजनीति में एक बार फिर इतिहास को दोहराने की कोशिश हो रही है। हालांकि अभी यह कहना कठिन है कि इस बार यह एक और त्रासदी साबित होगी या प्रहसन! यह बाद में पता चलेगा। मुलायम सिंह यादव ने तो कहा है कि भविष्य में कुछ और समूहों को भी इसमें शामिल करने की योजना है। इस एकता को अवसरवाद की संज्ञा ही दी जा सकती है। अदूरदर्शी राजनीतिक सोच के चलते हुए बिखराव को समेंटने के इस प्रयास को मोदी का मैजिक कहां तक सफल होने देगा यह भी इंतजार कर देखने की बात है। माना जाता रहा है कि यह महामोर्चा 2019 के आम चुनाव के मद्देनजर तीसरे मोर्चे को जिंदा करने की कोशिश है। नीतीश और मुलायम की चिंता अपने-अपने राज्यों में विधानसभा चुनावों को लेकर भी है। बिहार में इसी साल और उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। दोनों ही राज्यों में सत्ताधारी पार्टियों के लिए भाजपा से मुकाबला करना बड़ी चुनौती है। जयप्रकाश नारायण ने गैर साम्यवादी दलों को कांग्रेस के कुशासन, भ्रष्टाचार और कुनबापरस्ती जन्य तानाशाही से मुक्ति दिलाने को एकजुट किया था। उनके जाते ही उसके दो टुकड़े हो गए। एक जनता पार्टी रह गई, दूसरा भारतीय जनता पार्टी बन गयी। बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोर्चा और चौधरी चरण सिंह के लोकदल को जनता पार्टी में शामिल कर जनता दल बनाया गया। इसके पहले अध्यक्ष अजीत सिंह बने जिसके गर्भ से जार्ज फर्नान्डीस की समता पार्टी निकली जिसके अब नितीश कुमार डिक्टेटर हैं हालांकि उसका नाम बदलकर अब जनता दल (यू) हो गया। शरद यादव इस दल के वैसे ही अध्यक्ष हैं जैसे मनमोहन सिंह यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री थे। गैर कांग्रेसवाद के रूप में जो समाजवादी विभिन्न नामों से एकजुट हुए थे वे आज और भी अधिक नामधारी होकर कांग्रेस की गोद में बैठते गए और अपना रूप बदलते गए। जिस साम्यवादी पार्टी ने इनको कांग्रेस की गोद में डालने का काम किया था, उसे अब ये पूछ भी नहीं रहे हैं लेकिन कांग्रेस के साथ जाने के द्वंद से जूझ रहे हैं। लालू यादव तो समग्र रूप से कांग्रेस के साथ रहना चाहते हैं, नितीश चाहते हैं कि यह मामला परदे के पीछे ही रहे और मुलायम सिंह दिल्ली की राजनीति में महत्वपूर्ण बने रहने के लिए कांग्रेस को राज्यसभा चुनाव में मदद का क्रम बनाए हुए हैं। जब भ्रष्टाचार, कुशासन और कुनबापरस्ती से देश को सबका साथ और सबका विकास की दिशा पकड़ाने वाले नरेंद्र मोदी का विरोध एकमात्र लक्ष्य के रूप में घोषित किया जाता है तो उसके विघटनकारी दुष्परिणाम की आशंका प्रबल हो जाती है। मोदी के अभियान ने जातीय जकड़न को तोड़ा है और उम्मीद यह की जा रही है कि शीघ्र ही सांप्रदायिक जकड़न की कडि़यां भी टूटेगी। ऐसी परिस्थिति में जातीयता और सांप्रदायिकता की वाहकों के रूप में बहके ''नेताओं'' को अपने लिए जो खतरा दिखाई पड़ रहा है उससे बचाव के रूप में इसे अंतिम प्रयास कह सकते हैं। मुलायम सिंह का दावा है कि वे डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के ''एकमात्र'' उत्तराधिकारी हैं। नितीश और लालू यादव, जयप्रकाश नारायण के समग्र क्रांति आंदोलन से उपजे हैं। क्या बिहार और उत्तर प्रदेश उन महान नेताओं की आकांक्षा के अनुरूप समग्रता की दिशा में बढ़ रहा है अभी तक तो जो दृश्य है उससे तो यही लगता है कि ''समग्र जनता'' परिवार समस्त व्यक्तिगत परिवार में ही सिमट गया है। दो वर्ष पूर्व मुलायम सिंह ने राष्ट्रपति चुनाव के समय ममता बनर्जी को कैसे अधर में छोड़ दिया था और उसके पूर्व कई बार मार्क्सवादी पार्टी के नेताओं को कहां हैं मोर्चा कहकर झटका दे चुके हैं। सकारात्मक उद्देश्य विहीन मात्र विरोध करने के लिए एकत्रीकरण अब तक दिखावे के अलावा कुछ भी साबित नहीं हुआ है। इस बार शायद उतना भी न हो क्योंकि अभी भी चुनावों में उनकी वही स्थिति होने जा रही है जो कांग्रेस की हो चुकी है। अब यह विलय जनता परिवार को एकजुट कर कैसे बिहार और उत्तर प्रदेश की सत्ता इनके झोली में ही रहने देगी, यह देखना दिलचस्प होगा।

