सात दशक बीत गये। 18 अगस्त 1945 को द्वितीय विश्वयुद्ध के धुंधलके के बीच जब यह खबर आई कि इंडियन नेशनल आर्मी के ओजस्वी नेता सुभाषचंद्र बोस को ले जा रहा विमान ताइपेई में दुर्घटनाग्रस्त हो गया है तो न केवल परतंत्र हिंदुस्तान में बल्कि दुनिया भर में नेताजी के संबंध में जानने की एक बेचैन जिज्ञासा उत्पन्न हुई लेकिन उस दुर्घटना के बाद के कथानक केवल दो शब्दों - ‘मृत’ और ‘लापता’ के बीच उलझ कर रह गये। अब भी यह रहस्य, रहस्य ही है। नेताजी मौत के रहस्य को सुलझाने के लिए तीन समितियां बनीं, सबने अपनी-अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंपी लेकिन रहस्य से पर्दा नहीं उठा। मामला फिर गरमाया कि नेताजी के परिवार वालों की 1948 से लेकर 1968 तक गुप्त ढंग से निगरानी की गई थी। ऐसी क्या बात रही कि स्वतंत्र हिंदुस्तान को भी अपने नेता के परिजनों की जासूसी करनी पड़ी। इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए हमें नेपथ्य में अर्थात वर्ष 1945 में जाना होगा और जानना होगा कि उस समय की सत्ता क्या थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के आत्मसमर्पण करने के बस तीन दिन बाद ही यह दुर्घटना घटी थी। जब संयुक्त राष्ट्र (जो अमेरिका, सोवियत संघ और ब्रिटेन के नेतृत्व वाले मित्र राष्ट्रों का एक औपचारिक गुट भर था) द्वारा जर्मनी, जापान और इटली के नेतृत्व वाले धुरी राष्ट्रों पर विजय की घोषणा की जा सकती थी। ब्रिटिश राज के अंतर्गत आने वाला भारत भी एक सहयोगी था, हालांकि गांधी जी ने युद्ध से कांग्रेस का समर्थन इस आधार पर वापस ले लिया था कि इसमें भारतीयों की राय नहीं ली गयी थी। लेकिन ब्रिटिश राज, जो भारत का वैधानिक शासन था, उसने भारतीय सेना और रजवाड़ों के रक्षा बलों को युद्ध में शामिल कर लिया था। भारतीय सेना अफ्रीका में जर्मनों के विरुद्ध और दक्षिण-पूर्व एशिया में जापान के विरुद्ध लड़ी थी। औपचारिक विरोध के बावजूद कांग्रेस ने सैन्य बलों में विद्रोह भड़का कर ब्रिटेन के प्रयासों को अवरुद्ध करने की कोई कोशिश नहीं की। जिस व्यक्ति ने ऐसा किया, वे सुभाषचंद्र बोस ही थे, जिन्होंने 1939 में गांधी और कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया था।
जब द्वितीय विश्व युद्ध लगभग खत्म होने के कगार पर था तब अंग्रेज भारत छोड़ने के लिए तैयार हो रहे थे, पर वे जिस भारत को छोड़ कर जा रहे थे, उसके लिए उनकी कुछ योजनाएं भी थीं। इस परिस्थिति में विभिन्न राजनीतिक शक्तियों के एक दिलचस्प गठजोड़ का एक उद्देश्य समान था- सुभाषचंद्र बोस की अनुपस्थिति। ब्रिटिश शासन का बोस से पूरी तरह वैमनस्य था। अंग्रेज कांग्रेस को वश में कर सकते थे, किंतु बोस को नहीं। मुस्लिम लीग को बोस स्वीकार्य नहीं हो सकते थे, क्योंकि जिस अनुकरणीय स्वरूप में उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी में हिंदू-मुस्लिम-सिख एकता की स्थापना की थी, वह उस भारत का खाका था, जो वह बनाना चाहते थे। दक्षिण-पूर्व एशिया से प्रसारित अपने रेडियो संबोधनों में बोस ने जिन्ना और पाकिस्तान की संभावना की कठोरता से आलोचना की थी। अगर बोस भारत में उपस्थित होते, तो वे विभाजन के जोशीले विरोधी होते। कांग्रेस स्वाभाविक कारणों से बोस को पसंद नहीं करती थी। क्यों कि वे उस सत्ता के दावेदार होते, जिसकी आकांक्षा पार्टी और उसके नेता जवाहरलाल नेहरू को अपने लिए थी। यदि पंडित नेहरू इस बात को लेकर निश्चिंत थे कि बोस की मृत्यु हो चुकी है, तो फिर बोस के परिवार पर उन्होंने निगरानी करना क्यों जारी रखा था? जैसा कि दस्तावेजों से जाहिर होता है, 1957 में जापान की यात्रा के दौरान नेहरू परेशान क्यों हो गये थे? ये प्रश्न अभी उत्तर की प्रतीक्षा में हैं।
