मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

कब चेतेंगे सांसद, मंत्री!

हाल के कुछ वर्षों में सांसदों और मंत्रियों द्वारा पद का दुरुपयोग कर अवैध तरीके से भारी भरकम राशि के घोटालों के मामले प्रकाश में आते रहे हैं. बावजूद इसके कितनों को भारतीय दंड विधान की धाराओं के अंतर्गत सजा हो पाई, यह जगजाहिर है. घोटालों के आरोपी सांसद, मंत्री या राजनेता तथाकथित तौर पर अतिगणमान्य व्यक्ति का दर्जा बरकरार रखे हुए हैं और उनकी सुरक्षा व सुविधा के नाम पर 121 करोड़ भारतीयों की गाढ़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा खर्च किया जाता रहा है. इसके बाद भी हैरानी होती है कि क्यों भारतीय समाज का युवा वर्ग राजनीति में जाने का ख्वाहिशमंद नहीं है? अधिकांश राजनेता भ्रष्टाचार के पर्याय बन चुके हैं, तब भी यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि आखिर इस तरह के विचार उन लोगों के मन में भी क्यों आते हैं जो स्वयं आलसी हैं और जिनका मोहभंग हो चुका है या फिर वे भी किसी न किसी रूप में अनैतिक कार्यों में लिप्त हैं. यह क्या कोई कम हास्यासपद है कि हमारे सांसदों को अनाधिकृत विलासिता और तमाम सुख-सुविधाएं बिल्कुल मुफ्त मिलती है! इससे भी बढ़कर यह कि कोई परिभाषित जॉब प्रोफाइल या विवरण नहीं, उम्र और शिक्षा की कोई तय सीमा नहीं, कोई जवाबदेही नहीं, कोई अनुशासन नहीं, कोई रिर्पोटिंग नहीं, जानकारी भी जरूरी नहीं! और इन्हें इन सबके लिए ही पैसे मिलते हैं. संघीय सरकार के अधीन काम करने वाले कर्मचारियों के कार्य के विपरीत सांसदों द्वारा किए जाने वाले काम के लिए न तो किसी विशेषज्ञता की जरूरत होती है और न ही किसी शैक्षिक योग्यता की, फिर भी विडंबना यह कि इसके बाद भी लोग राजनीति की तुलना में दूसरी नौकरियों को वरीयता देते हैं. यह नहीं भूलना चाहिए कि दूसरी नौकरियों में वापस बुलाए जाने, हटाए जाने, मनमाने स्थानांतरण, रिपोर्टिंग, वेतनवृद्धि में ठहराव के साथ-साथ सालाना गोपनीय रिपोर्ट (एसीआर) का खतरा रहता है. दूसरे कर्मचारियों के विपरीत सांसद अपने दफ्तर (संसद) में जो कुछ करते हैं, उसके लिए उन्हें पूरी आजादी होती है, यहां तक कि उसे अदालतों में भी चुनौती नहीं दी जा सकती है! इससे भी बड़ी बात यह कि उनके लिए काम के घंटों के लिए कोई नियम नहीं है, संसदीय चर्चा या बहस में भागीदारी की अनिवार्यता नहीं है, उपस्थिति भी जरूरी नहीं है, यहां तक कि उनकी उत्पादकता मापने की कोई निष्पक्ष व्यवस्था भी नहीं है. इस पर तुर्रा यह कि प्रचार या हटाने का कोई क्लॉज (धारा या उपबंध) नहीं है. इसीलिए सांसदों द्वारा किए जाने वाले काम को मापा नहीं जा सकता है, फिर भी उन्हें न केवल अच्छी तनख्वाह मिलती है, बल्कि उसमें बढ़ोतरी भी होती है, फिर भी कोई करियर के तौर पर राजनीति को नहीं चुनता. यह अब गंभीर रूप से विचारणीय है. मानव सभ्यता की शुरूआत के समय से ही, जो लोक समाज की सेवा और समाज को बदलना चाहते थे, वे ही ऐसा करियर चुनते थे. उनका यह उद्देश्य नहीं होता था कि अपना आर्थिक स्तर ऊंचा करना है. लेकिन अब तो यह बस कहने की बात हो कर रह गई है. आज राजनीति में जाने की राह में सबसे बड़ी बाधा उसमें निवेश होने वाली भारी भरकम राशि है. यह हमारी राजनीतिक व्यवस्था की नंगी सच्चाई है. 15वीं लोकसभा के लिए चुने गए 543 सांसदों की कुल संपत्ति 3,000 करोड़ से भी अधिक है! इसका मतलब है कि एक सांसद की औसत संपत्ति पांच करोड़ रुपये से अधिक है. फिर वहीं लौटते हैं. मुझे हैरानी होती है कि उन्हें क्यों भुगतान किया जाना चाहिए, क्योंकि तनख्वाह के नाम पर उन्हें जो छोटी-सी रकम मिलती है, उससे उन्हें क्या फर्क पड़ने वाला है. और सबसे बुरा यह कि हमारे सांसद औसतन राष्ट्रीय निर्धनता स्तर से नौ गुना ज्यादा पाते हैं. बीते साल हम यह भी देख चुके हैं कि सांसदों के वेतन भत्ते में बढ़ोत्तरी के मुद्दे पर किस तरह सभी सांसद दलगत भावनाओं से उपर उठ कर इस विधेयक को पारित किया. यह भी भारतीयों को कम शर्मिंदा नहीं करता कि उसके रहनुमा, इस मुद्दे पर वाजिब बहस किए बगैर ही इसे संसद में पास करवा लिए. अमेरिका में, सांसदों को अपनी तनख्वाह के बाद बाहर से 15 फीसदी से ज्यादा कमाई करने की इजाजत नहीं है, जबकि भारत में सांसदों की औसत संपत्ति पिछले कार्यकाल के मुकाबले 300 गुना तक बढ़ गई. जर्मनी में सांसदों को अपनी स्वतत्रंता सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त पारिश्रमिक मिलता है, जबकि स्विट्जरलैंड में सांसदों को कोई वेतन नहीं मिलता, उन्हें संसद सत्र के दौरान अपने नियोक्ताओं से सिर्फ पेड लीव मिलती है. मैक्सिको में सांसद न तो कोई और काम कर सकते हैं और न ही किसी राजनीतिक दल के पदाधिकारी हो सकते हैं. ऐसे में हमारे महान सांसद स्वयं विचार करें कि वे स्वयं को कहां पाते हैं.

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