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

कूटनीति की राजनीति


यह गजब का परिवर्तन है कि जो समाजवादी अमेरिका का नाम सुनते ही नाक-भौ सिकोड़ते थे, वहीं समाजवादी अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा की खैरमकदम करने से चुकने पर अफसोस जता रहे हैं. दरअसल, ओबामा के तय कार्यक्रम के तहत उन्हें 27 जनवरी को आगरा स्थित ताजमहल के दीदार के लिए जाना था लेकिन उनका कार्यक्रम अरब के शाह के निधन के कारण रद हो गया. दुनिया बड़ी तेजी से हाल के कुछ वर्षों में बदली है और साथ ही द्विपक्षीय संबंध का अर्थशास्त्र भी बदला है और इसका आभाष उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी है. वहीं देश में जहां 66 वें गणतंत्र दिवस की मेहमाननवाजी में व्यस्त ओबामा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भारतीय जनमानस से ‘मन की बात’ करने को लेकर काफी उत्सूक थे, तभी गणतंत्र दिवस की शाम ‘कामन मैन’ के सृजनकर्ता कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण ने दुनिया को अलविदा कर दिया. एक और चीज गौर करने लायक रही कि ओबामा की भारत यात्रा पर दुनिया भर की मीडिया ने खास कवरेज की, अलग-अलग देशों ने इसे अलग-अलग तरीके से पेश किया. जहां भारतीय और अमेरिकी मीडिया में इस यात्रा की सार्थकता को काफी ‘स्पेस’ मिला, वहीं पाकिस्तानी मीडिया ने भारत-अमेरिका की बढ़ती नजदीकियों के जरिये खुद के वजीर-ए-आजम नवाज शरीफ पर निशाना साधा, तो चीन की मीडिया खास कर सरकारी मीडिया ने काफी संतुलित तरीके से इस पर टिप्पणी की और भविष्य में भारत-चीन संबंधों पर ओबामा की यात्रा का कोई प्रभाव नहीं पड़ने के प्रति अपना विश्वास जताया. ओबामा के भारत दौरे के बाद अमेरिका द्वारा चीन पर नकेल कसने की कयासों का खंडन करते हुए अमेरिकी उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बेन रोड्स ने कहा भी कि नई दिल्ली के साथ संबंध बढ़ाने का अर्थ यह नहीं है कि हम चीन को नियंत्रित करना चाहते हैं. एशिया प्रशांत क्षेत्र में भारत-अमेरिका के रिश्ते किसी देश के खिलाफ नहीं है बल्कि साझा हितों को प्रोत्साहित करने का है. हालांकि चीन की सरकारी मीडिया में प्रकाशित खबरों में चीनी विशेषज्ञों ने भारत को अमेरिकी चाल में न फंसने की सलाह भी दी है. अगर भारत के पड़ोसी देशों के नजरिये से ओबामा की यात्रा को देखा जाए तो पाकिस्तान का मानना है कि इससे भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों पर जमे बर्फ पर शक-शुबहा की परत जमेगी. और ऐसा लगता है कि अमेरिका भारत के साथ अपने रिश्ते को मजबूत बनाने में पाकिस्तानी भावनाओं का ज्यादा ख्याल नहीं करेगा. पाकिस्तान की इस सोच को इस बात से भी बल मिलता है कि जब ओबामा भारत के दौरे पर थे तब पाकिस्तान और चीन के बीच उच्चस्तरीय बैठकें हो रही थी. इस पर भारतीय विदेश नीति के विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती नजदीकियों से भले ही पाकिस्तान पर भारत के साथ वार्ता का दबाव बने या फिर भारत के खिलाफ आंतकवाद को नियंत्रित करने तथा लखवी, दाऊद और हाफिज सईद पर नकेल कसने का दबाव बने लेकिन दोनों मुल्कों के बीच रिश्तों में तनातनी और बढ़ेगी. वहीं चीन के साथ भी रिश्ते ठंडे पड़े रहेंगे. लेकिन इन विश्लेषणें से इतर इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि भारत-अमेरिका के रिश्ते मजबूत होने की स्थिति में चीन भी भारत के साथ पींगे बढ़ायेगा क्योंकि चीन की नजर भारत के विशाल बाजार पर है. उसे एशिया में अन्यत्र कहीं ऐसा बड़ा बाजार नहीं मिलेगा जहां वह अपने दोयम दर्जे के उत्पादों की खपत कर सके. वहीं भारत की मौजूदा