बहरहाल, अभी तक गोपनीय रखी गई फाइलों के सार्वजनिक होने से पहले हम कुछ भी भरोसे के साथ कहने की स्थिति में नहीं है। इस संबंध में राजनीतिक समीकरण बहुत सरल है। सुभाषचंद्र बोस उम्र के हिसाब से जवाहरलाल नेहरू से आठ वर्ष छोटे थे। उनके पास समय था। बोस या उनकी पार्टी 1952 तक बंगाल और उड़ीसा में चुनाव जीत सकते थे। राष्ट्रीय स्तर पर बोस विपक्षी पार्टियों के गंठबंधन की धुरी बन सकते थे। यह गंठबंधन 1957 में कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकता था और 1962 के आम चुनाव में पराजित कर सकता था लेकिन यह बात निर्विवाद तौर पर कही जा सकती है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास की कहानी तब बिल्कुल अलग होती। वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर ने 1988 में एक किताब लिखी थी ‘नेहरू : द मेकिंग ऑफ इंडिया’ इसमें उन्होंने नेहरू के शुक्लपक्ष को बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत किया था लेकिन हाल ही में उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी अब भी ऐसी 87 फाइलें हैं, जिनका भारत सरकार खुलासा नहीं करेगी। उन्होंने सवाल उठाया कि ऐसा क्यों है? वे यह भी जानना चाहते हैं कि क्या नेहरू ने जान-बूझकर इन्हें इसलिए छुपाया ताकि लोग उन पर स्टालिन की एक जेल में नेताजी के कथित रूप से कैद होने संबंधी बातों पर पर्दा डालने का आरोप ना लगाएं? इस तरह मानो उन्होंने यह जताने की कोशिश की कि नेहरू और स्टालिन साजिशकर्ता थे। यह सही है कि गांधी और नेहरू दोनों ही सुभाषचंद्र बोस को पसंद नहीं करते थे। लेकिन नेताजी को लेकर जो रहस्य बरकरार है, उस पर से पर्दा उठाने को लेकर सभी सरकारें, लगभग कन्नी काटती रही हैं। केंद्र में सर्वाधिक समय तक कांग्रेस की ही सरकारें रही है। तो क्या इन रहस्यों से पर्दा उठने पर वर्तमान में खस्ताहाल कांग्रेस और पस्त नहीं हो जाएगी? कांग्रेस के पित पुरुष नेहरू की आभा घूमिल नहीं हो जाएगी? खैर, यह तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस से संबंधित देश की अंदरुनी स्थितियों का आकलन है लेकिन उन पर नजर रखने के लिए जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने भी स्वयं एक महिला गुप्तचर की नियुक्ति करायी थी। हालांकि हिटलर - नेताजी के संबंध की घनिष्ठता जगजाहिर है। यह महिला एमिली शैंकी थी।
नेताजी और एमिली शैंकी की इकलौती संतान अनिता बोस हैं, जिनका जन्म 29 नवंबर, 1942 को वियना में हुआ था। अनिता बोस छह फरवरी, 2013 को नई दिल्ली आई थीं। नेताजी की जीवनी पर आधारित पुस्तक ‘फ्रीडम स्ट्रगल ऑफ इंडिया’ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भेंट की थी। तब भी अनिता बोस ने या उनके पति मार्टिन फाफ, उनके तीनों बच्चे पीटर अरुण, थॉमस कृष्णा और माया करीना ने जासूसी की शिकायत नहीं की। अनिता बोस को मोदी सरकार से भी बोस परिवार की कथित जासूसी को लेकर कोई शिकायत नहीं है। न ही अनिता बोस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बर्लिन में मिलने में कोई दिलचस्पी दिखाई। ऐसे में, आशंका यह भी उठती है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि नेताजी को लेकर बोस परिवार के भीतर ही राजनीति हो रही हो? सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई शरत चंद्र बोस के पोते सूर्य कुमार बोस की प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात कराने में बर्लिन स्थित भारतीय दूतावास की इतनी दिलचस्पी क्यों रही? इस सवाल का उत्तर शायद समय आने पर मिले। नेताजी के भतीजे अमिय नाथ बोस के बेटे सूर्य कुमार बोस जर्मनी के हैम्बर्ग शहर में आईटी प्रोफेशनल हैं और वहां 1972 से रह रहे हैं। सूर्य कुमार बोस हैम्बर्ग में इंडो-जर्मन एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। सूर्य कुमार बोस के अनुसार, ‘यह सिलसिला 1978 में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद रुक गया।’ गौर करने वाली बात यह है कि इन्हीं सूर्य कुमार बोस के दूसरे भाई चंद्र कुमार बोस 09 अप्रैल, 2014 को गांधी नगर जाकर तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले, और उन्हें परिवार के 24 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित पत्र दिया और कहा कि नेताजी की मौत पर साल 2006 में जस्टिस मुखर्जी कमीशन की रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए, जिसमें कहा गया था कि उनकी मृत्यु हवाई दुर्घटना में नहीं हुई थी। इससे पहले 1955 में शाह नवाज कमेटी, और 1970 में खोसला आयोग की रिपोर्टों पर चंद्र कुमार बोस को भरोसा नहीं था, जिनमें माना गया था कि नेताजी की मौत हवाई दुर्घटना में हुई थी। सवाल यह है कि नेताजी के बड़े भाई शरतचंद्र बोस की चौथी पीढ़ी को क्यों लगा कि इस मामले में किसी राज्य का मुख्यमंत्री कुछ कर सकता है? लेकिन बात सिक्के के दूसरे पहलू पर भी होनी चाहिए। अनिता बोस ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया था कि नेताजी वियना इलाज के सिलसिले में गए थे, वहां उन्हें अपनी पुस्तक ‘द इंडियन स्ट्रगल’ लिखने के लिए एक सहयोगी की जरूरत थी, और उसी क्रम में एमिली शैंकी से उनकी मुलाकात कराई गई थी। 29 अप्रैल, 1941 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रिबेनट्राप से वियना के होटल इंपीरियल में मुलाकात होती है, और इसके प्रकारांतर एमिली शैंकी, नेताजी के एक खास दोस्त ओटो फाल्टिस के साथ वियना से बर्लिन आती हैं। मिहिर बोस की पुस्तक ‘राज, सीक्रेट, रिवॉल्यूशन’ में इसकी चर्चा है कि एमिली शैंकी की सुभाष चंद्र बोस से मुलाकात संयोग नहीं था, उसे कुख्यात गुप्तचर संगठन ‘गेस्टापो’ ने नेताजी पर नजर रखने के लिए ‘प्लांट’ कराया था। नेताजी, अपनी ‘संगिनी’ एमिली के हिटलर के प्रति समर्पण को देखकर अक्सर तंज भी करते थे, ‘योर हिटलर!’ इस तथ्य का पता इतालवी विदेश मंत्री सिएनो की डायरी से चलता है। सुभाष चंद्र बोस, सिएनो से 06 और 29 जून 1941 को रोम में मिले थे। नेताजी को सिएनो ने कुछ समय के लिए नजरबंद भी कर लिया था। फ्रीडा क्रेत्शमार, एक और सचिव थी, जिसे जर्मन खुफिया संस्था ‘गेस्टापो’ ने नेताजी पर नजर रखने के लिए ‘माताहारी’ के रूप में नियुक्त कराया था। तो क्या अब, जब नेताजी के परिजनों और उनसे जुड़ी खुफिया जानकारियों को सार्वजनिक किया जाए या नहीं, इसपर फैसला करने के लिए केंद्र सरकार ने एक समिति गठित की है, तो उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि हाल ही में जर्मनी की यात्रा कर लौटे प्रधानमंत्री मोदी नेताजी से जुड़े तमाम तथ्यों, दस्तावेजों और तस्वीरों की मांग वह जर्मन चांसलर अंगेला मर्केल से करें। बगैर इसके नेताजी के संबंध में अगर कोई जानकारी सामने आती है तो वह अधकचरी ही होगी और सवाल जस के तस अर्थात शाश्वत बने रहेंगे।