विदेश नीति चीन के साथ सावधानी बरतते हुए आर्थिक रिश्ते बढ़ाने पर जोर दे रहा है. ताकि भारत में निवेश बढ़े. साथ ही भारत पड़ोसी मुल्कों के साथ किसी भी तरह के टकराव से बचते हुए दुनिया में एक संयमित और मजबूत लोकतंत्र के रूप में अपनी छवि को पेश करना चाहता है ताकि वैश्विक निवेशकों को लिए भारत एक बेहतर निवेशस्थल बने. वहीं देशी राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका का साथ लेकर ‘सबका साथ, सबका विकास’ और ‘मेक इन इंडिया’ के जरिये विकास की नई इबारत लिख गैर भाजपाई दलों को जिनमें समाजवादी, समाजिक न्याय और साम्यवादी विचारधारा के समर्थकों को बदले वैश्विक सोच और माहौल में अपनी नीति को यथोचित साबित करना चाहते हैं. पारंपरिक रूप से इन विचारधाराओं का आरंभ से ही अमेरिका विरोध की नीति रही है. प्रधानमंत्री मोदी अपने विदेश नीति से न केवल वैश्विक फलक पर बल्कि देशी राजनीति में भी अपना सिक्का चलाना चाहते हैं और बीते आठ महीने के कार्यकाल में वे इसमें सफल होते दिख रहे हैं.

नमो इंडिया


जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने भारत के 66वें गणतंत्र दिवस के ठीक एक दिन बाद नई दिल्ली में ‘इंडिया एंड अमेरिका: द फ्यूचर वी कैन बिल्ड टुगेदर’ कार्यक्रम में दो हजार लोगों को संबोधित करते हुए कहा, ‘एक वक्त ऐसा था, जब अश्वेत होने के कारण मुझे भेदभाव झेलना पड़ा था, लेकिन आज एक चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री है और एक रसोइये का पोता राष्ट्रपति है, यह लोकतांत्रिक देशों की ही ताकत है.’ तो इस बात को पूरी दुनिया सुन रही थी. इसी संबोधन के क्रम में कहा कि अमेरिका और भारत विश्व के नेता सिर्फ इसी कारण से हैं कि यहां सबके लिए बगैर भेदभाव के समान अवसर है. ओबामा द्वारा भारत को विश्व नेता के रूप में पेश करना कूटनीतिक दृष्टि से पूरी दुनिया में बेहद महत्व रखता है कारण कि कूटनीति में प्रतीकों, भाव भंगिमा और संकेतों का बड़ा महत्व होता है. जब दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र के राष्ट्राध्यक्ष एक साथ हों और दुनिया का सबसे ताकतवर व्यक्ति किसी को विश्वनेता के रूप में पेश करता हो तो इसके कई मायने निकलते हैं, और नि:संदेह के दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र के राष्ट्र प्रमुखों की यह मुलाकात वैश्विक कुटनीति को एक नया आयाम देगा और दिशा भी. बीते आठ महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी विदेश नीति को लेकर कई तरह की जमी आशंकाओं के परत को साफ किया है और अमेरिका, रूस, चीन, जापान और आॅस्ट्रेलिया को भारत का लोहा मनवा कर यह साबित किया है कि उनकी विदेश नीति भारत को ऐसे फलक पर ला खड़ी करने में सक्षम है जहां दुनिया भारत की अनदेखी नहीं कर सकती और शायद ओमाबा ने इसी को देख कर अमेरिका के साथ भारत को भी विश्व नेता के रूप में सामने किया है. मोदी की विदेश नीति की ही खासियत है कि संतुलन बराबर दिखता है, चार महीने पहले अमेरिका यात्रा के ठीक पहले उन्होंने तमाम कयासों और अतीत के अनुभवों के बाद भी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का भी जोरदार स्वागत किया था. प्रधानमंत्री भारतीय हितों को ध्यान में रखते हुए दूसरे देशों के साथ रिश्तों की भूमिका तय करने के माहिर खिलाड़ी के रूप में उभरे हैं. उनके अनुसार अमेरिका से नजदीकी बढ़ाने का मतलब चीन के साथ रिश्तों पर बर्फ जमाना कत्तई नहीं है. वह अमेरिका के सामने चीन कार्ड और चीन के सामने अमेरिकी कार्ड रख कर फायदे उठाना चाहते हैं. हालांकि इसके फायदे और नुकसान दोनों है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि मोदी कैसे इन कार्डों को खेलने में सब्र और संतुलन कायम रखते हैं. सबसे महत्वपूर्ण है कि बीते आठ महीने के कार्यकाल में मोदी ने जिस तरह से दुनिया के सामने खुद को पेश किया है उससे भारत के प्रति विश्वास बढ़ा है. वह यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे हैं कि वह जो कह रहे हैं उसे पूरा करने में समर्थ्य है. अमेरिका के साथ परमाणु करार पर सहमति इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है.
जब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था सुस्त है, वैसे में भारतीय अर्थव्यवस्था गतिशील है. ऐसे में भारत के लिए दो चीजें सबसे अधिक महत्व रखती है और ये चीजें है निवेश और उच्च तकनीक. आज के माहौल में जहां अमेरिका एक घटती हुई अर्थव्यवस्था बनता जा रहा है ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत में संभावनाएं दिखती है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है. और वह भारत के साथ इन दोनों चीजों को साझा करने के प्रति उत्सुक है. अमेरिका में मंदी के बाद लगभग लड़खड़ा चुकी अर्थव्यस्था को पुन: पहले जैसी स्थिति में आने के प्रति अर्थशास्त्री लगभग आश्वस्त थे,लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो पाया, ऐसे में अमेरिका को एक स्थिर और शांत माहौल वाले लोकतांत्रिक साझेदार की जरुरत महसूस हो रही थी और इस साझेदारी की शर्तों को भारत पूरा करता हुआ दिखा. क्योंकि रूस ने जिस तरह अमेरिका विरोध की नीति अपनाया है उससे अमेरिकी साख को बट्टा लगा है, वहीं इराक और अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका पहले से ही हाथ जलाये बैठा है तो आईएस उसे लगातार चुनौती दे रहा है. एशिया में आर्थिक और सैन्य दृष्टि से चीन का कद भी लगातार बढ़ रहा है. ऐसे में अमेरिका को कमजोर पड़ने का भय भी सताने लगा है. इसी क्रम में भारत भी तेजी से विकास कर रहा है. और वैचारिक रूप से भारत अमेरिका के काफी करीब है, दोनों देश धर्म-संप्रदाय निरपेक्ष हैं और लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं. यहां गौर करने वाली बात है कि अमेरिकी राष्ट्रपतियों में से अधिकांश ने अपने दूसरे कार्यकाल में मजबूत फैसले लिये हैं. वे संविधान द्वारा प्रदत्त अपने विशेषाधिकारों का जमकर इस्तेमाल करते हैं. ओबामा भी अपने दूसरे कार्यकाल में हैं और अभी दो साल का समय उनके पास है और वे चाहते हैं कि इस दौरान कई महत्वपूर्ण फैसले लें. भारत के साथ परमाणु करार के बाद पैदा हुए गतिरोध को सुलझाने को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. छह साल पहले भारत-अमेरिका के बीच यह परमाणु करार हुआ था, लेकिन इन छह वर्षों में इसमें कोई प्रगती नहीं हुई. इसका कारण था कि भारतीय कानून अंतरराष्ट्रीय कानूनों के काफी प्रावधानों के खिलाफ हैं और यह संयंत्र स्थापित करने वालों के लिए लगभग असीमित जवाबदेही का प्रावधान करता है,इसलिए दुनिया के तमाम बड़े परमाणु संयंत्र स्थापित करने वाले संस्थान भारत आने से हिचकिचाते रहे हैं. अब जाकर यह गतिरोध खत्म हुआ है. और यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि जब यह परमाणु करार हुआ तो भारत में भाजपा और अमेरिका में डेमोक्रेट्स सबसे ज्यादा विरोध कर रहे थे. यह समझौता तात्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री मनैमोहन सिंह और अमेरिका के रिपब्लिकन राष्टÑपति जार्ज डब्ल्यू बुश के बीच हुआ था. लेकिन इस गतिरोध को भाजपा के कद्दावर नेता और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और डेमोक्रेट्स राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अपने व्यक्तिगत आग्रह से दूर किया. इसी तरह ओबामा ने मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ के प्रति भी आग्रह दिखाया और इसकी प्रशंसा की है. अगर कुल मिला कर देखे तो अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की यह भारत यात्रा न केवल सफल रहा बल्कि इसने भारत-अमेरिका में कई नई संभावनाओं का द्वार भी खोला है.

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

कामरेड, आपको याद हैं ईएमएस नंबूदरीपाद?


देश विरासतों के बदलने के दौर से गुजर रहा है। महात्मा गांधी और सरकार बल्लभ भाई पटेल घोषित तौर से कांग्रेस की विरासत थे। और स्वयं कांग्रेस को ही महात्मा गांधी के विरासत के तौर पर देखा जाता है। लेकिन बीते एक महीने में पूरे देश ने देखा है कि कैसे ये विरासती शख्यितें राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में परिवर्तित हुई है। अब अगला नंबर देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का है। केंद्र की भाजपा सरकार 14 नवंबर को राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान के तौर मनाने जा रही है। अब तक नेहरू की जयंती 14 नवंबर को बालदिवस के रूप में मनाया जाता रहा है। अगर देखें तो भाजपा नीत केंद्र की सरकार को नेपथ्य के पीछे से आरएसएस का समर्थन, मार्गदर्शन और निर्देश मिलता रहा है। और आरएसएस यह अच्छी तरह जानता है कि यह देश प्रतीकों के प्रति समर्पण वाला देश है और वह इसी दिशा में बढ़ रहा है। ठीक, ऐसी स्थिति में जब देश में दक्षिणपंथी राजनीति उभार पर है तो वहीं वामपंथ ढलान की तरफ है, जो स्वाभाविक है। इसके पीछे के कारणों की विवेचना का यह वक्त भी सही है। कभी देश की राजनीति को प्रभावित करने की माद्दा रखने वाली वामपंथी दल अब सिमटते जा रहे हैं और वह भी लगातार। जो भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने प्रतीकों को व्यापकता देने के साथ ही दूसरे के पाले की विरासतों को भी राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में सामने लाने में लगी है, वहीं वामपंथी पार्टियों ने अपने प्रतीकों को ही हाशिये पर डाल रखा है। संभवत: अब किसी को ठीक से याद भी नहीं होगा कि पहली लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार ईएमएस नंबूदरीपाद ने बनाई थी और वह देश के पहले गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री भी थे। इस वर्ष 8 जुलाई को ज्योति बसु जैसे दिग्गज वामपंथी नेता का सौवां जन्मदिन गुजर गया और किसी को ठीक से खबर तक न हुई! इंद्रजीत गुप्त और गीता मुखर्जी जैसे वामपंथी सांसद को भुला ही दिया गया है। क्या कम्युनिस्ट पार्टियों को अपने इन नेताओं को याद नहीं करना चाहिए और उनके योगदान को देश के सामने नहीं लाना चाहिए। देश की आजादी और लोकतंत्र के 68 साल हो गये हैं लेकिन वामपंथी पार्टियां अब तक अपने को भारतीय नहीं बना सकी है। वे भारतीय मानकों के अनुरूप खुद को नहीं ढाल सकी हैं। मार्क्स ने भले ही धर्म को अफीम बताया था, लेकिन भारत में धर्म जीवनशैली का हिस्सा है। धर्म का शिक्षा और ज्ञान से कुछ लेना देना नहीं है। अंध भक्ति, अंधविश्वास, कट्टरता, धर्मांधता आदि से अलग एक उदारवादी भारतीय चेहरा भी है, जो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरिजाघर और सूफी संतों की मजारों में जाता है, व्रत रखता है और सोच में प्रगतिशील है। वह उत्सवधर्मी भी है, जिसकी झलक पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा के समय दिखाई देती रही है, जहां तीन दशक तक माकपा की सरकार रही। ऐसे समय जब धर्म को लेकर संकुचित तरीके से माहौल बनाया जा रहा है, वामपंथी पार्टियां चुप बैठी हैं। उन्हें धर्म को लेकर असमंजस से निकलना पड़ेगा। इस देश को उस धर्म की जरूरत है, जिसकी पैरवी एक अन्य नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) ने सौ साल पहले की थी। वामपंथी दलों को कांग्रेस के साथ अपने रिश्ते को लेकर स्पष्ट होना चाहिए। वे कांग्रेस के साथ रहेंगी, या उसे समर्थन देंगी या उससे अलग चलेंगी? कांग्रेस के साथ अब तक उनकी राजनीति सुविधा की राजनीति थी, लेकिन बदली परिस्थितियों में उन्हें अपना नजरिया बदलना होगा। इसी तरह उन्हें मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, मायावती और अन्नाद्रमुक तथा द्रमुक को लेकर अपना नजरिया स्पष्ट करना चाहिए। मायावती और जयललिता पर लगाए गए उनके दांव सिरे ही नहीं चढ़ सके थे, इसलिए उन्हें संभावित सहयोगियों को लेकर स्पष्ट होना चाहिए।

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

त्रिलोकपुरी: कराहती है मेरी रूह


मुझे स्लम बस्ती कहते हैं लोग। मुझे तनिक भी एतराज नहीं। बल्कि गर्व होता है। अगल-बगल मयूर विहार फेज 1 और फेज 2 है। पॉश कालोनी है। लेकिन जितने लोग मेरे यहां रहते हैं, उसकी एक चौथाई भी वहां नहीं। मैं हाड़-मांस की तो नहीं लेकिन आत्मा मेरी भी है, जो खिलखिलाती है, जज्बाती होती है, खुश होती है- दुख का एहसास भी करती है, कराहती भी है। तीन दशक बाद फिर मैं लहुलुहान हुई। हालांकि मेरे यहां रहने वाले गरीब तो हैं, उनकी जेबे खाली जरूर रहती हैं लेकिन मन में एक दूसरे के प्रति सम्मान और श्रद्धा दोनों ही भरपुर होती है, लेकिन कभी-कभी कुछ बहकावे में आकर बहक जाते हैं और फिर मुझे छलनी कर देते हैं। आप मुझे तो पहचानते ही होंगे। दिवाली के बाद से मैं काफी सुर्खियों में हूं। मैं त्रिलोकपुरी हूं। मेरी गलियां कुछ शरारती तत्वों के फेंके पत्थरों से भरी पड़ी है, मेरी काया पर इसके निशान आपको मिल जाएंगे। इन्हें नियंत्रित करने के लिए पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों ने कई बार फ्लैग -मार्च किया। उनकी बूटों की आवाजें पूरे इलाके में गूंजी तो उसके निशान भी इन पत्थरों के घावों के निशान के साथ जज्ब हो गये। पहले निषेधाज्ञा से जकड़ने की कोशिश की गई फिर कर्फ्यू। लेकिन ये सभी जो आज टेलीविजन चैनलों पर यहां शांति की बातें करते हैं, वे इस संक्रमण काल में कहां थे? किसी ने मेरी खैर नहीं ली। आम जुमलों में लोग फिल्मी संवाद की नकल कर कहते हैं कि- ‘ठाकुर ने हिजड़ों की फौज बनाई है।’ लेकिन मुझे मेरे किन्नर संतानों पर गर्व है। जब बलवाई तलवार-गड़ासे-बंदूक और पत्थरों को लेकर आगे बढ़ रहे थे, तो सभी जान बचाने के लिए इधर -उधर हो गये, लेकिन किन्नर लैला शॉ इन बलवाइयों के सामने डट गई, तो बड़ा खतरा टल गया। इसी तरह 1984 में आज के दिन ही जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी, छठ का पर्व था। मेरी हिंदू संताने घाटों पर उगते सूर्य को अर्घ्य दे कर लौटी थी और अपने मुस्लिम भाइयों के साथ प्रसाद बांट रहे थे। तभी अचानक से एक हरकारा मचा- सिखों ने इंदिरा को मार दिया। फिर क्या था? सभी हिंदू-और मुस्लिम अपने ही सिख भाइयों के जान के दुश्मन बन बैठे। मैं इन्हें अपने आगोश में ले छिपा लेना चाहती थी, लेकिन उसके पहले कई सिख बच्चे जान गंवा बैठे थे। आतताइयों ने कई को मौत के घात उतार दिये थे। उस समय भी गलियां पत्थरों से पट गई थी। पुलिस वाले की बूटे उस समय भी मुझे खूब रौंदी। उस घटना को याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मैं आज फिर उसी दौर में आ गई। पीढ़ियां बदल गई- लेकिन हालात जस के तस।। कर्फ्यू में ढील दी गई। छठ मनाने के लिए- मैने देखा, किसी की कही नहीं सुन रही- अपनी आंखों से देखा कैसे मुस्लिम परिवार छठ घाट पर अपने पड़ोसी हिंदूओं के साथ मौजूद थे। हां, थोड़े सहमे से थे लेकिन हिंदूओं से नहीं बल्कि बलवाइयों। ये बलवाई न हिंदू होते हैं, ना मुस्लिम। ये तो बस बलवाई है- जो बहकते है-नेताओं के बहकावे से। अभी दिल्ली में चुनाव होने की संभावना है। सभी अपनी जुगत बैठा रहे हैं- भले ही किसी की जान जाए- किसी की रुह फना होती है तो हो... अब थोड़ा सकून है तो नेता इस काली घटना के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार बता रहे हैं। लेकिन मुझे जो घाव मिले हैं, उसका क्या? इन घावों को देने वाले क्या सजा के हकदार नहीं, अगर है तो कब होगा मेरे साथ न्याय?

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

उत्स स्वतंत्रता का या उन्मुक्तता का?


22 अगस्त, 2014 की आधी रात को एक राष्ट्रीय खबरियां चैनल पर फिल्म अभिनेता धर्मेंद्र का इंटव्यू आ रहा था. वैसे इस 22 अगस्त 2014 और 14-15 अगस्त 1947 की दरम्यानी रात के बीच कोई संबंध ना होते हुए भी धर्मेंद्र के चेहरे पर रह – रह कर उभरती पीड़ा एक अनजाने संबंध की लकीर खींच रही थी. जब उनसे पूछा गया कि आप ने विभाजन भी देखा है और उस दौर के कत्लेआम भी देखी है, पंजाब सबसे ज्यादा पीड़ित था, उन दिनों को कैसे याद करते हैं? धर्मेंद्र के शब्द नहीं उनके चेहरे पर उभरी पीड़ा दर्शकों को इसका जवाब दे रही थी. सच, इसका जवाब शायद शब्द में नहीं व्यक्त किये जा सकते थे. इसी तरह जब उन्होंने बताया कि ब्रितानी हुकुमत में उनके पिता स्कूल मास्टर थे और उनकी मां उन्हें खादी पहना कर हाथ में तिरंगा ले कर स्कूल भेजती थी, तो पिता उनकी मां से कहते कि एक दिन तुम मेरी नौकरी ले लोगी, तब उनकी मां कहती कि आपकी नौकरी जाये तो जाये लेकिन मैं तो इसे इसी तरह स्कूल भेजूंगी. यह बात कहते हुए धर्मेंद्र के चहरे पर जो गर्व था वह गर्व भी शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता. और वहीं धर्मेंद्र जब 2004 में संसद पहुंचते हैं तो तमाम पीड़ाओं के बाद संसद में सवाल उठाने के लिए वह अनुकूल माहौल नहीं पाते और खुद को राजनीति से दूर कर लेते हैं. धर्मेंद्र ने रुपहले पर्दे पर भले ही कई किरदार निभाया हो लेकिन उन सभी किरदारों पर उनका निजी जीवन का किरदार भारी पड़ा और जीया, भोगा, खोया, पाया जीवन स्तब्ध सा रहने को मजबूर दिखा, शायद सच्चे भारतीय का किरदार ऐसा ही हो गया है. समय कतरा-कतरा बीता है, बदला है. आजादी के मायने भी बदले हैं. आम भारतीयों कि निःशब्द आवाज को सुनने में शायद यह संसद अब अपनी सक्षमता खोने लगी है, व्याप्त अराजक राजनीति के उद्घोष के बीच, तभी तो संसद सवालों के घेर में आ रही है, न्यायपालिका पर भी उंगली उठने लगी है. महज 67 साल की आजादी के बाद ही वह सवाल गौण हो चले हैं जो सालों साल तक किसी देश को जिन्दा रखने के लिये काम करते हैं. पहले स्वतंत्रा दिवस पर जब देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने लालकिले के प्राचीर से अपने पहले भाषण में नागरिक का फर्ज सूबा, प्रांत, प्रदेश, भाषा, संप्रदाय, जाति से ऊपर मुल्क रखने की सलाह दी. और जनता को चेताया कि डर से बडा गुनाह कुछ भी नहीं है. वहीं 15 अगस्त 1947 को कोलकत्ता के बेलियाघाट में अंधेरे कमरे में बैठे महात्मा गांधी ने गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को यह कहकर लौटा दिया कि अंधेरे को रोशनी से दूर कर आजादी के जश्न का वक्त अभी नहीं आया है. ठीक 67 साल बाद जब देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी भी लालकिले के प्राचीर से देश को संबोधित करते हैं तो वह भी देश को वहीं सलाह देते है, लेकिन 2014 में कही कोई गांधी नहीं है जो यह कह सके कि जश्न का वक्त अभी नहीं आया है. लेकिन जश्न है- लेकिन कैसा? इन 67 सालों में देश को सामाजिक सांस्कृतिक तौर पर ना सजाया गया, ना संवारा जा सका और ना ही इसे पूर्ण रूप से स्वावलंबी बनाया जा सका, धीरे-धीरे बाजार देश और देशभक्ति पर तारी होता गया. ना 1947 में कांग्रेस के पास देश के लिए स्पष्ट राजनीतिक सोच थी और ना 2013 के कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर कोई राजनीतिक विचार से देश अवगत हो पाया, तो क्या 66 सालों तक यह देश बगैर किसी राजनीतिक दिशा के चलता रहा? यह सोच का विषय है. शायद इसी का नतीजा था कि स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लालकिला के प्राचीर से देश को संबोधित करने वाले प्रधानमंत्रियों पर देश नजरें टिकाये रखता था कि किसी खास राजनीतिक सोच के तहत घोषणाएं होगी, होती भी रही, कितनी घोषणाएं हकीकत में बदली यह अलग बात है, लेकिन इन घोषणाओं के नशे में हम भारतीय घुत्त होने के आदी हो गये, यह जानते हुए कि शायद इसका दसांश भी पूरा हो. नरेंद्र मोदी से भी देश को ऐसी ही अपेक्षाएं थी, फिर नशे की एक और डोज की. मोदी ने अपेक्षाओं को पूरा भी किया लेकिन इस नशे का फ्लेवर कुछ दूसरा था, घोषणाएं कम लेकिन देश का स्वच्छ – सांस्कारिक बनाने का नशा. लेकिन यह संतोषजनक तो है इस नशे से लाभ ना हो तो ना हो लेकिन हानि की गुंजाइश नहीं है. हर राजनीतिक विचारधारा राजनीतिक सत्ता के लिए जद्दोजहद करती है और इससे निकले संदेश उसे अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करती है लेकिन पहली बार ऐसा हुआ है जब कोई प्रधानमंत्री सीधे-सीधे नैतिक जिम्मेवारियों का विकेंद्रिकरण कर रहा है. अब तक ये जिम्मेवारियां सत्ता प्रतिष्ठान तक खींच कर केंद्रित कर दी गई थी. भले ही विरोधियों को सत्तारुढ़ दल पर निशाना साधने का अस्त्र मिल गया हो लेकिन देश को एक कर्णप्रिय भाषण और उनींदी सपनों का सच के करीब होने का आभाष लगने लगा है, यह आभाष और आशा ही तो जीवन की डोर है. आइये एक फिर उम्मीद बांधते हैं, स्वावलंबी होने का, आजादी के सही उत्स को मनाने का, समाज-संस्कृति को बचाये रखने का, आगे बढ़ने और बेहतर भविष्य का, नई पीढ़ी के उन्मुक्त उड़ान का. हो सकता है इसमें त्रुटियां हो और हम फिर संभले. महात्मा गांधी की वह बात याद आ जाती है जब वह कहते हैं कि - ‘यदि ग़लती करने की आज़ादी नहीं है - तो मुझे ऐसी आज़ादी चाहिए ही नहीं.’ हमें बल देता है.